Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 232152 times)

devbhumi

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अपने से वो लगा रहा

अपने से वो लगा रहा
ना जाने यंहा किसे वो ढूंढ रहा
मेरे मुल्क का लग रहा है वो
चलों उसको रोक के पूछ लूँ जरा

मामूली से कपडे पहने है उसने
मामूली वो बिलकुल नहीं लग रहा
नीली प्यारी सी आँखों को लेकर
भीड़ भाड़ दिल्ली में वो क्या कर रहा

एक फूल है उसके हाथों में
चेहरे पर उसके अजब मुस्कान है
रूह को मेरे क्यों सुकून दे रही थी वो
शायद उससे जन्मों की पहचान है

आते -जाते सासों का वो सुख
ना जाने कैसे मुझे अनुभव हो रहा था
पग जैसे ही उसकी ओर बढे थे मेरे
लगा जैसे मेरा पहाड़ मेरी ओर बढ़ रहा था

अपने से वो लगा रहा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो इंतजार करता है

किसी किसी को थमाता है
चाबियाँ वो घर की
किसी किसी पर वो खुद से
ऐतबार करता है

कभी कभी वो
इंतजार में रहता है
कभी कभी उसका कोई
इंतजार करता है

यहाँ वहां वो
आज कल क्यों रहता है
यहाँ वहां रह कर भी
वो अकेला क्यों तड़पता है

बहुत रोया वो
अपनों से तब बिछड़के
मेरे गाँव का वो
खाली हुआ अब घर बोलता है

अपनी गूँज को
अब भी वो महसूस करता है
अकेले बैठ अलग थलग
अब भी वो खामोश रहता है

कहाँ जाकर वो हिसाब दे
क्या कोई उसका हिसाब रखता है
नये क़र्ज़ चढ़ते रहते यूँ ही अब
कोरे पन्नों पर जब वो लिखता है

उतर कर मुझमें
आ जोर से आकर पुकारे कोई
अब भी वो उस गुम आवाज का
बेसब्री से इन्तजार करता है

बालकृष्ण डी ध्यानी
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कल प्रभु मेरे

तुझे हर रंग में मैंने देखा
तुझे हर रूप में मैंने देखा

कभी मीरा के दिल में खिला
कभी राधा के नयनों में
आपनो में कभी कभी बेगानों में
देखा मैंने तुझे तो कल हर उन निगाहों में

तुझे हर रंग में मैंने देखा
तुझे हर रूप में देखा

कल गाँव की पगडण्डी में मुझे तू मिला
कल उन शहरों की सड़कों में भी तू चला
ना कोई अपना था दिखा ना कोई परया
ओढ़ कार पीतांबरी तू ही तो मिलने आया

कल तुझे हर रंग में मैंने देखा
तुझे हर रूप में देखा

खिलखिलाती हंसी तेरी मन मोह ले
मेरी बात सुन मोहन ना जा कभी हमे छोड़ के
सभी ने कितने स्नेह से अपने से तुझे जोड़ रखा
पग तुम्हरे ही तुम्हरी ही भक्ति से पकड़ रखे

कल तुझे हर रंग में मैंने देखा
तुझे हर रूप में देखा

बालकृष्ण डी ध्यानी
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जिंदगी की दौड़ ने

जिंदगी की दौड़ ने
खूब थका दिया हमे
दौड़ते रहे यंहा वंहा
कहाँ पहुंचा दिया हमे

बैठकर जरा कभी
आ खुद से बात कर
कहाँ बैठे थे हम
कहाँ पहुंचा दिया हमें

पलट-पलट कर वो
आज भी रुलाती है
किसी ना किसी रूप में
पास आ बुलाती है

दुनियाँ की दुरंगी चालों से
तब भी अनजान था
समझकर उन चालों को
अब खुद से अनजान हूँ

जिंदगी की दौड़ ने

बालकृष्ण डी ध्यानी
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आ मेरे करीब
आ जरा
आ कर
मुझ से बात कर ले

कुछ अपने से कह
कुछ मेरी सुन जा
कुछ देर बैठ
फिर चला जा

खुशनसीब हूं
मुझे मिला है तू
आ जरा
आ मुझ पे ऐतबार कर ले

ना चाहते हुए भी
छोड़ना पड़ा तुझे
मज़बूरी के लिए
मुंह मोड़ना पड़ा तुझसे

गलतियाँ की है मैंने
इश्क भी है तुम से
उसी इश्क के वास्ते
स्वप्न में मेरे आ
आ जरा

कंबल बन कर
अपनी यादों को
पहले की तरह
मुझ पर आ कर
ओढ़ा जा

आ .....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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साथी मेरे

मेरे दिल को
तुम समझ लेती
तो अच्छा होता
तुम मुझे समझती हो
मैं ये बात सच मान लेता
तो भी तो ये अच्छा होता
तेरे दिल की हरेक धड़कन
कुछ कहती है
मगर फ़िर भी क्यों ये लगता है
सामने मेरे वो आ
अक्सर चुप ही रहती है
फिर ऐ लगता है
मैं अगर तुम्हे जान जाता
तो कितना अच्छा होता
मगर फ़िर क्यों ये
मुझे लगता है ऐसे
ना जान पाऊं तुझे कभी
ये भी तो अच्छा है
कहीं कुछ बात है
तुम में जो
जिसे ना जान पता हूँ मैं
उस सूखी हुयी नदी कि तड़पन
ना ही पहचान पता हूँ मैं
पर मैं बस
इतना सा कहना चाहता हूँ
बिल्कुल साफ, बिल्कुल साफ
तुम्हारे बिना
ना अकेले गुजरेगी
ऐ जिंदगानी
तुम हर मोड़ हर पल
हाथ पकड़
बस साथ निभा जाना
साथी मेरे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अधूरे ख़्वाबों के संग

अधूरे ख़्वाबों के संग मै उकतात रहता हूँ
ना जाने किस कि तलाश में मैं अब भी
अक्सर घर से बाहर निकल जाता हूँ मैं

लोकतंत्र के वो बंद दरवाजें
क्या मुझे दिखातें हैं क्या मुझसे छुपातें हैं
अक्सर उन के उन वादों में फंस सा जाता हूँ मै

गांव विकास करेगा कभी ऐसा लगता था मुझे
जब छतों पर बैठकर मैं अपनी जुल्फें सूखता था
अक्सर उन दिनों की याद में अब भी रो जाता हूँ मैं

मिलकर बैठें दुःख सुख बांटे अब हमदोनों
अब अपने पास इतना वक्त भी बचा है क्या ?
अक्सर जीवन की आपा-धापी में हम सब खो जाते हैं

फ़ुर्सत कभी मिलेगी तो आईने पास बैठ पूछूंगा
शहर के मौसम से जब गांव का हाल में जानूंगा
अब भी मुझे लगता है वो मुझे सच ना बताएगा

मंगल से ले के चाँद के दर तक पहुँच गया हूँ मैं
तू भी देखले अपने भीतर के कोने से कितना दूर गया हूँ मैं
आज भी लगता है घर अपने शायद देर से पहुंचूंगा मैं

ख़त्म करना चाहता हूँ किस्सा खत्म होता नहीं
सासों की इस लड़ाई का क्यों कर अंत होता नहीं
शब्द सो जायेगे जब मेरे क्या मैं भी सो जाऊंगा

अधूरे ख़्वाबों के संग मै उकतात रहता हूँ

बालकृष्ण डी ध्यानी
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वो चाँद मेरे

समर्पित था प्रेम मेरा
अगर उतर आता जो दिल में तेरे
आज आगोश में मेरे तू होता
वो चाँद मेरे

जान पहचान अभी कर लें
लौटूंगा मैं फिर तेरी गली
ऐ वादा रहा मेरा तुझ से
वो चाँद मेरे

राह मैंने खोज ली है
दिग्भ्रमित ना कर मन मेरे
करोडों आशायें जुडी तुझ से
वो चाँद मेरे

खो गया हूँ तुझ में मै इतना
काश उतर जाता आज मैं तुझ में
हो जाती जान पहचान अपनी
वो चाँद मेरे

युग-युगों का वो मोह मेरा
असंचित शब्दों में बस प्रेम मेरा
आज अभिव्यक्त कर रहा हूँ
वो चाँद मेरे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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निगाह

चलो आँसुओं
गिरने से पहले
संभल लें उसे

आँखों का
वो रोना बस
काफी ना था

जरा दूर
चलें जाएं तो
झांकेंगी खिड़कियाँ

तुम्हारी राह
मिटटी घर
क्यों आते नहीं

यही वजह है
संभवतः हम वो
पड़ाव पाते नहीं

जगह रखना
दोनों के लिये
बराबरी का यंहा

निकल जाऊं
जो आगे कभी
पीछे रखूँगा निगाह

बालकृष्ण डी ध्यानी
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अपूर्ण कवितायें

कविताओं को
अपूर्ण ही रहने दो
ना ही पूर्ण करो उन्हें
ना ही अश्रों थमने दो

आने दो उन्हें
स्मृतिओं को छूकर
हिर्दय के स्पदन में
बिलकुल डूबकर

ना ही उसका
मार्ग अवरोध करो
स्वछंद बहने दो
सहज स्वीकार करो

पूर्ण होने की आस में
आस दिप तृप्त होने दो
जीने के लिये कविताओं को
अपूर्ण ही रहने दो

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