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उत्तराखंड से संबंधित ये कहानी - " पिटी हुयी गोट"

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
वह साह की तीसरी पत्नी थी, इसी से उसका जी करता था कि उसे भी चूल्हे के नीचे अपनी दस हज़ार की संपत्ति के साथ गाड़कर रख दे, पर धीरे-धीरे उस सौम्य संत बालिका के साधु आचरण ने उसके शक्की स्वभाव को जीत लिया। न वह पास-पड़ोस में उठती-बैठती, न कहीं जाती। गुरुदास दूकान पर जाता, तो वह अपने प्रकाशविहीन कमरे में पति के पूरी बाँह के जीर्ण स्वेटर को उधेड़कर आधी बाँह का बनाती, तो कभी आधी बाँह के पुराने बनियान से मोजे बनाती। गुरुदास नया ऊन तो दूर, सलाइयाँ भी लेकर नहीं देता था। एक बार उसने सलाइयों की फ़रमाइश की, तो चट से गुरुदास ने अपने पुराने छाते से ही मोड़-माड़कर विभिन्न आकार की चार जोड़ा सलाइयाँ बना दी थीं। किंतु पड़ोसिनों और आत्मीय स्वजनों के उभारे जाने पर भी चंदो ने कृपण पति के प्रति बगावत का झंडा नहीं खड़ा किया। उसे सचमुच ही पति के प्रति अनोखा लगाव था। उस लगाव में प्रेम कम, कृतज्ञता ही अधिक थी किंतु बचपन से वह बूढ़ी दादी और पतिपरायण माता से पतिभक्ति का ही उपदेश सुनती आई थी, "पति से द्रोह करने वाली स्त्री की ऐसी दशा होती है!" दादी ने अपढ़ भोली बालिका को 'कल्याण' में चील-कौओं से नोंची जानेवाली छटपटाती स्त्री का चित्र दिखाकर कहा था।

फिर गुरुदास उसे बड़े ही प्यार से पुचकारकर बुलाता, बड़े से दोने में भरकर जलेबी लाने में वह कभी कंजूसी नहीं दिखाता था और जिसे जीवन के पंद्रह वर्षों में मिठाई तो दूर, भरपेट अन्न भी न जुटा हो, उसके लिए नित्य जलेबी का दोना पकड़ाने वाला पति परमेश्वर नहीं तो और क्या होता! गुरुदास चंदो के अंधकारमय जीवन का प्रथम प्रकाश था। वह अपनी खिड़की से नित्य नवीन साड़ियों में मटकती, सीजन की सुंदरियों को देखती, तो कभी उसे डाह नहीं होती। गुरुदास दूकान लौटता, संकरी सीढ़ियों पर पति की फटीचर जूतियों की फत्त-फत्त सुनकर वह आश्वस्त होकर उठती, गरम राख से अंगारे निकालकर आग सुलगती, चाय बनाकर पति को देती, अंगुलियाँ चाट-चाट कर चटखोरे लेती, जलेबी का दोना साफ़ करती और फिर नित्य मंदिर जाती। मंदिर के रास्ते में उसे प्राय: ही डिगरी कॉलेज के मनचले लड़के 'वैजयंती माला' कहकर छेड़ भी देते, पर उनके फ़िल्मी गाने, सीटियाँ और हाय-हूय उसे छू भी नहीं सकते। वह सिर झुकाए मंदिर जाती, नित्य देवी से आँखें मूँदकर एक ही वरदान माँगती, "मेरा सौभाग्य अचल हो माँ!" शायद उसकी सरल, निष्कपट प्रार्थना ने बूढ़े गुरुदास के समग्र रोगों से एक साथ मोर्चा ले लिया था। उसी बुढ़ापे में भी वह लहलहाने लगा था। पास-पड़ोस की स्त्रियों ने गुरुदास के कृपण स्वभाव की आलोचना को नित्य नवीन रूप देकर चंदो को भड़काने की कई चेष्टाएँ कीं, पर वे विफल ही रहीं। रवि, सोम और बुध को चंदो मौनव्रत धारण करती थी। मंगल, शनि को पहाड़ की स्त्रियाँ, मिलने-मिलाने कहीं नहीं जातीं। बृहस्पति को वे दल बाँधकर आतीं, पर गुरुदास का प्रसंग छिड़ते ही, चंदो कोई-न-कोई बहाना बनाकर उठ जाती। आज लालबहू ने उसका चित्त खिन्न कर दिया था, जिस पति को देवता समझकर पूजती थी, क्या वही उसे धोखा दे गया?

उसका नियम था कि वह पति के आने तक सदा बैठी रहती। आज भी वह बैठी थी। पति की परिचित पदध्वनि सुनकर वह उसे असंख्य उपालंभो से बींधने को व्याकुल हो उठी, पर सौम्यता और शील ने उसके चित्त पर काबू पा लिया। हँस कर वह पति का स्वागत करने बढ़ी, पर पति के सूखे चेहरे ने उसे पीछे धकेल दिया, हार तो नहीं गए?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
चंदो!" गुरुदास का गला भर्रा गया। दस-ग्यारह दीये अभी भी टिमटिमा रहे थे, उन्हीं के अस्पष्ट आलोक में पति के कुम्हलाए चेहरे को देखकर चंदो का हृदय असीम करुणा से भर आया। ममता तो अपने पाले कुत्ते पर भी हो आती है, फिर वह तो उसे ही पालनेवाला स्वामी था।

"तू जल्दी पंखी डालकर मेरे साथ चल।"
कहाँ चलने को कह रहे हैं इतनी रात? - बिना कुछ कहे ही चंदो ने अपनी गूँगी दृष्टि पति की ओर उठाई।
"तुझसे झूठ नहीं बोलूँगा, चंदो! आठ हज़ार और दूकान सब-कुछ हार गया हूँ। महिम कहता है कि घर की लक्ष्मी को बगल में बिठाकर दाँव फेंकूँ, तो शायद जीत जाऊँ। चलेगी न?" वह गिड़गिड़ाने लगा।
सरल-निष्कपट चित्त के दर्पण में संसार की कलुषित-फरेबी चालें कितनी स्पष्ट होकर निखर आती हैं। चंदो पलक मारते ही सब समझ गई। आधी रात को उसका पति उसे महिम भट्ट के यहाँ दाँव पर लगाने के लिए ही ले जा रहा था। दो ही दिन पहले वह मंदिर के द्वार में महिम भट्ट से टकरा गई थी। कैसा सुदर्शन व्यक्ति, किंतु कैसी कुख्याति थी उसकी! पास-पड़ोस में नित्य ही वह उसके दुर्दांत कामी स्वभाव की बातें सुनती। वह युवती-विधवाओं के लिए व्याघ्र था, कितनी ही अल्हड़ किशोरियाँ उसके वैभव और व्यक्तित्व से रीझकर लट्टू-सी घूमने लगी थीं। फिर भी न जाने अन्याई में कैसा जादू था कि एक बार देखने पर सहज ही में दृष्टि नहीं लौटी थी।
"चल-चल, चंदो, देर मत कर," उसे अपनी फटी पंखी में लपेट द्वार पर ताला लगा, गुरुदास उसे निर्जन सड़क पर खींच ले गया।
महिम भट्ट के पिछवाड़े से होकर दोनों उसके गुप्त द्वार पर खड़े हो गए। लोहे की विराट सांकल पर लगी छोटी-सी घंटी को दबाते ही द्वार खुल गया।
"आइए भौजी, आइए-आइए! मेरे अहोभाग्य जो कुटिया को पवित्र तो किया!"

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
महिम के काले ओवरकोट से उठती सुगंधि की लपटों ने चंदो को बाँध लिया। एक संकरी गैलरी को पार कर तीनों महिम की कुटिया के दीवानखाने में पहुँचे, तो उसका वैभव देखकर चंदो दंग रह गई। छत से एक अजीब झाड़-फानूस लटक रहा था, जिसकी नीलभ रोशनी में फटी पंखी में लिपटी कृशकाया चंदो बुत-सी खड़ी ही रह गई।
"बैठो-बैठो, भौजी, लो गरम कॉफी पियो!" पास ही धरे कीमती थरमस से कॉफी डालकर महिम ने कहा। चंदो सकुचाकर पति की ओट में छिप गई।
"ओहो, दाज्यू, ऐसे हीरे को तो इस गुदड़ी में न छिपाया होता! ठीक ही तो कहते हैं कि गुदड़ियों में ही लाल छिपे होते हैं! लो भौजी यह शाल ओढ़ो। यह पंखी तो तुम्हारा अपमान कर रही हैं" अपना कीमती पश्मीना उसकी ओर बढ़ाकर महिम ने कहा। लज्जावानता चंदो ने प्याला थामा, तो दोनों हाथों से पकड़कर ओढ़ी गई पंखी नीचे गिर पड़ी। नीचे क्या गिरी कि कृष्ण मेघ को चीरकर धौत चंद्रिका छिटक गई। सब भूल-भालकर महिम उसे ही देखता रहा। ऐसा रूप! क्या रंग था, क्या नक्श और बिना किसी बनावटी उतार-चढ़ाव के! चंदन-सी देह का क्या अपूर्व गठन था! लज्जा, शील और भय से सारे शरीर का रक्त चंदो के चेहरे पर चढ़कर सिंदूर बिखेर उठा। नारी-सौंदर्य का अनोखा जौहरी महिम उसके अंग-प्रत्यंग की सचाई को अपने अनुभव की कसौटी पर कस रहा था और खरे कुंदन की हर लीक उस पद-पद पर मत्त कर रही थी।
"अच्छा! अब देर कैसी भट्ट जी? हो जाए आखिरी दाँव!" गुरुदास ने प्याले की चीनी को अँगुली से चाट कर कहा।
"क्यों नहीं, क्यों नहीं!" महिम ने चाँदी के पानदान से कस्तूरी बीड़ा दोनों की ओर बढ़ाकर कहा, "दाँव तो लगा रहे हो दाज्यू, पर क्या भाभी से पूछ लिया है?
विजयी, मुँहफट, उद्दाम यौवन की चोट से गुरुदास की जर्जर काया काँप उठी।
"बुरा मान गए दाज्यू?" महिम ने बीड़े से गाल फुलाकर कहा, "हिसाब-किताब साफ़ रखना ठीक ही होता है। देखो भाभी, दाज्यू आज सब कुछ मुझसे हार गए हैं। तुम्हें ही दाँव पर लगाने का सौदा तय हुआ है। ज़रूरी नहीं हैं कि तुम्हें हार ही जाएँ। हो सकता है कि तुम्हारी शकुनिया देह की बाजी इन्हें खोए आठ हज़ार दिलाकर, एक बार फिर मेवे की दूकान पर बिठा दे। पर अगर हार गए, तो तुम आज ही की रात से मेरी रहोगी। तुम्हारे जीवन की प्रत्येक रात्रि पर मेरा अधिकार रहेगा। मैं इसका विशेष प्रबंध रखूँगा कि तुम्हारे पति की हार और मेरी जीत का भेद प्राण रहते हम तीनों को छोड़ और कोई भी नहीं जान पाएगा। तुम्हारी अटूट पति भक्ति का बड़ा दबदबा है और इससे मुझे बड़ी मदद मिलेगी। तुम्हारे पति यदि हार गए, तो?"

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
बीच ही में महिम को रोककर गुरुदास क्रोध से काँपता खड़ा हो गया। गुस्सा आने पर बलगम का गोला घर-घर कर पुरानी जीप के इंजन की भाँति उसके गले में घरघराने लगता था। अवरुद्ध कंठ से दोनों मुठि्ठयाँ भींचकर वह बोला, "मैं कभी हार नहीं सकता, कभी नहीं!"
"अच्छा, भगवान करे ऐसा ही हो दाज्यू! जल्दी क्या है? बैठो तो सही, "मुस्कराकर महिम ने उसे हाथ पकड़कर बिठा दिया और ओवरकोट उतारकर पत्ते हाथ में ले लिए। गरम धारीदार नाइट ड्रेस में सुदर्शन तेजस्वी, नरसिंह महिम भट्ट, पान और दोख्ते से अपने विलासी अधरों की मुस्कान बिखेरता, गावतकिये के सहारे लेटा, पत्ते बाँटने लगा। दूसरी ओर गबरून के कोट की फटी कुहनियों से, लहसुन की गाँठ-सी हडि्डयाँ निकाले, दोरंगी मफलर से अपनी लाल-गीली नाक को बार-बार पोंछता गुरुदास जोर से देवी कवच का पाठ कर रहा था -"रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि। उन दोनों विवेकभ्रष्ट जुआरियों के बीच काँपती-थरथराती चंदो-कुमाऊँ की सरला पतिव्रता किशोरी, जिसके लिए पति की आज्ञा कानून की अमिट रेखा थी, जो पति की आदेशपूर्ण वाणी को ब्रह्मवाक्य समझकर ग्रहण करने को सदा तत्पर थी। पत्ते बँटे, चालें चली गईं, गुरुदास के बूढ़े चेहते पर सहसा जवानी झलकने लगी। खुशी से झूमकर बूढ़ा नाच-नाचकर, महिम के सामने ही चंदो को पागलों की तरह चूमने लगा। वह बेचारी लज्जा से मुँह ढाँपकर पीछे हट गई।
"ठीक है, ठीक है दाज्यू! दिल के अरमान निकाल लो। फिर मत कहना कि मैंने मौका नहीं दिया।" अपने पत्तों को चूमकर महिम ने माथे से लगाकर कहा।
"अबे, जा हट! आया बड़ा मौका देने वाला! ऐसे पत्ते ब्राह्मणों के पास नहीं आया करते, वैश्य पर ही लक्ष्मी जी कृपालु होती हैं, हाँ!" गुरुदास ने फिर नाक पोंछकर कहा।
"क्यों नहीं, क्यों नहीं! पर मैं तो तुम्हें आगाह किए दे रहा हूँ। दाज्यू, जरा सँभल के आना, यहाँ भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।"
महिम ने चाल तिगुनी की। पत्तों को बार-बार चटखारे लेकर चूमता वह चंदो की ओर देखकर ऐसी धृष्टता से मुस्करा रहा था, जैसे पत्तों को नहीं उसे चूम रहा हो। गुरुदास ने देख लिया और गुस्से से भर-भराकर वह पत्ते पकड़कर उठ गया। उसका शक्की स्वभाव अब तक खेल की लग्न में कुंडली मारे सर्प की तरह छिपा था, "देखो, हम ताश खेलने आए हैं, इशारेबाजी देखने नहीं।"
"वाह यार दाज्यू, कैसे खिलाड़ी हो! ट्रेल आने पर ही पत्ते चूमे जाते हैं।" महिम के स्वर में अहंकार था।
"किसे सुना रहे हो गुरु! यहाँ भी ट्रेल है।" बूढ़ा बुरी तरह हाँफने लगा।
"कोई बात नहीं। इसमें घबराहट कैसी! लाखों ट्रेलें देखी हैं शाह जी!"

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
द्यूत-क्रीड़ा के छिपे दानव ने दोनों को सहसा विवेक की चट्टान से बहुत नीचे पटक दिया। चंदो बेचारी के लिए सब कुछ नया था। वह दोनों हाथ गोदी में धर, आँखें फाड़कर दोनों को देख रही थी। उसकी विस्फारित भोली दृष्टि देखकर महिम से नहीं रहा गया।
"तो लो दाज्यू, खोलो पत्ते!" इसने सौ का नोट फेंका और अपने पत्ते भी खोल दिए। तीन-तीन इक्कों की ट्रेल ने बूढ़े की छाती में तीन-तीन नंगी संगीनें घुसेड़ दीं। उसके हाथ से गिरी पान, हुकुम और इंर्ट की बेगमें जमीन पर सिर धुन उठीं।
"वाह-वाह! तीन-तीन बेगमें भी तुम्हारी चौथी बेगम को नहीं बचा सकीं!" महिम ने हंसकर कहा। गुरुदास कुछ देर पत्थर की तरह बैठा रहा, फिर अपने गंदे रूमाल से आँख और नाक की जल-धारा पोंछता एक बार चंदो की ओर देखकर बुरी तरह सिसकता किसी पिटे बालक की भाँति गिरता-पड़ता बाहर निकल गया।

महिम ने कुंडी चढ़ा दी और बड़े प्यार से चंदो की नुकीली ठुड्डी हाथ में लेकर बोला, "भाभी, आज से मैं जुआ नहीं खेलूँगा। जानती हो क्यों? आज संसार की सबसे बड़ी संपत्ति जीत चुका हूँ।"
बड़ी देर बाद कार्तिक की ओस-भीनी रात्रि के अंतिम प्रहर में काँपती चंदो को उसके गृह के जीर्ण जीने तक पहुँचाकर महिम तीर की भाँति लौट गया। वह कमरे में पहुँची तो कमरा खाली था। गुरुदास तड़के ही उठकर, पाषाण देवी के मंदिर में, नित्य माथा टेकने जाता था। वह चुपचाप फटी रजाई सिर तक खींचकर सो गई। कैसी नींद आई थी, बाप रे बाप! "मामी-मामी! उठो गजब हो गया!" लालबहू का कंठ-स्वर सुन वह हड़बड़ाकर उठी।
"मामी, मामाजी ताल में कूद गए। मंदिर के पुजारी ने देखा, काँटा डाला है, पर लाश नहीं मिली। नाश हो इन जुआरियों का! बेचारे को लूट पाट कर धर दिया!"
स्तब्ध चंदो द्वार की चौखट पकड़े ही धम्म से बैठ गई। किसने उसका सिंदूर पोंछा, किसने चूड़ियाँ तोड़ीं और कौन नोचकर मंगलसूत्र तोड़ गई, वह कुछ भी नहीं जान पाई। वह पागलों-सी बैठी ही थी।
"राम-राम!" बेचारा आठ हज़ार नकद और दूकान सब-कुछ ही तो दाँव में हार गया! वही धक्का उसे ले गया।" पंडित जी कह रहे थे, "सोलह बरस से मेरा यजमान था। बड़ा नेक आदमी था।"
अब तक चुप बैठी चंदो, दोनों घुटनों में माथा डालकर ज़ोर से रो पड़ी। एकाएक जैसे उसे रात की बिसरी बातें याद हो आईं। दूकान और आठ हज़ार का धक्का नहीं, उसके पति को जिस दूसरे ही दाँव की हार का धक्का ले गया था, उसे क्या कभी कोई जान पाएगा?

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