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Articles & Poem by Sunita Sharma Lakhera -सुनीता शर्मा लखेरा जी के कविताये

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Sunita Sharma Lakhera:
दहेज़ पर पूर्व प्रकाशित रचना !

मौत

शब्दों के भयावह झंझावत खामोश हो चले ,
मन की त्रिश्नाओं में वीरान मौन सिमट गयी ,
मुस्कुराती फूलों पर घोर विभस्ता छाई ,
जीवन ज्योति को तिमिर सिन्धु में डुबो गयी,
रूह चीत्कार उठी तेरे आने पर ए मौत !

चेहरों पर विभस्त विकराल दानवी चेहरे लिए ,
घर -घर ,नगर -नगर तेरे स्वरांजलि बने हुए ,
दहेज़ -वेदी से उत्पीडन ज्वाला लिए हुए ,
फूलों की सेज से सती कुण्ड तक बिखरी हुए ,
क्यों लील जाती जीवन ए मौत तू ख़ामोशी लिए हुए !

तुझे बनाने वाला स्वयं आशुतोष कहलाता ,
फिर तू क्यों इतना विष भीतर छिपाए मासूमो को लीलता ,
क्यों अनगिनत मासूमो के हृदय को तू दुःख रंजित करता ,
क्यों इन दहेजी दानवों के जीवन तू बकसता,
क्यों न तू इन दहेज़ पिपासु गिद्धों के चीथ्रे उडाता !

Sunita Sharma Lakhera:



आखिर क्यों ?

हे सर्वत्र प्रेम सरिता बहाने वाले श्री लयकर्ता,
क्यों तेरी ही बनायीं इस दुनिया में घृणा ,द्वेष व् अराजकता फ़ैल रही है ?
क्यों तेरे ही बनाये किरदार एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं ?
क्यों तेरा गुणगान गाने वालों को रौंदा जा रहा ?
क्यों तेरी आस्था के स्थान पर नास्तिक लोगों को पूजा जा रहा ?
क्यों कहीं व्यभ्याचार व् कहीं विभस्त चीखें गूँज रही ?
क्यों इमानदारी परेशान तो बईमानी हंस रही है ?
क्यों तो हे त्रिकाल अभी तक आँखे मूंदे तुम कुछ सोच रहे ?
क्यों नहीं हे लयकर्ता ,सर्वत्र व्याप्त इस असंतोष हेतु अपनी त्रिकाल दृष्टी अपना रहे ?

Sunita Sharma Lakhera:
कहते हैं ..गुजरा जमाना सही था !

कहते हैं पुराना जीवन सही था ,
गरीब जून भर रोटी खाता था ,
कमरकस मेहनत पर मुस्कुराता था ,
पर अब महंगाई हँसती ,गरीबी रोती है !
कहते हैं गुजरा जमाना अच्छा था ,
पत्राचार दिलों में राज करती थी
अब इन्टरनेटई दुनिया मे सिमटे सभी ,
हर व्यक्ति इस भंवर में खो सा गया कहीं !
कहते पुराना जमाना सही था ,
तांगा ,बैलगाड़ी ,साईकिल इंधन रहित चलती थी ,
अब इंधनयुक्त वाहन बीमारी बन चली ,
हालातों के समंदर में कमरतोड़ महंगाई की आपाधापी !
कहते हैं पुराना वक़्त सही था ,
घर परिवेश में आदर ,प्यार ,मान बड़ाई आबाद थे ,
संस्कारों के दुर्लभ मोती जाने कब बिखर गए ,
शेष बची कशमकश भरी तनावग्रस्त जिन्दगी है !
कहते हैं पुराना समय ठीक था !

Sunita Sharma Lakhera:

ईर्ष्या
जब दुनिया फूलों के बीच है खिलती ,
दर्द का रिश्ता बन मैं हूँ उभर आती ,
निर्झर बहते स्नेह धारा में हूँ ज्वालामुखी सी ,
तेरे भीतर से दहकती यह मेरी ज्वाला सी ,
हर कदमों पर काँटे बन जो उभर आती !

बढती तेरी संवेदनाओं की मैं दर्पण सी ,
तेरी टीस बन जाती मेरी टीस सी ,
तुम्हारी दुर्दशा मेरी सकून बन जाती ,
अपने इस ईर्ष्यालु संसार में मुस्कुराती ,
पल पल तड़पती रूहें देख मैं इठलाती !

तेरे मन का लहू,मेरी प्यास बुझाती,
तेरा संताप ,मेरे आभामंडल बन जाती ,
तेरी चिंता मेरी ख़ुशी बन जाती,
जो तू न मुझे बुलाती ,तो कैसे तुझे रिझाती
बन ज्योति तेरे हृदय केसे यूँ समाती !

Sunita Sharma Lakhera:
वक़्त
मैंने पत्थरों में भी अकांक देखे हैं ,
जिसके निश्चल धरा में जीवन बसते हैं I
मैंने पत्थरों में भी फूल देखे हैं ,
वक्त से टूटे वीराने भी महकते देखे हैं I
मैंने पत्थरों में भी फूल देखे हैं ,
जीवन पतवार धोते रोते हुए देखे हैं !
मैंने पत्थरों में भी इंसान देखे हैं ,
अपनी पीड़ा मैं दूसरों के प्रेरक बनते देखा है I
मैंने पत्थरों में भी फरेब देखे हैं ,
रिश्तों के बीम मसलते ,नासूर बनते घाव देखे हैं I
मैंने पत्थरों में भी आपदाएं भी देखी हैं ,
अपने वजूद खोकर इंसानियत मिटते देखा है इ
मैंने पत्थर में भी भगवान देखे हैं ,
दूसरों के जीवन हेतु समर्पित इंसान देखे हैं !!

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