अपने गांव पंवालिया के बारे में वे लिखते हैं-
मेरे गृह से सुन पड़ती, गिरि बन से आती,
इसी स्वच्छ नदियों की, सुन पड़ती विपिनों की,
मर्मर ध्वनियां, सदा दिख पड़ते द्वारों से,
खुली खिड़कियों से हिमगिरि के शिखर मनोहर,
उड़-उड़ आती क्षण-क्षण शीत तुषार हवायें,
मेरे आँगन छू बादल हँसते गर्जन कर,
झरती वर्षा, आ बसन्त कोमल फूलों से,
मेरे घर को घेर गूंज उठता विहगों का दल,
निशि दिन मेरे विपिनों में उड़ते रहते।
कोलाहल से दूर शांत नीरव शैलों पर,
मेरा गृह है, जहां बच्चियों सी हंस-हंस कर,
नाच-नाच बहती है, छोटी-छोटी नदियां,
जिन्हें देखकर, जिनकी मीठी ध्वनियां सुनकर,
मुझे ज्ञात होता जैसे यह प्रिय पृथ्वी तो,
अभी-अभी ही आई है, इसमें चिन्ता को,
और मरण को स्थाने अभी कैसे हो सकता है?