Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447727 times)

devbhumi

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मैंने देखा है आज घुघूती को घुघते हुये

मैंने देखा है आज घुघूती को घुघते हुये
ना हँसते हुये उसे ना उसे रोते हुये
ना नियोली को देखा आज मैंने उड़ते हुये .
ना फ्योली को देखा आज मैंने फूलते हुये

पहाड़ों के सीने आज कल क्यों धड़कते नहीं
वो चलते कदम चलते जाते हैं वो क्यों रोकते नहीं
मैंने देखा आज पहाड़ों को अकेल में सिसकते होये
अकेले अकेले खुद से ही दूर दूर खिसकते हुये

ना कोई ख़्वाब देखता है ना कोई आवाज देता है
उड़ते परों को ना कोई खुद ब खुद कतर देता है
नींदों में चलते अब सब के सब यंहा बेहोश होकर
होश मैं लाने की यंहा अब कौन राह ताकता है

ख़ामोशियों की आवाजें बस अब यंहा तैरती रही
बादलों की वो सुनहरी धूप अब यंहा चटखती नहीं
बुझी आंखों में कोई ख़्वाब जलते आज मैंने देखा है
ये सफ़र मुश्किलों का है बस हाथ मलते, मैंने देखा

ये सफ़र मुश्किलों का है बस हाथ मलते, मैंने देखा
मैंने देखा है आज घुघूती को घुघते हुये
ना हँसते हुये उसे ना उसे रोते हुये

बालकृष्ण डी ध्यानी
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सर्द हवा अब गर्म होने लगी

सर्द हवा अब गर्म होने लगी
बर्फ मेरे पहाड़ों में अब कम होने लगी

सब कुछ जब कम कम होने लगा है
ये दिल का ग़म और क्यों बढ़ने लगा

दूरियों से अब किस को भी तकलीफ होती नहीं है
पर अब पास आने से दिक्कतें और बढ़ने लगी हैं

कभी दिल के धड़कने से पता चल जाता था
अब धड़कन के रोकने से भी पता चलता नहीं

नया युग है सब अपने पराये देखो कितने पास हैं
आवाज दें भी दें तो कोई क्यों अब पास आता नहीं

सर्द हवा अब गर्म होने लगी .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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दर्द भरी है नज्म तेरी

दर्द भरी है नज्म तेरी
कहती है वो नजर मेरी

एक एक आंसू टप जाते हैं
एक के बाद एक वो अब आते जाते हैं

रोकने की बहुत कोशिशें की थी
पर वो अब कहाँ रुक पाते हैं

लिखा है या है ये दर्द तुम्हरा
क्यों लगता है अब वो हमारा

कैसा अपनापन है वो
कैसी वो तड़पन है

बांध रखा है कैसे अपने से तुमने
कैसी अनदेखी ये जकड़न है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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एक गीत बनाने के लिए ......

एक गीत बनाने के लिए
काट जाती हैं कई रातें
वो अहसास जगाने के लिए
काट जाती हैं कई सांसें

एक गीत बनाने के लिए ......

ना तो दिन की खबर है
ना तो देह की फ़िक्र है
एक तुझ को मनाने के लिए
गुजर जाती हैं कई राहें

एक गीत बनाने के लिए ......

वो सब कुछ ही तो भीतर था
जो देखा है मैंने सब बाहर
पर खुद को समझने के लिए
गुजर जाती है कई जिंदगी

एक गीत बनाने के लिए ......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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शब्दों का ऐ खेल है सारा

शब्दों का ऐ खेल है सारा
जीवन का छिपा इनमें भेद है सारा
हर एक यंहा पे इसका मारा
बिखरा पड़ा है इनमें किस्सा सारा

शब्दों का ऐ खेल है सारा ......

जोड़ी हुयी हैं सब कड़ियाँ कड़ियाँ
लडी हुयी हैं सब लडियाँ लडियाँ
उलझी हुयी है उलझन उस में
जैसे फंसी हुयी हो कोई दुल्हन उस में

शब्दों का ऐ खेल है सारा ......

साँसे भी हैं देखो इन से हारी
बातों पर भी देखो ये पड़ गयी भारी
बदल जाती है कैसे पल में देखो
जो अभी अभी तक थी वो सखी तुम्हारी

शब्दों का ऐ खेल है सारा ......

धड़कन धड़कन धड़कती है वो
हर पल नये रंग रूप में उतरती है वो
लहू के जैसे बहती है इसकी रवानी
सदा जवान है इसकी जवानी

शब्दों का ऐ खेल है सारा ......

मर के भी अमर वो हो जाती
जो कलम लिखते लिखते है रुक जाती
कोई ना कोई उसे फिर थाम लेता है
फिर उन शब्दों में वो जी लेता है

शब्दों का ऐ खेल है सारा ......

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तो अच्छा है

रिश्ते दूर दूर होते हैं
तो अच्छा है
पास आने से अब ये दिल
क्यों डरता है
ख़ुशी में भी
ये आंखें छलकती हैं
गम में क्यों वो
अकेले अकेले लुढ़कती हैं
कोई लुढ़क कर देखो
अभी अभी वो दूर गया
पास था वो
अभी होके मजबूर गया
कोई तो सीने में
अब भी धड़कता है
खड़ा अकेले अकेले
दूर से ही अब वो तकता है
जुबां चुप है
आँखें बस अब बोलती है
रातों के अंधेरों से
अब वो चुपचाप झगड़ती हैं

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अब मै कम ही बोलता हूँ

अब मै कम ही बोलता हूँ
सच कम और झूठ को
ज्याद टटोलता हूँ
कभी पत्थर पर बैठकर
कभी कमरे में बैठकर
अकेले अकेले में
अब मैं क्या खोजता हूँ
अब मै कम ही बोलता हूँ

कभी बहती नदी के
शोर में गुम
कभी भीड़ भाड़ भरे शहर के
शोर में धुंध
मदहोश हो कर मैं घूमता हूँ
पर फिर भी मैं सोचता हूँ
अब मै कम ही बोलता हूँ

पहाड़ की बैचैनी
ऊँची इमारतों का वो खालीपन
अब एक सा लगता है
अब मुझको वो ही सब जंचता है
साफ़ सुथरी हवा
मटमैले उड़ती वो धूल
मेरे पास ही पलती है
अब मै कम ही बोलता हूँ

अब बोलने वाले ज्याद हैं
और सुनने वाले बहुत कम
अब सब की सुनता हूँ
अपना मुंह बंद ही रखता हूँ
क्यों की बच्चे बड़े
और मैं बूढ़ा हो गया हूँ
अकेला था पहले मैं
अब मैं बहुत अकेला हो गया हूँ
अब मै कम ही बोलता हूँ

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बंद बोतल की वो शीशी

बंद बोतल की वो शीशी
(रंग था गुलाब सा) ...... २
खाना खराब कर गयी वो
मेरे सारे घर के हिसाब का
बंद बोतल की वो शीशी ......

पहले लूट उसने मुझको
(दे के झांसा वो प्यार का ) ...... २
अब उसके गिरफत में फंसा हूँ
मै अब पूरा बेहिसाब सा
बंद बोतल की वो शीशी ......

ना रिश्ते दिखे ना नाते
(ना अब मुझको कुछ सुहाते) ...... २
उस अंगूरी पानी में ऐसा डूबा
ना चाहिए अब मुझे कुछ दूजा
बंद बोतल की वो शीशी ......

ऐसा छाया उसका नशा
(मुझको कुछ नहीं पता) ...... २
गिना रहा हूँ आखरी सांसें
फिर भी उसका चाहिए मुझे पता
बंद बोतल की वो शीशी ......

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ढंगी रे ढंगी रे

ढंगी रे ढंगी रे
पिछने कि ढंगी रे
दौड़ी जादि अग्ने कभी
किलै रैजांदि तू पिछने रे ... ३
ढंगी रे ढंगी रे

कालो रंगों रंगस्याणि
माथो मा सफेद ज्योति रे
कभी त ऐजा दौड़ी रे
इन ना जा तू बॉडी रे ... ३
ढंगी रे ढंगी रे

खे जालु तै बाघ स्याल
झट ऐजा घोरी रे
आँखा का उड़्यार मा
गै मेरी आंखीं थकी रे ... ३
ढंगी रे ढंगी रे

कंपदो हुलु तेरो गात
फैलायूं छा मेरो हात रे
लाठि टेकि कि सरकनु
कब जालु ये स्वासु रे ... ३
ढंगी रे ढंगी रे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेर छप छपी

छप छपी मेर छप छपी
जिकोडी मा छपी तेर तस्वीरा
भैर -भीतर करदी राई
कन ऐ तेर तस्वीरा

मन मा छपी पीड़ा को
कन मिठू मिठू आभास
तेर मेर माया छे वा
या मि थे ह्वैगे छे भास्

घुंघर्याळी लटुली तेरी
गोंदक्याली खुटी वा
दौड़ी दौड़ी जांदी कख वा
मि थे किलै ह्वैगे छब्लाट

पाणि कि गागरि लेकि
तू जै बाटा आंदी जांदी
मि थे पिछने पिछने तू
वै बाटा ले जांदी

मि थे बोल्णु तै थे
मि परी कैदे उपकार
मेरु हाथ पकडी दे
अपड़ो जन्म जन्म को साथ

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