Author Topic: गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" और उनकी कविताये: GIRDA & HIS POEMS  (Read 74392 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Girish Tiwari (Girda)
From Wikipedia, the free encyclopedia  Jump to:               navigation,                search  Girish Chandra Tewari "Girda" (गिरीश चन्द्र तिवारी 'गिर्दा') (10 September 1945 – 22 August 2010) was a scriptwriter, director, lyricist, singer, poet, organic culturist, literary writer, and social activist in Uttarakhand, India.[1][2]
 
  Contents 
  • 1 Early life
  • 2 Career
  • 3 Legacy
  • 4 References
  • 5 External links
  Early life Born on 10 September 1945 in the village of Jyoli near Hawalbag in Almora District of Uttarakhand,[2] he attended school at the Government Inter College in Almora and later schooling at Nainital. After meeting renowned lyricist and writer Late Brijendra Lal Sah, he realized his potential for creativity.
At the age of twenty-one, Girda met social activists at Lakheempur Khiri and got influenced by their work in the society. These meetings at such a tender age changed the life path of Girda and made him a creative writer and a social activist. He has been associated with the famed “Chipko Movement and later with the Uttarakhand Andolan.
  Career Girda has directed famous plays like “Andha Yug”, “Andher Nagri”, “Thank you Mr. Glad” and “Bharat Durdasha”. Girda has written plays including “Nagare Khamosh Hain” and “Dhanush Yagya”. Girda edited “Shikharon ke Swar” in 1969, and later “Hamari Kavita ke Ankhar” and “Rang Dari Dio Albelin Main”. His latest compilation of poems and songs specially focusing “Uttarakhand Andolan” and “Uttarakhand Kavya” was published in 2002.[3]
He took voluntary retirement from the post of instructorship in the Song and Drama Division of the Ministry of Information and Broadcasting, and thereafter joined the Uttarakhand movement, and took to full time creative writing.[4] He was one of the founders and member of the editorial board of PAHAR, a Nainital-based organisation involved with promotion of Himalayan culture.
Bedupako, the folk genome tank of Uttarakhand has published a small collection of Poem's in original voice of this legendary personality. [5]

 He died on August 20, 2010, after a brief illness and was survived by his wife Hemlata Tiwari, two sons and a daughter in law.[6]
  Legacy Pahar group (http://www.pahr.org) is compiling a book – “Girda Samarga” – which includes hundreds of his creative writings, songs, poems, essays etc.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Naveen Joshi 
गिर्दा को गये आज पूरे दो साल हो गये....उसके बिना बहुत कुछ अधूरा सा लगता है...उलझनों और असमंजस के समय सही राय देने और आगे का रास्ता दिखने वाले संरक्षक की सबसे ज़्यादा कमी खलती है... बाकी तो खैर उसकी रचनायें हमारे साथ हैं ही....सलाम गिर्दा...



Risky Pathak

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Girda ki kavita "Myer Himala"

O bhumi teri jai jaikara.. Myer Himalaa....
Khwar me koot tero hyu jhalako....
Chhalaki gaad ganga ki dhara.... Myer Himalaa.....

Uttarakhand meri matr bhoomi.... Matr bhoomi meri pitr bhoomi...
O bhoomi.. teri jai jaikara... Myer himala...
Tali Tali Taraai Bhoomi...
O Bhoomi.. mel meli bhabara.... myer himala...

Badri kedara ka dwara chhana...
Myera kankhala haridwara.... myer himala...
Kali dhauli ka bali chhana jani....
Bata naan thula kailasha... Myer himala...

Parbati ko myer mait yo chho....
O ye chho.... shib jyu ko saurasa... Myer himala...
Dhan me mero yo janam....
Bhayo teri kokhi mahaana.... Myer himalaa.....
Mari juno... to taari juno...
O iju aele tera bana... Myer himala..

Harish Rawat

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22 अगस्त 2012 को जनकवि, आन्दोलनकारी गिरीश तिवारी (गिर्दा) की पुण्यतिथि है .....गिर्दा को म्यर उत्तराखंड ग्रुप की तरफ से श्रधांजलि

(गिरदा के व्यक्तित्व के अनेक आयाम थे। एक कलाकार, एक आन्दोलनकारी या एक रंगकर्मी। उत्तराखण्ड में नाट्य परम्परा को बनाए रखने में तन, मन और धन से समर्पित वरिष्ठ रंगकर्मी और युगमंच के आधार स्तम्भ जहूर आलम ने गिरदा को अपने ढंग से महसूस करने की जो कोशिश की है, उसे यहाँ हम अपने पाठकों के सम्मुख जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं। -संपादक : नैनीताल समाचार, Nainital Samachar)

गिरदा भौतिक रूप से आज हमारे बीच नहीं है। एक शरीर चला गया लेकिन उनका संघर्ष, उनकी बात, उनके गीत, उनकी कविता, उनके लोक नाटकों में उठाए गये मुद्दे और जो कुछ वह समाज को दे गये वह सारा कुछ हमेशा जनसंघर्षो को ऊर्जा देता रहेगा। गिरदा आम जन की हर लड़ाई में संघर्ष के गीत गाते रहेंगे। जनता के पक्ष के कवि की आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी।

गिरदा की अन्दाजे बयानी का भी जवाब नहीं था। कहते हैं कि गालिब का है अन्दाजे बयाँ और। गिरदा कविता को इस दरजा बेहतर ढंग से परफॉर्म करते थे कि उनकी वाणी से निकला एक-एक लफ्ज सीधे से सुनने वाले के दिल में उतर जाता था। कविता या गीत की एक-एक पंक्ति, शब्द और उनके व्यापक अर्थों को वह अपनी अन्दाजे बयानी और हाव-भाव में चित्र रूप में साकार कर देते थे। अपनी जादुई बुलन्द आवाज में सुर-लय-ताल के साथ उनके शरीर का एक-एक अंग बोलता था। कविता चाहे मंच पर हो या सड़क पर, उनकी प्रस्तुति हर जगह जिन्दा और बोलती हुई होती थी जो श्रोताओं को अपने साथ बहा ले जाती थी।

उत्तराखण्ड आन्दोलन जब अपने पूरे शबाब पर था और सभी सांस्कृतिक संस्थाएँ, कलाकार, रंगकर्मी, कवि आदि अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने गीत, संगीत, नाटक के जरिये आन्दोलन को तेल-पानी दे रहे थे और पूरा जनमानस इस ऊर्जा से चार्ज था। उस समय नैनीताल समाचार के उत्तराखण्ड बुलेटिन में आन्दोलन की सही खबरों के लिए खूब भीड़ जुटती थी। इस बुलेटिन में गिरदा की उपस्थिति और ही समाँ बाँध देती थी। गौर्दा के वृक्षन को विलाप- ‘आज हिमाल तुमन के धत्यूँछ, जागो-जागो हो मेरा लाल’ की तर्ज पर हर दिन नये हरूफ लिखकर गिरदा अपनी ओजस्वी वाणी में सुनाते थे। वे केवल शब्द और छन्द नहीं, बल्कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में हो रहे घटनाक्रम का लेखा-जोखा और सरकार बहादुर का कच्चा चिट्ठा होता था। साथ ही जनता से आवाहन भी। इसके रोज-बरोज नये छंद जुड़ते जाते थे और इसी से उत्तराखण्ड काव्य की रचना हुई। उत्तराखण्ड काव्य पर स्वयं गिरदा ने बहुत सटीक टिप्पणी की है। ‘यह काव्य/या कि यह गीत पंक्तियाँ/चूँकि नहीं बनती प्रतिदिन/नुक्कड़ नुक्कड़ ये गाने हित/गा कर खबर सुनाने हित/आन्दोलन मुखर बनाने हित/इसलिए इन्हें हू ब हू/बहुत मुश्किल/हरूफों में लिख पाना/जैसे कोई लोक काव्य।’

गिरदा परिपक्व दृष्टि वाला एक ऐसा जनकवि था जो जनता के खिलाफ हाने वाले हर षडयन्त्र के विरुद्ध ताल ठोंक कर खड़ा था और उन षडयन्त्रों के खिलाफ लोगों को आगाह करते हुए चलता था। ‘उत्तराखण्ड की आज लड़ाई यह जो/हम लड़ रहे सभी/ सीमित हरगिज उत्तराखण्ड तक/इसे नहीं/साथी समझो/यदि सोच संकुचित हुआ कहीं/ तो भटक लड़ाई जाएगी/इसलिए/ खुले दिल और दिमाग से/मित्रो/लड़ना है इसको।’

गिरदा ने इस सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ हमेशा ही टिप्पणी की है- ‘हालते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें/हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें। गोलियाँ कोई निशाने बाँध कर दागीं थी क्या/ खुद निशाने पे पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें ?’ या उनकी उलटबाँसियाँ- ‘ये उलटबासियाँ नहीं कबीरा, खालिस चाल सियासी’, या- ‘इस वक्त जब मेरे देश में' पेश किये जा जा रहे हैं पेड़ पेड़ों के खिलाफ/ पानी पानी के खिलाफ…..जनता के खिलाफ जनता’ हर जगह गिरदा अपनी कविता में लोगों को एक व्यापक दृष्टि देते हुए दिखाई देते हैं। यथा, ‘कैसा हो स्कूल हमारा’ आदि कविताएँ। गिरदा ने हर सामाजिक विषय पर कविता लिखी लेकिन अपने ही पैने अन्दाज में, ‘फिर आई वर्षा ऋतु लाई नवजीवन जल धार/कृषि प्रधान भारत में उजडे़ फिर कितने घर बार।’

गिरदा एक प्रतिबद्व सांस्कृतिक व्यक्तित्व और रचनाधर्मी था। गीत, कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि, यानी संस्कृति का कोई आयाम गिरदा से छूटा नहीं था। मंच से लेकर फिल्मों तक में लोगों ने गिरदा की क्षमता का लोहा माना। उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े खामोश हैं’ जैसे कई नाटक लिखे, जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता चलता है। नाट्य मंचन में भी प्रतिबद्ध और व्यापक दृष्टि का दर्शन होता है। गिरदा ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अदभुत सामंजस्य के साथ अभिनव प्रयोग किये और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की कोशिश की। पहाड़ी (पारम्परिक) होलियों को भी गिरदा ने न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि इस गौरवशाली परम्परा को और व्यापक फलक तथा दृष्टि दी और कई नये प्रयोग भी किये । होली गीतों को भी अपनी प्रयोगधर्मी दृष्टि से सामयिकता दी।

‘झुकी आयो शहर में व्योपारी…….पेप्सी कोला की गोद में बैठी,

संसद मारे पिचकारी, दिल्ली शहर में लूट मची है। आयो विदेशी व्योपारी।’

गिरदा ने हमेशा जनता के दुख-दर्दों को आवाज दी और लड़ने का साहस जगाया, आशावाद की प्रेरणा दी। जैसा कि हम सभी की और गिरदा की भी चाहना है कि आएँगे उजले दिन जरूर। इसीलिए गिरदा ने साहिर और विश्व महाकवि फैज के साथ अपने को एकाकार कर लिया था।

‘ततुक की लगा उदेख, घुनन मुनइ नि टेक, जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में।’

उन्होंने फैज की कई रचनाओं का कुमाउँनी में, लेकिन यहीं के मूल मुहावरों और खुशबू के साथ ऐसा सुन्दर भावानुवाद किया, जिसकी मिसाल दुर्लभ है। विश्वदृष्टि के साथ गिरदा अपनी मिट्टी की खुशबू, यहाँ के लोगों, पहाडों, नदियों, पेड़ों और हिमालय को कभी नहीं भूले। यहाँ का वातावरण उनकी साँसो में बसता था। ‘उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि/मातृभूमि मेरी पितृभूमि/ भूमि, तेरी जय जय कारा/ म्यर हिमाला।’



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पहियों की दौड़
 
 दो पहियों की दौड़ मची है
 दुनियां पीछे छूट  रही है
 आसमान की सोच रहे हैं
 पावों  की खबर नहीं है
 
 जिनको हम समझे थे दानिश
 अक्ल उन्हीं की रेहन पड़ी है
 
 बात करो कहते हो तब तुम
 जब बहसों पर खाक पड़ी है
 इधर ताल समतल बनता है
 उधर " माल " कुछ और बढ़ी है
 रिक्शे - भाड़े से मत बिदको
 महंगाई उस पर भी चढ़ी है ।
 
 -गिरीश तिवारी " गिर्दा "
 "पहाड़ "द्वारा प्रकाशित " जैंता एक दिन तो आलो " से ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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राष्ट्रीय पर्व
 
 आज राष्ट्रीय पर्व है
 हमको गर्व है
 कि हमने आजादी के
 इतने वर्ष गुजार  दिए हैं
 सब के सन्मुख
 हाथ - पांव पसार  दिए  हैं ।
 
 प्रगति पंथ में , प्रगति वाद में ,
 जो सीमित  बस  मंच तलक मंचीय राज में
 हम भी आगे भाग रहे हैं
 यानी अब भी
 सोते - सोते जाग  रहे हैं ।
 
 और जागरण की ही रटन लगाये
 घर - घर अलख जगाते
 भीख मांगते आये
 अब भी मांग रहे हैं ।
 
 यों उद्देश्य  हमारा
 लाना भू पर कल्पित स्वर्ग है
 
 कब पाएंगे मंजिल देखो
 आस लगाना फर्ज है
 दुनियां भर का कर्ज है
 लेकिन फिर भी गर्व है
 आज राष्ट्रीय पर्व है ।
 
 -गिरीश तिवारी " गिर्दा "
 "पहाड़ "द्वारा प्रकाशित " जैंता एक दिन तो आलो " से ।
 ( प्रसिद्ध जन कवि स्व ." गिर्दा " की यह रचना आज से करीब 45 साल पहले यानी 1967-68 के आसपास की है )

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पत्थर - सा जिगर , पानी - सी जुवां वालों का भरोसा क्या कीजे ,
 हर बात में बात पलटते वे , ऐसों का भरोसा क्या कीजै  ?
 
 इस ठहरे दिल को क्या कहिये , इस बहती जुवां का क्या कीजे ,
 कब पत्थर पिघले हैं  प्यारे , कब गांठ पड़े है पानी में
 जो ऐसी बातें करते हैं उन लोगों को समझा कीजे
 
 हर आन दिखावे रूप नए , हर बात पै  तेवर बदले जो
 ऐसों की  ना को क्या कहिये ? ऐसों की हाँ का क्या कीजे
 
 जो गहरी  बातों से अपनी गहराई को जतलाते हों
 ऐसे गहराई वालों का गहरा तल पहचाना कीजे
 
 ये दुनियां टिकी हुई है तुम - हम जैसों के ही हाथों पै
 इसलिए बदल भी सकते हैं हम ही इसको समझा कीजे ।
 
 -गिरीश तिवारी " गिर्दा "
 "पहाड़ "द्वारा प्रकाशित " जैंता एक दिन तो आलो " से ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जो भी हजूर - ए - बज्म से लेकर जजा चला ,
दिल से दिमाग तक वो दिवालिया मिला हमें ।
अलबत्ता आपने जिसे बख्शी सजा - ए - मौत ,
मकतल में जाते वक्त भी हंसता मिला हमें ।

-गिर्दा

 

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