Author Topic: Garhwali Poems by Balkrishan D Dhyani-बालकृष्ण डी ध्यानी की कवितायें  (Read 232146 times)

devbhumi

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इस वर्ष की ये आखरी रचना तेरे लिए
 
वो पेड़

आओ तुम्हे अपनी यादों में ले चलता हूँ
बैठे थे उस पेड़ के निचे कभी हम दोनों
उस पेड़ के निचे फिर बैठने ले चलता हूँ

थोड़ा हंसायेंगी वो थोड़ा रुलायेंगी
बैठे बैठे हम दोनों को वो अपनी यादें
अपने आप से वो फिर से मिलायेंगी

आ जाओ बाहों में फिर से उन राहों में
जो पीछे छूट गई यादें उन निगाहों में
अब भी संजोकर बैठी है चलो देखने चलें

मेरा सारा हिस्सा वो किस्सा भी तू ले ले 
मगर अपने सारे दुःख ग़म मुझे तू दे दे
एक ऐ वाद तू फिर से कर ले

अपनी यादों के अँधेरे तू मुझे दे दे
मेरी यादों के उजाले तू ले ले
बस एक बार फिर से उसी पेड़ तले आजा

वो पेड़

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बातें  की थी

बातें  की थी
उसने बहुत
चुप रह कर
मैंने भी
सब सुनी वो बातें
चुप रह कर 

वजह
कुछ नहीं थी
लफ्ज़ खमोश
शब्दों में उखड़ी पड़ी थी
बस हम से
हमारी तन्हाई थी

दस्तावेज़
दिखना फिजूल था
विवरण तो  बस
नजरें बयाँ कर रही थी
उस पर ही तो
मेरा यकीन था

तथ्य मेरा
यही था पास मेरे
अब खुला पड़ा हुआ
वो नयन  तेरे
पढ़ लेना
चुपके से

बातें  की ....

बालकृष्ण डी ध्यानी
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ठण्डे ठण्डे शरबत

ठण्डे ठण्डे शरबत
म्यारू पहाड़ा म्यारू पर्बत 
बैठ भूली दुई घड़ेक
छुई बाता लगूँला

नूडल  यु गडलु
जरा  खैकि देखलु
कन लग दू
सिकसैर जरा मि करलु

नै जमानु चकमक
लग्युं च कन रंगमत
व्हैग्या भंडि खतपत
धीर गैवै ना खै सत सत

अपड़ी उमरी खैरी
दुई गफ सुख नि खेई
हम्ररी ऐ कथा ऐ पीड़ा
हमरा दगड ऐई  गेई

ठण्डे ठण्डे शरबत

बालकृष्ण डी ध्यानी
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बात बताऊं क्या तुम्हे

बात बताऊं क्या तुम्हे
मेरे मिटटी के गांव  की
सनी रहती थी धूल
कभी हर वक्त मेरे पाँव में

वो पीपल वो चूल्हा
वो लकड़ी वो जंगल
मंदिर घंटे  सब बजते
बस अब  मन अंदर

शाम सुहानी फिर गाने आयी
अकेला देख मुझे बहलाने आयी
सूरज किरणों को ले अब सिमटेगा
मेरे पहाड़ के पीछे वो जब गुजरेगा

चन्दा मामा देख अब आता होगा
दीवानी रात को साथ लाता होगा
दूर से हवा धूल मुझे उड़ाती  होगी
चरवाहे गायों, मां बाट निहरति  होगी

आज खूब प्रदूषित हो गया हूँ  मैं
इस शहर में जाने कहाँ खो गया हूँ  मैं
वो मिटटी घर अब भी शीतलता दिलाता है
दूर है मुझ से वो , वो मुझे अब भी बुलाता है

बात बताऊं क्या तुम्हे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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मंजिलों  की तलाश में

मंजिलों  की तलाश में
जब निकला था  मै तेरे पास से
तब कुछ न था मेरे हात में
तब  तू  ही तू  था मेरे साथ में

न जमीन थी
न वो आसमान  था
बाहर निकले  ना समझ कदम
बस  सपनों का वो जहाँ  था

चलता रहा  मीलों मै
बस आस में भूखा-प्यासा में
घूमा  रहा था दर बदर
बस उम्मीदों की तलाश में

मुकाम बनाना चाहता था 
तारों सा चमकना चाहता था 
आंखों में तेरे अपने को
मैं इस तरह बसाना चाहता था

जब सब कुछ है पर अब तू नहीं
शिखर पर अकेला खड़ा हूँ मैं यूँ ही
जब तलाश मेरी यूँ खत्म हुई
तेरे संग मेरी क्यों हुई दुरी

मंजिलों  की तलाश में......

बालकृष्ण डी ध्यानी
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ना किसी को तू आवाज दे

ना किसी को तू आवाज दे
ना किसी का तू अब साथ ले
उड़ता रह नीले आसमान पर
बस अपने शब्दों को परवाज दे 

यंहा कोई किसी का नहीं
सब रिश्ते हैं बस नाम के
अपना नाम बड़ा करने में
यूँ फिजूल वक्त ना बर्बाद कर   

अकेला है ये सारा सफर
अच्छा है  जल्दी जितना जान ले
मना ले अगर मनता है कोई
नहीं तो उसको छोड़ उसके हाल पर

है क्या तू इतना घमंड क्यों
बस दो साँसों के तारों को यूँ जोड़कर
पल भर में राख यूँ हो जाएगा
जोड़कर रखा फिर ले जा साथ तू

ना किसी को तू आवाज दे

बालकृष्ण डी ध्यानी
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रात भर

गिरता रहा अश्क बन
उनके सिरहाने मैं रात भर

मान जाती वो अगर
उनको  मनाता मैं रात भर

खटखटाते रहे निरंतर
द्वार ना खुला उसने रात भर

मैं तो उनका हो चुका हूँ
उनको शक रहा रात भर

रात भी बैठी रही संग मेरे
उनका इंतजार रहा रात भर

नाकाम अधूरी ही रही
वो कहानी मेरी रात भर

चलो उनको सकून आया
देख यूँ तड़पना मेरा रात भर

मेर खाव्बों को यूँ जगा
वो चैन से सोते रहे रात भर

सुबह को भी तुम  दोष देना
बिखरा जो समेटा ना सका रात भर

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हजारों कहानियां

हम सोचते ही रह गये
अँगड़ाइयाँ ली उसने और वो
हजारों कहानियां कह गई

मैं तन्हा खुद को
सिमटा ना सका
आते जाते
वो मुझे सिमटा गई

किस घड़ी
कौन सी होगी रुत सुहानी
पास  बैठ वो
मुझ से जतला गई

मुझको मालुम
एक पल भी
मैं उस बिन
जी ना सकूँगा

उसको भी
किसी और के लिए
मेरे जैसी ही
जज्बात  है

हलकी सी सर्द दर्द हवा
जाड़ा भी ठीकठाक है
अंदाज ये सुर्ख जनवरी
तेरा भी तो मेरे जैसा  हाल है

बस यूँ ही लिख देता हूँ मै
अपने से अपने तक  ही 
वो आदत तू ज़रा मेरी 
वो राहत तू  ज़रा  मेरी 

तेरे चेहरे पे उदासी
और फ़क्त दो  आंसू
हमारा आलम आपने
अभी देखा ही नहीं

फिर भी मुझे बहुत
याद करता होगा  वो
वो मेरा वहम अब भी
क्यों कर  टूटता नहीं

हम सोचते ही रह गये

बालकृष्ण डी ध्यानी
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 बाँध लो इतना

बाँध लो इतना
कोई खोल ना सके
तोल लो इतना
कोई मुंह खोल ना सके

संध्या समय
अस्त वाली  सूर्य की 
सुनहरी किरणें
कुछ मांगती नहीं

अपने को समेटती है
खुद को ढंकती नहीं
आ जाता है अन्धेरा
आने देती है वो उसे

गुस्सा हो उसे डांटती नहीं
भरोसा उसे अपने पर
पल दो पल अन्धेरा है वो
आया वो गुजर जाएगा

सूरज की राहों में
बैठी सजी रहती है वो
अपनी निगहबानों से
यही कहती रहती है वो

 बाँध लो इतना

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तुम्हारे साथ

मुझे याद आती हो तुम
बहोत याद आती हो तुम
बस इतना ही काफी है
मेरे अहसासों को जगाती हो तुम
बस इतना ही काफी है

कहाँ मैं ढूँढू कहाँ
बता दे मैं तुझे ढूँढू कहाँ
जब तू मुझ में ही कंही बाकी है
बस इतना ही काफी है
यूँ ही हरपल बन गुनगुनाती हो तुम
मुझे यूँ ही पास बुलाती हो तुम
बस इतना ही काफी है

तेरे ही सपनों में
खोना चाहूँ
तेरे ही संग  यूँ ही रहना चाहूँ
कभी जुदा तुझ से ना होना चाहूँ
बस इतना ही काफी है
मेरे जज्बातों , ख्यालों संग
गुदगुदाती हो तुम
बस इतना ही काफी है

बिखरे पड़े हैं आंसूं
उन आँखों से लड़े पड़े हैं  आंसूं
जीवन के ये बीस बरस
लदे सजे पड़े हैं वो सुखद आंसूं
बस इतना ही काफी है
बस मुझे वो अपना बनाती है
जीवन कैसे जीना है सिखाती है
बस इतना ही काफी है

बालकृष्ण डी. ध्यानी
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