Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447596 times)

devbhumi

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आज का उत्तराखंड

आज का उत्तराखंड
बन रहा है खंड खंड खंड
हो रहा है रिक्त पहाड़
मैदान भरा है खचा खच
आज का उत्तराखंड

जिसको था जो मिला
उसने उससे लिया हाथ मिला
किस को घोड़े की लगाम मिली
किसी को उसकी टांग मिली
आज का उत्तराखंड

खाकी लिबास ओढ़ लिया है
उस गाँधी को कंही छोड़ दिया है
चरखा अब बंद बंद लगता है
वो नज़ारा अब साफ़ साफ़ दिखता है
आज का उत्तराखंड

गाँव की पीड़ा कौन सुने
जहाँ स्मार्टसिटी का सपना पलता है
ढोल दामू अब लुप्त जो होने लगे
जब डीजै वाला बाबू जोर से बजता है
आज का उत्तराखंड

अपना कौन सब अब पराये हैं
मुसाफिरखाना समझ सब आये जाये है
बूढी आँखों में जो सपना अब भी जीता है
वो युवा अब कंही दूर ही बसता है
आज का उत्तराखंड

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अकेलापन पालती है ये दुनिया

अकेलापन पालती है ये दुनिया
संग अपने हर पल खेलती है ये दुनिया
दूर होना अपनों से
बोझल हो जाना देखे उन सपनो से
खलती रहती है वो उम्र भर
उस निर्जनता की सीमा तक
अकेलापन अकेलापन

मायूस देखता है उस अपने को
एकाकीपन के बहते उस झरने को
आवाज तो बहुत करता है वो
तनहाई से टूटा वो हिस्सा है जो
पृथकता की वो आंखें चढ़कर
घूरता है अकेला उस आँगन को
अकेलापन अकेलापन

वीराने की कोई छतरी होगी इतनी बड़ी
ढँक ना पाती होगी वो उस आँचल को
अखंडता की वो कड़ी जो छूट जाती होगी
वियोग के मात्र आचरण से
अलगाव का रास्ता पड़ जाता है उससे वास्ता
जिन्दा हूँ अब ये होश भी नहीं रखता
अकेलापन अकेलापन

भावनाओं के पिंजर को अब सलीब पर चढाऊँ
ऐसी पूंजी खाजाने को अब किस पर लुटाऊँ
यादों के खंडहर से दूर कैसे जाऊं
भटकती अपनी आत्मा को शांत कैसे पाऊं
स्वार्थी लोक में मैं अपना किसे ना बनाऊं
बेगानों में अपना कहाँ से ढूंढ़ लाऊं
अकेलापन अकेलापन

बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो तड़पती बंदूक

वो तड़पती बंदूक
वो फड़फड़ाती गोली
रह गयी
बस वो अपने में खोयी
अपनों के लिए
अब वो नींद में सोयी
वो तड़पती बंदूक

बंधी रह गयी वो जंजीर
गर्म लहू की जो थी लकीर
बम के वो गोले
फूटते उड़ते वो शोले
धुंआ वो काला
वो काली रात और
वो तड़पती बंदूक

फिर कोई उसे उठ लेगा
उसकी जगह कोई और लेगा
वो स्थान रिक्त कैसे रहेगा
मर मिटने करोड़ों कदम
देख उस ओर चलेगा
वो तीन रंग ऐसे ही पलेगा
वो देश भक्ति और
वो तड़पती बंदूक

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कविता अंतर्मन की

कविता अंतर्मन की
मेरे आलिंगन मन की
कैसे कहूँ तुम्हे प्रिये
भेदन करूँ अपना जिये की
कविता अंतर्मन की .......

किरणों में छानकर तू आती है
कोपलों में तू ओस सी सुहाती
फैलाकर ये अंबर ये धरती प्रिये
तू ओढ़ मुझ में छुप जाती है
कविता अंतर्मन की .......

बीच हमारे देखो फैला है
वो इश्क मेरा पहला पहला है
तुझे पास आने मैं देता हूँ
कैसे व्यक्त करूँ प्रेम ये दिल कहता है
कविता अंतर्मन की .......

बारिश में तप तो जाती है
हरी हरी घास खिल खिलाती
गर्मी सा भीग सा मैं जाता हूँ
कुम्हला कर सिमट मैं जाता हूँ
कविता अंतर्मन की .......

कितने जतन मैं करता हूँ
कैसे कहूँ प्रेम तुम से ही करता हूँ
भाव व्यक्त मेरे पास तेरे नहीं होते हैं
इसलिए आँखों से ही कहता हूँ

कविता अंतर्मन की
मेरे आलिंगन मन की
कैसे कहूँ तुम्हे प्रिये
भेदन करूँ अपना जिये की
कविता अंतर्मन की .......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरे पहाड़ पे ले जाने के लिये

जंहा भी जाएंगे हम ,वो पीछे पीछे आएंगे
हमारी स्मृतियों में ,वो हरदम आ कर गुनगुनायेंगे

उसकी कोख से फूटेंगे अब अनगिनत प्यासे झरने
अब हमें वो और भी प्यासा बनाएंगे
हर एक बूंद किरणों में जब झिलमिला जायेगी
हमे वो अपने पहाड़ों के दिन फिर याद आएंगे

आकाश के अनंत की ओर वो तनी होगी
वो चोटीयां बदस्तूर मेरे इन्तजार में खड़ी होंगी
हवाएँ होंगी उन्हें पल पल मेरी याद दिलाने के लिए
मेरे सांसों से नियमित आने जाने के लिए

निरभ्र वो चट्टानें अब भी बिखरी पड़ी होंगी
अंकित होंगे उनमें अदृश्य पदचिह्न अब भी मेरे
व्याकुल करते रहेंगे वो अब तो सदा मुझे यूँ ही
वो मेरे पैर अब मुझे रोज मेरे पहाड़ पे ले जाने के लिये

बालकृष्ण डी ध्यानी
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एक बार फिर से

एक बार फिर से
मुलाकात कर ले अपने दिल से
(बचपन की वो बिसरी मुस्कान ) ..... २
ओंठों से कह दे आज फिर से मिल ले
एक बार फिर से .......

पीछे छूट गया है जो कुछ तेरा
उसको फिर से इकठा कर ले
(एक बार क्यों ना हो तुझ से ) ..... २
उसको फिर इस दिल से पुकार ले
एक बार फिर से .......

पैसों से कोई बड़ा नहीं होता
जो अपना है वो दिल से जुदा नहीं होता
( टूटा है जो तेरा वो रिश्ता )..... २
वो तेरे अहम के कारण बड़ा नहीं होता
एक बार फिर से .......

कभी आंखें तो छलकी होंगी
तेरा वो अकेला दिल अकेले में रोया होगा
( तब याद तुझ को वो बहुत आया होगा )..... २
जो तेरे दिल से जुड़ा हुआ होगा
एक बार फिर से .......

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बंद बोतल की वो शीशी

बंद बोतल की वो शीशी
(रंग था गुलाब सा) ...... २
खाना खराब कर गयी वो
मेरे सारे घर के हिसाब का
बंद बोतल की वो शीशी ......

पहले लूट उसने मुझको
(दे के झांसा वो प्यार का ) ...... २
अब उसके गिरफत में फंसा हूँ
मै अब पूरा बेहिसाब सा
बंद बोतल की वो शीशी ......

ना रिश्ते दिखे ना नाते
(ना अब मुझको कुछ सुहाते) ...... २
उस अंगूरी पानी में ऐसा डूबा
ना चाहिए अब मुझे कुछ दूजा
बंद बोतल की वो शीशी ......

ऐसा छाया उसका नशा
(मुझको कुछ नहीं पता) ...... २
गिना रहा हूँ आखरी सांसें
फिर भी उसका चाहिए मुझे पता
बंद बोतल की वो शीशी ......

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चांटी चांटी की खे गैनी

चांटी चांटी की खे गैनी
ऊं सुपनिया किलै कख मेरा उडी गैनी
कन औरी कब अब उडीला ऊ चखुला
जूं क पंख ऊं सुपनिया ने कतर दैनी
चांटी चांटी की खे गैनी

खुद आंदा औरी बल ऊ दूर चली जांदा
ऊ तस्बीर तुमल किलै बदली नि दैनी
क्या क्या वादा किया छन तुमल
ऊ किलै की अब तुम से पुरा नि हुनि
चांटी चांटी की खे गैनी

ठंगों की सब बल अब कौथिग लगींचा
पिंगळी जलेबी किलै की ऊँ से तौली नि जाणी
कन चरखा मा तुमल हम थे बिठेई
ऊ चरखा का अबै तक किलै की रिंगा नि जाणी
चांटी चांटी की खे गैनी

भूली गयां हुला तुमरी याद छ बल छोटी
पञ्च बरसा का जो यो तेरु मेळा लगयूं चा
अब वैंकी मियाद छ खत्म हुँण वाळी
तै थे देख फिर हमारी याद आण हुली
चांटी चांटी की खे गैनी

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पैनी की पेंट को सुलारा

पैनी की पेंट को सुलारा
कन लगणु त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू पहाड़ा
झीलमील झीलमील ये पौड़ी बजारा
कन लगणु त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू नजारा

चल झट चुलै की तू गै ऐ अप्डू कुर्ता सुलारा
कन लगणु दूर रैकी त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू दुलारा
खुद औरि रैबार को च बल अब ऐ तेरु सहारा
कन लगणु त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू सारु पहाड़ा

टेहरी डैम को अब व्हैगे बल ऐ टेहरी गढ़वाल
कन लगणु दूर रैकी त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू डुबो पहाड़ा
आपदा विपदा को गढ़ व्हैगे ये गदनी का बगदा धारा
कन लगणु त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू धारू पहाड़ा

जिलों की लगी गै उत्तरखंड मा बल इन बहार
कन लगणु दूर रैकी त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू रूखा पहाड़
बरस पिछणे बस बरस ही बोगणा छन यख बल अब
कन लगणु त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू बोगणु पहाड़ा

पैनी की पेंट को सुलारा
कन लगणु त्वेथे दूर बाटिक ऐ अप्डू पहाड़ा
लैपटॉप स्मार्ट फोन को च ऐ तेरु बल जमाना
बता दे मिथे तेरु मन मा मेरु क्या च ठिखणा

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मेरु जिकोड़ो में संग बोल्दी ना

मेरु जिकोड़ो में संग बोल्दी ना
मेरु जिकोड़ो में संग किलै बोल्दी ना
भेद मन का में संग किलै खोल्दी ना
मेरु जिकोड़ो में संग बोल्दी ना

कदगा दिन रात मि सिंयु नि
परेली मेरु कोनों मिल भिजे नि
आँखा बण जांदी छन बल किताब जी
वे किताब थे तुमल कबी पैढि ना
मेरु जिकोड़ो में संग बोल्दी ना

खुटा अब थक गैनी तुम से दूर हीटे की
अब त मिल बी देख हिटणु छोड़ द्याई
तुमरी खुद थे मि अब कन के बिसरुं
अब तकै मिल मरणु नि सिख द्याई
मेरु जिकोड़ो में संग बोल्दी ना

मेर नजर अब दूर तके दिखादी ना
पास का बी मेर नजर अब हेरदी ना
इतगा सिंकोलि मेरु ये बुढ़ापा ऐग्याई
अब बी मेरु जिकोड मेसे बोल्दी ना
मेरु जिकोड़ो में संग बोल्दी ना

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