इसी तरह रोज मैं ..............
अपनी कविताओं में
मैं बस अपनों को देखता हूँ
हर अक्षर में मैं अपने
पहाड़ का रास्ता खिंचता हूँ
कभी नदी कभी खाई
आ जाते हैं मेरे रास्ते में
उन मेंअपने शब्दों के पुल
मैं बांधने कोशिश करता हूँ
हर अपनी उन यादों को मैं
उनकी हरयाली से रंग देता हूँ
फूल पत्ते उसके चुन चुन के
उस पथ के बिछे कांटे चुनता हूँ
बहती नदी की तरह बहता हुआ
झरनों की तरह गुनगुनाता हूँ
पक्षियों की चहचहाते हुये रोज
मैं अपनों को आवाज लगाता हूँ
इसी तरह मैं अपनों को
अपनेपन का अहसास दिलाता हूँ
कुछ की आँखों से आंसूं बहाकर
उनका दर्द को थोड़ा काम कर देता हूँ
इसी तरह रोज मैं ..............
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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