Author Topic: गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" और उनकी कविताये: GIRDA & HIS POEMS  (Read 74380 times)

पंकज सिंह महर

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साथियो,
      आप लोग अवगत ही हैं कि उत्तराखण्ड के जनकवि श्री गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" एक ऎसे कवि हैं, जिन्होंने अपनी युवावस्था से ही उत्तराखण्ड की पीड़ा को अपनी कविताओं में उकेरना प्रारम्भ कर दिया था। १९७४ का वन बचाओ आन्दोलन हो या १९८४ का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन या १९९४ का निर्णायक उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, सभी में गिर्दा ने अपनी कविताओं के माध्यम से जनजागरण का कार्य किया है।


 
Girish Tewari "Girda"
 
      गिर्दा अपनी कविताओं से जनसमस्याओं और इसके समाधान के लिये बने शासन-प्रशासन के तंत्र पर तीखे तंज भी कसते रहते हैं, उत्तराखण्ड की कोई भी समस्या हो, कोई भी आन्दोलन हो, कोई भी पीड़ा हो, गिर्दा अपनी कविता के माध्यम से सब जगह उपस्थित रहते हैं। वृद्धावस्था भी उनकी कलम नहीं रोक पाई वे अब भी उत्तराखण्ड की हर समस्या और हालात को आज भी अपनी कविताओं के माध्यम से निरन्तर उठा रहे हैं।
     इस टोपिक में हम उनकी कविताओं और उनके व्यक्तित्व पर एक नजर डालेंगे।

Girda Exclusive Interview.

www.merapahadforum.com Famous Poet Girda Interview taken by Hema Uniyal

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड के जन-सरोकारों से जुडा,  शायद ही कोई मुद्दा हो जो गिर्दा की कलम से अछूता रहा हो. सरकारी व्यवस्था से उपजे गुस्से को तथा उत्तराखण्ड में हुए जनान्दोलनों को लेकर लिखे गये उनके गीतों में पीङा है, आह्वान है तथा उज्वल भविष्य की आस है. जहाँ भी जनसंघर्ष था गिर्दा उन सभी जगहों पर कवि-गायक-नायक के रूप में अनिवार्य रूप से विद्यमान रहे.

गिरीश चन्द्र तिवाङी 'गिर्दा' का जन्म 1945 में ज्योली हवालबाग में श्री हंसादत्त तिवाङी तथा श्रीमती जीवन्ती तिवाङी के घर पर हुआ. छठे दशक में पीलीभीत जिले में पीडब्ल्यूडी में नौकरी के दौरान गिर्दा का सम्पर्क कवि सम्मेलनों के माध्यम से अनेक हस्तियों से हुआ. 28 नवम्बर 1967 को वह गीत एवं नाट्य प्रभाग से जुडे. 1977 में भारतेन्दु हरिशचन्द्र का "अन्धायुग" नाटक निर्देशित किया. गिर्दा द्वारा लिखा एक नाटक "नगाङे खामोश हैं" काफी चर्चित है. 1978 में गिर्दा की सामाजिक कविताओं पर आधारित कविताओं को "पहाङ" ने "हमारी कविता के आंखर" नाम से प्रकाशित किया.

1999 में दुर्गेश पन्त के साथ गिर्दा ने "शिखरों के स्वर” नामक कविता संग्रह संपादित किया.

पिछले वर्ष उत्तराखण्डी प्रवासियों के संगठन UANA द्वारा गिर्दा,शेखर पाठक जी तथा नरेन्द्र सिंह नेगी जी को अपने 10वें वार्षिक समारोह में विशेष अतिथि के तौर पर अमेरिका बुला कर सम्मानित किया गया.

प्रसिद्ध वीरगाथा गायक झुसिया दमाई पर गिर्दा ने 400 पन्नों का एक शोध किया. उनके अनुसार तीजन बाई की पण्डवानी तथा झुसिया दमाई की वीरगाथाओं में काफी समानताएं हैं.

"नशा नही रोजगार दो आन्दोलन" के दौरान "जन एकता कूच करो, मुक्ति चाहते हो तो आओ संघर्ष में कूद पडो"  गाकर आम जनता से आन्दोलन में भागीदारी का आह्वान किया.

मजदूर-किसानों के हक दिलाने के लिए इस तबके के लोगों में जोश भरने का काम उनके इस गीत ने किया.

हम ओङ-बारूङि, ल्वार-कुल्ली-कभाङि, जधीन यो दुनी थैं हिसाब ल्यूंलो.
एक हांगो नै मांगू, एक ठांगो नै मांगूं, पूरो खाता-खतौनी को हिसाब ल्यूंलो

इसी दौरान जनता के बीच आशा का संचार करता गिर्दा का यह गीत आया जो आने वाले कई पीढियों तक आन्दोलन गीत बन कर गाया जाता रहेगा

जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में
चाहे हम ने ल्या सकूं, चाहे तुम नि ल्या सको
जैंता क्वै न क्वै त ल्यालो, ये दुनी में
जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में……


मूल आलेख- श्री हेम पन्त

पंकज सिंह महर

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जनकवि श्री गिरीश तिवारी "गिर्दा" का बागरस्यौक गीत

सरजू-गुमती संगम में गंगजली उठूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
उतरैणिक कौतीक हिटो वै फैसला करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूंलो 'बैणी' उत्तराखण्ड ल्हयूंलो
बडी महिमा बास्यरै की के दिनूँ सबूतऐलघातै उतरैणि आब यो अलख जगूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'भुलु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो धन -मयेडी छाति उनरी,धन त्यारा उँ लाल, बलिदानै की जोत जगै ढोलि गै जो उज्याल खटीमा,मंसुरि,मुजफ्फर कैं हम के भुली जुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'चेली'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
कस हो लो उत्तराखण्ड,कास हमारा नेता, कास ह्वाला पधान गौं का,कसि होली ब्यस्था
जडि़-कंजडि़ उखेलि भली कैं , पुरि बहस करुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो वि कैं मनकसो बैंणूलोबैंणी फाँसी उमर नि माजैलि दिलिपना कढ़ाई
रम,रैफल, ल्येफ्ट-रैट कसि हुँछौ बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'ज्वानो' उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
मैंसन हूँ घर-कुडि़ हौ,भैंसल हूँ खाल, गोरु-बाछन हूँ गोचर ही,चाड़-प्वाथन हूँ डाल
धूर-जगल फूल फलो यस मुलुक बैंणूलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो 'परु'उत्तराखण्ड ल्हयूँलो
पांणिक जागि पांणि एजौ,बल्फ मे उज्याल, दुख बिमारी में मिली जो दवाई-अस्पताल सबनै हूँ बराबरी हौ उसनै है बतूँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
सांच न मराल् झुरी-झुरी जाँ झुट नि डौंरी पाला, सि, लाकश़ बजरी चोर जौं नि फाँरी पाला
जैदिन जौल यस नी है जो हम लडते रुंलो उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
लुछालुछ कछेरि मे नि हौ, ब्लौकन में लूट, मरी भैंसा का कान काटि खाँणकि न हौ छूट
कुकरी-गासैकि नियम नि हौ यस पनत कँरुलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो
जात-पात नान्-ठुल को नी होलो सवाल, सबै उत्तराखण्डी भया हिमाला का लाल
ये धरती सबै की छू सबै यती रुँलो-उत्तराखण्ड ल्हयूँलो विकैं मनकस बणलो

पंकज सिंह महर

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गैरसैंण के बारे में गिर्दा के छन्द
२४ सितम्बर, २००० को गिर्दा ने गैरसैंण रैली में यह छ्न्द कहे थे, जो सच भी हुये


कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी,
राग-बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी,
यो बतौक खुली-खुलास गैरसैंण करुंलो।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

टेम्पुरेरी-परमानैन्टैकी बात यों करला,
दून-नैनीताल कौला, आपुंण सुख देखला,
गैरसैंण का कौल-करार पैली कर ल्हूयला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

वां बै चुई घुमाल यनरी माफिया-सरताज,
दून बै-नैनताल बै चलौल उनरै राज,
फिरि पैली है बांकि उनरा फन्द में फंस जूंला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

’गैरसैणाक’ नाम पर फूं-फूं करनेर,
हमरै कानि में चडि हमने घुत्ति देखूनेर,
हमलै यनरि गद्दि-गुद्दि रघोड़ि यैं धरुला।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥

पंकज सिंह महर

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आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,

हिमालय को बचाने का आह्वान करती गिरीश तिवारी "गिर्दा" की मर्मस्पर्शी कविता


आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,
नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।
विचारनै की छां यां रौजै फ़ानी छौ, घुर घ्वां हुनै रुंछौ यां रात्तै-ब्याल,
दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल।
बात यो आजै कि न्हेति पुराणि छौ, छांणि ल्हियो इतिहास लै यै बताल,
हमलै जनन कैं कानी में बैठायो, वों हमरै फिरी बणि जानी काल।
अजि जांलै कै के हक दे उनले, खालि छोड़्नी रांडा स्यालै जै टोक्याल,
ओड़, बारुणी हम कुल्ली कभाणिनाका, सांचि बताओ धैं कैले पुछि हाल।
लुप-लुप किड़ पड़ी यो व्यवस्था कैं, ज्यून धरणै की भें यौ सब चाल,
हमारा नामे की तो भेली उखेलौधें, तैका भितर स्यांणक जिबाड़ लै हवाल।
भोट मांगणी च्वाख चुपड़ा जतुक छन, रात-स्यात सबनैकि जेड़िया भै खाल,
उनरै सुकरम यौ पिड़ै रैई आज, आजि जांणि अघिल कां जांलै पिड़ाल।
ढुंग बेच्यो-माट बेच्यो, बेचि खै बज्याणी, लिस खोपि-खोपि मेरी उधेड़ी दी खाल,
न्यौलि, चांचरी, झवाड़, छपेली बेच्या मेरा, बेचि दी अरणो घाणी, ठण्डो पाणि, ठण्डी बयाल।

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड के अमर शहीदों को प्रसिद्द जनकवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" की श्रद्दांजलि

थातिकै नौ ल्हिन्यू हम बलिदानीन को, धन मयेड़ी त्यरा उं बांका लाल।
धन उनरी छाती, झेलि गै जो गोली, मरी बेर ल्वै कैं जो करी गै निहाल॥
पर यौं बलि नी जाणी चैनिन बिरथा, न्है गयी तो नाति-प्वाथन कैं पिड़ाल।
तर्पण करणी तो भौते हुंनी, पर अर्पण ज्यान करनी कुछै लाल॥
याद धरो अगास बै नी हुलरौ क्वे, थै रण, रणकैंणी अघिल बड़ाल।
भूड़ फानी उंण सितुल नी हुनो, जो जालो भूड़ में वीं फानी पाल।।
आज हिमाल तुमन के धत्यूछौ, जागो-जागो हो म्यरा लाल....!


हिन्दी भावार्थ-

नामयहीं पर लेते हैं उन अमर शहीदों का साथी, कर प्राण निछावर हुये धन्य जो मां के रण-बांकुरे लाल।
हैं धन्य जो कि सीना ताने हंस-हंस कर झेल गये गोली, हैं धन्य चढ़ाकर बलि कर गये लहू को जो निहाल॥
इसलिए ध्यान यह रहे कि बलि बेकार ना जाये उन सबकी, यदि चला गया बलिदान व्यर्थ युगों-युगों पड़ेगा पहचान।
तर्पण करने वाले तो अपने मिल जायेंगे बहुत, मगर अर्पित कर दें जो प्राण, कठिन हैं ऎसे अपने मिल पाना॥
ये याद रहे आकाश नहीं टपकता है रणवीर कभी, ये याद रहे पाताल फोड़ नहीं प्रकट हुआ रणधीर कभी।
ये धरती है, धरती में रण ही रण को राह दिखाता है, जो समर भूमि में उतरेगा, वही रणवीर कहाता है॥
इसलिए, हिमालय जगा रहा है तुम्हें कि जागो-जागो मेरे लाल........!

पंकज सिंह महर

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एक बानगी यह भी

1-देश की हालत अट्टा-बट्टा,
रुस अमेरिका का सट्टा,
हम-तुम साला उल्लू पट्ठा,
अपने हिस्से घाटा-वाटा,
और मुनाफा बिडला-टाटा,
लोकतंत्र का देख तमाशा
आओ खेलें कट्टम-कट्टा।


2-देश में
लोकतंत्र बरकरार है,
आपको
अपना तानाशाह चुनने का
झकमार कर
अधिकार है।

पंकज सिंह महर

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नैनीताल में रह रहे वरिष्ट कुमांऊंनी कवि गिरीश तिवारी "गिर्दा" किसी भी हलचल पर चुटकी लेने से नही चूकते. फिर भला लोकसभा चुनावों की रेलमपेल कैसे उनकी कलम से छूट जायेगी. कुमांऊनी बोली की तर्ज पर गिर्दा की एक चुनावी कविता

जाने क्या-क्या स्वांग दिखाने वाली है-भल,
फिर चुनाव की ऋतु आने वाली है-भल,
घर-घर में तूफान आने वाली है-भल,
हर दल में मैं-मैं का दलदल गहराया।
यह मैं-मैं ही कोहराम मचाने वाला है भल।
सौ बीमारों को एक अनार दिखला-दिखला,
हो सके जहां तक मतकाने वाली है-भल,
संसद में नोटों का करतब दिखला चुके,
अब रैली में थैली आने वाली है भल,
हां इस ग्लोबल मंदी के नाजुक मौसम में,
कुछ को तो रोजगार देने वाली है-भल,
लगता है अपने बल पर चलने वाली,
कोई सरकार नहीं आने वाली है-भल,
मिली-जुली सरकारों का फिर स्वांग रचा,
कब तक जाने ठग खाने वाली है-भल,
पर सबको ही नाच नचाने वाली है-भल,
जाने क्या-क्या स्वांग दिखाने वाली है-भल,
फिर चुनाव की ऋतु आने वाली है भल॥


पंकज सिंह महर

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क्या करें?


हालाते सरकार ऎसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों में उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक प्रकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?


यह कविता उत्तराखण्ड के जनकवि श्री गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" ने दिनांक आठ अक्टूबर, १९८३ को नैनीताल में हुई पुलिस फायरिंग के बाद लिखी थी।     

पंकज सिंह महर

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जनकवि गिरीश चन्द्र तिवाड़ी "गिर्दा" की नज़र में लोकसभा चुनाव

चुनावी रंगे की रंगतै न्यारी,
मेरि बारी! मेरी बारी!! मेरि बारी!!!
दिल्ली बै छुटि गे पिचकारी,
अब पधान गिरी की छू हमरी बारी,
चुनावी रंगे की रंगतै न्यारी।
मथुरा की लठमार होलि के देखन्छा,
घर-घर मची रै लठमारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
आफी बण नैग, आफी बड़ा पैग,
आफी बड़ा ख्वार में छापरि धरी,
आब पधानगिरी छू हमरि बारि।
बिन बाज बाजियै नाचि गै नौताड़,
खई पड़ी छोड़नी किलक्यारी,
आब पधानगिरी की छू हमरि बारी।
रैली थैली, नोट-भोटनैकि,
मची रै छो मारामारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
पांच साल तक कान-आंगुल खित,
करनै रै हूं हु,हुमणै चारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
काटि में उताणा का लै काम नि ऎ जो,
भोट मांगण हुणी भै ठाड़ी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
पाणि है पताल, ऎल नौणि है चुपाड़,
मसिणी कताई बोल-बोल प्यारी,
चुनाव रंगे की रंगतै न्यारी।
जो पुजौं दिल्ली, जो फुकौं चुल्ली,
जैंकि चलैंछ किटकन दारी,
चुनाव रंगे की रंगते न्यारी,
मेरि बारी! मेरि बारी!! मेरि बारी!!!
चुनाव रंगे की रंगते न्यारी।

 

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