मनोज उप्रेती कोरी भावुकता और लगाव के कवि नहीं हैं, वह गतिद्गाील यथार्थ को पैनी निगाह से पकड़ते हैं। संवेदनाओं, भावनाओं और भावुकता को विचारों की लगाम में कस कर कविता को आम जन के लिए उपयोगी बनाते हैं। उनका यही दृच्च्िटकोण जानता है कि प्रतिरोध का रास्ता इतनी जल्दी तैयार नहीं हो सकता और ना ही जल, जंगल और जमीन के हक की लड ाई एक दिन में तैयार हो सकती है। इसके लिए एक लम्बी प्रोसेस की जरूरत होगी लेकिन जब यह लड ाई द्याुरू होगी निद्गिचत है जीत आम जन-मन की होगी। इसी उम्मीद में वे अपनी कविता 'माठू- माठ'ू में लिखते हैं-
चाँचरी झोड ा फिर भभकाल,
पहाड क् चीज दुनि में चमकाल
घटक फितड फिर घुमल
पहाड अपनी नई पोंध देखी झुमल,
ये अलग बात है कि कुमाऊँनी हिन्दी कविता और कुमाऊँनी कविता में वर्तमान में मोहभंग का स्वर प्रमुख है। जन आकांक्षाओं और राज्य निर्माण के बाद के परिदृद्गय ने न केवल यहाँ के आम जनमानस को प्रभावित किया है, बल्कि पृथक राज्य की पोल खुल चुकी है। इसलिए मोहभंग समकालीन कुमाऊँनी साहित्य का प्रमुख स्वर है या प्रवृत्ति है। अद्वाइ, तुम आया, अंधेर चल तुमडि बाटै-बाट, चित्तवृत्ति, हौरी माया, द्विमुखी राँख, ठाँगर और लागुल, हाल- चाल, पर उनकी कविताएं का स्वर प्रगतिद्गाील हैं, उनमें बात को कहने का जो अंदाज है उससे पता चलता है उनकी रचनाओं में क्या सम्भावनाएं हैं। कविता का रचना विधान स्वयं में बन पड ा है, जिसमें कवि के यथार्थवादी दृच्च्िटकोण और अनुभव की प्रामाणिकता की महत्वपूर्ण भूमिका है। भाच्चा सहज और सरल है, बिम्ब, प्रतीक, फैन्टसी, तनाव ,विसंगति कविताओं को समकालीन जीवन बोध से जोड ती है। मनोज उप्रेती की लम्बी कविताएं अपने आप में अनूठी हैं उनकी आन्तरिक लय , अन्विति, विचार और संद्गिलच्च्ट यथार्थ युगीन परिस्थियों की संवेदना, भवुकता और लगाव का आदिम दस्तावेज है। समकालीन कुमाऊँनी कविता अपने मूल्याँकन के नये सौन्दर्यद्गाास्त्र की माँंग कर रही है। इस दिद्गाा की ओर बुद्धिजीवियों का ध्यान जाना जरूरी है, नही ंतो हमारे समय के कवियों और उनकी कविताओं का सही मूल्यांकन नहीं हो पायेगा। इसलिए इस नई धारा के रचनाकारों को एक जुट होने की जरूरत है।