Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 233333 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कुछ बीती बातें
लो कर लो चलो और कुछ बीती बातें
बीती बातों से कुछ और चंद मुलाकातें
लो कर लो चलो और कुछ बीती बातें ........
कुछ लफ्जों के कंकर तो फेको
अल्फाजों के संग ऐसे सिमट कर ना बैठो
झील सी गहरी है ये आंखों की ख़ामोशी
धीरे धीरे तुम उसे बदल कर तो देखो
लो कर लो चलो और कुछ बीती बातें ........
लोग रिश्तों में अब खुद को है परखते
रिश्ते जैसे अब हैं वो पल पल बदलते
उस बदलाव में अब तुम बहकर तो देखो
इन आँखों से अब तुम बस कह कर तो देखो
लो कर लो चलो और कुछ बीती बातें ........
जिंदगी हमेशा एक नया मौका है देती
उसे हम बस ‘कल’ कहते हैं लोगो
इस आज में तुम अब जीकर तो देखो
दो बूंद प्यार के तुम पी पिलाकर तो देखो
लो कर लो चलो और कुछ बीती बातें
बीती बातों से कुछ और चंद मुलाकातें
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
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सर्दियों की गर्मी हैं
सर्दियों की गर्मी हैं
बातों में उसके नरमी है
गुलाबी गुलाबी बिखरी है
पहाड़ों पर पंखुड़ी सी खिली ठंडी है
सर्दियों की गर्मी हैं .......
बादल गाने आये हैं
सूरज को वो रीझने आये हैं
किरणों की लगी लुका छिपी है
बाँहों को मिली जैसे वो झपि हो
सर्दियों की गर्मी हैं .......
शर्माने वो लगी है
हमको लुभाने वो लगी है
बलखाती पेड़ो पर बेल सी
हमको लिपटने वो लगी है
सर्दियों की गर्मी हैं .......
खूबसूरत लहराती जुल्फों में
थोड़ी देर और वो जा कर ठहरी है
गर्म आती जाती उन सासो से
हमारी और चली मटरगश्ती है
सर्दियों की गर्मी हैं .......
बालकृष्ण डी ध्यानी
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गोधूलि आँखों की.....
गोधूलि आँखों की वो थोड़ी बेवफ़ाई
चुभते नश्तर और उसकी वो गहराई
आँखे अपनी बंद कर के तो देखो
अपना उस को तुम कह कर तो देखो
गोधूलि आँखों की वो थोड़ी बेवफ़ाई.......
आँखे ओझल, पहाड़ ओझल
दिल इतना क्यों इतना क्यों अकेला बोझल
उलझा उलझा सा सब सुलझा लो
गांठ पड़ने से पहले उन्हें और करीब ला लो
गोधूलि आँखों की वो थोड़ी बेवफ़ाई.......
बालकृष्ण डी ध्यानी
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तेरी खुद मां मेरु जग्वाळ बी
तेरी खुद मां मेरु जग्वाळ बी
फीको पौड़ ग्याई ..... निर्भगी फीको पौड़ ग्याई
रो रो की मेरा द्वि आंखा दगड बी
ऐ जिकोडो रो द्याई .. मेरु जिकोडो रो द्याई
बुरांस जनि सजी आँखी डालि डालियों मां
पत्ता पत्ता थे ऊ मेरु दसा सुणणा लगि छे
सुण सुण कि ई लाटी डाली बोटी बी
अब मेर दगड दगड कमल्हण लगीं छे
रो रो की मेरा द्वि आंखा दगड बी
ऐ बुरांस बी रो द्याई .. ऐ पत्ता बी रो द्याई
पिंगली जलेबी देखि देखि खुद तेरी आंद
मिथि मिथि रसीली पाक जनि याद मां तेर ले जांद
फेर फक फके कि तेल कु गरम् उबाल कु तौल मां
रति बेराती मिथे तेरु दगड ऊ खूब पकांद
रो रो की मेरा द्वि आंखा दगड बी
ऐ पिंगली जलेबी रो द्याई .. ऐ रसीली पाक बी रो द्याई
तेरी खुद मां मेरु जग्वाळ बी
फीको पौड़ ग्याई ..... निर्भगी फीको पौड़ ग्याई
बालकृष्ण डी ध्यानी
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स्वप्न टूटने से पहले
जिंदगी के लिए
इस जिंदगी में
तड़पा मै हर किसी के लिए
मौत के ख्याल ने बैचेन किया
फिर जिंदगी के लिए
घुट-घुट कर पीना छोड़ दिया
कुछ ऐसे जीना छोड़ दिया
विदा लिया इस मयखाने से
फिर जिंदगी के लिए
बहुत भटका मैं राहों में
अपनों की उन निगाहों में
पैगाम भरी उन आहों में
फिर जिंदगी के लिए
अश्कों की कहानी है ये
वादों की हैरानगी है ये
ये मेरी दीवानगी है ये
फिर जिंदगी के लिए
ध्यान देना ही होगा
ख्याल लेना ही होगा
स्वप्न टूटने से पहले
तुझे जवाब देना ही होगा
फिर जिंदगी के लिए
बालकृष्ण डी ध्यानी
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आज फिर दिल से
आज फिर दिल से
दिल ने गुनगुनाना चाहा
गुजर गयी उस सदी को
फिर एक पल में पाना चाहा
धुप छावों से लदी जिंदगी को
फिर समझाना चाहा
कितनी बार हमने उसको
अपने से अपनाना चाहा
हरबार फंसे रहे हम
अपने ही खोने पाने के बीच में
कितनी बार हमने अपने को
अपने से बदलना चाहा
वक्त की देखो ऐ कैसी मारा मारी
आज मेरी थी कल तेरी है
इस वक्त को देखो कौन रोक पाया है
वो आया देखो वो जा रहा है
आज फिर दिल से ......
बालकृष्ण डी ध्यानी
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अधूरे रह गये
अधूरे रह गये वो वादे जो सब पुरे करने थे
इन राहों में इतने धोखे मिलेंगे किसने सोचे थे
अधूरे रह गये
अरमानों का क्या है वो सजते रहते हैं पलकों पर
उम्मीद जिसकी टूटे उसके बारे में किसने सोचा है
अधूरे रह गये
किस्से कहानीयां बन जाती हैं अब जिंदगी की कवितायें
कोई बस पड ले पर ना समझे ऐ किसने सोचा है
अधूरे रह गये
गमगीन माहौल है अब बस दिल से आंसूं निकलते हैं
वो अधूरे रह गये जो वादे जब आकर अकेले में मिलते हैं
अधूरे रह गये
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कोई नग्मा पहाड़ों का
कोई नग्मा पहाड़ों का
पहाड़ों में गुनगुनाया जाए तो कैसा हो
राज़ – ए – अल्फ़ाज़ दिल के
सारे दिल से निकले जाए तो कैसा हो
घघुती के बने घोल में
खुद को अगर अब ढूंढा जाए तो कैसा हो
"गिर्दा" की लिखी कविताओं के
हर अक्षर में खुद को गर पायें तो कैसा हो
आओ सीखें अब शब्द गढ़वाली
अपनी भाष में गर बोला जाए तो कैसा हो
बहती रहती है वो धारा गंगाजी की अविरल
माँ को अब जीवित समझ जाए तो कैसा हो
नेगी जी के बिना ये पहाड़ सूना सूना है
ढोल दामो पहाड़ में ना सुनाई दे वो मण्डन सूना है
भगवती का जयकर यंहा दुगुना है
मेरे पहाड़ पर अब भी प्यार चौगुना है
वही प्यार तेरे मन में गर उभर जाए तो कैसा हो
कोई नग्मा पहाड़ों का
बालकृष्ण डी ध्यानी
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खूब सजा लो अपने को
खूब सजा लो अपने को
राख होने वाले सपने को
क्या सँवारा है क्या तू बिगड़ेगा
बता तू और कितना खुद अकड़ेगा
एक दिन ऐसा अकड़ जायेगा
वो वक्त एक दिन जरूर आयेगा
खूब तैयारी अपनी कर लो तुम
आने और फिर जाने की
पल पल मरते इस शरीर पर
मोह कितना है और तेरा लोभ कितना है
एक दिन ऐसा अनुभव आयेगा
सब धरा का धरा यंहा रह जायेगा
खूब सजा लो अब अपनी अर्थी को
मुक्त करने वाली उस सारथी को
खूब सजा लो अपने को .....
बालकृष्ण डी ध्यानी
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भी फुर्सत में मिलो तो बात करेंगे
कभी फुर्सत में मिलो तो बात करेंगे
तब हम बीते दिनों को याद करेंगे
अभी मशरूफ हूँ मैं मेरे पास वक्त नही है
वो भुला बिसरा वो मेरा गाँव दूर कंही है
मेरे जमीर से वो हट सा गया है
पुरानी किताबों पर धूल सा जम सा गया
कभी फुर्सत में मिलो तो ऐ काम करेंगे
उन किताबों की धूल मिलके साफ़ करेंगे
मुझ से हिसाब जब भी जिंदगी पूछेगी
खयाल, यादों की तब पाठशाल लगेगी
एक एक पल आइना बन सामने आएगा
मशरूफ,फुर्सत पलों के वो गीत गायेगा
कभी फुर्सत में मिलो तो साथ चलेंगे
अपने घर उस गाँव में मिलके बात करेंगे
बालकृष्ण डी ध्यानी
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