अकेले में ही क्यों
अकेले में ही क्यों
अक्सर तुम मुझको याद आते हो
मेरी दुनिया ... मेरे जज़्बात.. मेरी हकीक़त
मेरे एहसासों से क्यों तुम ऐसे खेल जाते हो
अकेले में ही क्यों .......
दर्पण के मेरे टुकड़े हजार
मेरे आज और अब में भी बाकी हैं
कुछ कही अनकही मेरे दिल की बाते
तब कविता का रूप ले देती हैं
अकेले में ही क्यों .......
ओस के अक्षर जब अश्रु में यूँ ही ढल जाते हैं
मुक्ति क्या है उसकी व्यख्या कर जाते हैं
दर्दे दिल. की गजल तब अच्छी लगने लगती है
साथ साथ उसके वो अक्सर गुनगुनाने लगती है
अकेले में ही क्यों .......
संध्या समय डूबने वाले सूर्य की सुनहरी किरणे वो
अन्धेरा का मिलन सागर मेरे अकेले का संगम वो
तड़पन बिछोह एकाकी का छाया ऐ कैसा मौसम है
धुंधली यादों और इस देह का ऐ कैसा घर्षण है
अकेले में ही क्यों .......
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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