अब है ही क्या जो खेलूँ!" गुरुदास ने फटे गबरून के कोट की दोनों जेबें उलट दीं।
"अमा, है क्यों नहीं? वह साली मेवे की दुकान का क्या अचार डालोगे? लग जाए दाँव पर, "महिम भट्ट ने चुटकियाँ बजाकर कहा और पत्ते बँट गए। बारह बजने में पाँच मिनट थे, पर गुरुदास की घड़ी में सब घंटे बज चुके थे - वह कौड़ी-कौड़ी कर जोड़ी गई आठ हज़ार की पूँजी ही नहीं, बाप-दादों की धरोहर अपनी प्यारी दूकान भी दाँव पर लगाकर हार चुका था। ठीक घड़ी के काँटे के साथ ही खेल समाप्त हुआ। एक-एक कर सब खिलाड़ी हाथों की धूल झाड़कर चले गए थे। कड़कड़ाती ठंड में पेड़ के एक ठूँठ तने पर अपनी कुबड़ी पीठ टिकाए, निष्प्राण-सा गुरुदास शून्य गगन को एकटक देख रहा था। अब वह क्या लेकर घर जाएगा? उसकी प्यारी-सी दूकान, जिसकी गद्दी पर वह छोटी-सी सग्गड़ में तीन-चार गोबर और कोयले के लड्डू धमकाकर, चेस्टनट-अखरोट और चेरी-स्ट्राबेरी को मोतियों के मोल बेचा करता था, अब उसकी कहाँ थी? महीने की रसद लाने के लिए पाँच का नोट भी तो नहीं था जेब में। टप-टपकर उसकी झुर्री पड़े गालों पर आँसू टपकने लगे, फटी बाँह से उसने आँखें पोंछी ही थीं कि किसी ने उसका हाथ पकड़कर बड़े स्नेह से कहा, "वाह दाज्यू! क्या इसी हौसले से खेलने आए थे? कैसे मर्द हो जी, चलो उठो, घर चलकर एक बाजी और रहेगी।"
गुरुदास ने मुड़कर देखा, उसका सर्वस्व हरण करने वाला महिम भट्ट ही उसे खींचकर उठा रहा था।
"क्यों मरे साँप को मार रहे हो भट्ट जी? अब है ही क्या, जो खेलूँगा।" बूढ़ा गुरुदास सचमुच ही सिसकने लगा।
"वाह जी वाह! है क्यों नहीं? असली हीरा तो अभी गाँठ ही में बँधा है। लो सिगार पिओ।" कहकर महिम ने अपनी बर्मी चुस्र्ट जलाकर, स्वयं गुरुदास के होठों से लगा दिया।
बढ़िया तंबाकू के विलासी धुएँ के खंखार में गुरुदास की चेतना सजग हो उठी, कैसा हीरा, भट्ट जी?"
महिम ने उसके कान के पास मुख ले जाकर कुछ फुसफुसा कर कहा और गुरुदास चोट खाए सर्प की तरह फुफकार उठा, "शर्म नहीं आती रे बामण! क्या तेरे खानदान में तेरी माँ बहनों को ही दाँव पर लगाया जाता था?"
पर महिम भट्ट एक कुशल राजनीतिज्ञ था, कौटिल्य के अर्थशास्त्र के गहन अध्ययन ने उसकी बुद्धि को देशी उस्तरे की धार की भाँति पैना बना दिया था। मान-अपमान की मधुर-तिक्त घूँटों को नीलकंठ की ही भाँति कंठ में ग्रहण करते-करते वह एकदम भोलानाथ ही बन गया था। कड़ाके की ठंड में आहत गुरुदास की निर्वीर्य मानवता को वह कठपुतली की भाँति नचाने लगा। "पांडवों ने द्रौपदी को दाँव पर लगाकर क्या अपनी महिमा खो दी थी? हो सकता है दाज्यू, तुम्हारी गृहलक्ष्मी के ग्रह तुम्हें एक बार फिर बादशाह बना दें।"
अपनी मीठी बातों के गोरख धंधे में गुरुदास को बाँधता, महिम भट्ट जब अपने द्वार पर पहुँचा, तो बूढ़ा उसकी मुठ्ठी में था। "देखो, इसी साँकल को ज़रा-सा झटका देना और मैं खोल दूँगा। निश्चित रहना दाज्यू, किसी को कानों-कान ख़बर नहीं लगने दूँगा।"
बिना कुछ उत्तर दिए ही गुरुदास घर की ओर बढ़ गया। दिन भर वह अपनी छोटी-सी दूकान में चेस्टनट, स्ट्राबेरी और अखरोट बेचता था। उसकी दुकानदारी सीजन तक ही सीमित थी, भारी-भारी बटुए लटकाए टूरिस्ट ही आकर उसके मेवे ख़रीदते। पहाड़ियों के लिए तो स्ट्रॉबेरी और अखरोट, चेस्टनट, घर की मुर्गी दाल बराबर थी। डंडी मारकर बड़ी ही सूक्ष्म बुद्धि से वह दस हज़ार जोड़ पाया था, दो हज़ार शादी में उठ गए थे। तिरसठ वर्ष की उम्र में उसने एक बार भी जुआ नहीं खेला था, किंतु आज लाल के बहकावे में आ गया था। लाल उसका भानजा था। "हद है मामू। एक दाँव लगाकर तो देखो! क्या पता, एक ही चोट में बीस हज़ार बना लो! न हो तो एक हाथ खेलकर उठ जाना।"
"तू आज भीतर से कुंडी चढ़ाकर खा-पीकर सोए रहना। मुझे भीमताल जाना है।" उसने पत्नी से कहा और गबरून के फटे कोट पर पंखी लपेटकर निकलने ही को था कि कुंदन-लगी नथ के लटकन की लटक ने उसे रोक लिया। सुभग-नासिका भारी नथ के भार से और भी सुघड़ लग रही थी। अठारह वर्ष की सुंदरी बहू को बिना कुछ कहे भला कैसे छोड़ आते! "अरी सुन तो," कहकर उन्होंने पत्नी को खींच छाती से लगाकर कहा, "तू जो कहती थी न कि पिथौरागढ़ की मालदारिन की-सी सतलड़ तुझे गढ़वा दूँ! भगवान ने चाहा, तो कल ही सोना लेकर सुनार को दे दूँगा।" बिना कुछ कहे चंदो पति से अपने को छुड़ाकर प्रसाद बनाने लगी। तीन वर्ष से वह प्रत्येक दीवाली पर पति का यही व्यर्थ आश्वासन सुनती आई थी। उधर बूढ़ा लहसुन भी खाने लगा था, ऐसी दुर्गंध आई कि उसका माथा चकरा गया।
रिश्ते में बहू लगने पर भी वह चंदो की हमउम्र थी और दोनों में बड़ा प्रेम था। "मामी जी, आज खूब मन लगाकर लक्ष्मी जी को पूजना, मामा जी दस हज़ार लेकर जुआ खेलने गए हैं।" अपने सुंदर चेहरे से नथ का कुंदन खिसकाकर वह बोली।
जलते घी की सुगंधि से कमरा भर गया। "हट, आई है बड़ी! उन बेचारों के पास दस हज़ार होते तो कार्तिक में मेरी यह गत होती?" फटे सलूके से उसने अपनी बताशे-सी सफ़ेद कुहनी निकालकर दिखाई।
"तुम्हारी कसम मामी, ये भी तो गए हैं। इन्होंने अपनी आँखों से देखा।"