कोई नग्मा पहाड़ों का
कोई नग्मा पहाड़ों का
पहाड़ों में गुनगुनाया जाए तो कैसा हो
राज़ – ए – अल्फ़ाज़ दिल के
सारे दिल से निकले जाए तो कैसा हो
घघुती के बने घोल में
खुद को अगर अब ढूंढा जाए तो कैसा हो
"गिर्दा" की लिखी कविताओं के
हर अक्षर में खुद को गर पायें तो कैसा हो
आओ सीखें अब शब्द गढ़वाली
अपनी भाष में गर बोला जाए तो कैसा हो
बहती रहती है वो धारा गंगाजी की अविरल
माँ को अब जीवित समझ जाए तो कैसा हो
नेगी जी के बिना ये पहाड़ सूना सूना है
ढोल दामो पहाड़ में ना सुनाई दे वो मण्डन सूना है
भगवती का जयकर यंहा दुगुना है
मेरे पहाड़ पर अब भी प्यार चौगुना है
वही प्यार तेरे मन में गर उभर जाए तो कैसा हो
कोई नग्मा पहाड़ों का
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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