प्रकृति को रूठते उजड़ते देखता हूँ
रूठते हुये उजड़ते हुये प्रतिदिन उसे देखता हूँ
अपने हाथों से वो भूल हर रोज करके मैं देखता हूँ
इधर से उधर से जिधर से भी आओ मुझे तुम देखो
बस बीते उजालों को ही मै ढूंढता हूँ
.... मै ढूंढता हूँ
उन आइनों में मैं देखना नहीं चाहता हूँ अब
जो मेरी वो बदसूरत छवि जब दिखाता हो
जब तक शब्द रागिनी बन बनकर उभरकर आते थे
तभी तक वो मेरे कानों को भाते है
.... कानों को भाते है
हर एक की एक सीमा होती है बस उसमे छुपा एक सन्देश होता है
कभी भी ना करना तुम एक पल भी अपने पर संदेह वो कहती है
मगर अक्सर ही मैं हर बात पर एक नया प्रश्न उठा देता हूँ
उत्तर जब जब मिलता है मुझे मुंह फेर मैं चल देता हूँ
.... चल देता हूँ
ना जाने कौन से उजाले अंधेरों में मैं खोने लगा हूँ
घर पूरा भरा हुआ है मेरा मैं रोने के लिए कोना खोजने लगा हूँ
दरवाजा जब से मैंने अपने दिल का बंद कर टहलने लगा हूँ
एक कविता मुझे भाती थी वो मुझसे बिछड़ने लगी
...बिछड़ने लगी
प्रकृति को रोज रूठते उजड़ते देखता हूँ
अपने से लड़लड़ कर फिर उठते खिलते हुये रोज उसे देखता हूँ
हर पल मुझे वो नई चेतना नई स्फूर्ति नई खुशबु वो दे जाती है
झट लिख देता हूँ और मेरी कविता पूर्ण कर जाती है
..पूर्ण कर जाती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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