Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447374 times)

devbhumi

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कल छत पर

कल  छत पर
वो अकेले  खड़ी थी
सज संवार कर भूख प्यास
उसके चेहरे पे ठहरी थी

साथ  था सिर्फ बच्चों का उसको
छन्नी संग मेरी तस्वीर बस लड़ी थी
दिप जला था बस ...चाँद का ना आना
उसको बहुत अखर रहा था

रह रहकर उसे
वंहा ना होना मेरा समझ रहा था 
उस पर वो खूब असर डाल रहा था
यही जीवन है बस वो गुजर रहा था

कल  छत पर  .................

बालकृष्ण डी ध्यानी
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तुमको भुलाया है

टुकड़े टुकड़े दिल के आज जोड़कर
ग़म को मीलों पीछे आज छोड़कर
एक सुख का गीत  मैंने रचाया है   
देखो आज कितने  प्यार से तुमको भुलाया है
टुकड़े टुकड़े दिल के आज जोड़कर

पत्थरों में  बज रहा संगीत है
जंगलों में खो गया वो मेरा मीत है
बहती गंगा की धार कह रही यही
जो दिल को खो के जोड़ दे वो ही संगीत है

उसी टूटे सितार को मैंने जोड़कर
एक  नये उमंग राग को आज छेड़कर
देखो आज कितने  प्यार से तुमको भुलाया है
टुकड़े टुकड़े दिल के आज जोड़कर

माना जिंदगी में परेशानियां बहुत है
उनकी मनमानियां भी बहुत हैं
बस मैंने अपने एक मन को मनाकर
उन परेशानियां को  मनाया है
देखो आज कितने  प्यार से तुमको भुलाया है
टुकड़े टुकड़े दिल के आज जोड़कर

सब हैं पर तू आज भी खोया हुआ
अपने और अपनों में तू सोया हुआ
सांसों की डोरी ने तुझे बस भरमाया है 
नियति ने माया संग वो भेद छुपाया है
देखो आज कितने  प्यार से तुमको भुलाया है
टुकड़े टुकड़े दिल के आज जोड़कर

बालकृष्ण डी ध्यानी
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थोड़ा सा और  ...........

तनिक
इतना ना सोचिये
थोड़ा सा
अपने को और जानिये

कुछ पैसे हैं
कुछ पानी है
और  .....
बहती जाती बस ऐ जवानी है
इस पर तो कुछ बांध बनाये
व्यर्थ ना इन्हे ऐसे  ना गंवाये
ख्याल हैं ये समझ कर
ना इन्हे भूल जाये
अपने को और जानिये  ..............

योग्य, है वो
बिलकुल लायक है 
अपने संस्कारों का उसे
बस बोध तो कराये
बस इसे ऐसे ना समझो अब तुम
ऐ तो जिंदगी की कहानी है
ऐ जो साँस है जो आनी जानी है
ज़िंदा है तू
बस ऐ तो एक  निशानी है

तनिक
इतना तो मनिये
थोड़ा सा
अपने को और जानिये

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मेरी बेचैनियां

मेरी बेचैनीयों ने
मुझे क्या था क्या बना दिया
बेवजह ही आकर
बेचैनीयों ने अपने को 
कोरे पन्ने पर
खुद से बिखरा दिया
कभी कोहरे से उभरी वो
कभी छलीदार धुँयें से गुजरी 
कभी ठंडक बनी वो
कभी गर्म हवा बनकर बही
कभी चाय बनके
कभी कॉफ़ी  के चुस्की  के साथ
उस बंद कमरे
सांसों की तारों से
बस तारों को जोड़ती चली गयी
मेरी बेचैनियां
खुद से खुद बकबकाती रही
हर पल परेशानियों के पंख बनकर
वो मन में उत्तरती रही 
कभी ह्रदय की धड़कन को संग लेकर
धमनियों में अपने रक्त को भरकर
छटपटाती है वो खूब चीखती,चिल्लाती है
आखिर में  रो रोकर वो
उस कोरे पन्ने पर खुद से शांत होती रही
मेरी बेचैनियां ......
क्यों एक आवाज बनकर नहीं उभर सकी?
 
बालकृष्ण डी ध्यानी
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कोई
अपनों को
अपनों में
इतना उलझा देते हैं
६५ को
तीन से अच्छा बता देते है
जब अधिकांश को लगता है
कुछ तो हो रहा है
अब  अच्छा
उनकी आशा को
गन्दी नाली में
बहा देते हैं
कोई

ध्यानी

devbhumi

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फिर मै उसे

जब
अपनी ही लिखी
कविताओं को
मैं पढ़ने लगता हूँ
मैंने ही उन्हें लिखी है
इसका अक्सर
मुझे शक हो जाता है

पलटने लगता हूँ
तब वो पन्ना
अतीत का
उस पल में फिर मै
जीने लगता हूँ

खो जाता हूँ
मै अपने ही बने जाल में 
उन अहसासों के साथ में
सुखद दुखद अनुभति मैं
मै फिर से पाता हूँ

अधूरी अधूरी सी
मुझे फिर भी लगती है वो
फिर मै उसे
पूरा करने में लग जाता हूँ 
जब
अपनी ही लिखी
कविताओं को

बालकृष्ण डी ध्यानी
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 दूर कंही दूर

ऐ ज़िन्दगी! क्या खूब है तू
क्या मेरी महबूब है तू
बहुत दूर चले जा रहे हैं
ऐ कदम मेरे अब रह रह कर

कौन वो दूर गाता है
अब चुप रहना ही बेहतर है
उदास मन चले चल दोनों
चलें दूर कंही दूर इस मंजर से

एक दोस्त है तू बस मेरा
और सारा जमाना पुराना है
इस नये को मैं ना अपना सका
यंहा अब ना मेरा ठिकाना है 

मुसाफिर हैं हम तो चले जा रहे
बस पीछे छूटा अब अपना जमाना है
मंजिल का भी अब तक पता ना चला
बस कदमो का ही अब सहारा है  .... २

बालकृष्ण डी ध्यानी
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चलो खेलें खेल ऐसा

चलो खेलें खेल ऐसा
ना तुम जीतो ना मैं हारों
इस किस्मत में छिपे कितने कोने
कुछ तुम ढूंढो कुछ मैं खोजों
चलों खेलें खेल ऐसा  ......

ना जाने क्या बात है ऐ
क्यों तुम्हारे लिये वो इतना ख़ास है ऐ
चलो ढूंढ पाए हम उन्हे उन हजारों मैं
खोये हैं वो  ना जाने किन नजारों में

चैन हमको अभी भी क्यों आता नहीं
दिल में भरा दर्द क्यों हम से दूर जाता नहीं
बस यही शिकायत रही है जमाने से
इस उम्र के आखरी पड़ाव में भी आने से

बेहद आसान है यंहा रो लेना
हंस कर दूसरों पर खुद से दूर हो लेना है
जिसे इतना बेहद चाहता हूं मैं
उस से क्यों अक्सर दूर जाता हूँ मैं

चलो खेलें खेल ऐसा  ........

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बस दो घड़ी

वक़्त तो लगता है।
खुद को मनाने से खुद को
और आप कहते हैं की
चलो खुदा को मनाने चलें

वक़्त तो लगता है।
बस अपने में ही रहने दो मुझे
मुझे नफरत सी होने लगी है
अपनी ही मुहब्बत से अब

वो जिंदगी जो साथ थी
मेरी हर साँस,हर लहमे में
ना जाने क्यों उदास है वो
खोलों कौनसा अब पन्ना मैं
वक़्त तो लगता है।

एक रिश्ता चलता रहा
उम्र भर.. यूँ ही
उसे निभाने में दोस्तों
वक़्त तो लगता है।

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जब भी आता है स्मरण तेरा !!

छवि तेरी मैंने जब देखि
इच्छुक मन खुद से ना रह सका
समीप तेरे मंडराता रहा
पर ना वो तुझ से कुछ कह सका

यौवन तेरा वो तेरी तरुणाई
असावधानी बेफिक्री की है तू गहराई
कदम मेरे फिर भी ऐ पल पल तेरी ओर बढ़ते रहे
अज्ञानतावश ऐ चढ़ते उजड़ते रहे 

वो नादानी वो मेरा अलह्ड़पन 
मन को क्षीण करता वो तेरा गदरीला तन
वाष्प बनकर वो मुझको मचलाता  रहा
कभी धुंध में निकलता वो मुझको छुपता रहा

बिछौना बन जाती थी वो तेरी घूंघट
जगमगाहट होती है जब दिख जाती तेरी झलक
दूर दीपक बन ठंडक दे जाती थी उस उष्णवन
इच्छा, लालसा, प्यार था वो ना अब भी समझे मन

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