पहाड़ के ‘प्रेमचंद' विद्यासागर नौटियाल नहीं रहे शालिनी जोशी
हिंदी के जाने-माने उपन्यासकार और कहानीकार विद्यासागर नौटियाल का निधन हो गया है. वो लंबे समय से बीमार चल रहे थे.
उनका जन्म 29 सितंबर 1933 को टिहरी के मालीदेवल गांव में हुआ था.
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‘उत्तर बायां है’, ‘यमुना के बागी बेटे’, ‘भीम अकेला’, ‘झुंड से बिछुड़ा’, ‘फट जा पंचधार’, ‘सुच्ची डोर’, ‘बागी टिहरी गाए जा’, ‘सूरज सबका है’ उनकी प्रतिनिधि रचनाएं हैं.
’मोहन गाता जाएगा’ उनकी आत्मकथात्मक रचना है. पहाड़ के लोकजीवन पर आधारित टिहरी की कहानियां उनका लोकप्रिय कथा संग्रह है.
उनकी रचनाओं का कई देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ और हमेशा ही उनका एक बड़ा पाठक वर्ग रहा.
वकालत में डिग्री हासिल करने के बाद उन्होने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एमए किया था.
जन संघर्ष से भी था सरोकार विद्यासागर नौटियाल की उपस्थिति इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि वो लेखन के साथ-साथ राजनीति और जन संघर्षों से भी सक्रियता से जुड़े रहे.
13 साल की उम्र में वो गढ़वाल में राजशाही और सामंतवाद विरोधी आंदोलन में शामिल हो गए थे और जेल भी गए.
उनका काफ़ी समय आज़ाद भारत की जेलों में बीता. वो ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फ़ेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी चुने गए.
विद्यासागर नौटियाल <blockquote> "नेता चाहे भाजपा का हो या कॉंग्रेस, किसी नेता को भी साहित्य का क..ख..ग भी नहीं पता है."
</blockquote> अपनी राजनीतिक सक्रियता के कारण उन्होंने कुछ वर्षों के लिए अपने साहित्यिक रुझान को भी पीछे धकेल दिया था.
वो साहित्य, समाज और राजनीति के आपसी सरोकार में गहरा विश्वास रखते थे और हिंदी पट्टी में साहित्य की उपेक्षा से काफी चिंतित रहते थे.
हाल ही में एक इंटरव्यू में उन्होंने ये कहकर चौंका दिया था कि, “नेता चाहे भाजपा का हो या कॉंग्रेस, किसी नेता को भी साहित्य का क..ख..ग भी नहीं पता है.”
विद्यासागर नौटियाल इन दिनों देहरादून में अपने परिवार के साथ रहते थे और उत्तराखंड के हालात से क्षुब्ध थे.
उत्तराखंड के 10 साल पूरे होने पर उन्होंने अफ़सोस व्यक्त करते हुए कहा था कि, “राज्य बनने से इतना ही फ़र्क पड़ा कि बड़े माफ़िया की जगह छोटे माफिया ने ले ली. “
हाल ही में उन्हें पहले श्रीलाल शुक्ल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था.हिंदी के सुपरिचित कवि मंगलेश डबराल ने उनके निधन पर गहरा शोक प्रकट किया है.
उनका कहना था, “उनके दो बड़े योगदान हैं वामपंथी आंदोलन की स्थापना और सामंतवाद विरोधी आंदोलन.उनकी रचनाओं में प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का सार्थक विस्तार मिलता है.वो पहाड़ के प्रेमचंद थे.”
मशहूर साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी का कहना है, “वो काफी ऊर्जावान साहित्यकार थे.उनका जाना इसलिये भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि काफी कुछ अधूरा रह गया .वो अभी भी लिख ही रहे थे और उनके पास लिखने के लिये काफी कुछ था. उनसे काफी उम्मीदें थी.पहाड़ के जीवन और समाज का जैसा चित्रण उन्होंने किया वो दुर्लभ है.”