Author Topic: Articles & Poem by Sunita Sharma Lakhera -सुनीता शर्मा लखेरा जी के कविताये  (Read 28579 times)

Sunita Sharma Lakhera

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आयें हम सब खुशियों का बाग़ उगायें ,
रंग भेद, जाति व् धर्म का भेद भुलाएं ,
मानवता के पवित्र भाव को चहूँ दिशा फैलाएं ,
इस बाग़ को इंसानियत धर्म का संसार बनाएं !

Sunita Sharma Lakhera

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पहाड़ो  का  उत्त्थान  : एक चिंतन

उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य है ! किसी भी स्थान की पहचान उसकी नैसर्गिक सुन्दरता व् जलवायु के अलावा वहाँ का जनजीवन एवं संस्कृति से होती है ! इनमें आर्थिक , सामाजिक ,ऐतिहासिक व् भौगोलिक परिस्तिथियाँ वहां के जीवन यापन के मापदंड की कसौटी है !उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को मनीआर्डर इकोनोमी के रूप में देखा जा सकता है क्यूंकि यहाँ के दुर्गम क्षेत्रों में भारी उद्योग स्थापित नहीं हो सकते ! जिसके फलस्वरूप मैदानी हिस्सों पर निर्भर रहना पड़ता है ! यहाँ की कृषि वर्षा जल पर आधारित है ! संसाधनों की दृष्टी में यह राज्य अन्य  राज्यों की तुलना में  अधिक  सम्पन्न है ! यहाँ पर जीवनरक्षक जड़ी बूटियों व् कई महत्वपूर्ण खनिज के अपार भंडार है !

उत्तराखंड का विकास प्राकृतिक वनस्पति का प्रबन्धन कर उसे बढ़ावा देने हेतु वैज्ञानिकों द्वारा इन क्षेत्र में रूचि बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है ! स्वरोजगार के अंतर्गत औषधीय वनस्पतियों को चयनित कर  उसको निश्चित भूखंडों में विस्तृत पैमाने पर लगाना , उसकी जानकारी स्थानीय लोगों तक पहुंचाकर उनकी रूचि इस और बढाकर इस दिशा में उन्हें स्वालम्बी बनाना मुख्य ध्येय है ! उत्तराखंड के 2001 के सर्वे के अनुसार वनाच्छादित क्षेत्र 23,534 वर्ग किमी थे जो 2009 में बढ़कर 24,425 वर्ग किमी हो गया है ! भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष राज्य का 45 -80 फीसदी हिस्सा वनाच्छादित है जबकि पूरे देश के मामले में यह आंकड़ा 21.02 फीसदी है !यहाँ पर पायी जाने वाली 1,600 वनस्पतियों का औषधीय उपयोग है ! जिनमें 160 वानस्पतिक प्रजातियाँ अत्यंत दुर्लभ है जिनके  अस्तित्व को खतरा है ! इनका प्रयोग आयुर्वेद , यूनानी और होमियोपैथी चिकित्षा पद्धति में किया जाता है !

वन उत्पादों से मिलने वाला कुल राजस्व लगभग 220 करोड़ रुपए है !यहाँ के जंगलों में टीक ,साल , युक्लिप्टस ,पोपलर  , चीड , देवदार  ,बांज ,बांस और रेशा वाली घास बहुतायत मिलती है ! वन विहीन बुग्यालों में विभिन्न प्रकार की घास एवं बहुमूल्य जड़ी बूटियां मिलती है ! दुनिया भर में हर्बल क्रांति की वजह से उत्तराखंड इसकी मांग  आपूर्ति हेतु अक्षम है !जड़ी बूटी की खेती को बड़े पैमाने में फैलाया जा रहा है ! जिसमें तकरीबन 18000 किसान कार्यरत हैं और इस आंकड़े को बढ़ावा देने के लिए सभी को एक जुट होकर जागरूकता अभियान फ़ैलाने  की आवश्यकता है !
कृषि में उन दलहनों को बढ़ावा दिए जायें जिनकी मांग देश विदेश में है और उसके जरिये आमदनी के साधन बढ़ाये जायें ! इनमें प्रमुख गहत पथरी रोकथाम की दृष्टी से औषधीय गुणों से परिपूर्ण है !, सोयाबीन ह्रदय सम्बन्धी और कोदा है जिसका पेटेंट करने में जापान के वैज्ञानिक शिशु आहार हेतु करना चाह रहे हैं और शुगर कण्ट्रोल में इसका भविष्य सुरक्षित है ! अन्य पहाड़ी राज्यों की भाँती फलों की खेती प्रचुर मात्र में किया जाना चाहिए ! फलों में सेब , संतरा , अंगूर , नासपाती , अखरोट , लीची , आम , अमरुद की पैदावर इतनी बढाई जाये ताकि मैदानी हिस्सों तक पहुंचाई जा सके ! चाय के बागानों द्वारा उत्तराखंड में रोजगार की बहुत संभावनाएं हैं !चम्पावत और घोडाखाल तक चाय बागानों तक सीमित न रखकर उसका विस्तारं होना चाहिए जिसके लिए स्थानीय निवासियों को इसकी शिक्षा देनी होगी !उत्तराखंड में खनिज संपदा का आपर भंडार है जिसमें चांदी ,आर्सनिक , अभ्रक ,राज्य अर्थव्यवस्था को बदिया योगदान दे रहा है ! ऊँचे हिमालयी क्षेत्रों में दुर्लभ सुघ्धि वनस्पतियों का प्रचार व् प्रसार आने क्षेत्रों तक अत्यंत आवश्यक है ! तस्करों के हाथों इस बहुमूल्य संपदा का हनन न हो इसलिए औषधीय वनस्पतियों की सुरक्षा , भण्डारण के लिए जन जाग्रति लाना जरूरी है !

यहाँ की मिट्टी को उपजाऊ बनाने में बांज वृक्षों को अधिक मात्र में लगाया जाना चाहिए ! विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ पर कृषि केवल वर्षा पर केन्द्रित होती है क्योंकि इन वृक्षों में जल भंडारण की क्षमता अधिक होती है और इसके आस पास की मिटटी में नमी बनी रहती है किन्तु इसके विपरीत चीड के वृक्ष जमीन को न केवल खुष्क बनाते हैं अपितु पूरे वर्ष भर इसके पत्ते झड़ते रहते हैं ,जिसकी सफाई न करने पर जंगलों की आग को प्रत्येक वर्ष बढ़ावा देती है ,इसीलिए इनकी सूखी पत्तियों का इंधन में इस्तमाल  होते रहना चाहिए ! चूंकि बड़े उद्योग दुर्गम क्षेत्रों में स्थापित किये जा सकते हैं इसीलिए अपनी मूलभूत आवश्यताओं की पूर्ती स्थानियों लोगों द्वारा स्वयं किया जाना चाहिए ! इसके लिए लघु उद्योग , दुग्ध उद्योग , फल उद्योग ,सब्जी उद्योग , जड़ी बूटियां ,मत्स्य , कुकुट ,एवं जगलों पर आधारित उद्योग की स्थापना होनी चाहिए ! इको टूरिज्म और सुगंधी वनस्पतियों का विस्तारण होते रहना चाहिए ! हिमायन  सोसाइटी फार हिमालयन एन्वैर्मेंटल  रिसर्च (शेर )   इस दिशा में कार्यरत  है , और भी ऐसी  योजनायें भविष्य में बढती रहनी  चाहिए !

राज्य को धार्मिक पर्यटन को भी बढ़ावा देना चाहिए !केवल मान्यता प्राप्त धार्मिक स्थलों पर ध्यान केन्द्रित न करके प्रत्येक गाँव के देवी देवताओं की जानकारी व् उससे जुडी मान्यताओ को जनव्यापी अभियान में रखना चाहिए और सिधपीठ  ढूंढ कर उसे पर्यटन के साथ जोड़ देना चाहिए ! पर्यटन की दृष्टी से प्रत्येक क्षेत्र की और पर्यटक की रुचि बढे इसके लिए लेखन कार्य बढ़ना चाहिए ! हमारे रचनाकारों ने पहाड़ो  के सौदर्य का वर्णन कर ख्याति प्राप्त की है किन्तु उसकी पीड़ा पर कुछ ही कलमकार ने अभिरुचि दिखाई ! पर्यटन  राज्य होते हुए भी मौलिक  सुविधाओ के आभाव में लोग दुर्गम क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं ! पहाड़ो की समस्या आज भी वेसे ही है कुछेक प्रदेशों में सुधार  अवश्य हुए किन्तु उस रफ़्तार से नहीं जिस रफ़्तार से राज्य गठन के बाद हो जाना चाहिए था कारण कि  अभी सरकार इन मसलों में गंभीर नहीं हुयी है ! सरकार को चाहिए कि वह राज्य  व्यापी जनसँख्या व् उससे जुडी समस्यायों का पता लगाने हेतु अभियान चलाये जिसमें यह तय  हो कि  कितने लोग ,मैदानी ,कितने निम्न पहाड़ी क्षेत्रों और कितने दुर्गम क्षेत्रों में गुजर बसर कर रहे हैं ! एक सर्वेक्षण के अनुसार 80 % लोग ऐसे क्षेत्रों में बसे हैं जहा की समस्या अन्य दुर्गम क्षेत्रों से बेहतर है ! रास्तों का आये दिन टूटन और गरीबी इन लोगों  को अपना दृष्टीकोण बदलने नहीं देती तो विकास कैसे आएगा ! दूर दराज के क्षेत्रों में ग्रामीण विधुतिकर्ण के लिए लघु जल विधुत परियोजना को प्रोत्साहन की जरुरत है ! चूंकि अब बड़े उद्योगों ने राज्य में अपने पैर फैलाना आरभ किये हैं किन्तु अभी तलहटी क्षेत्रों में ही संभव हो पाया है जबकि दुर्गम क्षेत्रों को मुख्य धारा में जोड़ना इसीलिए जरुरी हैं क्यूंकि हमारे सारे दुर्लभ संसाधन मुख्य रूप से इन्ही स्थानों में है !

पहाड़ो के विकास में केवल सरकार  ही नहीं गैर सरकारी संस्थाओं को भी आना चाहिए ! स्थानीय व् प्रवासी लोगों की भूमिका अग्रणीय होनी चाहिए !अपनी पहाड़ी विरासत को संजो कर भावी पीढ़ी तक पहुंचानी है तो हर उस व्यक्ति जो उससे जुड़ा है को आगे आना होगा ! पहाड़ के चहुमुखी  उत्थान  हेतु प्रतिभाशाली  लोगों को पहाड़ से जुड़ना चाहिए ! यदि प्रत्येक निवासी और प्रवासी अपने क्षेत्र में विकास अभियान चलायें तो आधी समस्या स्वय सुधर जाएगी ! किन्तु युवा शिक्षित वर्ग का  पलायन ,पहाड़ की पीड़ा बनी हुयी है ,सही कहा भी गया है की पहाड़ का पानी अर्थात उर्जा और पहाड़ की जवानी अर्थात संसाधन पहाड़ के काम नहीं आती उनका उपयोग तो  मैदानी क्षेत्र के लोग करते हैं !उत्तराखंड में खोज , शोध और अनुसंधान  केन्द्रों  की बढ़ोतरी होनी चाहिए जिसमें प्रवासी लोग अग्रणीय भूमिका  निभा सकते हैं !साहसिक पर्यटन  हेतु भी लोगो को आकर्षित  किया जाना चाहिए !

इसके अतिरिक्त पहाड़ों में बदलाव लाने के लिए  हमारी पर्वतीय सोच में भी  प्रखरता की आवश्यकता है ! यहाँ जरुरत है नए चिंतन , नए नजरिए , प्रेरणादायक व् उत्साहवर्धक   वातावरण की जिसमें सांस्कृतिक , राजनीतिक पुनर्जागरण  की मौलिक आवश्यकता   है ! हमारे युवा वर्ग को शारीरिक श्रम व् जोखिम उठाने में उत्सुकता दिखानी चाहिए ! उत्तराखण्ड  समाज के जातीय मानसिकता के कुप्रभाव और जटिलता का भार आज भी पहाड़ की उन्नति में रूकावट बना हुआ है ! कार्यकुशल होने के बावजूद कार्य करने का निर्धारण जातीय अनुसार ही होता है ! आज के अत्याधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर को संघर्षशील  युवा पीढ़ी की आवश्यकता है जो पहाड़ो मैं नव चेतना का निर्माण करे व् बड़े पैमाने में हुए पलायन को पुन : स्थापित करवाने हेतु स्वरोजगार के नए आयामों  को अपनाएं   !शिक्षा  के पाठ्यक्रम  में युवावों का रुझान बढाने  के लिए प्रयत्न व् कृषि सम्बन्धी जानकारी सम्मिलित  होना अनिवार्य किया जाना चाहिए  !

जो प्रवासी पहाड़ी अपने पहाड़ों के विकास में आगे आना चाहते  है उसे सरकार द्वारा उदासीन रुख मिलने की वजह से अपने चिन्तन को खंडित करना पड़ता है जो एक विकासशील प्रदेश के लिए अत्यंत घातक है ! इसलिए पहाड़ के उत्थान  में सरकार  को निरंतर महत्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे ! सुदृढ़ ग्राम , सुदृढ़ राज्य , सुदृढ़ भारत का सपना तभी पूर्ण हो पाएगा !

Sunita Sharma Lakhera

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गरीबी की कहानी

सर्दियों में  अर्ध वसन  देह  का संतोष सहारा
चीथरों  के भीतर होता ठण्ड का बसेरा
सुबह और रात शीत की पीड़ा बनती लुटेरा
बिजली के खबों  तले ढूंढे गर्मी का सहारा
भोजन का न उसका कोई ठिकाना
जूठन व् बासी अन्न में वह ढूंढें सहारा
पेट की आग को अक्सर पानी से बुझाता
हर पल एक दूजे  को देख देते दिलासा
सर्दियों की  ठंड  में एक मैली चादर में सिमटे बच्चे
दिन भर  के काम के बाद नींद कहाँ ,सपने बुनते बच्चे
किटकिटाते  दांत , कंपकंपाती  देह सहते बच्चे
ठण्ड की बयार को मजबूरन सहते लाचार बच्चे
नित्य सवेरे पानी भरने कतार लगाते
उसी वसन   में नहाते  और काम पर जाते
सारा दिन फिर उसी में गुजार देते
फिर  भी  चेहरे पर असहाय मुस्कान भरते
बड़ी  ऊँची  इमारत  देख  हतप्रभ रहते
टपकती  छत  व् पथरीले जमीन  पर बचपन  तरसे
अमीरी  हीटर  में भी ठण्ड की गुहार  हर पल लगाते
गरीबों की मुश्किलों पर ये लोग किंचित तरस न खाते
दरिद्रता  में भी जीवन जीने का सबब सिखाते
कल का न इनका कोई ठिकाना सो आज में  ही जीते
निर्बलता  को  अपने जीवन पर बोझ न मानते
भूखे पेट अक्सर  फुटपाथ  पर सो जाते
बिखरे बाल , वक़्त की चाल  ,है जीवन बदहाल
बढती  महंगाई  में मुश्किल का न  कोई  हल
मैली  काली  देह  पर मन  इनका निश्चल
 मेहनत  के बाद रात कटती बजाकर  ढोल
हैरत  में  भर जाते  देख इनका धैर्य सभी
प्रकृति  भी इनके आगे शीश  झुकाती
इनका जीवन सार बनाती निरंतरता  की  कहानी
दुःख सुख की कसौटी  को बखूबी  निभाती गरीबी !!

Sunita Sharma Lakhera

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 नैतिक शिक्षा
राष्ट्र   निर्माण  की  सच्ची  आधारशिला  यह  है  कि  नैतिक  व् धार्मिक वातावरण उत्पन्न किया जाये ! बाल्यकाल से ही घर , परिवार , विद्यालय  , कॉलेज  व् समाज में संस्कारों का प्रसार करना चाहिए ! व्यक्तिगत था समाजिक जीवन में सुसंस्कृत विचारधारा  एवं सुव्यवस्तिथ  कार्य प्रणाली  का होना आवश्यक है !यदि हमारी युवा पीढ़ी सिद्धांतों  के प्रति आस्थावान व् सजग नहीं है तो  समझ लेना चाहिए कि  उनमें  संस्कारों  की  दीक्षा  का आभाव  रहा है ! अच्छी  पुस्तकें सहानुभूति में मित्र  शिक्षण  में गुरु और सम्पूर्ण जीवन  में नेक  राह चलने की प्रेरणा देने वाले परमात्मा की तरह होती है ! जीवन में प्रत्येक  वस्तुओं पर सभी का ध्यान केन्द्रित रहता है किन्तु नैतिक ज्ञान को अनदेखा किया जाता है  जो चरित्र  निर्माता होती है ! सत्साहित्य से जो प्रेरणाएं मिलती है उसका प्रभाव  व्यक्ति के चिन्तन  व् चरित्र पर पड़ता है और उसकी प्रतिक्रिया   निश्चिंत  रूप  से  दृष्टीकोण  के परिष्कार एवं समुन्नत  जीवन  क्रम  के रूप  सामने आती है ! नैतिक शिक्षा को संजीवनी  विद्या  भी  कह  सकते हैं  जो खून को सदैव  दूषित अणो  से दूर  रखती  हैं !
आज के वर्तमान परिस्तिथि को देखते हुए , हमे  बच्चों  के  विकास  हेतु  प्रयत्नशील  बनना पडेगा ! संस्कार का मूल विद्यालय  वैसे तो घर ही है जिसमें अभिवावक  का महत्वपूर्ण योगदान होता है ! उसके पश्चात  विद्यालय  शिक्षा  में  नैतिक  मूल्यों  का पाठ्यक्रम  में शामिल होना अनिवार्य है ! किन्तु यह भी सत्य है कि  नैतिक शिक्षा  को चरणों  में बाँधकर  यदि बच्चे को सुस्कृत  बना लिया जाये तो आज की हिंसा की मनोवृति से कदाचित वह दूर रह पायेगा ! हम लोग  अक्सर बच्चों  की पढाई में संस्कारों को केवल  प्राथमिक  कक्षा तक  केन्द्रित  कर  देते हैं जबकि यह जीवनपर्यंत  प्राप्त होती रहनी चाहिए !  विशेषत: बच्चों  के मानसिक विकास यूँ तो 2-12 वर्ष में   बन जाता है ,किन्तु इस समय तक   वह स्वयं को  सामाजिक  परिवेश  की विभिन्न  कसौटियों  को परखने  में अक्षम रहता है ! इसीलिए मनोवैज्ञानिकों  का मानना है की नैतिक शिक्षा की मुख्य भूमिका 13 वर्ष से 19 वर्ष की आयु तक प्रभावी रूप से शिक्षण  संस्थाओं  द्वारा अनिवार्य किया जाना चाहिए ! सभी अभिभावकों व् शिक्षकों का मुख्य कार्य बच्चों के चेतन व् अवचेतन मन  का विकास होना चाहिए !
मनोवैज्ञानिकों  का मत है कि मन को अध्यात्म  से जोड़कर काफी हद तक संतुलित किया जा सकता है जो कि  मनुष्य को प्रत्येक क्षण उसके कार्यों के प्रति सजग रखता है ! यह बच्चों व् बड़ो की आदतों को नियंत्रित करता है! जिससे वे समय व् परिस्तिथि  के अनुसार कार्य व् निर्णय  लेने में सक्षम  रहते हैं !  अच्छे  चरित्रों  की उपलब्ध  कथाओं के माध्यम से व् प्रयोगात्मक शैली से बच्चों  के अंदर  नैतिक मूल्यों  का विकास  करना चाहिए !यही उसके चरित्र का निर्माता भी है !
आज का कट्टू  सत्य है की बच्चे दिन ब  दिन हिंसा ,झडप व्  बैचनी  से भरे माहौल में बड़े हो रहे हैं ! जिसमें  बेईमानी  की पराकाष्ठा बढ़ी है ! चरित्र  निर्माण  एक  जटिल प्रक्रिया है ! हम सभी मिलकर  विपरीत परिस्तिथियों   को बदलेंगे  और बदलकर ही रखेंगे ऐसा सभी को वचनबद्ध होना पड़ेगा !  उत्कृष्टता  और आदर्शवादिता  की किरणे  हर अंत :कर्ण तक पहुँचायेंगे ! इन नैतिक मूल्यों से बचपन  को  निखारते रहना होगा  जिससे उनके भविष्य को  मजबूत दिशा मिल सकेगी ! इन में प्रमुख हैं !1. . एक  दूसरे  के प्रति  प्रेम  व्  सहानुभूति  2 .ईमानदारी  3  मेहनत 4. एक दूसरों  के लिए आदर भाव ,5 आपसी सहयोग की प्रबल भावना 6.समरसता की भावना 7 .क्षमा  8  भेदभाव से अछूता संसार 10. एकता  की उन्नत भावना ! प्रत्येक बच्चे को  महान आदर्शों  के अनुरूप  ढालने  और सभी को प्रेरित करते रहना के प्रयास को मुख्य धारा से जोड़ना  मुख्य ध्येय  बने ! ज्ञानयज्ञ की चिंगारी भारत के कोने कोने पहुँचाने का बीड़ा उठाना होगा !
नैतिक शिक्षा प्राईमरी या माध्यमिक  तक ही सीमित रखा गया है ! 12 वर्ष तक माँ , 19 वर्ष तक पिता व् शिक्षक और उसके पश्चात  समाज का एक व्यक्ति के चरित्र निर्माण  का दायित्व होता है ! और यही विडंबना  है कि  विद्यालयों  में आठवी कक्षा के बाद नैतिक शिक्षा को निर्थक मान कर पाठ्यक्रम से हटा  लिया जाता है !किन्तु अक्सर पिता यह सोचकर की बच्चा बड़ा हो गया है और समाज इसलिए बेपरवाह रहता है कि  यह अभिभावक की जिम्मेदारी है ! हर व्यक्ति एक दूसरे  के कंधों पर अपने कर्तव्य  लाद  देते हैं और यहीं से आरम्भ होता है बच्चों का नैतिक पतन ! 13 वर्ष से 19 वर्ष की भावुक उम्र में वे परिवार व् समाज के नियन्त्रण से आज़ाद होकर  वे अपनी अलग  दुनिया  में मग्न हो जाते हैं ! और जब यही बच्चे भटक जातें हैं तब आरभ होता है एक दूसरे  पर आरोप प्रत्यारोपों  का अंतहीन सिलसिला ! इसीलिए सभी से अनुरोध की समय रहते ही सजग हो जाएँ नहीं तो आने वाला कल अनैतिक तत्वों से बढ़ जाएगा जिसमें आप हम सभी दोषी होंगे !

Sunita Sharma Lakhera

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विद्यार्थियों में आत्महत्या का बढ़ता प्रचलन

प्रसिद्ध चिंतक अरस्तु ने कहा था कि आप मुझे सौ अच्छी माताएं दें तो मैं तुम्हे एक अच्छा रास्ट्र दूंगा ! माँ के हाथो में राष्ट्र निर्माण की कुंजी होती है किन्तु आज ऐसी माताओं व् सोच की कमी सी महसूस हो रही है ! जीवन स्तर बढने के साथ -साथ , भौतिक प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है जिसका दुस्प्रभाव तनाव युक्त जीवनशैली से आत्महत्या का बढ़ता चलन देखने में आ रहा है ! आज के समाज में आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम एक अभिशाप बन गया है ! बड़े दुःख का विषय है कि आज विद्यार्थीयों में लग्न व् मेहनत से विद्या ग्रहण करने की प्रवृति लुप्त होती जा रही है वे जीवन के हर क्षेत्र में शार्टकट मार्ग अपनाना चाहते हैं और असफल रहने पर आत्महत्या जैसे दुस्साहसी कदम उठा लेते है !आजकल अभिभावक भी स्वयं बच्चों पर पढाई और करिएर का अनावश्यक दबाब बनाते हैं ! वे ये समझना ही नहीं चाहते कि प्रत्येक बच्चे की बौद्धिक क्षमता भिन्न होती है और जिसके चलते हर छात्र कक्षा में प्रथम नहीं आ सकता ! बाल्यकाल से ही बच्चो को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कूंजी है ! यदि बच्चा किसी वजह से असफल होता है तो वह पारिवारिक एवं सामाजिक उल्हाना के भय से आत्महत्या को सुलभ मान लेता है ! जिसके बाद वे अपने परिवार और समाज पर प्रश्नचिन्ह लगा जाते हैं !बच्चों में आत्मविश्वास की कमी भी एक बहुत बड़ा कारक है !

आज खुशहाली के मायने बदल रहे हैं अभिभावक अपने बच्चों को हर क्षेत्र में अव्वल देखने व् समाजिक दिखावे के चलते उन्हें मार्ग से भटका रहे हैं ! एक प्रतिशत के लिए यह मान लिया जाये कि वे बच्चे कुंठा ग्रस्त होते हैं जिन परिवारों में शिक्षा का आभाव होता है किन्तु वास्तविकता यह है की गरीब बच्चे फिर भी संघर्षपूर्ण जीवन में मेहनत व् हौसले के बलबूते अपनी मंजिल पा ही लेते हैं ! किन्तु अक्सर धन वैभव से भरे घरों में अधिक तनाव का माहौल होता है और एक दूसरे से अधिक अपेक्षाएं रखी जाती हैं ! साधन सम्पन्न होने के बाबजूद युवा पीढ़ी में आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं !
मनोचिकित्सक का मानना है कि खुदखुशी कोई मानसिक बीमारी नहीं बल्कि मानसिक तनाव व् दबाब का प्रभाव होता है !असंतोष इसका मुख्य कारण है ! कुछ वर्षों से दस से बाईस वर्ष के बच्चे आत्महत्या को अपना रहे हैं ! परीक्षाओं का दबाब ,सहपाठियों द्वारा अपमान का भय , अध्यापकगण की लताड़ या व्यंग न बर्दास्त करने की क्षमता उन्हें इस मार्ग की ओर धकेल रहा है ! शहरों की भागदौड़ भरी जिन्दगी में बच्चे वक़्त से पहले परिपक्व हो रहे हैं जिसके फलस्वरूप वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं और अपने द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार आशातीत परिणाम प्राप्त न होने पर आत्महत्या का निर्णय ले लेते हैं ! यही नहीं माता पिता की आकांक्षाओ की पूर्ति का दबाब वे अपनी जिन्दगी पर न सह पाने की वजह और सही निर्णय न लेने की स्तिथि में उन्हें यह मार्ग सुगम दिखता है !
आज के सन्दर्भ में दोष उन अभिवाहकों का है जो अपने बच्चों की प्रदर्शनी लगाना चाहते हैं मानो वह भी आज की उपभोगतावादी संस्कृति के चलते एक वस्तु हो और उन्हें जीवन के हर क्षेत्र के लिए अधिक से अधिक मूल्यवान बनाया जा सके यही कारण है की आज परिवार अपने मौलिक स्वरुप से भटक कर आधुनिकता की बलिवेदी पर होम हो रहे हैं ! भावनाओं व् संवेदनाओं से शून्य होते पारिवारिक रिश्ते कलुषित समाज की रचना कर रहे हैं !अभिभावकों को समझना होगा की बच्चे मशीन या रोबर्ट नहीं हैं ! बच्चों को बचपन से अच्छे संस्कार दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी मंजिल पर अपनी खुद चुने किन्तु आत्मविश्वास न खोएं ! बच्चों को सहनशील , धैर्यवान , निर्भिक , निर्मल , निश्चल बनाना है तो स्वत : अपने स्वभाव परिवर्तित करें ! बाल सुलभ मन में चरित्र का प्रभाव पड़ता है ! शिक्षा का नहीं आचरण की सभ्यता बाल सुलभ मन पर अधिक प्रभाव पढ़ता है ! शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है ! मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है ! इसके अंतर्गत बच्चों में पाँचों मानवीय मूल्यों अर्थात सत्य , प्रेम , धर्म ,अहिंसा और शांति का विकास होता है !आज की शिक्षा बच्चों को कुशल विद्वान् एवं कुशल डॉक्टर , इंजीनियर या अफसर तो बना देती है परन्तु यह वः अच्छा चरित्रवान इंसान बने यह उसके संस्कारों पर निर्भर करता है ! एक पक्षी को ऊँची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त पंखो की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा अपने बच्चों को अवश्य दें ! सांसारिक शिक्षा उसे जीविका और आध्यात्मिक शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाएगी !
बच्चों को स्व श्री हरिवश राय बच्चन जी की कविता के अंश जरुर पढ़ने चाहिए
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
बच्चों की भी ध्यान रखना होगा की जिन्दगी बहुत कीमती है और वे जिस समाज में रहते हैं उसके प्रति उनकी भी नैतिक जिम्मेदारी हैं जिसका निर्वाहन करना उनका फ़र्ज़ है ! वे जिस समाज में रहते हैं , उसका सम्मान करें क्यूंकि उस समाज ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और सामाजिक प्राणी होने के नाते आप अपनी जिम्मेदारी निभाए बिना कैसे इस दुनिया से चले जाना चाहते हैं ? सिर्फ इसलिए कि कि आप चुनौतियों से घबरा गए हैं ! खेद इस बात का नहीं होना चाहिए की आप असफल हुए हैं बल्कि आप की वजह से आपके माता पिता का समय ,धन व् सम्मान को ठेस पहुंची ! जीवन को चुनौती समझकर दृढ़ता से उस पर आने वाली चुनौती का डट कर सामना करें और अपनी गलतियों का अवलोकन कर इस द्रढ़ता से परीक्षा की तैयारी करें और कठिनाई के समय अपने शिक्षक ,अभिभावक को अपना मित्र समझ अपनी परेशानी उन्हें बताएं और स्वयं  पर हीनता के भाव कदापि न आने दें ! आत्मविश्वासी  बच्चे  उज्ज्वल भारत निर्माण  का संचार अब घर घर में हो !

Sunita Sharma Lakhera

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इलेक्ट्रोनिक  मीडिया  का बच्चो  पर प्रभाव

आज  के आधुनिक  समाज में  इलेक्ट्रोनिक  मीडिया  आसानी से पूरी दुनिया हमारी मुट्ठी में कैद कर रही है ! हमारे बच्चे  भी  इसका भरपूर उपभोग कर रहे हैं ! स्कूल जाने वाले मासूम बच्चे और युवा  हिंसा , नशाखोरी ,आत्महत्या जैसे  अवसाद युक्त  समस्याओं   के भंवरजाल में फंसते जा रहे हैं ! आज का बच्चा तकनीकी और आधुनिक इलेक्ट्रोनिक उपकरण को इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर रहा है ! समाजशास्त्रियों व् मनोवैज्ञानिको  के अनुसार आधुनिक जीवन शैली के कारण बढ़ता एकाकीपन संयुक्त परिवार का बिखरना और अभिभावकों के पास समय का आभाव  बच्चों को दिशा विहीन बनाता जा रहा है !

अभिभावक  अपने बच्चों  को घंटो टी .वी  और कम्पयूटर  के सामने बैठे रहने की अनुमति  देकर उन्हें कैंसर की ओर  धकेल रहे हैं ! बच्चों में मोटापे , हृदय  रोग , डायबटीज  जैसी बीमारियाँ बढ़ रही हैं ! साथ  में  उदासीन  जीवन शैली की  ओर  बढ़ता  रुझान  भी  दृष्टीगोचर  हो  रहा है ! निरंतर इन उपकरणों  के आगे बैठने से चर्बी से ग्रसित बच्चे कैंसर  विशेषकर चर्म  कैंसर के शिकार हो रहे हैं ! इस प्रतिस्पर्धा के युग में उचित माहौल न मिलने की वजह से बच्चों में आत्मविश्वास घटा है ! अभिभावक भी धनौपार्जन की दौड़ में अपने  बच्चो की मौलिक आवश्यकताओं  की बस खानापूर्ति  कर स्वय को जिम्मेदारी  से मुक्त समझने की भूल कर रहे हैं ! यही वजह है कि  बच्चों ने अपने को दूसरे  आधारों में  उलझाना आरम्भ कर दिया है !

जीवन में सफलता और सुख वही  व्यक्ति प्राप्त करता है जो निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध  तरीके से कार्य करता है ! बच्चों को उनकी रुचियों  के अनुरूप स्वयं को ढालने देना चाहिए  तभी वे अपनी उर्जा का पूर्णरूप से सदुपयोग कर पायेगा और उसका लाभ उठा पायेगा ! उसे अपने आसपास की परिस्तिथियों को झेलने की क्षमता आनी चाहिए ! उन्हें उनके कर्तव्य बोध पर प्रेरित करने के लिए उनका रूझान  अच्छी पुस्तकें पढने की ओर  बढ़ाना चाहिए ! आज के आपाधापी और धन संग्रह की ओर  इतना आकर्षण  है कि  उस पर मानवीय  मूल्य  दाँव  पर लग गए हैं ! मानव जीवन  के प्रतिमान भी बदल रहे हैं जिसका घातक प्रभाव परिवार पर पड़ रहा है फलस्वरूप समाज प्रभावित होना भी सुनिश्चित है !

अभिभावक को बच्चों में संस्कारों  की नीव की सोच विलुप्त होती जा रही है ! बस बच्चों को छोटी उम्र से ही धनोर्पाजन का माध्यम  समझा जाने लगा है और नैतिक मूल्यों के स्थान पर फूहड़ संस्कृति को अपनाकर  अभिमानी हो रहे हैं !  संस्कार विहीन वातावरण में पले  बच्चों का रूझान  भी अनुशाशनहीनता  ,अकर्मण्य  और सुख सुविधाभोगी बनते जा रहे हैं ! संयुक्त परिवारों के विघटन से सीधा असर बच्चों में नैतिक मूल्यों की कमी के रूप में सामने आई ! पहले बड़े बूढों  की छत्र छाया में बच्चे हितोपदेश  कहानियों से नैतिक मुल्य स्वत : ही ग्रहण कर लेते थे और आपसी सम्बन्धों में मिठास झलकती थी किन्तु एकल परिवार में यह एक अभिशाप ही है कि  बच्चे का लगाव अपने माता  पिता से रहता है वह भी तब तक जब तक वह स्वय  कमाने  के काबिल नही होता बाद में जैसे उसे प्राप्त होता है वह वैसे  ही लौटा देता है ! हम अभिवाहक  अपने बच्चों को अपने महत्वकांक्षाओं की पूर्ती में उसकी नैतिक अवहेलना कर रहे हैं जिसके फलस्वरूप वे भी संस्कारों को मात्र स्कूली शिक्षा  का एक विषय समझकर नजर अंदाज कर देते हैं !

वर्तमान परिदृश्य  में अभिभावक अपने बच्चों की नित्य दिनचर्या  से चिंतित होते जा रहे हैं !  इसके लिए यह बहुत सोचनीय  हो गया है कि  बच्चों को अच्छे लक्ष्यों की ओर  कैसे  प्रेरित करें ! अभिभावक बच्चों के साथ कम्युनिकेशन  बनाकर रखें ! वे कभी किसी उलझन में न रहे ! कोई परेशानी पर उसे ह्तोसाहित  न  करें ! स्वय  को उसको कोसने के  बजाय  समाधान ढूँढने  का  पर्यास करें ! धैर्य से उसे उसकी गलतियाँ  दिखाएं और फिर उसका मार्गदर्शन करें ! उसके टी . वी . देखने का समय सुनिश्चित करें  और उसे कुछ खास ज्ञानवर्धक चैनलों  की ओर  प्रेरित करें ! उसको तनाव देने के बजाय  उसके  मन को  प्रफुलित  रखेंगे तो वह स्वय  घर परिवार की ओर  रूझान  बढेगा ! उनमें  किसी  प्रकार  के  नकारत्मक  भाव न पनपने दें ! वस्तुत : बच्चों के सामान्य व्यवहार से उनके व्यक्तित्व पर गहरा  असर पड़ता है जो अभिभावक और अन्य  पारिवारिक सदस्यों  की गतिविधि  के अनुरूप ढलती चली जाती है !

बच्चों को आधुनिक मीडिया  के  दुस्प्रभाव से बचाने  के लिए अभिभावकों की न केवल नैतिक जिम्मेदारी होती  है बल्कि  उन्हें स्वय अपने लिए भी मापदंड तय  करने होंगे ! बच्चों पर दबाब और उससे जुड़ने से मना करने से पहले समय सारिणी निश्चित किया जाना चाहिए ! उनकी महत्वपूर्ण गतिविधियों पर नज़र रखें , नियम बनाएं और उसे ईनाम  से जोडें ! अपने अभिमान की ज्वाला से उनके कोमल मन को ठेस न पहुंचाएं  , उन पर अपने कड़े नियम थोपने से बचें  ! इन्टरनेट , मोबाइल  और टी .वी  सबके सकरात्मक व् नकारात्मक प्रभाव होते हैं ! बच्चों के लिए  उचित और क्या अनुचित इसको अभिभावक ही सुनिश्चित कर सकते हैं ! उन्हें अध्यन  की ओर  इस सुविधा का इस्तेमाल सिखाएं ,जानकारी बढे किन्तु सही दिशा  की  ओर ! बच्चों को अच्छे क्रिया कलापों की ओर  प्रेरित करें ! उनके के साथ मैत्री भाव रखते हुए उनके साथ समय बिताएं ! उनके मन मस्तिष्क पर आप एक खौफ नहीं मित्र के रूप में दिखें ताकि वह बाहय  दुनिया की ओर  न मुड़े !

 आज जरुरत हैं नैतिक मूल्यधारा  का पुनर्निर्माण  ताकि हमारे  बाल गोपाल सुंदर ,स्वस्थ ,और चिंतनशील व्यक्तित्व वाले हो , जो खुशहाल भारत के निर्माता बनेंगे ! बच्चों को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि  सम्पूर्ण  रास्ट्र की बागडोर उस पर है ! श्रेष्ठ  विचार बच्चों के व्यक्तित्व निखारते हैं तो दूषित आचरण उनका पूरा जीवन नस्ट करता है !  शिक्षकों  की  भी  भूमिका है कि  वे अपने शिष्यों को पतन के मार्गी न बनाने दें ! उनको कुटिलता और शोषण करने की प्रवृति से बचाएँ !
 इसके अलावा सरकार  का भी दायित्व है कि वह कार्यक्रमों पर तीखी दृष्टी बनाये रखे कि  किस कार्यक्रम  की क्या सामग्री परोसी जा रही है ! जब परिवार के सदस्य  सीरिअल्स  को देखने में खुद को आधुनिक समझते हैं तो  फिर आप बच्चो पर अपने नियम कैसे थोप सकते हैं ! . जितने भी सास बहु से केन्द्रित सीरियल हैं उसमें समाजिक परिवेश   का विघटन स्पष्ठ  दिख रहा है ! आधुनिकता के नाम पर गलत चीज़ों को आसानी से उपलब्ध करवाने से बचना होगा ! इसके लिए सरकार  द्वारा कड़े नियम लागु करवाने की आवश्यकता है साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है की समाज का प्रत्येक जागरूक सदस्य अपनी भूमिका सही ढंग से निबाह रहा है या नहीं !
हम सभी को याद  रखना होगा कि " आदर्श, अनुशासन, मर्यादा, परिश्रम, ईमानदारी तथा उच्च मानवीय मूल्यों के बिना किसी का जीवन महान नहीं बन सकता है" ~ स्वामी विवेकानंद

Sunita Sharma Lakhera

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बच्चों  में आत्मविश्वास

मनोबल व् सच्ची लगन से जीवन के हर संघर्ष में व्यक्ति कामयाब रहता है ! बच्चो में आत्मविश्वास  की कमी उन्हें हीन भावना से भर देती है ! आत्मविश्वास की कमी व्यक्तित्व के विकास में रूकावट है ! इसके आभाव में बच्चों  के अन्दर नकारात्मक  विचार भर देती है ! और यदि इन विचारों की बढोतरी हो जाये तो बच्चे दिशाहीनता के शिकार हो जाते हैं ! ऐसे में बच्चे अपनी काल्पनिक  दुनिया बना लेते हैं जिसमें उन्हें अपने भीतर कमियाँ  ही कमियाँ दिखाई देने लगती है ! फिर वे अपने को दुनिया की नजरों से दूर छुपाने की कोशिश में लग जाते हैं ! उनके मन :चिन्तन   पर हीन भावना प्रचुर मात्रा  में भर  जाती  है ! ऐसे में इन बच्चों को एकाकीपन अधिक लुभाता है ! जो बच्चे हीन भावना से ग्रसित होते हैं उनमें आत्मविश्वास की भारी  कमी दिखती है ! उनकी प्रत्येक  क्षेत्र  की  प्रगति में रूकावट आने लगती है ! साथ में उनका यह समझने लगना की वे जीवन में  कभी सफल नहीं हो पाएंगे ,उनके व्यक्तित्व में घातक  प्रहार करता है !
बच्चों को सिखाएं कि  वे अपने भीतर सकरात्मक विचारों का संचार करें ! अच्छी किताबें जिसमें  महान संतों की वाणी हो ,उन्हें पढने से उनके भीतर आत्मबल का संचार होगा जिससे उन्हें अपनी अपनी समस्यायों से दृढ़ता  से जूझना आ जायेगा ! बच्चों से कहें कि  वे अपने आस पास ध्यान  से  देखें कि  हर व्यक्ति के अंदर कुछ न कुछ कमी दिखने लगेगी  ! इस सृष्टी  की सम्पूर्णता केवल ईश्वर के पास है बाकि सभी किसी न किसी क्षेत्र में दूसरे  से अधिक सक्षम होते हैं ! उन्हें  उनके गुण  पहचानना सिखाएं  ताकि वे उसी दिशा  में अपनी योगिता अनुसार अपने भीतर की  उर्जा  का संचार कर सकें ! इससे उनके भीतर पनप रहे नकारात्मक चिन्तन से वे भी बचे रहेंगे साथ ही उनके परिवेश पर भी बुरा असर नहीं पड़ेगा ! बच्चे यह सीख लें की नकारात्मक चिंतन से पूरे समाज को हानि होती है ! कभी वे स्वय को दुसरे से कम न समझे ! यदि एक बच्चा कक्षा में पढाई में अव्वल  है तो दूसरा बच्चा  खेल में तो तीसरा कला में तो चौथा तकनीकी  क्षेत्र में ! हर बच्चे की बोद्धिक  क्षमता भी भिन्न होती है ! अभिभावक व् शिक्षक  बच्चों को गुमराह होने से बचा सकते हैं ! आज के दौर में शिक्षा प्रणाली भी इसी वजह से लचीली कर दी गयी है ! बच्चों के गुणों का आकलन मात्र पढाई से ही नहीं अपितु उनके सर्वागीण  विकास से किया जाना चाहिए !हर बच्चा के भीतर किसी न किसी क्षेत्र की प्रतिभा छुपी होती है ! बच्चों को स्वय का आकलन करना सिखाएं कि  उन्हें किन कारणों से हीन भावना आती है ! कक्षा में अनुतीर्ण होना / शिक्षकों द्वारा फटकार या प्रताड़ना / अभिभावकों द्वारा  किये जाने वाली तुलनात्मक आलोचना / परिवार में आपके दातित्व / खुद की कमी / लापरवाही  इत्यादि अन्य  कारण उन्हें स्वयम मनन करना होगा !
अभिभावक भी ध्यान दें कि  बच्चों का मन उस कोमल मिट्टी की भांति है जिसे आप यानि कुम्हार अपने इच्छा अनुरूप ढालता है ! आप अपने बच्चे के गुण दोष परखिये ,फिर उसी अनुसार उसे दिशा दें ! मारना / डांटना / आलोचना करने से आप बच्चे के विकास में स्वयम बाधा डालते हैं ! यदि आप उनका आत्मबल बढाने में अक्षम हैं तो कम से कम उन्हें  गहन  अन्धकार की ओर  न  धकेलें ! अपने बच्चे की रूचि पहचानिए  और उसे उस में व्यस्त होने दीजिये ! आप  स्वयं  देखेंगे की समय के साथ उसका आत्मविश्वास भी बढेगा और वह बाकि क्षेत्रों में स्वत : रूचि लेने लगेगा ! कभी बच्चों को डरायें धमकाएं नहीं  क्यूंकि अक्सर  इसके दुष्परिणाम भी आपको ही झेलने पड़ेंगे ! आत्मविश्वास की कमी से बच्चे कई बार गलत निर्णय ले बैठते हैं जिसकी वजह से बाद में आप जीवन भर  पछतायेंगे ! बच्चों के बीच संवाद बनाये रखें  यह सुझाव विशेषकर उन अभिभावकों के लिए महत्वपूर्ण है जो  अपने  कार्य  में व्यस्त रहते हैं ! उन्हें प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए  प्रेरित करें किन्तु उन्हें अपनी कठपुतली  न बनाएं ! बच्चों को प्रतिस्पर्धा के अनुकूल बनाएं पर उस पर इसका  बोझ  न डालें ! जब जब बच्चा कोई प्रशंसनीय कार्य करे तो उसकी तारीफ करें इससे उसमें आत्मविश्वास बढ़ेगा ! बच्चो के सामने आप अपना आदर्श स्थापित करें ताकि वह अपनी दिक्कते  स्वय आपके सामने रखना सीख लें ! कभी भी भूल से नकरात्मक शब्दों  का इस्तेमाल  न करें ! अच्छे कुशल माली के समान – उन्हें स्वस्थ पोषण दें। माली पौधे को खाद पानी देता है। खर पतवार को पास उगने नहीं देता। धूप, अतिवृष्टि, अनावृष्टि से बचाता है। यदि डालियां इधर-उधर बढ़ रही हैं तो सुंदर रूप देने के लिए काट छांट भी करता है।अभिभावक भी बच्चों को स्वस्थ साहित्य पढ़ने को दें, बुराई से बचाएं, गंदे व्यवहार की निंदा करते हुए उन्हें उनसे दूर रखें और सबसे अहम बच्चों का मनोविज्ञान समझें और अपना भी।
शिक्षकगण  की भूमिका  भी सकरात्मक होनी चाहिए ! शिक्षक केवल किसी विद्यार्थी को अपने अद्यापन क्षेत्र में सम्पूर्ण बनाने की चेष्ठा नहीं करता अपितु उनके व्यक्तित्व के विकास में उनकी नैतिक भागीदारी होती है ! उन्हें उनकी योग्यता फ्च्न्ने में मदद करें ! नन्हे बीजो को सुंदर फलदार वृक्ष में बदलना जो मानवतावाद  से भरपूर हो ,इसकी जिम्मेदार भी शिक्षक ही होते हैं ! सब बच्चों को समान दृष्टि से देखें, निश्छल व्यवहार करें व समय का पालन करें – तो यह गुण बच्चों में स्वत: आ जाएंगे। वे भी समय पर अपना कार्य पूर्ण कर के दिखाएंगे व सबके साथ मित्रवत व्यवहार करेंगे।उनके अभिभावकों के सामने  उनकी निंदा न करके उनकी उन अच्छाईयों को पहले सामने  लायें  जो उनके विकास में आधारशिला का कार्य करता है ! उसके पश्चात यदि उनकी कमजोरियां सामने लायी जाएँगी तो वे स्वयं अपने को सुधरने का प्रयत्न करेंगे ! उनकी हर विषय में रूचि जागृत करने हेतु उन्हें प्रयोगिक कार्यशाला द्वारा  अध्यन कराएं ! इससे वह मात्र किताबी ज्ञान न लेकर वास्तविक जगत का सामना करने लायक हो पायेगा ! नैतिक  शिक्षा  की कक्षा  में आत्मविश्वास बढाने  वाली कहानियों द्वारा मार्गदर्शन करें ! समाज  कल्याण  की दिशा में प्रेरित करने वाले  अभियान से बच्चों को जोड़े , उन्हें  मात्र किताबी आदर्श न सिखाकर वास्तविक जगत के  प्रतिस्ठित लोगो से मिलवाएं जिससे उनमें भी आत्मबल का संचार हो और वे भी जीवन में कुछ सीखने व् बनने के लिए लालायित रहे ! परीक्षा के दिनों में उनके आत्मबल को डिगने न दें ! लगातार बच्चे के अभिभावक के सम्पर्क में रहे ! मनोचिकित्सक डा. क्षितिज विमल जी का सुझाव  है कि अध्यापक इस बात का जरूर ध्यान दें कि जो वे बच्चों को पढ़ा रहे हैं, उसके प्रति बच्चे संतुष्ट दिखे। क्योंकि अगर बच्चे संतुष्ट नहीं होंगे तो मानसिक तनाव बढ़ने के आसार होते हैं। अभिभावक भी इस बात पर ध्यान दें कि बच्चों पर ज्यादा प्रेशर न डालें और गलती से भी उनमें हीन भावना पैदा न होने पाए।
अंत में हम  सबकी नैतिक जिम्मेदारी है की हम अपनी वाटिका के सुगन्धित पुष्प  की सुगंधी को चहु दिशा में फ़ैलाने हेतु उनकी शक्ति बने ! बच्चों को प्रतिभावान बनाएं ! मैरी  क्यूरी के अनुसार ,"हम में से जीवन किसी के लिए भी सरल नहीं है. लेकिन इससे क्या? हम में अडिगता होनी चाहिए तथा इससे भी अधिक अपने में विश्वास होना चाहिए. हमें यह विश्वास होना चाहिए कि हम सभी में कुछ न कुछ विशेषता है तथा इसे अवश्य ही प्राप्त किया जाना चाहिए"

Sunita Sharma Lakhera

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भोर

सुप्त व्यवस्था पर जागृत चेतना फिर सुप्त हो चली है ,
कुत्सित आचरण से द्रवित पुकार फिर सुप्त हो चली है ,
वक्त के नस्तर बदस्तूर जारी रहेंगे जाने कब तक ,
झींगुर की झी में स्याह रात फिर गुमनाम हो चली हैं !

दुखो का सैलाब है ,निर्ममता का प्रहार है !
मौत का मंजर है , इंसानियत का आया अंत है !

नफरत के समंदर में अन्याय की बढ़ोतरी हो चली है ,
भोर मनुजता की क्यूँ अब दूर हो चली है ?
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Sunita Sharma Lakhera

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 माँ शारदे

आयें  माँ शारदे को नमन  करें ,

सुंदर भारत का अब निर्माण करें ,

ज्ञानगंगा की धाराएं बहे  अब  चहूँ  दिशा  ,

आयें  सब मिलकर सार्थक प्रयत्न  करें !

 

दुखो  का अब अंत हो , मन सबका आनन्दित हो !

राग द्वेष  से और  पतन न हो , उम्मीदों  का  ऐसा  उपवन हो !

 

नयी  आशाओं  का  आह्वान  करें !

माँ  शारदे  का  सभी  आदर करें !!

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आप सभी स्नेही स्वजनों व् आदरणीय प्रेरको को बसंत पंचमी की सादर  बधाईयाँ !

Sunita Sharma Lakhera

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जीवन
 
जीवन उथान  के मार्ग सदा होते  कंटक भरे ,
पल  पल  कशमकश  के  बादल सदा  रहते घेरे ,
सुनियोजित  दिशा  में  बढने से सदा  रोके ,
बाधाओं  को  पार  करने से कभी  भी न डरे !
 
 मंजिल गर हो पानी  , नकरात्मक  चिन्तन  न लाना  तुम !
जीवन गर  हो कठिन  , संघर्ष  से तनिक न घबराना  तुम !
 
मन व्यथित करने वालो से  दूर गर  हो जाओगे ,
विपदा और बढ़ेगी , त्रासदियों के भँवर उलझते जाओगे !
 
संसारी  रिश्तों  में होते छिपे  स्वार्थ  कोई   न कोई ,
पग  पग  भावनाओं  के खिलाडी  की पहचान न कोई ,
जीवन  संबल  बनाने  वाला  ढूँढो  चहू  दिशा ,
जीवन सुगम  बनाने वाला  परमात्मा  से दूजा न कोई !
 
त्रिश्नाओ  के  मायावी  जाल से सदा बचना ,
दूसरो  को  दुखी  देख  कभी न खुश होना !
 
जीवन है अनमोल  , कद्र इसकी करो ,
मानवता के हित में, जीवन समर्पित करो !
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