"गौरया"
हमारे घर आंगन की शोभा, होती थी कभी, ये गौरया।
दाल का दाना,चावल का दाना,खूब चुगती थी, ये गौरया।
चु-चु करती फुटक-फुटक कर, दाना पानि चुगती थी।
हल्ला करते ही गौरया, फुर्र-फुर्र, उड़ जाया करती थी।
मगर आज की चका चौध मे, दुर्लभ है यह गौरया।
बाग बगीचे कच्चे मकान, होता था इनका आशियाना।
खत्म होते बाग बगीचे, सिमन्टेट हमारे घर आंगन से।
पेड़ पौधो के न होने से, विलुप्त होती जा रही ये गौरया।
चिड़िक-चिड़िक करती गौरया, मन को भा जाया करती थी।
आधुनिक है आज आंगन हमारा, पर गायब है नन्ही गौरया।
स्वरचित
सुन्दर सिंह नेगी 26-03-2010