Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 448076 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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रूठा है वो
तुम जैसा छोड़ गयी थी
वैसा ही है अपना वो घर
ना जाने क्या बात हुयी है उसके साथ
बहुत चुप रहता है वो आज कल
ना कोई आवाज है आती
ना कोई इस ओर अब है आता
टूट चुका उसका वो सबसे रिश्ता
तेरे शिवाय उसे कोई ना अब भाता
गुमसुम है गुम वो अपने में ही
खाता है क्या ग़म उसे क्यों अब तक पता नहीं
अब भी इन्तजार है उसको तेरा बस तेरा
कितने दिन रातों से वो सोया नहीं
रूठा है वो किस बात पर मेरे
मुझको आज तक उस बात का क्यों पता नहीं
मिनतें की गिड़गिड़ाया अकेले में बहुत
उसके सम्मुख मैं क्यों बोल पाया नहीं
बिलकुल वैसा ही बिलकुल वैसा अब भी वो
पर थोड़ा सा मैं बदल गया हूँ पूरा बदल गया हूँ
अब तो मुझे उसकी सूद रहती ही नहीं
ना जाने तुम्हारे यादों में मैं किस कदर खो गया हूँ
तुम जैसा छोड़ गयी थी
वैसा ही है अपना वो घर
ना जाने क्या बात हुयी है उसके साथ
बहुत चुप रहता है वो आज कल
बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरा पाप
मैं अपना पाप
साथ लेके चला .... २
थोड़े से सुख के लिये
मैं कितना दुःख लेके चला
साथ लेके चला .... २
उसे पास करने के लिये
किस से दूर होके चला
जिंदगी भर मुझे
ना इसका पता चला
साथ लेके चला .... २
समझा था सब मैं
ना समझ बनके चला
किसको दिया था धोखा
अब तक ना मिला उसका पता
साथ लेके चला .... २
आँसूं हँस दिये थे
या मैं बस रो कर चला
पूछ जब मैंने अपने से
तब वो चुप ही रहा
साथ लेके चला .... २
बालकृष्ण डी ध्यानी
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अपना हूँ मैं
कच्चे थे पर कितने सच्चे थे
वो मिटटी के घरोंदे कितने अच्छे थे
सदा अपना मिल जाता था वंहा
क्या हसीन था वो छूटा मेरा जँहा
खिलती रहती थी वंहा हंसी मेरी
बिखरी मिलती थी मुझे खुशी मेरी
वो बचपन मुझे बहुत याद आता है
उसके और करीब वो मुझे ले जाता है
सपनों में ही अब वो रोज मिलता है
भूल ना जाना अपना हूँ मैं ये कहता है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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तेरा होना तब पास मेरे
तेरा होना तब पास मेरे
तब सब कुछ था वो साथ मेरे
ये दिल भी तब तुम थे उसकी जान भी तुम
मेरी होने के पहचान थे तुम
मेरा आईना मेरी सिरत थे तुम
जिंदगी की गुफ्तगू की जरूरत थे तुम
देखती थी तुम्हें बस उस आईने में
इस हुस्न को संवारने की जरूरत थे तुम
हर अंगड़ाई पे सिलवटें तुम्हारी ही थी
साँसों में सरगम कि रुबाई तुम्हारी ही थी
क़ाफ़िया मेरा अब यूँ अधूरा रह गया
मुक्तक मेरा मुझे जब अकेला कर गया
अब प्यास है और प्यासी हूँ मैं
प्यासे समंदर की बस एक दासी हूँ मैं
लहरों की तरह फिरती रहती हूँ इधर उधर
किनारा मेरा तू जब गया हो बिछड़
तेरा होना तब पास मेरे .....
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बंद तालों की आवाज
बंद तालों की आवाज
गूँजने लगी है मेरे पहाड़ों में आज
हर घर हर गलियारों में
बंद तालों की आवाज
बंद होने लगी है
बंद कर के वो अपनी आवाज आज
खेत और खलिहानों की
बंद तालों की आवाज
बंद बंद सा दिखने लगा है
बंद वो मेरा पुरखों का सुनहरा ताज आज
चाबी के उन कारखानों में
बंद तालों की आवाज
बंद अब सब होता जा रहा है
बंद सब रीति रिवाज कारोबार आज
करने बैठा वो किस का इंतजार
बंद तालों की आवाज
बंद हिर्दय से ना हो जाये वो
बंद अब मेरे पहाड़ों की मीठी आवाज आज
पुकारा लो ना फिर एक बार मुझे
बंद तालों की आवाज
बालकृष्ण डी ध्यानी
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तब मेरी कविता रोती है
जब अक्षर टूटे मेरे
बादलों के फटने से
बहा ले गया उसे कोई
अपनों के होने से
तब वो सिसकती है
अपने को अकेला देख
अकेले वो कोने में बैठ
तब मेरी कविता रोती है
हाथ बढ़ेंगे कुछ दिन
फिर वो एकदम थम जायेंगे
मजाक करने फिर हम से
हमारे तंत्र के पैंसे आयेंगे
उसे देख कर वो
फिर से सिकोड़ जाती है
क्या करें और कैसे जियें हम
तब मेरी कविता रोती है
देख वो नजारा
आँखें अब भी विचलित है
क्या था ये क्या हो गया
ना अपने पे भरोसा होता है
तिलमिलाती है खूब
खूब वो जोर से चिल्लाती है
ऊपर देख वो खुद से सवाल कर जाती है
तब मेरी कविता रोती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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अब लौटने का वक्त आ गया है
जरा ठहरो रुको
अब सोचने का वक्त आ गया है
मीलों तक चलते चलते चले अकेले हम
अब ठहरने का वक्त आ गया है
खाली हो रहे उस रिक्त को
अब भरने का वक्त आ गया है
कितना दोष दो गे तुम ज़माने को
अब सफाई देने का वक्त आ गया है
कितना छिपे रहोगे खुद की आड़ में
अब पर्दाफाश होने का वक्त आ गया है
आँखें क्यों झुकी है अब हमारी
अब आँखों को मिलाने का वक्त आ गया है
बैठ दो घडी अब अपनों के साथ
कुछ कर गुजरने का वक्त आ गया है
भीड़ से अकेले निकल के आ जा
अब अपनों से मिलने का वक्त आ गया है
देख खड़ा है अब भी वो शीश उठा कर
अब गले मिलने का वक्त आ गया है
झुक के आ जा अब तो अपने घर को
अब लौटने का वक्त आ गया है
जरा ठहरो रुको
अब सोचने का वक्त आ गया है
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अब तो अफसानों में
अब तो अफसानों में ही तुम्हें याद आयेंगे हम
कभी तुम्हें गुदगुदायेंगे कभी रुलायेंगे हम
और तड़पायेगी हमें अब तो आप की सदा
फना होने के बाद भी हमें मिली रही है ये कैसी सजा
ऐसी कैसी खता तुम से देखो की थी हमने
रोते रोते लिपट जाने की अदा जो ना सीखी हमने
इसका ग़िला देखो हमे अब तक बहुत है
पास हैं तुम से कितने पर हम अब कितने दूर हैं
राख ठंडी हो गयी है अब अभी आग बहुत है
कहना रह गया तुम से की तुम से मुझे प्यार बहुत है
फिर मौका मिले ना मिले जी भर के जी जाऊं आज
फिर ना जाने अब बिछड़े कब होगी तुम से मुलकात
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बस हारा हुआ मैं
बस अपने में ही रहा,अपनों से ही किनारा करके
बस चुनता रहा फूलों को ,काँटों से ही किनारा करके
बस बुनता रहा ख्यालों को,सपनों से ही किनारा करके
बस बहारों को देखता रहा ,खिजां से ही किनारा करके
बस खाली पन्नों को देखता रहा ,रंगो से ही किनारा करके
बस शब्दों को पढता रहा ,भावों से ही किनारा करके
बस रोता रहा , उन आँखों से ही किनारा करके
बस भागता रहा सुख के लिये ,दुःख से ही किनारा करके
बस शिकायतें की , जवाबों से किनारा करके
बस हारा हुआ मैं ,अपनी जीत से ही किनारा करके
बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो मेरा अपना
माथा टेकना बातें दोहराना
मुझे सब अब निराशा दे गया
नाम का अपना बनकर वो मुझे
जीने का झूठा बहाना दे गया
पत्थर दिल से इनायत की थी मैंने
वो मुझे जुदाई का सहारा दे गया
वो दोस्त था मेरा बस मेरा मुझे
जलन का पूरा सजो सामान दे गया
अंत में हुआ कुछ ऐसा साथ मेरे
वो सबसे ऊँचा मुझे मकाम दे गया
ग़म का अंधेरा ऐसा देकर मुझे वो
मेरे वीराने को वो रोशन कर गया
प्रतिबिंब ढूंढ़ता है अब उसका
जिसने सौंर्दय जिस्म नाकारा कर गया
पहाड़ों का पत्थर बन बैठा हूँ अब मैं
मेरे अहंभाव का वो किनारा बन गया
अस्तित्व की कश्ती में मुझे बिठाकर
काल्पनिक यथार्थ में वो भेद कर गया
मिथ्या जीवन की बस यही पहचान है
उन रस्ते में मुझे वो बेसहारा कर के गया
बालकृष्ण डी ध्यानी
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