Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 448280 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शांत है
शांत है
मेरा पहाड़ बिलकुल शांत
अपने में मस्त
दूर दूर तक मेरा पहाड़
शांत है शांत
एक ओर से दूजी ओर
जाती हुई बस हवा का शोर
कल कल करती हुयी
नदी का वो छोर
पेड़ों की पत्तों की वो सर सर
फूलों पर भौंरों की गुंजन
दूर बहते झरनों की झर झर
चिड़ियों की चह चह से भर भर
शांत है
मेरा पहाड़ बिलकुल शांत
अपने में मस्त
दूर दूर तक मेरा पहाड़
शांत है शांत
उल्ट पलट तो सिर्फ दून में है
शोर शराबा बस दून में है
राजनीती और
नीतियों से दूर है मेरा पहाड़
ना सोचना की कमजोर है मेरा पहाड़
कुछ बईमान लोगों
का रचा खेल है ये
अपनों को छोड़ १६ साल
बस गैरों के साथ मेल है ये
इसलिये पहाड़ों में ना पहुंची
अभी तक रेल है ये
फिर भी अपने में चूर मेरा पहाड़
शांत है
मेरा पहाड़ बिलकुल शांत
अपने में मस्त
दूर दूर तक मेरा पहाड़
शांत है शांत
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कल कोई जो तुम्हे पूछ लेगा .....
कल कोई जो तुम्हे पूछ लेगा
तो मेरा नाम अपने से भुला देना
बस इतना सा तुम जता देना
बस थोड़ा और मुझे तड़पा देना
कल कोई जो तुम्हे पूछ लेगा .....
मंजिल तक ना जो पहुंचा सका
वो प्यार तुम सब से छुपा देना
दिख गर जाऊं पथ में तुम्हे कहीं
तुम तुरंत पथ बदल देना
कल कोई जो तुम्हे पूछ लेगा .....
कोशिश तो बराबर की थी
पर किस्मत का ना साथ मिला
तुम शायद अपने से मजबूर थी
वो बेवफा का तमगा बस मुझे देना
कल कोई जो तुम्हे पूछ लेगा .....
बालकृष्ण डी ध्यानी
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सब अपने में लगे रहे
सब अपने में लगे रहे
साथ हैं पर सब बंटे रहे
किस को किसी से हैं ना लेना देना
जोड़ घटना के हिसाब लेकिन सब के बराबर बने रहे
सब अपने में लगे रहे .....
भेद है क्या ये कोई जाने ना
ये दिल किसी का क्यों माने ना
क्या कोई ले जायेगा क्या कोई दे जायेगा
अपना अपना खेल सब मगर खेल जायेंगे
सब अपने में लगे रहे .....
सब का यंहा कुछ ना कुछ रह जाता है
इच्छाओं का सफर अब कहाँ पर मरता है
सफर खत्म होता बस जिस्म का
रूह का सफर बस निरंतर चलता रहता है
सब अपने में लगे रहे .....
अंतर क्यों है ये ना क्यों अब मिटता है
पल पल ये तो बस अब बढ़ता जाता है
क्या सुख है क्या दुःख कोई जाने ना
अपने को यंहा पर कोई पहचाने ना
सब अपने में लगे रहे .....
बालकृष्ण डी ध्यानी
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मौन
मौन क्या बोल पड़ा
अपने को टटोल पड़ा
कब तक रहेगा वो शांत खड़ा
कब तक चुप रहेगा वो सदा
अंधकार ले उसे अड़ा
खण्ड से लग के वो खण्डित हो रहा
बहते प्रवाह से बाधित हो रहा
सोच को उस के चोट लगी
बोल दे तो उस से अब तो सखी
ना ना उसे अब खुद जला
जो हर बार हो जला
ना अब उसके करीब जा
जला देगा वो अब ना उसका साथ निभा
राख से उसके क्या मिलेगा
मौन तब क्या बोलेगा
या तब भी मौन ही रहेगा
मौन क्या बोल पड़ा .........
बालकृष्ण डी ध्यानी
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दुर- पास
जो दुर होते हैं वो जाने क्यों पास लगते हैं
जो पास होते ना जाने क्यों वो दुर लगते हैं
ध्यानी

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बालकृष्ण डी ध्यानी
March 25 ·
अपने से छुपता रहा
अपने से छुपता रहा
और गैरों से छुपाता रहा
दिया उसने इतना मुझे
फिर भी मैं भीख मांगता रहा
ना समझा था मैं उसे
जो उसे अब मैं समझने चला था
उसके नूर का सारा प्रेम
जब बिखरा हो हर जगह पर
करता भी क्या मैं ध्यानी
उस से ये सब कुछ छुपा कर
देख रहा है वो मुझ को हर पल
बैठा है वो मुझ में ही कहीं पर
अनजान सा फिर राह हूँ यूँ ही
जाना नहीं मैंने खुद को अब तक
साफ़ साफ नजर आ रहा हैं वो मुझे
फिर भी मैं अंधेरों को चाह रहा हूँ
अपने से छुपता रहा ......
बालकृष्ण डी ध्यानी
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अपने से छुपता रहा
अपने से छुपता रहा
और गैरों से छुपाता रहा
दिया उसने इतना मुझे
फिर भी मैं भीख मांगता रहा
ना समझा था मैं उसे
जो उसे अब मैं समझने चला था
उसके नूर का सारा प्रेम
जब बिखरा हो हर जगह पर
करता भी क्या मैं ध्यानी
उस से ये सब कुछ छुपा कर
देख रहा है वो मुझ को हर पल
बैठा है वो मुझ में ही कहीं पर
अनजान सा फिर राह हूँ यूँ ही
जाना नहीं मैंने खुद को अब तक
साफ़ साफ नजर आ रहा हैं वो मुझे
फिर भी मैं अंधेरों को चाह रहा हूँ
अपने से छुपता रहा ......
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अब भी इतंजार तेरा है
अब भी इतंजार तेरा है
अब भी मेरा प्यार तेरा है
फागुन के इन बिछे मौसम रंगों में
मुझ पर चढ़ा रंग वो तेरा है
अब भी इतंजार तेरा है ......
ढोल दामों से गूंजता है अपना पहाड़
रसीले गीतों को यंहा छेड़ रही है ये बयार
वो पहला रंग तुम्हारा स्पर्श का अब तक चढ़ा
बावरा मन मेरा उसी प्रतीक्षा में खड़ा
अब भी इतंजार तेरा है ......
अभी तो तुम आ जाओ स्वामी
अभी तक सजाकर रखी है मैंने ये अपनी जवानी
अब तो ये इतंजार की वेदना सहना असहनीय है
बनकर फागुन की फुहार मुझ पर छा जाओ स्वामी
अब भी इतंजार तेरा है ......
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माँ मेरी माँ
माँ मेरी माँ बस ...... मेरी माँ
पल पल अपने आँचल में छुपा ले
पल पल अपनी आँखों में बस ले
मुख से अपनी बोल दे बस इतना ... औ मेरे लला
मैं दौड़ा दौड़ा आ जाऊं
माँ मेरी माँ बस ...... मेरी माँ
सुख ही सुख है माँ पास तेरे
दुःख रहे सदा तुझ से कोसों परे
अनछुये ही तू छु जाये मुझको
पास है तू माँ मेरी ये आधार है मुझको
माँ मेरी माँ बस ...... मेरी माँ
जब तक ना देखों तुझको
तब तक चैन ना आये माँ मेरी मुझको
ये दो अँखियाँ पल पल तुझे देख ने को तरसे
देखों तुझे जैसे ही माँ वो अमृत धारा बन बरसे
माँ मेरी माँ बस ...... मेरी माँ
बालकृष्ण डी ध्यानी
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विचारों में .................
विचारों में मेरे हमदम मैं तुम से यूँ ही प्यार कर लूंगा
इसी तरह से मेरे प्यार मैं तुम से मेरी आँखे चार कर लूंगा
विचारों में .................
खता तो मुझ से हुयी अपराधी बस मैं तुम्हरा हूँ
कैसे अधिकार तुम पर जता देता बस उस अपराध का छमा का पार्थी हूँ
विचारों में .................
कभी था मैं तुम्हारी उन शोख अदाओं का दीवाना
नजरों ने कही थी तुम पे वो कविता दिल ने गया था बस वो तरना
विचारों में ................
अभी भी आ जाती तुम मेरे पिछले मोड़ पर छोड़े उन विचारों में
अभी भी खोया हुआ हूँ मैं वहीँ पर उन अनसुलझे विचारों की गाठों पर
विचारों में ................
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