Author Topic: उत्तराखंडी नाटकों की शुरुआत (गढ़वाली, कुमाऊंनी) - UTTARAKHANDI PLAYS !!  (Read 26728 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पाथर बौल
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भाषा = (कुमोअनी)
संन = १९९० के बाद
लेखक : ललित सिह पोखरिया

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२..   उत्तरायनी
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भाषा = (कुमोअनी)
संन = १९९० के बाद
लेखक : ललित सिह पोखरिया

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Information Provided by Mr Dinesh Bilajwan ji.

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Manan Kumar had written  about 'Chamatkar' written and Directed by Lalit Mohan Thapliyal ( Not alive now) in 1999

A Himalyan Miracle

The High Hiller's Group is an association of people from the Uttrakah(region of the UP hills,  comprising mainly Theri Garhwal, Pauri Garhwal and Kumaon) settled in Delhi since 1982.]
The group presented a play called 'Chamatkar'  in the LTG auditorium recently.  Written and directed by Lalit Mohan Thapliyal , the small budget Garhwali play tries to seek the meaning and role of spirituality in life.
The play opens up with a typical teashop in a small town of Pauri Garhwal.  In the back-drop are the majestic and pious Himalayas.  This rather insignificant place boasts of one  Chimitewale Baba- famous for providinga cure to all problems through super-natural powers.
The  teashop suddenly becomes a centre of activity as people from  other parts of country come to seek the blessings of Baba who  suddenly vanishes.
While the gredy teashop owner, Harkhu Lala, uses this opportunity to make a fast buck, the desperate tourists assemble at the teashop of Chimtewale Baba.  The character of Nathu, the Lala's helper, played  rather well by Brijmohan Sharma, symbolises the typical character of a hill man.
Though, the spiritual Baba does not appear till the very end, the characters do come to understand the reality of life on different occasions.
manan Kumar

Dinesh Bijalwan

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Ajua Bafoul was staged  at Shree Ram Centre, Mandi House New Delhi on 26th Sept.2006 by  Himalaya Lok Kala Kendra, Almora  participating in Lok Natya Samaroh -2006.  The Play  written by Rajendra Bora & Jugal Kishor Petshali was directed by Gokul Bist & Diwan Kanwal.

22 Bafoul brothers live in Bafoul Kot.   They have a big Drum (Nagada) in their Fort.  These brothers were  very brave  and even the King Bharati Chand of Champawat whom they served, was also afraid of them.  The drum beats at Bafoul Kot  often make him shiver.   He was assisted by these 22 brothers  in defeating the King of Douti  and  getting his dauther   as a prize.  This daughter of King of Doti, now the wife of Bhartichand could not forget that  22 Bafoul brothers were behind  the defeat of her fater.  She hatches  a consipriacy, and  kills the 22 Bafoul brothers by mixing poision  in their food.       The wife of the eldest Bafoul brother was pregnent at that time.  She got some idea of foul play with Bafoul brothers so to save the life of her unborn child she went to Borkot, her fathers place. She gave birth to  a son.    He was wonderful in every aspect so people started calling him  Ajua or Ajoba (Wonderful).    One day, he asks his mother the same question which was asked by Sohrab, the son of legendary warrior Rustom.... Who is my father, which dynasty I belong?   Mother was compelled to tell him the truth.   The boy Ajuba  returns to Bafoul Kot beats the traditional Nagada .  In Campawat,the Dotiyali Rani & Bharti Chand hear the Drum Beat after  18 years .   Dotiyaali Rani once again tries her evil tricks but the clever and brave Ajua defeats  her.

It was a nice play throwing light  on the  period of  Bharti Chand and Dotiyali Rani.

Dinesh Bijalwan

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टिहरी  मे राजशाही के समय १९१३-१९१६ के बीच शैमियर नाम का अन्ग्रेज अधिकारी राज व्यवस्था की निगरानी करने वाली  टिहरी राज्य सन्ऱछ्ण समिति का प्रमुख था. उसके समय मे भवानी दत्त उनियाल ने शैमियर ड्रामैटिक क्लब की स्थापना की थी/ १९१६ मे  शैमियर की हैजे से मौत हो गयी पर इस क्लब का अस्तित्व बना रहा / इस क्ल्ब ने अनेक नाट्को का मन्चन किया /  इनमे चार दोस्तो - सत्य प्रसाद रतूडी, बिधालाल पुन्डीर, देवीदत्त नोटियाल और  मेधाकर नौटियाल  द्वारा रचित पान्खू भी है / इस्का मन्चन १९३२ मे हुआ था /

Dinesh Bijalwan

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बीर गाथा प्रकासन दोग्ड्डा , गढ्वाल  की दुर्लभ काव्यमाला सूची मे  भवानी दत्त थ्पल्याल जी के जय विजय को गढ्वाली का पहला नाट्क कहा गया है  और  प्रल्हाद  को  उनका दूसरा नाट्क बताया गया है/ उसमे उनकी अन्य रचनाओ - बाबा जी की कपाल किर्या, कलिजुग्यानन्द की पाठ्शाला और फौन्दार जी की क्छडी  का भी जिक्र है.

Parashar Gaur

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गढ़वाली नाटक और मै


               मेरी एक कविता ..   ढूध अर बोलली




                     मिनख का वास्ता
                    सबसे पवित्र अर सबसे उत्तम होंद
                    बोई को ढूध ....
                     उतगे पवित्र अर उत्तम होंद  वा
                    गेयूं की बलडी............
                     जैसे पैदा हुन्द एक ताकत
                    जैसे बण्द बोली /भाषा  
                    वीका  बोली अर वी भाषा बान तुम
                    अप्णो ब्रह्मांड नि  कटै सकदा
                    अर सीना पर गोली नि खे सकदा त
                    धिक्कार  च  तुमको  !  "
                                               .......................        पराशर गौड़ !


                 मेरे जीवन में गढ़वाली नाटक की सुरवात का सिलसिल्ला बच्चपन के दौर से ही सुरु हो गयया था   गाऊ में अक्क्सर जब लोगो खेती बाड़ी के काम काज से हलके हो जाते थे तो रात को मनोरजन के लिए राम्लीलाये  खेला करते थे ! मुझे अच्छी तरह याद है हमारी मीरचोरा ग्राम में एक बहुत बड़ा चौक है उसमे ये कार्याक्रम होते थे ! बात ६० के दशक की है तब मेरी उम्र रही होगी १० साल की उस साल भी गोउ  के लोगो ने राम लीला का  करने की आयोजन बनाई  और उससे पहले  एक नाटक खेलने का भी मन बनाया !  चूँकि पहाड़ देवभूमि है इसलिए तब धार्मिक नाटक ही वहा खेले जाते रही है सो ,  तब उन्होंने भी "राजा हरीशचंदर " खेलने की
तयारी करने सुरू कर दी !  रात को रिहर्सल सुरु हो गई !  पात्र छांटे जाने लगे ! सब मिलगये पर रोहताश का पात्र नहीं मिला ! एक दिन मै भी रहर्शल देखने गया तो  गौउ के एक चाचा ने पकड़कर मुझे आगे कर दिया ! पहले तो मै   जनता को  देखकर घबराया , थोडा सरमाया  पर चाचा ने जेब से तब एक  मीठाई  " लेमचूश " निकालकर मुझे पकडाते हुए कहा ये डायलाग बोल  " अरे मरी माँ को  कहा ले जा रहा है  "  ... मैंने इधर उधर देखा   हिमत जुत्ताकर कह्दाला  ... "  सुनकर लोगो ने तालिया बजाई  जिसे देखकर मारा मनोबल बडगया फिर क्या था   मैंने रोज जाकर खूब मेहनत की  !  ड्रामा हुआ !  मेरा पाठ लोगो को खूब पसंद आया ! इनाम में मुझे एक रुपया मिला ! मै सातवे आसमान पर  ... बस ,  वो दिन था की आज का दीन नाटको एसा जुड़ा की चा कर भी नहीं छूटा  वो च्स्सका  !

      



60 के दशक में ... ८वी पास करने के बाद मुझको उच् शिक्षा के लिए देहली आना हुया !  मुझको मात्ता सुंदरी हायर सेकंडरी स्कूल में दाखिला दिला दिया गया ! घर की प्रस्तितियो में बिभाधन आने के कारण मैंने ये निर्णय लिया की मै दिन का स्कूल छोड़ कर रात में ब्याक्तिगत पडू ,  और दिन में मै काम करू !  इस तरह बतौर   प्राइबेट  बिद्यार्थी के मैंने  १०वी और 12वी की !  पदाई के दौरान मुझे एक दोस्त जिनका नाम जगदीश डौन्दियाल है उनसे मुलाक़ात हुई ! वे बहुत ही अच्हा गाते थे !  मैने तब गीत लिखने शुर ही किये थे ! दोनों ने सोचा क्यों ना आकशवाणी में ट्राई करे ! उन दिनों देहली से सप्ताह में दो दिन गड्वाली गीतों का प्रशारण हुआ  करता था !  उनके कहने पर मैंने गीत लिखने सुरु कर दिए !  उसने आडिशन के लिए फार्म भरा और वो पास  हो गए  !  सबसे पहले उसने मेरे द्वारा लिखित दो गीत गए ....



             " होसिया जोगी , कैलाश बासी  जागी जावा इ बाबा  नीलकंठी "
                " भागीरथी को छालो पानी  गाल गाल ......    "   !

उसके बाद तो वे हमेशा मेरे ही द्वारा लिखे गीत गाते रहे !  हम दोनों की जोड़ी जम सी गई थी ! थोडा बहुत नाम होना सुरु होगया था !  उन दिनों गड्वाली के नाम पर सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत कम होया करते थे , और जो होते भी थे तो पट्टी लेबल पर  !  इन कार्यक्रमों को  सरकारी  नौकरियो में सबे नींम श्रेणी  जिन्हें तब चतुर्थ श्रेणी के नाम से पुकार जाता था किया करते थे !  



   इस दशक में गड्वाली हिन भावन का सिकार..........





          इस बीच देहली में एक बड़ी तबदीली दिखने में आई सरकारी  नौकरियों में पाहाडी तपके से बाबुओ की तायदाद बड़ी ! एक और खुसी भी हुई तो इसका बुरा नतीजा हमरे समाज पर पडा क्यों की जो बाबु बना वो   पहाड़ के गद्वालियो से कट गया ! वो  इस बाबू गिरी में अपनी माँ बोली रहन सहन तक से अपना नाता तोड़ने में लग गाया ! वो हिन्भावान का शिकार होता चला गया !  अधिकतर लोगो ने अपनी जात छुपाने के लिए शर्मा  लिखने लगे थे ताकि कोई उन्हें जात के द्वारा न जान पाए की ये वो जात है जो गडवाल में पाई जाती है !  अपने साथ वो जो करते थे सो ठीक  पर उन्होंने अपने  बचों को भी गडवाल व गड्वाली बोली से कोसो दूर रखा नतीजा ये हुआ की गड्वाली बोली का विकास एक  दम रुक सा गया !  ना कोई गीत -,संगीत ना सांस्कृतिक कार्यकर्म ना  कविता ना नाटक ! उस दौरान जैसा मैंने कहा की चपरासी लोगो ने गड्वाली बोली वाषा को जिंदा रखा !  बाबु से थोडा उप्पर उठे  चाँद एक लोगो में फिर से  अपनी बोली के प्रति कुछ  रुछान जो किसी कोने में अभी जिंदा था वो जगह रहा था !



 गड्वाली नाटक और उसकी दशा ....



       मै गड्वाली गीत लिखता रहा और वो आकाश्बानी से प्रसारित होते रहे !  सेवा नगर ( सेवा इसलिए रखा या कहा जाता रहा क्यूँ की वहा पर सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले चपरासी लोगो जो दफ्तारो में  जो सेवा   करते थे  उनके इस  सेवा भाऊ को देख कर उनकी कोलानी का नाम रखा गया ) में यदा कदा ये लोगो गीत/निर्त्य का प्रोग्राम करते थे उसमे आकाशवाणी का  कलाकार  का आना अपने आप में एक बहुत बड़ी हस्ती के आने के  न आने बराबर था  बल्कि वे अपने को  फक्र भी मह्शूश करते थे की हमारे प्रोग्राम में  आकाशवाणी के   आर्टिस्ट आये  !  मै जगदीसा को आमंत्रित किया जाता रहा !  हमे समान मिलता , हम खुस होते थे !


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Excellent Sir..

Thanks.. . We are grateful that such an exclusive information we are knowing from you.
गढ़वाली नाटक और मै


               मेरी एक कविता ..   ढूध अर बोलली




                     मिनख का वास्ता
                    सबसे पवित्र अर सबसे उत्तम होंद
                    बोई को ढूध ....
                     उतगे पवित्र अर उत्तम होंद  वा
                    गेयूं की बलडी............
                     जैसे पैदा हुन्द एक ताकत
                    जैसे बण्द बोली /भाषा  
                    वीका  बोली अर वी भाषा बान तुम
                    अप्णो ब्रह्मांड नि  कटै सकदा
                    अर सीना पर गोली नि खे सकदा त
                    धिक्कार  च  तुमको  !  "
                                               .......................        पराशर गौड़ !


                 मेरे जीवन में गढ़वाली नाटक की सुरवात का सिलसिल्ला बच्चपन के दौर से ही सुरु हो गयया था   गाऊ में अक्क्सर जब लोगो खेती बाड़ी के काम काज से हलके हो जाते थे तो रात को मनोरजन के लिए राम्लीलाये  खेला करते थे ! मुझे अच्छी तरह याद है हमारी मीरचोरा ग्राम में एक बहुत बड़ा चौक है उसमे ये कार्याक्रम होते थे ! बात ६० के दशक की है तब मेरी उम्र रही होगी १० साल की उस साल भी गोउ  के लोगो ने राम लीला का  करने की आयोजन बनाई  और उससे पहले  एक नाटक खेलने का भी मन बनाया !  चूँकि पहाड़ देवभूमि है इसलिए तब धार्मिक नाटक ही वहा खेले जाते रही है सो ,  तब उन्होंने भी "राजा हरीशचंदर " खेलने की
तयारी करने सुरू कर दी !  रात को रिहर्सल सुरु हो गई !  पात्र छांटे जाने लगे ! सब मिलगये पर रोहताश का पात्र नहीं मिला ! एक दिन मै भी रहर्शल देखने गया तो  गौउ के एक चाचा ने पकड़कर मुझे आगे कर दिया ! पहले तो मै   जनता को  देखकर घबराया , थोडा सरमाया  पर चाचा ने जेब से तब एक  मीठाई  " लेमचूश " निकालकर मुझे पकडाते हुए कहा ये डायलाग बोल  " अरे मरी माँ को  कहा ले जा रहा है  "  ... मैंने इधर उधर देखा   हिमत जुत्ताकर कह्दाला  ... "  सुनकर लोगो ने तालिया बजाई  जिसे देखकर मारा मनोबल बडगया फिर क्या था   मैंने रोज जाकर खूब मेहनत की  !  ड्रामा हुआ !  मेरा पाठ लोगो को खूब पसंद आया ! इनाम में मुझे एक रुपया मिला ! मै सातवे आसमान पर  ... बस ,  वो दिन था की आज का दीन नाटको एसा जुड़ा की चा कर भी नहीं छूटा  वो च्स्सका  !

      



60 के दशक में ... ८वी पास करने के बाद मुझको उच् शिक्षा के लिए देहली आना हुया !  मुझको मात्ता सुंदरी हायर सेकंडरी स्कूल में दाखिला दिला दिया गया ! घर की प्रस्तितियो में बिभाधन आने के कारण मैंने ये निर्णय लिया की मै दिन का स्कूल छोड़ कर रात में ब्याक्तिगत पडू ,  और दिन में मै काम करू !  इस तरह बतौर   प्राइबेट  बिद्यार्थी के मैंने  १०वी और 12वी की !  पदाई के दौरान मुझे एक दोस्त जिनका नाम जगदीश डौन्दियाल है उनसे मुलाक़ात हुई ! वे बहुत ही अच्हा गाते थे !  मैने तब गीत लिखने शुर ही किये थे ! दोनों ने सोचा क्यों ना आकशवाणी में ट्राई करे ! उन दिनों देहली से सप्ताह में दो दिन गड्वाली गीतों का प्रशारण हुआ  करता था !  उनके कहने पर मैंने गीत लिखने सुरु कर दिए !  उसने आडिशन के लिए फार्म भरा और वो पास  हो गए  !  सबसे पहले उसने मेरे द्वारा लिखित दो गीत गए ....



             " होसिया जोगी , कैलाश बासी  जागी जावा इ बाबा  नीलकंठी "
                " भागीरथी को छालो पानी  गाल गाल ......    "   !

उसके बाद तो वे हमेशा मेरे ही द्वारा लिखे गीत गाते रहे !  हम दोनों की जोड़ी जम सी गई थी ! थोडा बहुत नाम होना सुरु होगया था !  उन दिनों गड्वाली के नाम पर सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत कम होया करते थे , और जो होते भी थे तो पट्टी लेबल पर  !  इन कार्यक्रमों को  सरकारी  नौकरियो में सबे नींम श्रेणी  जिन्हें तब चतुर्थ श्रेणी के नाम से पुकार जाता था किया करते थे !  



   इस दशक में गड्वाली हिन भावन का सिकार..........





          इस बीच देहली में एक बड़ी तबदीली दिखने में आई सरकारी  नौकरियों में पाहाडी तपके से बाबुओ की तायदाद बड़ी ! एक और खुसी भी हुई तो इसका बुरा नतीजा हमरे समाज पर पडा क्यों की जो बाबु बना वो   पहाड़ के गद्वालियो से कट गया ! वो  इस बाबू गिरी में अपनी माँ बोली रहन सहन तक से अपना नाता तोड़ने में लग गाया ! वो हिन्भावान का शिकार होता चला गया !  अधिकतर लोगो ने अपनी जात छुपाने के लिए शर्मा  लिखने लगे थे ताकि कोई उन्हें जात के द्वारा न जान पाए की ये वो जात है जो गडवाल में पाई जाती है !  अपने साथ वो जो करते थे सो ठीक  पर उन्होंने अपने  बचों को भी गडवाल व गड्वाली बोली से कोसो दूर रखा नतीजा ये हुआ की गड्वाली बोली का विकास एक  दम रुक सा गया !  ना कोई गीत -,संगीत ना सांस्कृतिक कार्यकर्म ना  कविता ना नाटक ! उस दौरान जैसा मैंने कहा की चपरासी लोगो ने गड्वाली बोली वाषा को जिंदा रखा !  बाबु से थोडा उप्पर उठे  चाँद एक लोगो में फिर से  अपनी बोली के प्रति कुछ  रुछान जो किसी कोने में अभी जिंदा था वो जगह रहा था !



 गड्वाली नाटक और उसकी दशा ....



       मै गड्वाली गीत लिखता रहा और वो आकाश्बानी से प्रसारित होते रहे !  सेवा नगर ( सेवा इसलिए रखा या कहा जाता रहा क्यूँ की वहा पर सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले चपरासी लोगो जो दफ्तारो में  जो सेवा   करते थे  उनके इस  सेवा भाऊ को देख कर उनकी कोलानी का नाम रखा गया ) में यदा कदा ये लोगो गीत/निर्त्य का प्रोग्राम करते थे उसमे आकाशवाणी का  कलाकार  का आना अपने आप में एक बहुत बड़ी हस्ती के आने के  न आने बराबर था  बल्कि वे अपने को  फक्र भी मह्शूश करते थे की हमारे प्रोग्राम में  आकाशवाणी के   आर्टिस्ट आये  !  मै जगदीसा को आमंत्रित किया जाता रहा !  हमे समान मिलता , हम खुस होते थे !



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This is the poem from a Garwali Play.

चंगा चारों धाम देखा,               चार कोस चम्माली देखी,
ब्रह्मा जी का काम देखा,             सात कोस सतपाली देखी।
गंगा सालिग्राम देखा,               वारा कोस की वैली देखी, 
लिंगा-ढुंगा कामारी।                  निसणी खंद्वारी।
हरि को हरद्वार देखो,                  कमरघास का अंदर देखी,
बदरी अर केदार देखो।              मैफिल गूणी बंदर देखी।
ज्वाल्पा को वार देखो,             चैनकोट का अंदर देखी,
कालिंका जी की धारी।            खैड़ की जागिरदारी।
श्रीनगर बाजार देखो,              डांडों की चूलंगी देखी,
टिहरी को दरबार देखो।          काफल की कालंगी देखी।
पौड़ी-नैनीताल देखो,             बमठी की नारंगी देखी,   
अल्मोड़ा-मंसूरी।                 ठंडी ठंडी सारी।
तपोवन का धाम देखा,          छांछि की छछिन्डी देखी,     
आमसौड़ का आम देखा।       कालीबाड़ी पिंडी देखी।
मंडी का मुक्काम देखा,          बासिंगा की ढिन्डी देखी
दुगड्डा का ढ़ाकरी।             आहा, मजेदारी।







एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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1911 में भवानीदत्त सती थपलियाल ने ‘जयविजय’ नाटक लिख कर गढ़वाली
नाट्य साहित्य का सूत्रपात किया। गढ़वाल में यद्यपि
कभी भी सुसंगठित, सुव्यवस्थित रंगमंच विकसित
नहीं हो सका किन्तु नाट्य लेखन अनवरत् चलता
रहा। गढ़वाली में काव्य सर्वाधिक लिखा गया।
कहानी और कुछ उपन्यास भी लेकिन नाटक भी
काफी लिखे गए। इन नाटकों के मंचन की यद्यपि
अद्यतन जानकारी नहीं है किन्तु इनमें से कुछ तो
मंचित होते रहे। एक आकलन के अनुसार गढ़वाली
में लिखे कुल चालीस नाटक व एकांकी आज भी
उपलब्ध हैं। भवानी दत्त थपलियाल ने ‘जयविजय’
और ‘प्रहलाद नाटक’ के बाद उपलब्ध कुछ प्रमुख
नाट्य लेखक इस प्रकार हैं -
सर्वश्री विशंभर दत्त उनियाल ;बंसतीद्ध, ईश्वरी
दत्त जुयाल ;परिवर्त्तनद्ध, भगवती प्रसाद पांथरी ;भूतों
की खोह, अधःतनद्ध, हरिदत्त भट्ट शैलेश व गोविंद
चातक के एकांकी संग्रह, जीतसिंह नेगी ;भारी
भूलद्ध, विशालमणि शर्मा ;ध्रुव व श्री कृष्णद्ध,
दामोदर प्रसाद थपलियाल ;मनखी, औंसी की रातद्ध,

पुरुषोत्तम डोभाल ;विदंरा व बुरांसद्ध, ललित मोहन
थपलियाल ;अछरियांे को ताल, खाडु लापताद्ध,
मित्रानंद मैठाणी ;च्यूं व मांगणद्ध, कन्हैयालाल
डंडरियाल ;सपूतद्ध, राजेन्द्र धस्माना ;जंकजोड़ व
अर्धग्रामेश्वरद्ध, अबोधबंधु बहुगुणा ;माई को लाल
व अंतिम गढ़द्ध, ललित केशवान ;मिठास व हरि
हिंडवानद्ध, गुणानंद पथिक वा सुरेशानंद थपलियाल
;रामलीला नाटकद्ध।
श्री शिवानंद नौटियाल, श्रीधर जमलोकी, प्रेमलाल
भट्ट, उमाशंकर सतीश, भगवती प्रसाद चंदोला,
स्वरुप ढौड़ियाल भी प्रमुख गढ़वाली नाट्क लेखको
में हैं। गढ़वाली नाट्य इतिहास के तीन दौर हैं।
प्रथम दौर- भवानीदत्त थपलियाल का, द्वितीय दौर
- ललित मोहन थपलियाल और तीसरा दौर राजेन्द्र
धस्माना के नाम है। आधुनिक दौर में गढ़वाली
नाटकों की दशा और दिशा क्या है, इस पर आकलन
किया जाना जरूरी है। खास तौर पर उस समय
जब गढ़वाली नाट्य इतिहास की शताब्दी मनाई जा
रही हो।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गौर जी ने बहुत ही एक्स्क्लुसिब जानकारी यहाँ पर दी है !

आज के दौर में अभी कुछ नाटक कम हो रहे है दिल्ली पर लेकिन पर्वतीय कला मंच हर साल कुछ न कुछ नाटक करते आ रहे है !

जैसे - कगार की आग, चौमास और अछारी-माछरी !

 

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