Author Topic: स्व० चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी और उनकी कवितायें/CHANDRA KUNWAR BARTWAL  (Read 39897 times)

पंकज सिंह महर

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रैमासी

कैलाशों पर उगते ऊपर, राई-मासी के दिव्य फूल,
मां गिरिजा दिन भर चुन जिनसे भरती अपना,
पावन दुकूल।
मेरी आंखों में आये वे राई-मासी के दिव्य फूल!
मैं भूल गया इस पृथ्वी को, मैं अपने को भी गया भूल,
पावनी सुधा के श्रोतों से, उठते हैं जिनके अरुण मूल,
मेरी आंखों में आये वे राई-मासी के दिव्य फूल।
मैने देखा, थे महादेव बैठे हिमगिरि पर दूर्वा पर,
डमरु था मौन, भूमि पर गड़ा था चमक रहा,
उज्ज्वल त्रिशूल।
सहसा आई, गिरिजा बोली "मैं लाई नाथ, अमूल्य भेंट"
हँसकर देखे शंकर ने, राई-मासी से दिव्य फूल;
मैं भूल गया इस पृथ्वी को, मैं अपने को भी गया भूल।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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साहित्यकाश का अनाम कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

प्रकृति को अपने सुख-दु:ख की सहचरी बनाकर जीवन पथ में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों की चट्टानों पर काव्य प्रसून खिलाने वाली कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने प्रकृति के असीम सौंदर्य के बीच खेलतु हुए अपना बचपन बिताया था। यही कारण है कि इनके बालपन पर अपनी अमिट छाप छोडऩे वाली प्रकृति ही इनकी कविता की प्रेरणा-स्रोत बनी।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा उडामांडा में हुई। मिडिल स्कूल नागनाथ से व पौड़ी से हाईस्कूल पास करने के बाद इण्टर की परीक्षा देहरादून से उत्तीर्ण की। सन् 1939 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.ए. में प्रवेश किया लेकिन वहां वे अस्वस्थ रहने लगे। दिन-प्रतिदिन गिरते हुए स्वास्थ्य ने इन्हें घर वापस आने पर मजबूर कर दिया। घर आकर इन्होंने अगस्त्यमुनि हाई स्कूल में प्राचार्य का पदभार संभाल लिया। पर वहां भी वे खुश न रह सके। इन्हीं मानसिक उलझनों एवं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों की वजह से उन्होंने सन् 1941 में इस पद से त्याग पत्र दे दिया। स्वास्थ्य और बिगड़ता जा रहा था। अस्वस्थता में मंदाकिनी के दायी और भीरी के पास पवालिया को अपना स्थाई निवास बना लिया। अस्वस्थता में भी इन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। एक हजार के लगभग कविताएं, छिटपुट कहानियां, निबंध आदि इन्होंने 28 वर्ष की अल्पायु में हिन्दी साहित्य की विरासत को दिया। अभी तक 250 के लगभग कविताएं ही प्रकाशित हुई हैं। कवि के अभिन्न मित्र शंभू प्रसाद बहुगुणा ने इनकी कुछ कविताओं का प्रकाशन छठवें दशक में किया। इनकी प्रमुख पुस्तकें, हिमवन्त का कवि, जीत, गीत माधवी, मेधनंदनी, प्रणयनि, कंकड-पत्थर, पयस्विनी, विराट ज्योति है। वर्तमान में सभी पुस्तकें अप्राप्त हैं। 239 कविताएं चन्द्रकुंवर बत्र्वाल की कविताएं नाम से डॉ. उमाशंकर सतीश ने संकलित की है, जो कि सरस्वती प्रेस इलाहाबाद ने प्रकाशित की है। विद्वान प्रो. पी.सी. जोशी ने इनकी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद भी किया, जिसे विश्व साहित्य में खूब सराहा गया। जीवन की विभिन्न उलझनों से जूझते हुए प्रकृति के विविध रूपों को करुणा एवं प्रेम से स्पंदित करके उन्हें अपनी कविता यात्रा का सच्चा साथी बनाता हुआ कवि अविवाहित ही 24 सितम्बर, 1949 को रात्रि में अपनी इहलीला संवरण कर दिया।
कवि चन्द्र कुंवर बत्र्वाल प्रकृति से गहरे रूप से जुड़े हैं। उनके काव्य में छायावाद व छायावादोत्तर कविता दोनों की प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं। उनके गीतों में सुख के नंदन वन में विचरने का आनंद भी है और दुख की अंधेरी रात में झरी ओंस की व्यथा-कथा भी है।
कभी कवि प्राची से झरने वाली अंतहीन आशा से आशान्वित होता दिखाई देता है, तो, कभी निराशा का गहरा अंधकार उसे भाग्यवादी बना देता है। उनके काव्य में संयोग के सुखद क्षणों की महक भी है और विरह की दारुण स्थिति की कसक भी। कवि का मन कभी करुणा से आप्लावित होकर प्रकृति को भी उससे सराबोर कर देता है, और कभी जीवन के प्रति वितृष्णा से भर उठता है। जब कभी भी भीतर का कोलाहल उसे बहुत व्यथित कर देता है तो वह शांति की तलाश में प्रकृति की गोद में दुबक जाना चाहता है। तत्कालीन कविता की स्वच्छन्दतावादी प्रकृति से बत्र्वाल जी की कविता भी अछूती नहीं रही। उनकी सूक्ष्म दृष्टि ने प्रकृति को बहुत नजदीक से देखा और छुआ है। कवि ने श्वेत केशों वाले तरुण तपस्वी हिमालय के इर्द-गिर्द सुशोभित वन पंक्तियों के वासी कफ्फू को गीतों का मंगलघट लेकर क्षण-भंगुर जीवन को स्वर्ग बनाते देखा है।
चन्द्रकुंवर बत्र्वाल के काव्य में प्रेम एवं करुणा की मंदाकिनी सतत प्रवाहमान है। वे प्रेम को ‘सुधा पिलाने वाला देवताÓ मानते हैं। इसीलिए वे प्रेम की उस अमरपुरी में रहना चाहते हैं जहां रहने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं उनका कहना है- जीवन का है अंत प्रेम का अंत नहीं। कल्प-वृक्ष के लिए शिशिर हेमंत नहीं। वह धनीभूत हुई पीड़ा ही तो है जो बदली बन, जीवन मरु पर बरसकर उसे हरा-भरा कर देती है। इसीलिए महादेवी वर्मा ने भी नीर भरी दु:ख की बदली बन रजकण की तरह बरसकर नव जीवन अंकुर के रूप में फूटने की बात कही है। इसी पीड़ा की चिलमन से झांकता कवि भी बरबस कह उठता है।
जिन पर मेघों के, नयन गिरे,
वे सबके-सब हो गए हरे।
बत्र्वाल जी की कविताओं में तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का भी चित्रण हुआ है। भारतीय जनता में आजादी के लिए क्रांति की लहर जोरों पर चल पड़ी थी। साहित्यकार भी लेखनी के माध्यम से जनता को उद्बोधित कर रहे थे। बत्र्वाल जी भी जयवान, नवप्रभात, नवयुग आदि कविताओं के माध्यम से नए युग को आमंत्रण देते हैं।
‘मैकाले के खिलौने’ रामनाम की गोलियों’ आदि कविताएं समाज के कुछ खास वर्गों के आडम्बरपूर्ण जीवन पर तीखा प्रहार करती है।
कवि की अनुभूति उनके काव्य में सहज रूप से अभिव्यक्त हुई है। उनकी भाषा में क्लिष्टता नहीं वरन् एक सहज प्रवाह है। भावानुकूलता उनकी काव्य भाषा की एक प्रमुख विशेषता है। विगत कुछ वर्षों से चन्द्रकुंवर बत्र्वाल जन्म-तिथि को उत्तराखण्ड तथा दिल्ली में समारोहपूर्वक मनाया गया, जो कि एक हर्ष का विषय है। सन् 1991 में अनिकेत तथा क्षेत्र प्रचार कार्यालय द्वारा अगस्त मुनि तथा पंवालिया में 1992 में प्रयास द्वारा गोपेश्वर में, 1993 में पौड़ी, आदिबद्री, देहरादून, कोटद्वार तथा पर्वतवाणी द्वारा दिल्ली में कवि के कृतित्व पर परिचर्चा हुई। 1995 मे मचकोटी तथा श्रीनगर (गढ़वाल) में तथा इस वर्ष पुन: अगस्त्यमुनि में कवि की जयंती मनाई जानी हिन्दी साहित्य के अनाम नक्षत्र का सम्मान होगा। साथ ही यह जरूरी होगा कि पाठ्यपुस्तकों में जिन छायावादी, प्रगतिवादी या अन्य कवियों को जगह मिली है, उनके सम्मुख चन्द्रकुंवर बत्र्वाल-उपेक्षित क्यों हैं?

- बीना बेंजवाल

Source -
(http://www.niralauttarakhand.com)


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्रकृति के चितेरे कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल

पहाड़ की पीड़ा और प्रकृति के अलौकिक सौन्दर्य के कालजयी साहित्य के रचनाकार कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का जन्म 20 अगस्त, 1919 में चमोली जिले के पट्टी नागपुर के मालकोटी गांव में हुआ था।

आप प्रकृति प्रेमी, गीतकार कवि थे, किन्तु साहित्य की अन्य विधाओं पर भी आपने कलम चलाई। निबन्ध, कहानी, एकांकी, आलोचना, यात्रा संस्मरण आपने भरपूर लिखे हैं।
बर्त्वाल जी की शिक्षा पौढ़ी, देहरादून एवं प्रयाग में हुई। सन् 1939 में इलाहाबाद से बी.ए. किया व सन् 1941 में लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.ए. में प्रवेश लिया, तभी से वे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के सम्पर्क में आये।

हिमवंत कवि छायावाद के दौर के एक बड़े कवि थे, इन्हें अंग्रेजी कवि जान कीट्स के समतुल्य माना जाता है। कीट्स 26 वर्ष में दुनिया से विदा होकर विश्वविख्यात हो गये, बत्र्वाल भी मात्र 28 वर्ष की आयु में दुनिया से कूच कर गये थे। प्रकृति के अनुपम चितेरे, हिमालय के अमर गायक ने हिमालय की सुन्दरता को शब्दों में पिरोकर जन-जन तक पहुंचाया था। इस महान कवि द्वारा सृजित काव्य से उत्तराखण्ड का गौरव बढ़ा है।

इन्हें हिन्दी गीति काव्य का सबसे बड़ा रचियता माना जाता है। इनके सुरीले मुक्तक मन और आत्मा को काव्य सौन्दर्य के एक नये लोक में ले जाता है। 1939 से इनकी कविताएं कर्मभूमि साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित होने लगी थी। इनके कुछ निबन्धों का संग्रह ‘नागिनी’ शीर्षक में इनके सहपाठी शंभू प्रसाद बहुगुणा ने प्रकाशित किया।
बहुगुणा ने 1945 में ‘हिमवतन एक कवि’ शीर्षक से इनकी काव्य प्रतिभा पर एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, जिससे हिन्दी साहित्य जगत से इनका प्रथम परिचय हो पाया। सहज, सरल, गहरी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के साथ कलापक्ष को उभारते हुए कवि चन्द्रकुंवर मृत्यु के अंतिम क्षणों तक प्रयासरत रहे। इनके काफल-पाको गीति काव्य को हिन्दी के श्रेष्ठ गीत के रूप में ‘प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ’ में स्थान दिया गया।

इनकी मृत्यु के पश्चात् बहुगुणा जी के सम्पादकत्व में ‘नंदिनी’ गीति कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। नन्दिनी के बाद गीत-माधवी, प्रणयिनी, पयस्विनी, जीतू, कंकड़-पत्थर आदि शीर्षकों से इनके कई अन्य कविता संग्रह प्रकाशित हुए। इनके काव्य में वेदना थी, जो केवल प्रेम की असफलता की वेदना थी, जो केवल जीवन में रोगग्रस्त होने से कुछ न कर सकने की वेदना भी है।

रोग शैय्या पर उन्हें मृत्यु निकट आती दिखाई देती है, उसी पर छटपटाते हुए उन्होंने यम और मृत्यु पर ढेर सारी कविताएं लिख डाली। 14 सितम्बर, 1947 को इस महान कवि पंवालिया ग्राम में देहावसन हो गया। इनके विराट चिन्तन एवं सूक्ष्म काव्य विवेचन द्वारा वर्तमान पीढ़ी को नगराज हिमालय को देखने और समझने के लिए एक दिव्य दृष्टि मिली है, जिसकी प्रासंगिकता आज के युग में अधिक उपयोगी तथा जनमंगलकारी है।

- दर्शन सिंह

(http://www.niralauttarakhand.com)

विनोद सिंह गढ़िया

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साथियो, आप सभी ने प्रकृति के चेतेरे कवि चन्द्र कुँवर बर्त्वाल का नाम सुना होगा, ये प्रकृति प्रेमी कवि थे, लेकिन साहित्य साधना का बहुत कम समय मिला। 28 वर्ष की अल्पायु में ही ये अनन्त यात्रा हेतु प्रस्थान कर गए। ये एक कुशल कवि,निबंधकार, कहानीकार, आलोचक, गद्य-काव्य और यात्रा संस्मरण लेखक भी थे। प्रस्तुत है चन्द्र कुँवर बर्त्वाल की एक कविता " मुझको तो पहाड़ ही प्यारे हैं"


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मुझको तो हिम से भरे हुए
 अपने पहाड़ ही प्यारे है
 
 दस्तक परिवार कि ओर से हिन्दी के प्रसिध कवि चंद्र कुँवर बर्त्वल के 184 जन्मदिवस के अवसर पर सभी साहित्य प्रेमियों को हर्दिक शुभकामनाये
 
 चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी का जन्म रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में 21 अगस्त, 1919 में हुआ था। प्रकृति के चितेरे कवि, हिमवंत पुत्र बर्त्वाल जी अपनी मात्र २८ साल की जीवन यात्रा में हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा कर अनन्त यात्रा पर प्रस्थान कर गये, १९४७ में इनका आकस्मिक देहान्त हो गया। बर्त्वाल जी की शिक्षा पौड़ी, देहरादून और इलाहाबाद में हुई। १९३९ में इन्होने इलाहाबाद से बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की, १९४१ में एम०ए० में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहीं पर ये श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" जी के सम्पर्क में आये।
 १९३९ में ही इनकी कवितायें "कर्मभूमि" साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित होने लगी थी, इनके कुछ फुटकर निबन्धों का संग्रह "नागिनी" इनके सहपाठी श्री शम्भूप्रसाद बहुगुणा जी ने प्रकाशित कराया। बहुगुणा जी ने ही १९४५ में "हिमवन्त का एक कवि" नाम से इनकी काव्य प्रतिभा पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की। इनके काफल पाको गीति काव्य को हिन्दी के श्रेष्ठ गीति के रुप में "प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ" में स्थान दिया गया। इनकी मृत्यु के बाद बहुगुणा जी के सम्पादकत्व में "नंदिनी" गीति कविता प्रकाशित हुई, इसके बाद इनके गीत- माधवी, प्रणयिनी, पयस्विनि, जीतू, कंकड-पत्थर आदि नाम से प्रकाशित हुये। नंदिनी गीत कविता के संबंध में आचार्य भारतीय और भावनगर के श्री हरिशंकर मूलानी लिखते हैं कि "रस, भाव, चमत्कृति, अन्तर्द्वन्द की अभिव्यंजना, भाव शवलता, व्यवहारिकता आदि दृष्टियों से नंदिनी अत्युत्तम है। इसका हर चरण सुन्दर, शीतल, सरल, शान्त और दर्द से भरा हुआ है।
 अपनी मातृभूमि से उनका लगाव इस कविता से झलकता है-
 
 मुझको पहाड़ ही प्यारे है
 प्यारे समुंद्र मैदान जिन्हें
 नित रहे उन्हें वही प्यारे
 मुझ को हिम से भरे हुए
 अपने पहाड़ ही प्यारे है
 पावों पर बहती है नदिया
 करती सुतीक्षण गर्जन धवानिया
 माथे के ऊपर चमक रहे
 नभ के चमकीले तारे है
 आते जब प्रिय मधु ऋतु के दिन
 गलने लगता सब और तुहिन
 उज्ज्वल आशा से भर आते
 तब क्रशतन झरने सारे है
 छहों में होता है कुजन
 शाखाओ में मधुरिम गुंजन
 आँखों में आगे वनश्री के
 खुलते पट न्यारे न्यारे है
 छोटे छोटे खेत और
 आडू -सेबो के बागीचे
 देवदार-वन जो नभ तक
 अपना छवि जाल पसारे है
 मुझको तो हिम से भरे हुए
 अपने पहाड़ ही प्यारे है

पंकज सिंह महर

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" बिल्ली चूहे पर झपटी
चूहे ने भगवान से प्रार्थना की
हे भगवान मुझे बिल्ली से बचाओ
उसी समय बिल्ली ने भगवान से प्रार्थना की
हे भगवान मै कई दिनो की भूखी हू
मुझे तो यह चूहा मिलना ही चाहिए
दोनो प्रार्थनाएं एक साथ स्वर्ग की ओर चली
रास्ते मे बिल्ली की प्रार्थना ने चूहे के प्रार्थना को खा लिया
स्वर्ग मे केवल बिल्ली की प्रार्थना पहुची
और धरती पर वही हुआ
जो होता आया है

 

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