Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 233294 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हकीकत
दिन हैप्पी या गप्पी है
देखो कैसी झप्पी है
हर बार देती लेती पप्पी है
हर एक कोना सेंटी है
देखो कैसी आंटी है
छुपो जहां पर बंटी है
मस्ती है या गस्ती है
देखो कैसी बस्ती है
दोस्ती ही यंहा सस्ती है
मिलते है या बिछड़ते हैं
देखो कैसे अकड़ते हैं
संसद में ही बस लड़ते हैं
नया है या पुराना है
देखो कैसा ये ठिकाना है
अच्छा तो गुजरा जमाना है
हकीकत बयां करती है
दो तीन जो लिखी पंक्ति है
इसमें कलम की क्या गलती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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पागल मन
मन को कैसे बस में करलूँ
कैसे इसके विचारों से मनन करलूँ
मानस मन का क्या है लक्ष्य
कैसे स्थिर रहे कैसे समझे ये पागल मन
मत बुद्धि का ऐ कैसा द्वन्द
अंतर पटल पर सतत चल रही जंग
किस ओर जाऊं किस ओर सम्भलों
कैसे सोचे कैसे समझे ये पागल मन
रोज होता है इसका चरित्र हरण
रोज ये पल क्यों आता है रोज गंभीर गहन
आत्मा और पेट के चक्कर में ये चित
४० सेर की तौल कैसे समझे ये पागल मन
बालकृष्ण डी ध्यानी
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फलसफा मेरा
कभी दर्द चुनों
कभी दुआ
क्या हासिल इस से हुआ
साहिल ओझल
सागर कंही लापता
क्या हासिल इस से हुआ
बिंदु एक है
रेखाएं अनेक हैं
ऐ कैसा गणित है
जो अब भी अगणित है
जिस पथ पर चला
लौटते वो मुझे ना मिला
रह जाता है है बस गीला
जीवन भर रहा अर्ध सिला
कभी दर्द चुनों
कभी दुआ
क्या हासिल इस से हुआ
बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरी संवेदना खो गयी
नाम रह गया है बस
संवेदना कंही गुम हो गयी है
बिजलीयों की चकाचौन्ध में
वो चीज प्यारी सी कहाँ खो गयी है
आंखें अब भी होती है नम
दिल भी अब खूब अकेला रोता है
ऐसी क्या खूबी थी उस में ना जाने
की सब रौनक खो गयी है
ना तो पैसे खर्च करने पड़ते उस के लिए
ना ही कोई मेहनत उठानी पड़ती
ऐसी क्या किल्लत हो गयी है ना जाने
किस पथ जा कर वो सो गयी है
नाम रह गया है बस
संवेदना कंही गुम हो गयी है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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अकेले में ही क्यों
अकेले में ही क्यों
अक्सर तुम मुझको याद आते हो
मेरी दुनिया ... मेरे जज़्बात.. मेरी हकीक़त
मेरे एहसासों से क्यों तुम ऐसे खेल जाते हो
अकेले में ही क्यों .......
दर्पण के मेरे टुकड़े हजार
मेरे आज और अब में भी बाकी हैं
कुछ कही अनकही मेरे दिल की बाते
तब कविता का रूप ले देती हैं
अकेले में ही क्यों .......
ओस के अक्षर जब अश्रु में यूँ ही ढल जाते हैं
मुक्ति क्या है उसकी व्यख्या कर जाते हैं
दर्दे दिल. की गजल तब अच्छी लगने लगती है
साथ साथ उसके वो अक्सर गुनगुनाने लगती है
अकेले में ही क्यों .......
संध्या समय डूबने वाले सूर्य की सुनहरी किरणे वो
अन्धेरा का मिलन सागर मेरे अकेले का संगम वो
तड़पन बिछोह एकाकी का छाया ऐ कैसा मौसम है
धुंधली यादों और इस देह का ऐ कैसा घर्षण है
अकेले में ही क्यों .......
बालकृष्ण डी ध्यानी
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ढेले सी किस्मत
ढेले सी किस्मत
कहती है उल्फ़त
आज मुझ से
तू मिल ले कभी
अरे उड़ गई है रंगत
खो गई है पंगत
कैसे मिलूं मैं
तुझ से अभी
राहों में चलते
जो टकरा गये हम
देखो अब हम
कहाँ थे कहाँ आ गये हम
भूले बिसरे वो
अब जैसे उभरे वो
एक एक पल जैसे
सब समाने आ गये वो
ढेले सी किस्मत .....३
बालकृष्ण डी ध्यानी
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बहुत दूर चले जाने का
बहुत दूर चले जाने का
अब मन करता है
अपने से बेवजह
जब वो लड़ता है
पेशानी की लकीरों ने
जब पूछा था सवाल मुझ से
उभरी उभरी अखरी ही रही वो
जब पूछा था मैंने उस से
बेफिजूल के
भरे उभरे अकेले उस बस्ते में
अब भी दो कलम पड़ी है मेरी
चल उस रास्ते में
कुछ खोया था मैं
बहुत रोया था मैं
उस अंधेर कमरे में
जब अकेले सोया था मैं
सब छोड़ जाने का
अब मन करता है
इस तेरे भरे पुरे जग में
एक पल भी ऐ दिल ना लगता है
बालकृष्ण डी ध्यानी
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devbhumi

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एक बार

एक बार
ना चाह कर भी मिल लो
कुछ तो होगा

दो घड़ी और साथ चल लो
देखो वो वादियां हैं

सफेद बर्फ से लदी सिकुड़ी हुई
घने कोहरे से घिरी

घूंघट ले छुपी ओढ़ी हुयी
आओ चलो

उस घूंघट को उठा ले अब
किसी तरह

उस रूठे सनम को मना ले अब
एक बार ........

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बीते साल से

बीते साल से
और आगे के साल से क्या पाये हम
थोड़ी और शाम, थोड़ा और नीला आकाश
ही चाहे हम

चलो इसी बहाने वक्त का पहिया
थोड़ा पीछे को घुमा आये  हम
श्याद किसे भूले बिसरे रूठे को
अब भी मिलकर साथ लाये हम

बहस का ये
कैसा अंतहीन दौर है आज खड़ा 
कल कंही और था वो
ऐ कंही आज और है खड़ा 

वतन से दूर हैं , इसलिए
वतन की बातें करते हैं हम
एक पल पीछे चला एक आगे
चलो बीच को पकड़ा मिल के सींचे हम

आगे सफर है साथ डगर है
और पीछे हमसफर है खड़ा
थोड़ी सी जमीं, थोड़ा आसमाँ
बस धीरे धीरे ही वो चला

मिलना चाहिए थोड़ा और वक्त
मगर मिलता नहीं वो यंहा
गुम है अपने में हर वो शख्स
उसे मंजिल का पता बिलकुल ही नहीं  चला

बीते साल से  ...............

बालकृष्ण डी ध्यानी
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devbhumi

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बस शुरुआत है

बस शुरुआत है
बोझ, भार के किनारों की
लेकिन
दिल से आवाज फिर भी
क्यों उठती हम दोनों के बारे में
बस शुरुआत है

दरवाज़ा खोला है पर
द्वार बंद हैं सभी वो अपने सहारे भी
अंदर बाहर जाएँ तो जाएँ  कैसे
मदिरालय जैसे  मुहाने से
बस शुरुआत है

मूल चुभता है रह रहकर सूल बनकर
कटील झड़ियों  का वो काँटों सा 
किस अँधेरे कोने खाने में खोया
बोध वो अपने होने का
बस शुरुआत है

ज्ञान ही  है बस एक ऐसी वाणी
जो सहार दे जाए सपनों को
मुंह ना खोलती बस चुप वो रहती
प्रयासरत रहती निरंतर आगे बढ़ने का 
बस शुरुआत है

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