ब्रजेन्द्र लाल साह के रचना संसार का परिचयBy
महेश पुनेठा on December 22, 2009
ब्रजेंद्र लाल साह ने उत्तराखंड की लोक विरासत को सहेजने-सँवारने और देश-दुनियाँ तक पहुँचाने का अविस्मरणीय कार्य किया। लोक संस्कृति को एक नयी पहचान तथा सांस्कृतिक आंदोलन को एक नयी गति दी। लोक संस्कृति के विकास के लिये एक पूरी पीढ़ी तैयार की। उनके लिए लोक साहित्य मनोरंजन का साधन मात्र नहीं, बल्कि जन चेतना का वाहक था।
उन्होंने कुमाऊँ की पहचान बन चुके ‘
बेड़ू पाको बारामासा’ सहित अन्य अनेक लोकगीतों को पुनर्रचित किया। दूरदराज के गाँवों से, अभावग्रस्त श्रमजीवियों के कंठों से फूटे दो हजार लोकगीतों को संकलित किया। दो सौ धुनों को आत्मसात किया और फिर इन पर आधारित कुमाउंनी तथा गढ़वाली रामलीला के चार सौ अस्सी गीत लिखे, जिन्हें विभिन्न मंचों पर प्रस्तुत किया गया। इन लोकगीतों और लोकधुनों का उपयोग दो अन्य नृत्य नाटिकाओं ‘भस्मासुर’ तथा ‘तारकासुर’ में भी किया। इनमें से ‘भस्मासुर’ की तो अब तक दस हजार से अधिक प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं।
इसी तरह उन्होंने लोकगाथाओं को सुन-समझ कर और गीत-नाटक में बदलकर राजुला मालूशाही, अजुवा बफौल, रसिक रमौल, जीतू बगड्वाल, वन्या, गंगनाथ, हरूहीत, रामी बौराणी, भोलानाथ, गोरीधना आदि के रूप में आलेखबद्ध कर माटी से मंच तक पहुँचाया। इन नाटकों के द्वारा अभावग्रस्त ग्रामीण जन-जीवन की विवशता, सामंती समाज व्यवस्था की निर्ममता तथा समाज की अन्य विसंगतियों को तो अनावृत किया ही गया, साथ ही जनपक्षीय शासन व्यवस्था की आवश्यकता तथा उसके दायित्व की ओर लोगों का ध्यान भी आकर्षित किया गया।
ब्रजेंद्र लाल साह ने ‘लोक कलाकार संघ’, ‘पर्वतीय कला केंद्र’ जैसे प्रसिद्ध सांस्कृतिक संगठनों के साथ मिलकर सांस्कृतिक आंदोलन को आगे बढ़ाने में अपना अप्रतिम योगदान दिया। नई पीढ़ी को पर्वतीय लोक संगीत का प्रशिक्षण प्रदान कर उनका सांस्कृतिक मानस तैयार किया। उनमें लोक को गहराई से जानने की ललक पैदा की। एक ऐसा रास्ता उन्हें दिखाया, जो अतीत से वर्तमान तक तो आता ही है, भविष्य की ओर भी ले जाता है। वे अपने आप में एक संस्था थे।
शेखर पाठक ने सटीक लिखा है कि ‘‘
रचनात्मकता, प्रयोगशीलता, सीखने-सिखाने की ललक, निश्चलता, बात-बहस को महत्ता, और इस सबसे आगे लिखना, गाना, नाचना, हुड़का बजाना इतना सब संस्थाओं में ही होता है, व्यक्तियों में नहीं। पर उनमें था।’’
ऐसे बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व के जीवन और कर्म को समग्र रूप में देखने का स्पृहणीय प्रयास कपिलेश भोज ने उन पर अपना शोध ग्रंथ लिखकर किया तो इसको संपादित रूप में नई पीढ़ी के सामने लाकर ‘पहाड़’ की टीम ने। ‘लोक का चितेरा ब्रजेंद्र लाल साह’ नाम से प्रकाशित इस ‘पहाड़ पोथी’ में लेखक ने ब्रजेंद्र लाल साह के व्यक्तित्व और कृतित्व को तो विस्तार से उजागर किया ही है, उनके पूरे समय और समाज को भी गहराई से खंगाला है। एक तरह से कुमाऊँ के पूरे सांस्कृतिक आंदोलन की विकास यात्रा को देखा है जो अल्मोड़ा में विख्यात नर्तक कलाकार उदय शंकर द्वारा ‘इंडिया कल्चर सेंटर’ की स्थापना किए जाने के बाद मोहन उप्रेती एवं उनके कलाकार साथियों द्वारा ‘यूनाइटेड आर्टिस्ट्स अल्मोड़ा’ के गठन से प्रारम्भ होती है। उस आंदोलन की विशिष्टताओं और सीमाओं को इस पुस्तक में सामने लाया गया है। इसी क्रम में राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे सांस्कृतिक आंदोलन की झलक भी प्रस्तुत की गई है। इस पुस्तक में कपिलेश भोज एक महत्वपूर्ण एवं जरूरी प्रश्न उठाते हैं कि पचास के दशक में लोक कलाकार संघ से जुड़े ब्रजेंद्र तथा उनकी पीढ़ी के प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों ने अल्मोड़ा शहर में जिस सांस्कृतिक आंदोलन का सूत्रपात किया था, उसका विस्तार गाँवों की ओर न होकर व अंततः दिल्ली महानगर में जाकर क्यों सिमट गया ? उनका यह प्रश्न जितना लोक संस्कृतिेकर्मियों के संदर्भ में प्रासंगिक है उतना ही साहित्यकारों के लिए भी। कपिलेश मानते हैं कि ब्रजेंद्र के बाद की पीढ़ी में गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’, बल्ली सिंह चीमा आदि ने जनांदोलनों से एकरूप होते हुए जन-जागृति की दिशा में कुछ कदम आगे तो जरूर बढ़ाये, लेकिन सांस्कृतिक आंदेालन के लिए आवश्यक सांगठनिक ढाँचे तथा सुनिश्चित कार्य योजना के अभाव में संभावनाओं के बावजूद ये भी गतिरोध नहीं तोड़ सके। लेखक की चिंता है कि वर्तमान में लोक-संस्कृति के संरक्षण व उसके उत्थान के नाम पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा संचालित की जा रही गतिविधियो के पीछे न तो कोई व्यापक प्रगतिशील दृष्टि है और न ही वे बहुसंख्यक जनता को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। आज तो उत्तराखंड का जन-जीवन अपसंस्कृति से आच्छादित हो चुका है। कुल मिलाकर संस्कृति निर्माण की ताकत जनता के हाथों से निकलकर संस्कृति उद्योग के हाथों में चली गई है। जनता सम्मोहित होकर उसे देख रही है। ऐसे में यह पुस्तक लोक साहित्य के बारे में जानने व समझने को प्रेरित करती है।
कपिलेश साह जी की इस बात से सहमत हैं कि लोक संस्कृति सामाजिक चेतना का सबसे संवेदनशील बिंदु है और इसलिए सामाजिक क्रांति का सशक्त माध्यम है। इस पुस्तक में भी हमें उनका यही दृष्टिकोण दिखाई देता है। लेखक ने यहाँ साह जी द्वारा संकलित, रचित व पुनर्रचित साहित्य में लोक के प्रतिरोध के स्वर तथा उस आकांक्षा व स्वप्न को रेखांकित किया है, जो समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहता है। वे साह जी पर लिखते हुए किसी भावुकता या श्रद्धा में नहीं बहते। एक तरह से यह पुस्तक लोक संस्कृति पर प्रगतिशील दृष्टि से एक विमर्श की शुरूआत है। ब्रजेंद्र लाल साह द्वारा लिखित कुमाऊँ के लोक साहित्य एवं वहाँ के प्रमुख लोक-गायकों से संबंधित लेखों के विश्लेषण के बहाने पाठकों को यहाँ के लोक जीवन को जानने-समझने का अवसर मिलता है। साह जी की रचनाओं का पता भी चल जाता है और कुमाऊँ के लोक साहित्य की व्यापकता एवं गहराई का भी। लेखक ने यहाँ ब्रजेंद्र लाल साह के बहाने उनके समकालीनों और सांस्कृतिक संस्थाओं के योगदान का गहन विवेचन किया है। इस पुस्तक में हमें ब्रजेंद्र लाल साह के अतिरिक्त मोहन उप्रेती, मोहन सिंह रीठागाड़ी ,गोपीदास, बृज मोहन साह, गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ आदि संस्कृतिकर्मियों के योगदान की झलक मिलती है। ‘लोक कलाकार संघ’ और ‘पर्वतीय कला केंद्र’ की भूमिका का उल्लेख भी यहाँ मिलता है। उस प्रक्रिया का भी पता चलता है कि एक बड़ा कलाकार बनने के लिए कितनी तैयारी एवं साधना की आवश्यकता पड़ती है ? कैसे स्वयं को वर्गांतरित कर लोक में घुलना पड़ता है ? इस पुस्तक से पता चलता है कि साह जी जो कुछ कर पाये, उसके पीछे उनका सरल-सहज, हँसमुख स्वभाव, विनम्रता, गहरी संवेदनशीलता, सहयोगी भावना, आशावादी-प्रगतिशील दृष्टिकोण, अन्याय-अत्याचार-शोषण के प्रति आक्रोश, दृढ़ इच्छाशक्ति, धैर्य, सहनशीलता आदि गुण रहे। कपिलेश मानते हैं कि अपने इन्हीं गुणों के कारण ही वे शहर के निवासी होते हुए भी ग्रामीण जनता में आसानी से घुल-मिल सके और लोक संस्कृति की दुर्लभ विरासत को आत्मसात कर सके। इसलिए यहाँ यह कहना भी गलत नहीं होगा कि विवेकानंद और कार्ल मार्क्स की विचारधाराओं से प्रभावित होने के साथ-साथ लोक के प्रति गहरी रागात्मकता के चलते ही सामान्य जन की पीड़ा के प्रति गहरी सहानुभूति, शोषक व उत्पीड़नकारी शक्तियों के प्रति आक्रोश तथा आम आदमी की दुःखदायी जीवनस्थितियों को बदलने की तड़प उनके समूचे साहित्य में अंतःसलिला की भाँति समा पाई। इस संबंध में साह जी अपने उपन्यास ‘शैलसुता’ के बारे में बताते हुए कहते हैं- जनमानस के गीतों को आत्मसात करने से पूर्व जन-जीवन को आत्मसात करना परम आवश्यक है। मुझे विभिन्न स्थितियों में अनेक ग्रामों में जन-साधारण के साथ घुल-मिलकर रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ, तभी मैं लोकमानस और लोक-जीवन का अध्ययन कर सका और एक भ्रमणशील बंजारे का जीवन जीकर अनेक सुखद और दुःखद अनुभूतियों को अपने में संजो सका और वर्षों के अंतर्मंथन के बाद यह रचना प्रस्तुत कर सका।
आज जब बाजार प्रायोजित मास कल्चर (समूह संस्कृति) द्वारा लोक संस्कृति पर आक्रमण किया जा रहा है, उसे बाजार की वस्तु बनाया जा रहा है, लोक जीवन से काट तमाशा दिखाया जा रहा है, उसमें फूहड़ता भरी जा रही है तथा उसकी गतिशीलता और रचनात्मकता को कुंद किया जा रहा है तब लोक संस्कृति की ताकत को समझने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी हो जाती है। यह पुस्तक सांस्कृतिक आंदोलन की रिक्तता और दिशाभ्रम को तोड़ती है तथा संास्कृतिक आंदोलन में लोक साहित्य की भूमिका को चिन्हित करती है। बताती है कि लोक साहित्य का उद्देश्य जनता का मनोरंजन करना या अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति जानकारी बढ़ाना मात्र न होकर सामाजिक अन्याय व शोषण-उत्पीड़न के प्रति संघर्ष चेतना विकसित करना तथा समतामूलक समाज की रचना करने के लिए प्रेरित करना होता है।
(Source -
http://www.nainitalsamachar.in)