Author Topic: गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" और उनकी कविताये: GIRDA & HIS POEMS  (Read 74708 times)

हेम पन्त

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Massage from Chandan Dangi ji,

Dear all,
 
You are doing excellent promotion of Uttarakhand through untiring manner. I know, you have grately been motivated by GIRDA and his works. I had sent in a mail to KG Group, which you may kindly take up at your end through the ever increasing network of the lovers of PAHAD and Uttarakhand.
 
All the best and thank you - Narai
 
This week friends of Girda and friends of Uttarakhand with people of Uttarakhand remembered Girda at many places. Cultural marches, plays, poetry recitation, skits, coruses, booklets, posters and open marches, photo exhibitions, film shows, kavi gosthees and vichar Gosthees were organised. At Nainital, Almora, Pauri, Dehradun, Uttarkashi, Rudra Prayag, Pithoragarh, Gopeswar, Bageswar, Lucknow, Delhi etc Girda was remembered through different creative ways. The Mumbai friends are organising the meeting soon. Others can think of ways to remember GIRDA on his first anniversary and even in coming times.
 
PAHAR is planning to bring out all the creative works of Girda. These will be:
 
1. Collection of Hindia Poems
2. Collection of Kumauni Poems
3. Collection of Plays
4. Collection of Articles
5. Hamari Kavita ke Ankhar
6. Aaj Ka Pahar
7. A DVD of Girda Visible and Girda Audible
 
We need all kind of support from you all and other friends.
 
First of all, send Girda related photos with the captions, date and name of the friend who took the photo.
 
Kindly send your feedback to Dr. Shekhar Pathak pahar.org@gmail.com and copy to cdangi@gmail.com
 
Girda lives in us and he will live through his selfless work always,
 
GIRDA TUJHE SALAAM


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Exclusive Interview of famous Late Poet Girda taken by Hema Uniyal
« Reply #61 on: August 28, 2011, 10:04:16 AM »

Dosto.

Please watch the video of Exclusive Video of Girda Interview taken by renowned Writer Hema Uniyal.

www.merapahadforum.com Famous Poet Girda Interview taken by Hema Uniyal

Devbhoomi,Uttarakhand

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बहुत शानदार इंटरब्यू वाह क्या बात है आज मैंने पहली बार गिरीदा की बातें सुनी मजा आगे मेहता जी बहुत बहुत धन्य्वा आपका और हेमा उनियाल जी का,गिरीदा की वो सुरीली आवाज आज भी उत्तराखंडियों के कानों में अपनी एक जगह बनाकर रहा गयी है उसे शायद कभी लोग भुला पाएंगे, गिरीदा आपका शरीर इस देवभूमि मेंनहीं है लेकिन आपकी कवितायेँ और वो गाने का अंदाज आज भी उत्तराखंडियों के दिलों राज कर रहा है और हमेशा रहेगा

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बागेश्वर की घटना पर
‘गोर्दा’ की कविता

बागेश्वर में 1921 को मकर संक्रान्ति के अवसर
पर कुली बेगार के विरोध पर को लेकर कुमाऊँ
के प्रसि( कवि गौर्दा की लिखी कविता-
“कानून म्हाती करि है विचार
पाप बगै हैछ गंगज्यू की धार
अब जन धरि आपणां रूबार
निकाली नै निकला दिलदार
बागेश्वर है नी ग्या भार
कार्तिक देखि रया कीतिकार
मिनटों में बन्द करो छ उतार
हाकिम रै गया हाथ पसार
चेति गया तब त जिलेदार
बद्री दत्त जैसा हुन च्याल चार
तबै हुआ छन मुल्क सुधर
कारण देश का छोड़ि रूजगार”

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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This was the news of Girda's demise published in Dainik Jagran Nainital.


  जनकवि गिर्दा पंचतत्व में विलीन            जागरण कार्यालय, नैनीताल। प्रसिद्ध जनकवि एवं रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा सोमवार को पंचतत्व में विलीन हो गए। उनकी शवयात्रा में जनसैलाब उमड पडा। सैकडों लोगों ने गिर्दा के लिखे जनगीतों के साथ शवयात्रा निकाली। समीपवर्ती पाइंस श्मशान घाट पर उनके पुत्र प्रेम व तुहिनांशु तिवारी ने चिता को मुखागिन् दी।
 जनकवि गिर्दा के कैलाखान स्थित आवास पर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए सुबह से ही विभिन्न राजनैतिक संगठनों से जुडे लोगों, रंगकर्मियों, पत्रकारों, साहित्यकारों, शिक्षकों, व्यापारियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों समेत विभिन्न जन संगठनों से जुडे लोगों का जुटने का सिलसिला शुरू हो गया था। प्रात: दस बजे कैलाखान से उनकी शवयात्रा शुरू हुई। इस दौरान माहौल काफी गमगीन हो उठा। वहां मौजूद सभी लोगों की आंखें नम हो गई।
 गिर्दा की शवयात्रा जनगीतों के साथ शुरू हुई। शवयात्रा में शामिल जन आंदोलनों से जुडे लोग गिर्दा द्वारा रचित गीतों को स्वर दे रहे थे। यह सिलसिला पाइंस श्मशान घाट तक अनवरत चलता रहा। श्मशान घाट में मुख्यमंत्री की ओर से विधायक खडक सिंह बोहरा, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्या तथा जिलाधिकारी शैलेश बगौली ने गिर्दा के पार्थिव शरीर पर पुष्प चक्र अर्पित किए। पुलिस प्रशासन की ओर से आरआई प्रेम सिंह राणा ने पुष्पांजलि अर्पित की। श्मशान घाट पर गिर्दा के पुत्रों प्रेम व तुहिनांशु तिवारी ने उनकी चिता को मुखागिन् दी। इस दौरान विभिन्न जनांदोलनों से जुडे गिर्दा के साथियों ने उन्हें नम आंखों से अंतिम विदाई दी।
 
 परंपरा को तोड महिलाओं ने भी दिया अर्थी को कंधा
 चंद्रेक बिष्ट, नैनीताल। शवयात्रा गिर्दा की थी, तो परंपराएं टूटनी ही थी। महानायक की तरह रंगकर्मी व जनकवि को हर किसी ने अलविदा बबा कहा। हर आंख में आंसू.. हर हाथ अर्थी छूने को आतुर थे। महिलाओं ने परंपराएं तोड कर न केवल उनकी अर्थी को कंधा दिया बल्कि घाट पहुंच कर उन्हें अंतिम विदाई भी दी। जनगीतों के साथ निकली उनकी अंतिम यात्रा में हर कोई एक-दूसरे के कंधे पर सिर रख जार-जार रो रहा था।
 यह गिरीश तिवारी गिर्दा का मानव चुंबकीय प्रभाव था, वह हमेशा लोगों को कुमाऊंनी शब्द बबा कह कर पुकारते थे। सोमवार को उनकी शव यात्रा में प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार, रंगकर्मी, साहित्यकार, राजनेता, छात्र, न्यायाधीश, विभिन्न संगठनों के लोग, शिक्षक, महिलाएं, मजदूर तबका और सभी धर्मो के लोग शामिल थे। इससे झलक रहा था कि गिर्दा वह हस्ती थे जो कभी मिटेंगे नहीं। लग रहा था मानो उनकी शव यात्रा में नैनीताल ही नहीं, पूरा उत्तराखंड शामिल है। दिल्ली व लखनऊ से आए लोग भी शामिल थे।
 इस विराट व्यक्तित्व की अर्थी को हर हाथ छू लेना चाहता था। इस दौरान जो भी मार्ग में मिला वह यात्रा में शामिल हो गया और काफिला बढता गया। गिर्दा की अंतिम इच्छा थी कि उनकी शवयात्रा में उनके गीतों को अवश्य गाया जाय, साथियों ने यही किया भी। फिंजा में उनके लिखे, गाये जन मानस की पसंद बन चुके गीत गूंज रहे थे। जन आंदोलनों के दौरान जब गिर्दा सडकों में उतर कर अपने लिखे जन गीतों को गाते थे तो हजारों की भीड उन्हें घेर लेती थी। मगर आज वह गा नहीं रहे थे, तो भी हजारों लोग उन्हें घेरे हुए थे। हर तबका उनके साथ उसी तरह जुडा था जैसे जन आंदोलनों के दौरान उनके साथ लोग जुड जाते थे।
 [सोमवार, 23 अगस्त 2010]

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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More about Girda. You go through this content from our Senior Member and Journalist Navin Joshi ji Blog.http://newideass.blogspot.com/



जितने सवाल-उतने जवाब थे गिर्दा   
             'बबा, मानस को खोलो, गहराई में जाओ, चीजों को पकड़ो.. यह मेरी व्यक्तिगत सोच है, मेरी बात सुनी जाए लेकिन मानी न जाए..' प्रदेश के जनकवि, संस्कृतिकर्मी, आंदोलनकारी, कवि, लेखक गिरीश तिवारी 'गिर्दा' जब यह शब्द कहते थे, तो पीछे से लोग यह चुटकी भी लेते थे कि 'तो बात कही ही क्यों जाए' लेकिन यही बात जब वर्ष 2009 की होली में 'स्वांग' परंपरा के तहत युगमंच संस्था के कलाकारों ने उनका 'स्वांग' करते हुए कही तो गिर्दा का कहना था कि यह उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। आज उन्हें याद कर लोगों की आंखें न केवल नम हो जाती हैं, वरन वह फफक पड़ते है, उन्हें दूर से भी जानने वाले लोग शोक संतप्त है।
[/size]
 [/size]गिर्दा क्या थे, इस सवाल को जितने लोगों से पूछा जाए उतने जवाब मिलते है। गिर्दा एक आंदोलनकारी थे, उनमें गजब की जीवटता थी, शारीरिक रूप से काफी समय से अस्वस्थ थे, पर उनमें गजब की जीवंतता थी। वह 'हम लड़ते रयां भुला, हम लड़ते रुलो' और 'ओ जैता एक दिन त आलो उ दिन यीं दुनीं में' गाते हुए हमेशा आगे देखने वाले थे। उनमें गजब की याददाश्त थी, वह 40 वर्ष पूर्व लिखी अपनी कविताओं की एक-एक पंक्ति व उसे रचने की पृष्ठभूमि बता देते थे। वह लोक संस्कृति के इतिहास के 'एनसाइक्लोपीडिया' थे। लोक संस्कृति में कौन से बदलाव किन परिस्थितियों में आए इसकी तथ्य परक जानकारी उनके पास होती थी। कुमाऊंनीं लोक गीतों झोड़ा चांचरी में मेलों के दौरान हर वर्ष देशकाल की परिस्थितियों पर पारंपरिक रूप से जोड़े जाने वाले 'जोड़ों' की परंपरा को उन्होंने आगे बढ़ाया। चाहे जार्ज बुश व केंद्रीय गृहमंत्री को जूता मारे जाने की घटना पर उनकी कविता 'ये जूता किसका जूता है' हो, जिसे सुनाते हुए वह जोर देकर कहते थे कि जूता मारा नहीं वरन 'भनकाया' गया है। वहीं विगत वर्ष होली के दौरान आए त्रिस्तरीय चुनावों पर उन्होंने कविता लिखी थी 'ये रंग चुनावी रंग ठैरा..'। वह अपनी कविताओं में आगे भी तत्कालीन परिस्थितियों को जोड़ते हुए चलते थे। उनकी तर्कशक्ति लाजबाब थी। वह किसी भी मसले पर एक ओर खड़े होने के बजाय दूसरी तरफ का झरोखा खोलकर भी झांकते थे। राज्य की राजधानी के लिए गैरसैण समर्थक होने के बावजूद उनका कहना था 'हम तो अपनी औकात के हिसाब से गैरसैण में छोटी डिबिया सी राजधानी चाहते थे, देहरादून जैसी ही 'रौकात' अगर वहां भी करनी हो तो उत्तराखंड की राजधानी को लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ'। गिर्दा सबकी पहुंच में थे, कमोबेश सभी ने उनके भीतर की विराटता से अपने लिए कुछ न कुछ लिया और गिर्दा ने भी बिना कुछ चाहे किसी को निराश भी नहीं किया। उनके कटाक्ष बेहद गहरे वार करते थे, 'बात हमारे जंगलों की क्या करते हो, बात अपने जंगले की सुनाओ तो कोई बात करें'। अपनी कविता 'जहां न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा' से उन्होंने देश की शिक्षा व्यवस्था की पोल खोली तो 'मेरि कोसी हरै गे' के जरिए वह नदी व पानी बचाओ आंदोलन से भी जुड़े। एक दार्शनिक के रूप में भी वह हमेशा अपनी इन पंक्तियों के साथ याद किए जाएंगे, 'दिल लगाने में वक्त लगता है, टूट जाने में वक्त नहीं लगता, वक्त आने में वक्त लगता है, वक्त जाने में कुछ नहीं लगता' अफसोस कि वह गए है तो जैसे एक बड़े 'वक्त' को भी अपने साथ ले चले हैं।
 
 
[/size]फक्कड़ दा अलविदा..
 [/size]
 
[/size]गिर्दा में अजीब सा फक्कड़पन था। वह हमेशा वर्तमान में रहते थे, भूत उनके मन मस्तिक में रहता था और नजरे हमेशा भविष्य पर। बावजूद वह भविष्य के प्रति बेफिक्र थे। वह जैसे विद्रोही बाहर से थे कमोबेश वैसा ही उन्होंने खासकर अपने स्वास्थ्य व शरीर के साथ किया। इसी कारण बीते कई वर्षों से शरीर उन्हें जवाब देने लगा था लेकिन उन्होंने कभी किसी से किसी प्रकार की मदद नहीं ली। वरन वह खुद फक्कड़ होते हुए भी दूसरों पर अपने ज्ञान के साथ जो भी संभव होता लुटाने से परहेज न करते। ऐसा ही एक वाकया लखीमपुर खीरी में हुआ था जब एक चोर उनकी गठरी चुरा ले गया था तो उन्होंने उसे यह कहकर अपनी घड़ी भी सौप दी थी कि 'यार, मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है।' गिर्दा ने आजीविका के लिए लखनऊ में रिक्शा भी चलाया और लोनिवि में वर्कचार्ज कर्मी, विद्युत निगम में क्लर्क के साथ ही आकाशवाणी से भी संबद्ध रहे। पूरनपुर (यूपी) में उन्होंने नौटंकी भी की और बाद में सन् 1967 से गीत व नाटक प्रभाग भारत सरकार में नौकरी की और सेवानिवृत्ति से चार वर्ष पूर्व 1996 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। वर्ष 2005 में अल्मोड़ा जनपद के हवालबाग के निकट ज्योली गांव में हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा का यह फक्कड़पन ही हो कि उत्तराखंड के एक-एक गांव की छोटी से छोटी भौगोलिक व सांस्कृतिक जानकारी के 'जीवित इनसाइक्लोपीडिया' होने के बावजूद उन्हें अपनी जन्म तिथि का ठीक से ज्ञान नहीं था। 1977 में केंद्र सरकार की नौकरी में होने के बावजूद वह वनांदोलन में न केवल कूदे वरन उच्चकुलीन होने के बावजूद 'हुड़का' बजाते हुए सड़क पर आंदोलन की अलख जगाकर औरों को भी प्रोत्साहित करने लगे। इसी दौरान नैनीताल क्लब को छात्रों द्वारा जलाने पर गिर्दा हल्द्वानी जेल भेजे गए। इस दौरान उनके फक्कड़पन का आलम यह था कि वह मल्लीताल में नेपाली मजदूरों के साथ रहते थे। उत्तराखंड आंदोलन के दौर में गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर थाम 'चलता फिरता रेडियो' बन गए। वह रोज शाम आंदोलनात्मक गतिविधियों का 'नैनीताल बुलेटिन' तल्लीताल डांठ पर पड़ने लगे। उन्होंने हिंदी, उर्दू, कुमाऊनीं व गढ़वाली काव्य की रिकार्डिंग का भी अति महत्वपूर्ण कार्य किया। वहीं भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए और उन पर हिमालय संस्कृति एवं विकास संस्थान के लिए स्थाई महत्व के कार्य किये। जुलाई 2007 में वह डा. शेखर पाठक व नरेंद्र नेगी के साथ उत्तराखंड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में 'उत्तराखंड ऐसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका-UANA' के आमंत्रण पर अमेरिका गए थे जहां नेगी व उनकी जुगलबंदी काफी चर्चित व संग्रहणीय रही थी। उनका व्यक्तित्व वाकई बहुआयामी व विराट था। प्रदेश के मूर्धन्य संस्कृति कर्मी स्वर्गीय बृजंेद्र लाल साह ने उनके बारे में कहा था, ’मेरी विरासत का वारिश गिर्दा है।‘ उनके निधन पर संस्कृतिकर्मी प्रदीप पांडे ने ’अब जब गिर्दा चले गए है तो प्रदेश की संस्कृति का अगला वारिश ढूंढ़ना मुश्किल होगा। आगे हम संस्कृति और आंदोलनों के इतिहास को जानने और दिशा-निदश लेने कहां जाएंगे।‘ गिर्दा, आदि विद्रोही थे। वह ड्रामा डिवीजन में केंद्र सरकार की नौकरी करने के दौरान ही वनांदोलन में जेल गए। प्रतिरोध के लिए उन्होंने उच्चकुलीन ब्राह्मण होते हुए भी हुड़का थाम लिया। उन्होंने आंदोलनों को भी सांस्कृतिक रंग दे दिया। होली को उन्होंने शासन सत्ता पर कटाक्ष करने का अवसर बना दिया।
[/size]उनका फलक बेहद विस्तृत था। जाति, धर्म की सीमाओं से ऊपर वह फैज के दीवाने थे। उन्होंने फैज की गजल ’लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन जिसका वादा है‘ से प्रेरित होकर अपनी मशहूर कविता 'ओ जैता एक दिन त आलो, उ दिन य दुनी में' तथा फैज की ही एक अन्य गजल 'हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मागेंगे..' से प्रेरित होकर व समसामयिक परिस्थितियों को जोड़ते हुए 'हम कुल्ली कबाड़ी ल्वार ज दिन आपंण हक मागूंलो' जैसी कविता लिखी। वह कुमाऊंनीं के आदि कवि कहे जाने वाले 'गौर्दा' से भी प्रभावित थे। गौर्दा की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने वनांदोलन के दौरान 'आज हिमाल तुमूकें धत्यूछौ, जागो जागो हो मेरा लाल..' लिखी।
 [/size]गिर्दा का कई संस्थाओं से जुड़ाव था। वह नैनीताल ही नहीं प्रदेश की प्राचीनतम नाट्य संस्था युगमंच के संस्थापक सदस्यों में थे। युगमंच के पहले नाटक 'अंधा युग' के साथ ही 'नगाड़े खामोश है' व 'थैक्यू मिस्टर ग्लाड' उन्हीं ने निदशित किये। महिलाओं की पहली पत्रिका 'उत्तरा' को शुरू करने का विचार भी गिर्दा ने बाबा नागार्जुन के नैनीताल प्रवास के दौरान दिया था। वह नैनीताल समाचार, पहाड़, जंगल के दावेदार, जागर, उत्तराखंड नवनीत आदि पत्र- पत्रिकाओं से भी संबद्ध रहे। दुर्गेश पंत के साथ उनका 'शिखरों के स्वर' नाम से कुमाऊनीं काव्य संग्रह, 'रंग डारि दियो हो अलबेलिन में' नाम से होली संग्रह, 'उत्तराखंड काव्य' व डा. शेखर पाठक के साथ 'हमारी कविता के आखर' आदि पुस्तकें प्रकाशित हुई।
 
 
[/size]प्रदेश के प्रति गहरी पीड़ा थी गिर्दा के मन में
[/size]हम ‘भोले-भाले’ पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं। हमने देश-दुनिया के अनूठे ‘चिपको आन्दोलन’ वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन गिर्दा के अनुसार सच्चाई कुछ और थी। गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी। इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया। पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही, ‘कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले’ पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं। बकौल गिर्दा, [/size]‘हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी बनाएं,[/size][/size]छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी ‘काले पाथर’ के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कालेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास। पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें। [/size]गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही ‘रौकात’ करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ।[/size] यह कहते हुए वह खास तौर पर ‘औकात’ और ‘रौकात’ षब्दों पर खास जोर देते थे। वह बड़े बांधों के घोर विरोधी थे, उनका मानना था कि हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा। यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें। हमारा पानी, बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी ‘हरा’ रखे। हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना ‘घर’ सजाये। हमारे जंगल पूरे एशिया को ‘प्राणवायु’ देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए ‘बांसे’, हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें। हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें। हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी ‘संजीवनी बूटी’ सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे। हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......। 
 
 [/size]वनांदोलन से ठगे जाने की टीस थी गिर्दा को
 
[/size]1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आंदोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आंदोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आंदोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आंदोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आंदोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आंदोलनकारियों अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आंदोलन में अगली पंक्ति में रहे गिर्दा को आखिरी दिनों में यह टीस बहुत कष्ट पहुंचाती थी।
[/size]‘गिर्दा’ से जब वनांदोलन की बात शुरू होकर जब वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंची तो उनके भीतर की टीस बाहर निकल आई। वह बोले, ‘1972 में वनांदोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ आंदोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। वरन, जनता की स्थिति बद से बदतर हो गई। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोष था, वह आज भी है। औपनिवेषिक व्यवस्था ने ‘जन’ के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम और बिल्डर वनों को वेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के निजी पेड़ों तक को नहीं काट सकते। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलने लगी। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिस्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुष्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें पूर्व की तरह अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नजरों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़-पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब लोग गांव में अपना नया घर बनाना तो दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। लोगों का न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की ‘दुंदार’, न ‘बांस’ और न छत के लिऐ चौडे़ ‘पाथरों’ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी ग्रामीण गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयंत्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालायें, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बंद हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को ‘बाबीला’ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औषधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बंद हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिंतित थे। उनका मानना था कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित ने सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।                                                                       
 
 [/size]वर्तमान हालातों से बेहद व्यथित थे गिर्दा
 
  [/size]गिर्दा से वर्तमान हालातों व संस्कृति पर बात शुरू हुई तो उनका जवाब रूंआसे स्वरों में ‘कौन समझे मेरी आंखों की नमी का मतलब, कौन मेरी उलझे हुए बालों की गिरह सुलझाऐ..’ से प्रारम्भ हुआ। कहने लगे, जहां दे[/size]के सबसे बड़े मंदिर (सवा अरब लोगों की आस्था के केंद्र) संसद में ‘नोटों के बंडल’ लहराने की संस्कति चल पड़ी हो, वहां अपनी संस्कृति की बात ही बेमानी है। उत्तराखंड भी इससे अछूता कैसे रह सकता है, इसकी बानगी गत दिनों पंचायत चुनावों में हम देख चुके हैं। जहां विधानसभा में कितनी तू-तू, मैं-मैं होती है, कई विपक्षी तो शायद वहां घुसने से पहले शायद लड़ने का मूंड ही बनाकर आते हैं। राज्य की राजधानी, परिसीमन, यहां के गाड़-गधेरों पर कोई बात नहीं करता। हां, थोड़ी बची खुची कृषि भूमि को बंजर कर 'नैनो के लिए जरूर नैन' लगाऐ बैठे हैं। नदियों को 200 परियोजनाऐं बनाकर टुकड़े-टुकड़े कर बेच डाला है। खुद दिवालिया होते जा रहे अमेरिका से अभी भी मोहभंग नहीं हो रहा है। वह ही हमारी संस्कृति बनता जा रहा है। वह कहते हैं, हमारी संस्कृति मडुवा, मादिरा, जौं और गेहूं के बीजों को भकारों, कनस्तरों और टोकरों में बचाकर रखने, मुसीबत के समय के लिए पहले प्रबंध करने और स्वावलंबन की रही है, यह केवल ‘तीलै धारु बोला’ तक सीमित नहीं है। आखिर अपने घर की रोटी और लंगोटी ही तो हमें बचाऐगी। गांधी जी ने भी तो ‘अपने दरवाजे खिड़कियां खुली रखो’ के साथ चरखा कातकर यही कहा था। वह सब हमने भुला दिया। आज हमारे गांव रिसोर्ट बनते जा रहे हैं। नदियां गंदगी बहाने का माध्यम बना दी हैं। स्थिति यह है कि हम दूसरों पर आश्रित हैं, और अपने दम पर कुछ माह जिंदा रहने की स्थिति में भी नहीं हैं। वह कहते हैं, ‘संस्कृति हवा में नहीं उगती, यह बदले माहौल के साथ बदलती है, और ऐसा बीते वर्ष में अधिक तेजी से हुआ है।’ हालांकि वह आशान्वित होकर बताते हैं, ‘संस्कृति कर्मी अपना काम कर रहे हैं। पूर्व में मेलों में तत्कालीन स्थितियों को [/color][/size]‘दिल्ली बै आई भानमजुवा, पैंट हीरो कट’[/size] या [/size]‘दिन में हैरै लेख लिखाई, रात रबड़ा घिस’[/size] जैसे गीतों से प्रकट किया जाता था। इधर नंदा देवी के मेले के दौरान चौखुटिया के दल ने पंचायत चुनावों की स्थिति [/size]‘गौनूं में चली देशि शराबा बजार चली रम, उम्मीदवार सकर है ग्येईं भोटर है ग्येईं कम’[/size] के रूप में प्रकट कर इस परंपरा को कई वर्षों बाद फिर से जीवंत किया है। उनका दर्द इस रूप में भी फूटता है कि आज संस्कृति बनाने की तो फुरसत ही नहीं है, उसका फूहड़ रूप भी बच जाऐ तो गनीमत है।
 
 [/size]होली को हुड़दंग नहीं अभिव्यक्तियों का त्यौहार मानते थे गिर्दा
 
[/size]होली में हुड़दंग का समावेश यूं तो हमेशा से ही रहा है, लेकिन कुमाऊं की होली की यह अनूठी विशेषता रही कि यहां हुड़दंग के बीच भी अभिव्यक्तियों की विकास यात्रा चलती रही है। कुमाउनीं के साथ[/size] हिंदी के भी प्राचीनतम (भारतेंदु हरीश्चंद्र से भी पूर्व के) कवि गुमानी पंत[/size] से होते हुऐ यह यात्रा गोर्दा एवं मौलाराम से होती हुई आगे बढ़ी, और इसे प्रदेश के जनकवि के रूप में ख्याति प्राप्त गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने आगे बढ़ाया। गिर्दा होली को हुड़दंग व केवल अभिव्यक्तियों का नहीं वरन सामूहिक अभिव्यक्तियों का त्यौहार मानते थे। गिर्दा अतीत से शुरू करते हुऐ बताते थे कि संचार एवं मनोरंजन माध्यमों के अभाव के दौर में कुमाऊंवासी भी मेलों के साथ होली का इंतजार करते थे। वर्श भर की विशिष्ट घटनाओं पर उस वर्ष के बड़े मेलों के साथ ही होली में नई सामूहिक अभिव्यक्तियां निकलती थीं। उदाहरणार्थ 1919 में जलियावालां बाग में हुऐ नरसंहार पर कुमाऊं में गौर्दा ने 1920 की होलियों में [/size]‘होली जलियांवालान बाग मची...’[/size] के रूप में नऐ होली गीत से अभिव्यक्ति दी। इसी प्रकार गुलामी के दौर में [/size]‘होली खेलनू कसी यास हालन में, छन भारत लाल बेहालन में....’[/size] तथा [/size]‘कैसे हो इरविन ऐतवार तुम्हार....’[/size] जैसे होली गीत प्रचलन में आऐ। उत्तराखंड बनने के बाद गिर्दा ने इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए 2001 की होलियों में [/size]‘अली बेर की होली उनरै नाम, करि लिया उनरि लै फाम, खटीमा मंसूरी रंगै ग्येईं जो हंसी हंसी दी गया ज्यान, होली की बधै छू सबू कैं...’[/size] जैसी अभिव्यक्ति दी। इसी कड़ी में आगे भी चुनावों के दौर में भी गिर्दा [/size]‘ये रंग चुनावी रंग ठहरा...’[/size] जैसी होलियों का सृजन किया। ‘नैनीताल समाचार’ के प्रांगण में अपनी आखिरी होली में वह सर्वाधिक उत्साह का प्रदर्शन कर उपस्थित लोगों को आशंकित कर गये थे, बावजूद उन्होंने इस मौके पर कोई नईं होली पेश नहीं की। पूछने पर उनका जवाब था, ‘निराशा का वातावरण है, इस निराशा को शब्द देना ‘फील गुड’ के दौर में कठिन है।’
  [/size]सचिन को सांस्कृतिक पुरूष मानते थे गिर्दा
 
[/size]सुनने में यह अजीब लग सकता है, पर एक मुलाकात में गिर्दा ने उस दिन का 'राष्ट्रीय सहारा' अखबार उठाया, और पहले पन्ने पर ही संस्कृति के दो रूप दिखा दिये। वहां एक ओर बकौल गिर्दा देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक पुरूष, बल्ले में दम दिखाते 12 हजारी सचिन थे, तो दूसरी ओर हमारी दूसरों पर निर्भरता का प्रतीक दस हजार से नीचे गिरकर बेदम पड़ा सेंसेक्स। गिर्दा बोले, गुडप्पा विश्वनाथ के बाद वह देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक पुरूष नम्रता, शालीनता व देश की गरिमा के प्रतीक उस सचिन को नमन करते है, जिसे इतनी बड़ी उपलब्धि पर अपनी मां की कोख और गुरु याद आते हैं। वह कभी उपलब्धियों पर इतराते नहीं, और असफलताओं पर व्यथित नहीं होते। वह युवा पीढ़ी के लिए आदर्श हो सकते हैं। हमारी संस्कृति भी हमें यही तो सिखाती है। दूसरी ओर सेंसेक्स जो हमारी खोखली प्रगति का परिचायक है।

 
 
 [/size]गिर्दा की चुनावी कविताः [/size]रंगतै न्यारी   [/size]     
 [/size]
 [/size]चुनावी रंगै की रंगतै न्यारी
 [/size]मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
 [/size]दिल्ली बै छुटि गे पिचकारी-
 [/size]आब पधानगिरी की छु हमरी बारी।
 [/size]चुनावी रंगै की रंगतै न्यारी।।
 
[/size]
 [/size]मथुरा की लठमार होलि के देखन्छा,
 [/size]घर- घर में मची रै लठमारी-
 [/size]मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
 [/size]
 [/size]आफी बंण नैग, आफी पैग,
 [/size]आफी बड़ा ख्वार में छापरि धरी,
 [/size]आब पधानगिरी की हमरि बारी।
 [/size]
 [/size]बिन बाज बाजियै नाचि गै नौताड़,
 [/size]‘खई- पड़ी’ छोड़नी किलक्वारी,
 [/size]आब पधानगिरी की हमरि बारी।
 [/size]
 [/size]रैली- थैली, नोट- भोटनैकि,
 [/size]मचि रै छौ मारामारी-
 [/size]मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
 [/size]
 [/size]पांच साल त कान आंगुल खित,
 [/size]करनै रै हुं हुं ‘हुणणै’ चारी,
 [/size]मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
 [/size]
 
[/size]काटी में मुतण का लै काम नि ऐ जो,
[/size]चोट माड़ण हुंणी भै बड़ी-
 [/size]मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
 [/size]
 [/size]पाणि है पताल ऐल नौणि है चुपाणा,
 [/size]यसिणी कताई, बोलि- बाणी प्यारी-
 [/size]चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।
 [/size]
 [/size]जो पुर्जा दिल्ली, जो फुर्कों चुल्ली,
 [/size]जैकि चलंछौ कितकनदारी,
 [/size]चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।
 [/size]
 [/size]मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
 [/size]चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।
 
 
[/size]यह भी पढ़ें:
   

Hisalu

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Girda Ke Baad Girda Ki Yaad

Friends you are invited to commemorate the memory of folk persona, poet and our beloved Girish Tiwari(Girda) by Nehru Memorial Museum & Library(Teen Murthy), Delhi on 4th Feb 2012.


Risky Pathak

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Girda's Poem "Myer Himala"

O Bhumi Teri Jai Jaikara... Myer Himaala.....
Khwaaar M Koot Tero Hyun Jhannko.... Chhalaki Gaar Gange Ki Dharaa... Myer Himaalaa..

Uttarakhand Meri MatrBhoomi.... MaatrBhoomi... Meri Pitr Bhoomi....
Tali Tali Taraaii Bhhomi... O Bhoomi.. Mal Mali.. Bhabaraa.... Myer Himala....
Badri Kedara Ka Dwaar Chhan.... Mera Kankhal Hardwara.... Myer Himalaa...

Kali Dhauli Ka Bali Chhala Jaani... Baata Naan Thoola Kailashaa... Myer Himala....
Parbati Ko Mero Mait Ye Chho..... Ye Chho Shiv Jyu Ko Sauraass... Myer Himalaa....

Dhan Maayedi.. Mero Yo Janma.. Bhayo Teri Kokhi Mahaanaa... Myer Himalaa
Mari Juno... Tari Juno..... O Iju Ael Teraa Baanaa.... Myer Himaalaa.....

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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थातिकै नौ ल्हिन्यू हम बलिदानीन को, धन मयेड़ी त्यरा उं बांका लाल।
धन उनरी छाती, झेलि गै जो गोली, मरी बेर ल्वै कैं जो करी गै निहाल॥
पर यौं बलि नी जाणी चैनिन बिरथा, न्है गयी तो नाति-प्वाथन कैं पिड़ाल।
तर्पण करणी तो भौते हुंनी, पर अर्पण ज्यान करनी कुछै लाल॥
याद धरो अगास बै नी हुलरौ क्वे, थै रण, रणकैंणी अघिल बड़ाल।
भूड़ फानी उंण सितुल नी हुनो, जो जालो भूड़ में वीं फानी पाल।।
आज हिमाल तुमन के धत्यूछौ, जागो-जागो हो म्यरा लाल....!

हिन्दी भावार्थ-

नाम यहीं पर लेते हैं उन अमर शहीदों का साथी,
कर प्राण निछावर हुये धन्य जो मां के रण-बांकुरे लाल।
हैं धन्य जो कि सीना ताने हंस-हंस कर झेल गये गोली,
हैं धन्य चढ़ाकर बलि कर गये लहू को जो निहाल॥
इसलिए ध्यान यह रहे कि बलि बेकार ना जाये उन सबकी,
यदि चला गया बलिदान व्यर्थ युगों-युगों पड़ेगा पहचान।
तर्पण करने वाले तो अपने मिल जायेंगे बहुत,
मगर अर्पित कर दें जो प्राण, कठिन हैं ऎसे अपने मिल पाना॥
ये याद रहे आकाश नहीं टपकता है रणवीर कभी,
ये याद रहे पाताल फोड़ नहीं प्रकट हुआ रणधीर कभी।
ये धरती है, धरती में रण ही रण को राह दिखाता है,
जो समर भूमि में उतरेगा, वही रणवीर कहाता है॥
इसलिए, हिमालय जगा रहा है तुम्हें कि जागो-जागो मेरे लाल........!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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A tribute to Girda.

रात उजली पै घाम निमैलो,,,,,,, डान कानन केसिया फूलो,
 शिवज्यु कें मारी मुट्ठी रंगे की,,,,,,, सार हिमाल है गो छ रंगीलो, 
 शिवज्यु कें मारी मुट्ठी रंगे की,,,,,,, सार हिमाल है गो छ रंगीलो, 
 हुलरी ए गे बसंत का परी....... होगी जो गाथा रंग पिंगलो.....
 पिंगली आज नानु की झगुली.... पिंगहला फूलों का टांक पिंघला,
 पिंघली पुर धरती पिछौडी ...... पिंघला आज आकाश बादला,
 झाल को जो छार फोको जोगी को..... आज विभूत जाले की भली गे,
 मुल-मुल हसें हिमाल की चेली.... शुकिली हंसी खोलने  अनमनी गे,
 
 ......गिर्दा हिमाला को तो नजर लगी गे अब ..... शायद तुमार जास हिमालय प्रेमी नि रैग्याई को ले अब.... सत सत नमन ...

 

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