Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 447061 times)

devbhumi

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प्रकृति को रूठते उजड़ते देखता हूँ

रूठते हुये उजड़ते हुये प्रतिदिन उसे  देखता हूँ
अपने हाथों से वो भूल हर रोज करके मैं देखता हूँ
इधर से उधर से जिधर से भी आओ मुझे तुम देखो
बस बीते उजालों  को ही मै ढूंढता हूँ 
.... मै ढूंढता हूँ

उन आइनों  में मैं देखना नहीं चाहता हूँ अब
जो मेरी वो बदसूरत छवि जब दिखाता हो
जब तक शब्द रागिनी बन बनकर उभरकर आते थे
तभी तक वो मेरे कानों को भाते है
.... कानों को भाते है

हर एक की एक सीमा होती है बस उसमे छुपा एक सन्देश होता है
कभी भी ना करना  तुम एक पल भी अपने  पर संदेह वो कहती है
मगर अक्सर ही मैं हर बात पर एक नया  प्रश्न उठा देता हूँ
उत्तर जब जब मिलता है मुझे मुंह फेर मैं चल देता हूँ
.... चल देता हूँ

ना जाने कौन से उजाले अंधेरों में मैं खोने लगा हूँ
घर पूरा भरा हुआ है मेरा मैं रोने के लिए कोना खोजने लगा हूँ 
दरवाजा जब से मैंने अपने दिल का बंद  कर टहलने लगा हूँ
एक कविता मुझे भाती थी वो  मुझसे बिछड़ने लगी
...बिछड़ने लगी

प्रकृति को रोज रूठते उजड़ते देखता हूँ
अपने से लड़लड़ कर फिर उठते खिलते हुये रोज उसे देखता हूँ
हर पल मुझे वो नई चेतना नई स्फूर्ति नई खुशबु वो दे जाती है
झट लिख देता हूँ और मेरी कविता पूर्ण कर जाती है
 ..पूर्ण कर जाती है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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devbhumi

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बात पुरानी है
 
बात पुरानी है अब वो गयी
अब नया जमाना है
अब ये भी होगा पुराना कल
अब जो नया है
बात पुरानी है

किसने कहा
कागज की किताबों का
जमाना लद सा गया
जो भी छपी है उनमे
वो पुरानी कहानी
बात पुरानी है

हर मोड़ हर छोर पर
पीछे पलटना ही पड़ता है
कला के कद्रदान कम हो गये हैं
पर आगे तो बढ़ना ही पड़ता  है
चाहे प्रेम नया हो पुराना 
प्रेम व्यक्त करना ही पड़ता है
बात पुरानी है

ये ना सोच ना तुम
अधूरी रह गयी वो कहानी मेरी
कभी बैठ  तन्हा सोचना वो  बातें पुरानी मेरी
हौसला दे जायेंगे लड़ने का तुम्हे
तब तुम पूरा करोगी उसे
जो अधूरी रह गयी थी कहानी मेरी

बात पुरानी है............

बालकृष्ण डी ध्यानी
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आज पलट पलट कर

आज पलट पलट कर
पीछे मुड़ने  का मन करता है
चूक कहाँ  हो गयी  मुझ से
उससे मिलने का मन करता है

पीछे छूटी वो बातें
वो पिछली मुलाकतें 
वो हाथों में हाथ तुम्हार
वो साथ जब याद आता है

धुप  के  आईने  में मैंने
जब जब ठंडी छाँव सेंकी थी
आंसूं के संग तू  आया फिर याद
जब जब  तेरी राह मैंने देखी थी

सवाल पीछे छूटे काफी हैं 
काफी लोग भी पीछे छूटे हैं
जवाब ढूंढते ढूंढते मेरे अपने
मेरे कितने किस्से छूटे हैं

आज पलट पलट कर .....
 
बालकृष्ण डी ध्यानी
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दस्तक

दिल के किसी कोने ने
आज फिर दस्तक दी है
उन बिखरे अक्षरों को समेटने की

कहां से आए  वो सारे शब्द
किसने इन्हे रचाया होगा 
खामोश पेड़ के वो मीठे मीठे फल
जब हमने चाखे , क्या वो याद आये होंगे

अक्षरों से अक्षर जुड़कर
वो ज्ञान पेड़ जब खड़ा हुआ होगा
क्यों  झूम रही है उसकी वो शखायें
जैसे आज उसने  उन वर्णमालाओं छुआ होगा

आवज मौन है और मैं निशब्द खड़ा
उस अगाध सागर में  एक बूंदा सा मैं पड़ा 
उन लहरों का वेग जो निरंतर किनारे ओर बड़ा
आंखें भरी है बस मेरी और मैं भीगा खड़ा

दिल के किसी कोने ने  .......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कल हर घर में  मुझे कान्हा मिला था

कल हर घर में  मुझे कान्हा मिला था
मोर  मुकुट मस्तक पर सजा था

हाथ बांसुरी कान  में कुंडल
पैरों में पैजबी बजती छम छम
निल रंग में अवतरित था सब तनमन
पितंबर धोती करती सरपट
कल हर घर में  मुझे कान्हा मिला था

आभूषण के सब अलंकारों संग
अलग छटा बिखेरे दिखे मेरे कान्हा कल
ना धर्म दिखा कहीं ना धर्म कहीं बंटा
भये प्रगट कृपाला मेरे दीनदयाल जब
कल हर घर में  मुझे कान्हा मिला था

कहीं हांड़ी टूटी  कहीं माखन चटकाए
अंखियों के झरोखों से कान्हा मंद मुस्कुराये
देख कर उसकी वो सारी नटखट अदाएं
सब माँ यशोदा ये उन पर वारी वारी जाएँ

कल हर घर में  मुझे कान्हा मिला था
मोर  मुकुट मस्तक पर सजा था

बालकृष्ण डी ध्यानी
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तब ही मैं दीपवाली मनाऊंगा

दिल के अँधेरे में
आज एक दीपक तो  तू जला 
घना अन्धेरा है वंहा
थोड़ा ही सही तू प्रकाश तो फैला
दिल के अँधेरे में

चारो तरफ आज दीपक जले हैं
कितने दिनों बाद हम गले मिले हैं
विश्वास दिलाता रहे यूँ ही ये दीपक सदा
यूँ अपने को  जलता रहे ये दीपक सदा

दीपक से ही पूजा है
दीपक से ही आरती
दीपक से ही सज रही आज माँ भारती
सरहदों पर खड़े हों अनेकों दीपक जंहा

अहसास मेरा यूँ घुल दे ये हवा
प्रकाश सब जगह है  मुझ से बोल दे ये हवा
तब ही मैं एक दीपक अपने घर जलाऊंगा
तब ही मैं दीपवाली मनाऊंगा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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आज भोल मां

आज भोल मां
यनि पिसी गियूं
खिटखिटू करदु रैंग्याई
मेरु ज्यू को उमाळ
ट्टकार  पौड़ी  झर
औरि मि सिर गियूं
आज भोल मां  ...............

यखुली मां  बैठी
मिल सोच ये बात
कन आंदि जांदी छे
बिगेर विंकी ये स्वास
हात मां ना राई
विंको ये हात
मि ये तीर पार
तू वै तीर पार
आज भोल मां  ...............

उड़ादि  घुघूती छुछी
ऐजा बैठा मेर साथ
ले जा मेरु रैबार
उडी की वै  तीरी पार 
राली बैठी हेरदी
मेर सोंजड़या व्हाळि  वै पार
ज्यू मां विंकी तू
मेर जोडि दे सांस
आज भोल मां  ...............

किंगरी का झाला 
ऊ पांगरी का  डाला
अपड़ा ढूँगा औरृ
अपड़ा ऊ गार
चार भांडा मिल छ्या खोज्याई
अपड़ा गोरुं थे मिल किलै रुलाई
साथ समुदर पार छ्या बैठ्युं
तेर याद आई ग्याई तेर याद
आज भोल मां  ...............

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लड़ना है बस .....

अपनी कमी को थोपकर
कैसे जाऊं  सब छोड़कर

मुश्किलें जरुर आयेंगी
क्या पाउँगा उनसे मुँह मोड़कर

कदमो को ना बांध  पाएंगी
जाऊंगा जब सब तोड़कर

रास्तों से जरा कह दो तुम
भटका नही हूं मैं किसी मोड़ पर

सब्र का बांध जब भी टूटेगा
फ़ना कर दूंगा,उस छोर को

दिल में छुपा के रखा  है
लड़कपन कि कितनी चाहतें

आपनो से जरा कह दो तुम
अब भी  बदला नही हूं मैं

चलता हूँ  दुआओ संग रोज यूँ
अब भी अकेला पड़ा नहीं हूँ मैं

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क्या ? उसी श्रेणी में मै भी आता हूँ

मिटा दिये हैं आज सब रास्ते
भीग गये हैं जलते अंगारे
उठने लगी हैं फिर से लहरें
दूर हो गये हैं वो सारे किनारे

सांस रोक गयी है सारी
कंधा खोजता हूँ मैं अपना
अब भी हरा जख्म है मेरा
अकेला ही लड़ता हूँ मैं

मेरी चुप्पी मेरे दर्द के लिए
सिर्फ एक ही शब्द है ऐ दोस्त
वो चुप्पी कभी धोखा देती नहीं
औरों फिर कभी मौका देती नहीं

मेरे दर्द की हर बार बोली
अब मैं खुद ही लगाता हूँ मैं
बिकता हूँ मैं खुद से ही वंहा
बिक के फिर बिछड़ जाता हूँ मैं

खुद से ऐसे बिछड़ के
पता नहीं क्या पता हूँ मै
कुछ लोग हैं कभी बदलते नहीं
क्या ? उसी श्रेणी में मै भी आता हूँ

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ऐ कबिता लेखी मिल.

स्योणु छौं
मि तै निंद किलै नि आणि चा
मै से  दूर वा यखुली अफि
किलै अर कख चलि जाणि चा

कन चिंता लागि मै तै रे
मेरु बरमान मि तै तू बतै दे रे
कपाव मां पड्युं ऐ ताण तै रे
मेरु जिकुडु तू फुण्ड सर कै दे रे

कन जणन मिल   
क्या मैंल च मि तै  सताणु
मैते पता नि ऊ खैल
क्या खेळ खेळी कि जाणू

सरबट कन हुँयुं चा मेरु
यन अंधारी यखुलि रति मां
ज्यूंदा राला ऊ सब्द सदनी
जून लिखण बाट मि बतै गैई

जगणु छौं औरृ बल लिखणु छौं
निंद अब मेर छलबलाट कन लगि
जोर जोरिक कि वा टिटाट कन लगि
झटपट ऐ कबिता लेखी मिल....३

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