Author Topic: स्व० चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी और उनकी कवितायें/CHANDRA KUNWAR BARTWAL  (Read 39878 times)

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
साथियो,
     आप सभी ने प्रकृति के चतेरे कवि चंद्र कुँवर बर्त्वाल का नाम सुना होगा, ये प्रकृति प्रेमी गीतिकार कवि थे, लेकिन साहित्य साधना का इन्हें बहुत कम समय मिला २८ वर्ष की अल्पायु में ही ये अनन्त यात्रा हेतु प्रस्थान कर गये। ये एक कुशल कवि, निबन्ध कार, कहानी कार, आलोचक, गद्य-काव्य और यात्रा संस्मरण लेखक भी थे। आइये चर्चा करते हैं, इनके व्यक्तिव और इनकी अमर कविताओ की....!

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0

चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी का जन्म चमोली जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में 20 अगस्त, 1919 में हुआ था। प्रकृति के चितेरे कवि, हिमवंत पुत्र बर्त्वाल जी अपनी मात्र २८ साल की जीवन यात्रा में हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा कर अनन्त यात्रा पर प्रस्थान कर गये, १९४७ में इनका आकस्मिक देहान्त हो गया। बर्त्वाल जी की शिक्षा पौड़ी, देहरादून और इलाहाबाद में हुई। १९३९ में इन्होने इलाहाबाद से बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की, १९४१ में एम०ए० में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहीं पर ये श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" जी के सम्पर्क में आये।
      १९३९ में ही इनकी कवितायें "कर्मभूमि" साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित होने लगी थी, इनके कुछ फुटकर निबन्धों का संग्रह "नागिनी" इनके सहपाठी श्री शम्भूप्रसाद बहुगुणा जी ने प्रकाशित कराया। बहुगुणा जी ने ही १९४५ में "हिमवन्त का एक कवि" नाम से इनकी काव्य प्रतिभा पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की। इनके काफल पाको गीति काव्य को हिन्दी के श्रेष्ठ गीति के रुप में "प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ" में स्थान दिया गया। इनकी मृत्यु के बाद बहुगुणा जी के सम्पादकत्व में "नंदिनी" गीति कविता प्रकाशित हुई, इसके बाद इनके गीत- माधवी, प्रणयिनी, पयस्विनि, जीतू, कंकड-पत्थर आदि नाम से प्रकाशित हुये। नंदिनी गीत कविता के संबंध में आचार्य भारतीय और भावनगर के श्री हरिशंकर मूलानी लिखते हैं कि "रस, भाव, चमत्कृति, अन्तर्द्वन्द की अभिव्यंजना, भाव शवलता, व्यवहारिकता आदि दृष्टियों से नंदिनी अत्युत्तम है। इसका हर चरण सुन्दर, शीतल, सरल, शान्त और दर्द से भरा हुआ है।


चित्र एवं कुछ कवितायें श्री कृष्ण कुमार बिष्ट जी से निम्न लिंक से साभार
source-http://www.orkut.co.in/Main#Community.aspx?cmm=44457466

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
"मुझे इस बात का दुःख नहीं कि कविता के प्रसिद्ध उपासको मे मेरी गिनती नहीं हुई, इसका समय ही नहीं मिला|" चन्द्र कुंवर बर्त्वाल


अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेगे
दिशा दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे
जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शेल जगेंगे
अब तरुओ में मधू से भीगे कोमल पंख उगेगे

मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा
बनकर ज्ञान बिखरता है यह जीवन सारा
किन्तु कहा वह प्रिय मुख जिसके आगे जाकर
मैं रोऊ अपना दुःख चटक सा मंडराकर
किसके प्राण भरू मैं इन गीतों के द्वारा
मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा
मेरे कांटे मिल न सकेगे क्या कुसुमो से
मेरी आहे मिल न सकेगी हरित द्रमो से
मिल न सकेगे क्या शुचि दीपो से तम मेरा
मेरी रातो का ही होगा क्या न सबेरा
मिथ्या होगे स्वप्न सभी क्या इन नयनो के
मेरे..
चाह नहीं है, अब मेरा जीवन शीतल है
द्वेष नहीं है, अब मेरा उर हो गया सरल है
गयी वासना, गया वासनामय योवन भी
मिटे मेघ, मिट गया आज उनका गर्ज़न भी
मैं निर्बल हु पर मुझको ईश्वर का बल।

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
नंदिनी


किये रहो पलकों की छाया उसके ऊपर-
बैठे रहो धरे उसको नयनो में भर कर!
उसके चारो ओर घूम कर करुण स्वरों में
भर कोई स्वर्गीय व्यथा अपने अधरों में,
गाओ हे, पीड़ित लहरों सी टूट बिखर कर-
किये रहो पलकों की छाया उसके ऊपर!

हुए अपरिचित वे चिर परिचित स्थान प्रणय के!
होने अब कुछ और और ही भावः ह्रदय के!
टूटे वृक्ष हमारे अब पृथ्वी के ऊपर,
जाने किस की मधुर प्रीति के साथी सुन्दर
खड़े हुए ये वृक्ष देखते हमें सदय से,
हुए अपरिचित वे चिर परिचित स्थान प्रणय के!

दर्शन ही मागा था मेरी आँखों ने!
एक स्पर्श ही तो माँगा था इन बाँहों ने!
तुम्हे लगा छाती से, सर आँखों पर धरना-
चाहा था मैंने उर ही तो तुमको देना!
हाय! सुखी ही होना तो चाहा था मैंने,
दर्शन ही माँगा था मेरी आँखों ने!

कोई और बिताता है मेरे जीवन को!
कोई और लुटाता मेरे संचित मन को!
कोई और कह रहा मेरे वे सुख अपने,
कोई और देखता इन नयनो के सपने!
प्यार और कोई करता मेरी गुंजन को!
कोई और बिताता है मेरे जीवन को!

डूब रहा है शशि यह बादल टपक रहा है,
मरू देशो में प्यासा निर्झर भटक रहा है!
मरता है यह हंस करुण ध्वनि करता नभ मैं,
मरती कलि दिन भौरों के व्याकुल राव मैं!
भरे कंठ मैं प्राणों का कण अटका है,
डूब रहा है शशि यह बादल टपक रहा है,

नव बसंत मैं ही मेरे तरु का झरना था!
मुझको इस उठते यौवन मैं ही मरना था
जब सोये थे सुख से सब पृथ्वी के सब प्राणी
गहन निशा मे जब न किही भी कोई वाणी,
मुझे शुन्य पथ पर तब यु आँहे भरना था!
हाय, मुझे इस उठते यौवन में मरना था!

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
तुमने क्यों न कही मन की?

तुमने क्यों न कही मन की?
रहे बंधु तुम सदा पास ही-
खोज तुम्हे, निशि दिन उदास ही-
देख व्यथित हो लौट गयी मैं,
तुमने क्यों न कही मन की?

तुम अंतर मैं आग छिपाए
रहे द्रष्टि पर शांति बिछाये
मैं न भूल समझी जीवन की
तुमने क्यों न कही मन की?

खो मुझको जब शुन्य भवन मे
तुम बैठे धर मुझे नयन में
कर उदास रजनी योवन की
कहते करुण कथा मन की!

मैं न सुधा लेकर हाथो मे
आई उन सुनी रातो मे
स्मिति बन कर न जीवन की
मैं बन गयी व्यथा जीवन की!

जग मैं मैं अब दूर जा चुकी
रो रो निज सुख दुःख सुला चुकी
अब मैं केवल विवश बंधन मे
कहते क्यों मुझ से मन की?
तुमने क्यों, न कही मन की?

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
गुंजन ला


तेरा मन मेरा हो जाये,मेरा मन तेरा हो जाये,

मैं तेरे मन की बात सुनूँ, तू मेरे मन की सुन पाए

खो जाये दुखो के अंधड़ में-

जब हम विपरीत दिशाओ मे,

मैं तुझे ढूढ़ता लोटू, तब तू मुझे ढूढती फिर आये!

मेरी अपूर्णता को तेरी मंगलमय शोभा पूर्ण करे,

मेरे जीवन के घट तेरी आँखों की निर्मल कांति भरे!

मेरी चाहो के सागर पर,

तू मौन चांदनी बन फैले

मेरी आशा के हिमगिरि पर तू सूर्य किरण बन बिखरे!

मैं राह देखता हु तेरी

मुझको शुचि आकर तू कर जा,

जीवन की सुनी डालो को तू नूतन शोभा से भर जा!

कोपल ला, हरी पत्तिया ला,

कोमल कोमल पत्तो को ला,

गुंजन ला मेरे जीवन में, ओ सुरभित साँसों वाली! आ!

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
प्रेम

किसके सरस अपांगो में तुम छिपे हुए हो,
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे!

किसके मृदुल अधर में आ तुम रुके हुए हो
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे!

किसके नयन नलिन में तुम गूंजते निरंतर
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे!

किसके ह्रदय-सदन में तुम पल रहे निरंतर
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे!

मैंने कभी न देखी वह अप्सरा कुमारी
वह सुन्दर नवेली,

मेरे लिए तुम्हे जो है पालती ह्रदय मे,
वन मे कही अकेली!

किसके ह्रदय-सदन में तुम पल रहे निरंतर
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे!

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
मेरे प्रिय


मेरे प्रिय..!
मेरे प्रिय का सब ही अभिनन्दन करते है
मेरे प्रिय को सब ही सुन्दर कहते है
मै लज्जा से अरुण, गर्व से भर जाती हूँ
मेरे प्रिय सुन्दर शशि से मृदु- मृदु हँसते है
वे जब आते लोग प्रतीक्षा कर रहते है
जा चुकने पर कथा उन्ही की सब कहते है
मेरे गृह पर वे प्रवेश पाने की विनती-
बहुत समय तक कर चुपचाप खडे रहते है
मेरे प्रिय बसंत-से फूलों को लाते है
लोग उन्हें लख भोरों से गुंजन गाते है
वे उन सब को भूल कुञ्ज पर मेरे आते
मेरे फूल न लेने पर प्रिय अकुलाते है
वे जब होते पास न मै कुछ भी कहती हूँ
वे जब होते पास न मै उनको लखती हूँ
वे जब जाते चले निराश साँस भर कर के
उनकी ही आशा से मैं जीवित रहती हूँ

कुँवर बर्थवाल बी0 ए0 १९३७-३९ की रचना

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
स्वर्गसरि मंदाकिनी
(मंदाकिनी घाटी को समर्पित अमर कवि की एक सुन्दर रचना )

स्वर्ग सरि मंदाकिनी हे स्वर्गसरि मंदाकिनी!

मुझको डूबा निज काव्य में हे स्वर्गसरि मंदाकिनी!

गौरी-पिता पद निस्रते, हे प्रेम वारि तरंगिते

हे गीत मुखर, शुचि स्मिते,कल्याणी, भीम मनोहर,

हे गुहा वासिनी योगिनी! हे कलुष तरु तट नशिनी!

मुझको डूबा निज काव्य में हे स्वर्गसरि मंदाकिनी!

मै बैठ कर नवनीत कोमल फेन पर शशिविंब सा

अंकित करुगा जननि, तेरे अंक पर सुरधनु सदा!

पीछे न देखुगा कभी आगे बढूंगा मैं सदा,

हे तट मृदंगोताल ध्वनिते, लहर वीणा-वादिनी!

मुझको डूबा निज काव्य में हे स्वर्गसरि मंदाकिनी!

पंकज सिंह महर

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 7,401
  • Karma: +83/-0
जिन पर मेघ के नयन गिरे


जिन पर मेघ के नयन गिरे

वे सब के सब हो गए हरे

पतझड़ का सुन कर करूं रुदन

जिसने उतार दे दिए वसन

उस पर निकले किशोर किशलय

कलिया निकली, निकला योवन

सब के सुख से जो कली हँसी

उसकी साँसों मैं सुरभि बसी

सह स्वयं ज्येष्ठ की तीव्र तपन

जिसने अपने छायाश्रित जन-

के लिए बनायीं सुखद मही;

लख मैं भरे नभ के लोचन

वे सब के सब हो गए हरे!

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22