कैसा विकास चाहते हो उत्तराखण्ड ?
लेखक : महेश जोशी
हाल के वर्षों में औद्योगीकरण, शहरीकरण व ऊर्जा प्रदेश बनाने की जिद ने उत्तराखंड के भविष्य को खतरे में डाल दिया है। यहाँ जल, जंगल व जमीन की वास्तविक स्थिति का आंकलन किये बगैर किसी भी बड़ी विकास योजना को शुरू करना कतई उचित नहीं है। भविष्य में उसके नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेंगे।
इसी माह के दैनिक अखबारों में चली चर्चा से यह मुद्दा सतह पर आया है। मुख्य रूप से औद्योगीकरण से तराई की कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट होने, शहरीकरण से कृषि भूमि पर पड़ रहे दबाव, तराई में कृषि भूमि पर अवैध कॉलोनियों के निर्माण व जल विद्युत परियोजनाओं से हो रहे नुकसान व इनके पक्ष में की जा रही बयानबाजी से सम्बन्धित हैं।
‘जागरण’ के 7 अप्रेल के अंक में ‘नेशनल ब्यूरो ऑफ सॉयल सर्वे एंड लेंड यूज प्लानिंग’ की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है कि ‘‘अव्यवस्थित औद्योगीकरण जमीन को क्षारीय बना रहा है। निरन्तर घटते पीएच मान से कई क्षेत्रों की कृषि योग्य भूमि क्षारीय हो गई है। काशीपुर तहसील के औद्योगिक इलाके महुआखेड़ा, बघेलावाला, पैगा, बरखेड़ी, दोहरीपासा तथा किलाखेड़ा की जमीन का पीएच मान 7.5 के सामान्य मानक से बढ़कर 9.5 हो जाने से यह जमीन ऊसर की श्रेणी में आ गई है। कृषि भूमि में सबसे ज्यादा नुकसान फैक्ट्रियों से निकलने वाले रासायनिक कचरे से हो रहा है। इसके बचाव नहीं किये गये तो औद्योगिक इकाइयों के आसपास की बहुत सारी कृषि भूमि बंजर हो जायेगी……।”
पहले ही औद्योगीकरण के लिए मैदानी क्षेत्रों की हजारों एकड़ कृषि भूमि दी जा चुकी है। 10 अप्रेल के ‘अमर उजाला’ में बताया गया है कि ‘‘चम्पावत जिला मुख्यालय के नजदीक कृषि भूमि कंक्रीट के जंगल में तब्दील होने से खेती की जमीन व हरियाली कम होती जा रही है। जिला मुख्यालय क्षेत्र में 11 सालों में मकानों की संख्या 115 फीसदी बढ़ गई है। कमोबेश यही स्थिति राज्य के अन्य शहरों की है….।” कुछ जमीनें अफसरों ने रिश्तेदारों के नाम से खरीदी हैं। कहीं ‘फल पट्टी में अवैध कॉलोनी का निर्माण’ जैसी खबरें हैं। यह तय है कि जब कृषि-बागवानी के साथ हरियाली प्रभावित होगी तो जल स्रोत भी प्रभावित होंगे।
जल विद्युत परियोजनाओं पर इस महीने खासा विवाद रहा है। ‘बिजली परियोजनाओं पर आयोग की तैयारी’, ‘दबाव में परियोजनाओं को रोकना ठीक नहीं’, ‘कहर बनकर टूटेंगी बिजली परियोजनायें’, ‘गंगा मैली प्रोजेक्ट पर हायतौबा’, ‘जल विद्युत परियोजनाओं के समर्थन में प्रदर्शन’ आदि जैसी खबरें इन परियोजनाओं के पक्ष विपक्ष में खूब छपी हैं। ‘कहर बन कर टूटेंगी बिजली परियोजनायें’ शीर्षक से प्रकाशित रपट में भागीरथी तथा भिलंगना नदी में बन रही 70 जलविद्युत परियोजनाओं पर वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट के माध्यम से कहा गया है कि इन नदियों की 1,121 किमी. की लम्बाई पर 526 किमी. धारा परियोजनाओं से प्रभावित होगी। अध्ययन के मुताबिक इनमें पाई जाने वाली 76 में से 66 प्रजातियों के जल जीवों को खतरा है। इनमें महाशीर सहित माइग्रेट करने वाली 17 प्रजातियाँ भी शामिल हैं। बाँधों से गाद भरने की समस्या के अतिरिक्त नदियों के बहाव से पानी के तापमान और गुणवत्ता के अलावा बहाव कम होने से जैव विविधता भी प्रभावित होगी। इससे दुर्लभ वन्यजीव भी प्रभावित होंगे। इन नदियों में प्रस्तावित 70 में से शुरू हो चुकी 17 परियोजनाओं में 7126 हैक्टेयर भूमि, जिसमें 2705 हैक्टेयर वन भूमि भी शामिल है, का नुकसान हुआ है। ‘गंगा मैली’ के बहाने राज्य सरकार के मुखिया बिजली परियोजनाओं को खोना नहीं चाहते और इसके लिए आयोग गठन की सहमति बन रही है। आयोगों का हस्र जनता देख चुकी है। राज्य की स्थायी राजधानी के चयन के लिए गठित दीक्षित आयोग की तरह यह आयोग भी नौकरशाहों, नेताओं और माफियाओं के पक्ष में ही काम करेगा।
गंगा को अविरल बहने देने की चिन्ता को लेकर प्रो. जी. डी. अग्रवाल आदि द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन की प्रतिक्रिया में जल विद्युत परियोजनाओं से उत्तराखंड के भविष्य को देखने वाले लोग सक्रिय हो गये हैं। इनका तर्क है कि राज्य 65 प्रतिशत वनाच्छादित होने के कारण संसाधन के रूप में यहाँ जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण ही खुशहाली का एकमात्र विकल्प है। कुछ अन्य लोग निर्माणाधीन योजनाओं में एक बहुत बड़ी धनराशि खर्च हो चुकने के बाद इन्हें बंद न करने का तर्क देते हैं। ऐसा ही कुतर्क व अब देहरादून में राजधानी बनाये रखने के हिमायती भी देते हैं।
सवाल यह है कि जिन परियोजनाओं में जल, जंगल व जमीन प्रभावित हो रहे हैं, इनके लिए क्या पर्याप्त भूमि व जंगल हैं ? जिस अनुपात में भूमि व जंगलों की क्षति हो रही है, क्या उसी अनुपात में इनकी भरपाई हो रही है ? राज्य आन्दोलन के दौर से ही जानकार लोग भूमि बदोबस्त करने व 1893 का वन कानून हटाने की माँग करते आ रहे हैं। तब यहाँ के 12 जिलों की कुल कृषि भूमि 7.5 प्रतिशत आँकी गई थी। राज्य बन जाने के बाद हरिद्वार जिले को मिलाकर 12 प्रतिशत जमीन होने का आँकड़ा चल रहा है। राज्य बनने के बाद देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर में हुए औद्योगीकरण और विभिन्न कार्यालयों व आवासीय भवनों के लिए हजारों एकड़ जमीन अधिग्रहीत कर दी गई। मूल गाँवों से पलायन कर जिला व तहसील मुख्यालयों या कस्बों व सड़क के किनारे घर या दुकानें बनाने वाले लोग भी इसी कृषि भूमि का उपयोग करते हैं। नव निर्माण, वह चाहे किसी भी उद्देश्य के लिए किया जा रहा हो, उससे कृषि भूमि व उससे लगी वन भूमि का ही नुकसान हुआ है। इस दौर में सड़कें, आधी-अधूरी ही सही, भी खूब बनी हैं। उनमें भी यही जमीन कम हुई है। राज्य बनते वक्त प्रदेश के पूरे क्षेत्रफल का 65 प्रतिशत भू भाग (34,434 वर्ग किमी.) वन क्षेत्र के अन्तर्गत बताया जाता था। इन 12 सालों में हुए जमीन के अंधाधुंध दोहन के बाद का वास्तविक आँकड़ा क्या हमारे पास होगा ?
अकेले टिहरी बाँध से 11,729 हैक्टेयर भूमि, जो कुल कृषि भूमि का डेढ़ प्रतिशत थी, डूब गई। पंचेश्वर बाँध में तो इससे दोगुने से ज्यादा जमीन व जंगल नष्ट हो जायेंगे। विगत बरसात में ही 30 हजार हैक्टेयर कृषि भूमि बरबाद हुई और 232 गाँवों का विस्थापन होना है । जिन 552 जल विद्युत परियोजनाओं को हमारी खुशहाली का आधार बताया जा रहा है, उनमें कितनी भूमि नष्ट होने जा रही है ? क्या ये परियोजनाएँ आम सहमति से बन रही हैं ? प्रभावित ग्रामीणों को तो तब पता चलता है, जब कम्पनी के बुल्डोजर उनके इलाके में पहुँचते हैं। उनके जायज विरोध को अनदेखा कर उनका अमानवीय दमन किया जा रहा है। ग्राम प्रधानों व वन पंचायत सरपंचों जैसे जन प्रतिनिधियों की तो नहीं ही सुनी जा रही है, न्यायालयों के न्याय को भी खरीद लिया जा रहा है। हास्यास्पद स्थिति तो तब आती है, जब उत्तराखंड को उजाड़ने को कटिबद्ध ठेकेदार लॉबी इसे बर्बाद होने से रोकने की कोशिश करने वालों को ‘बाहर के लोग’ कहने लगती हैं।
अतः सबसे पहले तो लम्बे समय से टल रहा भूमि का बंदोबस्त पूरा कर जल, जंगल व जमीन का वास्तविक परिदृश्य सामने लाया जाना चाहिये और उसके बाद ही किसी परियोजना की बात करनी चाहिये।