Author Topic: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....  (Read 30953 times)

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #20 on: June 14, 2010, 04:31:23 PM »
जो उस रात गुजर गये, वे अपनो को रोते बिलखते छोड गये।
आज कहां से न्याय मिलेगा, न्याय देवता तो उस रात ही मर गये।

किसे सुनाऊ उस रात के दर्द का दुखडा,
बदल दिया है कई चेहरो ने चेहरा।

अब न्याय के आश मे, आंखे नम करना जग हिसायी है।
अब वो क्या न्याय करंगे, जीनका ईमान शराब के प्यालो मे है।

sunder singh negi
14/06/2010

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #21 on: June 16, 2010, 12:07:45 PM »
               "किसान"

खेतो की हरीयाली मे
जीता हर किसान।
दशक हुवा वरसे नही
मेघ हुवे मेहमान।
पानि के पाँव कोंन चला
किसके है निसान।
मन का दरिया सुख गया
जीगर पडा विरान।
फुटपाथ पर झोपडी देख,
मै मन ही मन हैरान।
समय आया की उडी झोपडी,
घर बना शमशान।
पीछवाडे़ किसने लिखा मेरा देश महान।

सुनदर एस नेगी
दिनांक 09-10-2007

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #22 on: June 16, 2010, 12:25:59 PM »
बहुत सुंदर कविता वाह अति उत्तम

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #23 on: June 16, 2010, 12:42:23 PM »
एक कविता मेरी भी -
                             अपना तो ऐशा ही ठैरा यार,
ख़त उनको हजार दिए
डाकखाने उजाड़ दिए
पत्रौत्तर हुवा ना एकबार
                  अपना तो ऐशा ही ठैरा यार
पड़ने-लिखने मैं हम बोर ठैरे
शक्ल से हम चोर ठैरे
बस यु ही हो गया प्यार
                   अपना तो ऐशा ही ठैरा यार
दोस्तों की है बात निराली
कभी भी नहीं रखते जेब को खाली
देते हैं उधार पे उधार
                     अपना तो ऐशा ही ठैरा यार
मेहनत हमने शीखी नहीं
रहमत हमपर होती नहीं
बस किस्मत का इन्तेजार
                      अपना तो ऐशा ही ठैरा यार
राजनीती अपना ऐम बचा है
उसके बाद फिर सजा है
बनते रहे धरती पर भार
                       अपना तो ऐशा ही ठैरा यार
                     

पंकज सिंह महर

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #24 on: June 16, 2010, 01:02:56 PM »
एक कविता मेरी भी -
                             अपना तो ऐशा ही ठैरा यार,
ख़त उनको हजार दिए
डाकखाने उजाड़ दिए
पत्रौत्तर हुवा ना एकबार
                  अपना तो ऐशा ही ठैरा यार
पड़ने-लिखने मैं हम बोर ठैरे
शक्ल से हम चोर ठैरे
बस यु ही हो गया प्यार
                   अपना तो ऐशा ही ठैरा यार

कविता तो गजब ठैरी यार,
हाथो-हाथ यह भी बता दो,
किससे हुआ ठैरा प्यार?
ज्यादा मत बनो मनमौजी,
कहीं पढ़-सुन लेगी, भौजी,
फिर जो बनेगा तुम्हारा अचार,
फिर भी कहोगे क्या "अपना तो ऐशा ही ठैरा यार?"   ;D :D ;)

Meena Pandey

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #25 on: June 16, 2010, 02:56:46 PM »
कविता--
 
पतंग की डोर-सी, सपनों की उडाने दे दो,
दो घडी के लिए, बचपन के जमाने दे दो।


जहां ये मतलबी है, दिल यहां नहीं लगता,
मुझपे एहसान कर, दोस्त पुराने दे दो।


गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।


थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।


निगाहें ढूढंती हैं, उन सर्द रातों में,
मुझे फ़िर ख्वाब में, परियों के ठिकाने दे दो।

ये तरसी हैं, बहुत, ला अब तो, मेरी
इस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।

Meena Pandey

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #26 on: June 16, 2010, 03:05:35 PM »
गज़ल--

रूख जरा बात मोड दो,
बेवजह रूठना छोड दो।

 
सच की सूरत बडी साफ़ है,
झूठ का आइना तोड दो।

 
होसलों पर भरोसा करो,
खुद को अब कोसना छोड दो।

 
जिन्दगी उसके कब्जे मे है,
मौत का ये भरम तोड दो।

 
धडकने फ़िर से मिल जाऎगी,
टूटे दिल को जरा जोड दो।

 
 

हेम पन्त

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #27 on: June 16, 2010, 03:08:42 PM »
पड़ने-लिखने मैं हम बोर ठैरे
शक्ल से हम चोर ठैरे
बस यु ही हो गया प्यार
                   अपना तो ऐशा ही ठैरा यार

पाण्डे जी, ये पंक्तियां खास तौर पर अच्छी लगी. लेकिन अब काफी बदलाव आ गया है आपमें, शक्ल भी ठीक है और पढने-लिखने में भी ध्यान जुटाते हो. ये कैसे हुआ?

dramanainital

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #28 on: June 16, 2010, 03:35:11 PM »
]गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।

थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।


meena jee bahut behtareen baat kahee hai.aapkee kavita padhakar saarey thread ko padhney kee kavaayad safal hui.    harshvardhan.

dramanainital

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Re: From My Pen : कुछ मेरी कलम से....
« Reply #29 on: June 16, 2010, 03:38:34 PM »
                                                          मिटटी के गोले में आग भरे बैठा है.

मिटटी के गोले में आग भरे बैठा है,
फ़िर भी धन-ऋण-गुणा-भाग करे बैठा है.
 
नक़्शे मिटाकर फिर नक़्शे बनाने को,
ख़ुद पर ही दाग़ने बारूद भरे बैठा है.
 
हर एक पर हर कोई उंग्लियाँ उठाता है,
हर कोइ हाथों पर हाथ धरे बैठा है.
 
चाँद पर तो पहुँचा पर अक़्ल नहीं आई है,
मकाँ ठन्डे सारी दुनिया ग़र्म करे बैठा है.
 
गन्डे-तावीज़ों से अब भी बहल जाता है,
सारी पढ़ाई फिज़ूल करे बैठा है.
 
हर्षवर्धन.
 

 

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