कौन
अपनी धुन में रहते हैं सब
आकर मुझ संग कौन मिलेगा
मेरी तो बस एक अभिलाषा है
फूलों से काँटों को कौन चुनेगा
दूरियां अपनों में बढ़ती जा रही
आकर इनको कौन सिमटेगा
सोचने लगा हूँ खुद से अब माँ
तेरे सा सुलझा मुझे कौन मिलेगा
आती है याद उस बड़े पीपल वृक्ष की
संग मेरे उसकी छाँव तले कौन चलेगा
अपने से बाहर सब देखने लगे हैं
अपने भीतर को अब कौन टटोलेगा
नारंगी रंगवाली वो तितली मेरी है
आज मेरे संग बचपन से कौन मिलेगा
एक ही गांव में रहते थे सब मिलकर
सोचा ना शहरों आ जुदा हमे कौन करेगा
अनदेखा सा सब मुझे करने लगे हैं
मेरी लिखी ये कविता अब कौन पढ़ेगा
उभरते अहसासों का बस बंधक हूँ मैं
पढ़े ना पढ़े कोई मै तो लिखता रहूंगा
अपनी धुन में रहते हैं सब
बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
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