Author Topic: Garhwali Poems by Virendra Panwar Ji- वीरेन्द्र पंवार जी की लिखी कविताये  (Read 35788 times)

Bhishma Kukreti

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            नरेन्द्र सिंह नेगी दगड़ा वीरेन्द्र पंवार कि मुखाभेंट

 

              Virendra Panwar Interviews  Legendary Narendra Singh Negi   


[ नरेन्द्र सिंह नेगी गढ़वाळी गीत-संगीत जगत का पुरोधा त छई छन !वु
 गढ़वाळी का बहोत्त अच्छा कवि छन अर कविता का बहुत अच्छा छाँट निराळ कन्न
वळ जणगूर बी ! पौड़ीमा वूंका घौरमु वुंसे गढ़वाळी कविता अर हौरि
विसयू पर लम्बी छवीं- बत्त व्हेनि ! इख्मु प्रस्तुत छन व़ी बातचित कि
खास - खास बात ]
 
सवाल : आजै गढ़वाळी कविता [१९८० का दसक बटी आज तकै ] तै आप कै तरौ से देख्दन ?
जवाब : आजै गढ़वाळी कविता अच्छा दौरमा छ ! गढ़वाळीमा जत्गा कवि आज
 लिखणा छन,इत्गा पैलि नि छा ! यांसे अन्ताज़ लगै सकदा कि गढ़वाळीमा
 कविता लगातार लोकप्रिय होणी छ अर ऐथर बढनी छ !.

सवाल : पुराणी अर अबारी गढ़वाळी कवितामा आपतै कत्गा अर क्या फरक मैसुस
होंदु ? यु फरक कथ्य अर शिल्प का देख्णन कत्गा अच्छो या बुरो छ ?
जवाब : गढ़वाळी कि पुराणि अर नै कवितामा सबसे बडू फरक यो छ की पैलि कविता
छंदमा लिखेंदी छै !अब हिंदी कि तरो मुक्तछंद मा लिखे जाणि छन .पुराणा
समयमा कवितो का विषय जादातर धार्मिक अर सामाजिक उत्थान वळ होंदा छा !
गढ़वाळी का पुराणा लिखवार हमारा इत्यास का जीतू बगद्वाल,तीलू
रौतेली,माधो सिंग भंडारी जना पात्रु से प्रभावित रैनी,त वून यु पात्र
अपड़ी कवितोंमा उकेरनी ! आज आम आदिम पर कविता लिखेणी छन! आजै कविता
कथ्य अर शिल्प दुयों का देखण से बदलेगी ! आजा कवि आम आदिम तै
 केंद्रमा रखिक कविता लिखणा छन, वेका सुख-दुःख समेत सबी सरोकार तई
शब्द देणा छन! ज्व़ा अच्छी बात छ !
सवाल : ये फरक को ख़ास कारण आप क्या समज्दन ?
जवाब : ये फरको खास कारण पीढ़ीगत छ! आजा हालातमा फरक ऐगी,इल्लै
 कवितामा फरक औणी छ ! गढ़वाळीमा पैलि नेतो पर कविता नि लिखेंदी छै, अब
बहुत लिखेणी छन!

सवाल : गढ़वाळी साहित्य मा जु कविता आज ल्यखेनी छन,आप वासे कत्गा संतुस्ट छन ?
जवाब : कवितों से संतुस्ट नि होए सकेंद! मि अबि बि अपड़ा गीत, कवितों
 से संतुस्ट नि छौ! पर इतगा जरुर छ कि नया लिख्वार कथ्य तै जै तरो से
पकड़ना छन वासे लगदु कि भवेस्यमा अच्छी रचना लिखेलि ! अच्छी रचना
अनुभव से औंदन अर अनुभव उमर का हिसाब से औंदो! ज्वानिमा कतामत सी
रान्दी !
 
सवाल : आप्र गढ़वाळी कवितों से संतुस्ट नि छा ता यांको कारण ?
जवाब : य़ाका बिन्डी कारण छन! खास कारण यीबि छ कि गढ़वाळी लिख्वारू
तै विरासतमा कविता कि क्वी ससक्त परंपरा नि मिलि ! इख तक कि गढ़वाल बटी
 हिंदी काव्य जगतमा अपड़ी धाक जमोण वल़ा लीलाधर जगूड़ी, विरेन डंगवाल
अर मंगलेश डबराल जना बड़ा कव्यून बी गढ़वाळी कवितै आलोचना ता करी छ, पर
यूंन अपड़ी लोकभासामा कबि क्वी कविता नि लिखि,क्वी उधारण समणि नि रखि
कि लोकभासोमा कविता इन्नी लिखेण चएंदी!
 

सवाल : गढ़वाळी कव्यु पर इन्नी भगार लगदी बल वु पुराणअ कव्यु
,रचनाकारू तै पड़दा नि छन ? सहि बात छ ?
जवाब : य़ा बात बहुत सइ छ ! यी किसमा लिख्वार बहुत छन,जौंन गढ़वाळी
 साहित्य कि क्वी किताब तक नि देखि!

सवाल : यांका कारण ......?
जवाब : एक ख़ास कारण त यो छ कि अबा जमानामा मनोरंजना इत्गा साधन छन कि
कैमा किताब पड़णों समय नी! पैलि सिर्फ रेडियो छौ,तबारी पढना वास्ता
 किताबो बहुत ग्लैमर छौ !

सवाल : गढ़वाळीमा पिछल्या तीन चार दशक बटी जादातर कविता हिंदी की तरौ
मुक्त -छंद मा ल्याखे जाणी छन ,आप क्या समजदन पड़दरअ पसंद कन्ना
छन ?
जवाब : असलमा छंद वाळी कविता पड़दरों तै याद रै जांद जबकि छंदमुक्त
 रचना पड़दरों तै याद नी रैंदी ! पर जौं छंदमुक्त कवितों मा वजन होलो अर
अछि होलि वा जरुर पसंद करे जाँदि !
ललित केशवानै "पांच अंगुल़ा" अर आपै "क्वी स्वचदै स्वचदा मोर जांद" जनि
मुक्त छंद कवितों तै लोग बहुत पसंद करदन ! असलमा रचना तई लोगो की सोच
 का साथ लिखे जावू त, लोकप्रिय होलि !

सवाल : गढ़वाळी भाषा बिसेस का देख्णन मुक्त छँदै नयी कविता का सामणि
ख़ास चुनोति क्या छन ?
जवाब : जन मिन बोलि असली चुनोती कथ्य कि छ ! आप कें बात तै कै तरो से
 बोन्न चाणअ छन अर आपै बोंली बातमा कत्गा दम छ! असल बात या छ! अछि रचनो
तै त लोग आण-पखाणों कि तरो इस्तमाल करदन ! असली चुनोती पड़दरों कि बि छ
! ख़ास बात या छ कि अपड़ी भाषा का पड़दारा बि चयेणा छन !

सवाल : कव्यु पर इन्नी बि भगार लगणी छ बल वु नयी कविता नौ पर बहुत
 कमजोर कविता लिखणअ छन ? कतगा सहि छ ?
जवाब : या बात बिलकुल सहि छ! असलमा लिखण से पैलि पुराणअ साहित्यकारु तै
पड़णों जरुरी छ ! हमुन बी जीत सिंग नेगी ,चन्द्र सिंग राही,केशव अनुरागी
बटी सुरुवात करी ! वून बी अफु से पैल्या लिखवार पड़ी होला ! परंपरा इन्नी
 चलदन !

सवाल :आपतै नि लगदु क़ि गढ़वाळी की नयी कविता रूखी होंद जाणी छ ?
जवाब : रूखि त नि बोल सकदा , पर हां कवि तै मालूम होण चैन्द कि वु कविता
 कैका वास्ता लिखणअ छन ! जनता कि पसंद को ध्यान बि रखण पोड़लो ! कविता
 पड़दरों का बिंगणमा बि औंण चैन्द ! अर जु कविता पड़दरों का मानसिक स्तर
से ऐंच व्हे जाली त वा पड़दरों से दूर व्हे जाली !

सवाल :याँसे गढ़वाळी कविताक भवेस्य पर कत्गा फरक पोड़लो ?
 जवाब : फरक त यु पोड़लो कि अछि कविता लिखेलि त कविता को भवेस्य बि अछू होलो !
 
सवाल : गढ़वाळी साहित्यमा जु गीत [ कैस्सेट वला ना ] लिखे जाणा छन,वूसे
आप कत्गा संतुष्ट छन ?
जवाब : असलमा मिन गढ़वाळी का जादा गीत पड़ी नीन, इल्ले यान्का
 बारामा मि अपड़ी क्वी सौ-सला नि दे सक्दो! एक सच यो बि छ,अर या बहुत बड़ी
कमि बि छ कि लिख्याँ गीत लोगु तक अबेरमा पहुँचदन !

सवाल : आप क्या समज्दन कि अजकाला गढ़वाळी कैसेटी गीतुमा लोकतत्व
 मौजूद छ ?

जवाब : लोकतत्व गीत-गीत पर निर्भर करदू !हम हिंदी जना
ब्यापक लोक छेत्र वाळी भाषा से अपड़ी तुलना नि करि सकदा ! हमारू बहुत
सीमित लोक छ, हम वेसे भैर जौला त पड़दारा, सुणदारा बिदकि जाल़ा!
तकनालोजी का विकास का दगडा- दगड़ी लोकमा बि फरक औणु रैद ! जीवन जिणों
तरीका बदलणअ छन, त लोकतत्व कि परिभाषा बि बदलनी रांदी!
सवाल : गढ़वाळी साहित्य की गीत या कविता बिधामा लोक तत्व बणय़ू राव,
खास करीक यांका वास्ता जरुरी क्या छ ?
जवाब : यांका वास्ता सबसे पैलि लिख्वारू तै अपड़ा लोक अर अपड़ा सरोकारू
कि जानकारी होणि जरुरी छ !
सवाल : आपका गितु कि भाषा, क्वी कख्यु बी हो ,सबी लोग आराम से बिंग
 जन्दन ,जबकि कव्यू का लिख्याँ तै सबी एक समान नि बिन्ग्दन, यांको क्या
कारण होलो
जवाब : आपन या बात अछि छेड़ी ! जख तक मेरा गितु कि भाषा को सवाल छ, त
अपड़ा गितुमा मि यिं बातो खास ख्याल रखदो कि भाषा को चयन यिं तरो से हो कि
 गीत सब्वी समज मा ऐ जावन! लिख्याँ अर लिखणों सम्बन्ध भाषा से छ !हम सबि
लिख्वारू तै इतिहास से सीखिक "फालो " कन चएंद!
सबि जणदन कि गढ़वाळी भाषामा लिखण कि सुरुवात राजदरबार बटी व्हे छाई
,याने टीरी बटी ! यांको मतलब यो छ कि ज्वा भाषा इत्गा पुराणअ समय बटी
 लिखयेणी होलि,एक त लिखणमा रैण का वजे से वा सुद्ध होलि अर दुसरि वांमा
जादा बि लिखे होलु !
श्रीनगर अर यांका नजदिकै भाषा तै येइ कारण से गढ़वाळी कि मानक
भाषा बोले जान्द! एक बड़ा हित का कारण से हम सबि लिख्वारू तै "श्रीनगरी
 गढ़वाळी" भाषा तै अपड़ा लिखण- पड़णमा स्वीकार कन चएंद ! भाषा का खातिर
हमतै अपड़ा खोला ,गौं ,पटी से भैर त औंण ही पोड़लो !
सवाल : गढ़वाळी गीत -संगीत जगतमा अच्छा गीत नि औणा छन यांपर आपै क्या राय छ ?
जवाब : मेरा बिंगणमा त यु आंदो कि लिखदरोंमा स्वाध्याय कि कमि छ!

सवाल : कैसेटु मा अच्छा गीत कम औणा छन ,यांको एक कारण इ बी व्हे
सक्दो कि गढ़वाळीमा अच्छा साहित्यिक गीत नि छन लिखेणा या कम लिखेणा छन ?
जवाब : दुर्भाग्य यो छ कि लोग कैसेटी गीतु तै हि गीत मनणा छन, अच्छा
गीत लिख्याँ बी होला पर किताबु का भित्रा गीत त भित्री रैगेनी!
सवाल : आपै रायमा साहित्यिक गीत भैर कनम आला ?
जवाब : संस्कृति बिभाग ये काम तै कर सकदो!अच्छा गीतु तै संकलित करीक
कैसेटु का जरिया घर-घर पोंछे सकदो !

सवाल : गढ़वाळी कवितामा खुद अर खौरी पैलि जादा छाई कि अबरी जादा अभिब्यक्त होणी छ ?
जवाब : समाज होंदु- खांदू होणु छ ! इल्लै खुद अर खौरि बी अब कम होणी छ !
पर यिं बात तै बि बिंगण पोड़लो कि लोक जीवनमा खौरि त राली ! इत्गा जरुर
छ कि अब खौरि का रूप बदल जाला, खौरि पैलि शारीरिक होंदी छाई, अब मानसिक
 व्हे जाली !


सवाल : आजा गढ़वाळी समाज देखिक लगदो कि यखा लोग अब होंदा-खांदा व्हेगेनी
, इन्नामा यखा साहित्य पर कनु अर कत्गा फरक पोड़लो ?
जवाब : पंवार जि,असलमा हमारो दुर्भाग्य यो छ कि अपड़ी भाषा का निब्त
 हमारी सोच ख़राब छ ! कुछ बरस पैलि गढ़वाळीमा "गढ़-ऐना " नौ से एक अखबार
निकल्दो छौ, वु बंद व्हे ! दारू फलणि -फुलणि छ ,बाकि चीज बर्बाद होणी छन
! इना होंदा -खान्दारो को बि क्य कन्न ? अपड़ी भाषा का निब्त जबारि तक
 हमारा आँखा खुलदन,तबारी तक बहुत कुछ खतम व्हे जालो !

सवाल : इन्टरनेट से गढ़वाळी साहित्य तै कत्गा फैदा होलो ?
जवाब : इंटरनेट से बहोत्त फैदा होलो,किलैकि इंटरनेट तै पड़य़ू-लिख्यू
 तबका अर ज्वान जादा इस्तमाल कना छन, अर यूँ दुयों तै अपड़ी भाषाई फिकर छ
!
सवाल : क्या अज्काले गढ़वाळी कविता अपड़ा समै अर समाज तै रेखांकित कर्द चलनी छ ?
जवाब : प्रयास होणा छन ,अच्छा स्तर कि रचना बि औणी छन!
 
सवाल : आपकि नज़रमा पलायन समस्या छ कि समाधान .......?
जवाब : मेरी नज़रम पलायन समस्या छ! पलायन, समाधान त व्हेइ नि सकदो!
सवाल : गढ़वाली कवितामा पलायन एक समस्या बणीक उभरी छ ? लोग ब्वल्दन
 पलायन से प्रगति बी व्है गढ़वालमा ..!
जवाब : पलायन से आदमी अमीर त बण जालो,पर वेको गौं, संस्कार ,रिंगालै
कंडी, हौळ, निसुड़ा,लाट जनि कला सौब ख़तम व्हे जाला ! पलायन से प्रगति
ब्यक्ति की व्हे,गड़वाळ कि नि व्हे ! संस्कृति कि नि व्हे ! पलायन से
 गौं,संस्कार,कला, सौब ख़त्म व्हे जांद! आदमी का लखपति,करोड़पति बणन से
क्वी संस्कृति नि बणदि ! होदा- खांदा अर लिख्याँ -पड्यां लोग अपड़ा घौरमु
गढ़वाळी अखबार या किताब त रख हि सक्दन !
 सवाल : अजकाल गढ़वाळीमा कवि समेलन बहुत लोकप्रिय हूँणा छन ,यांका कारण....?
जवाब : पैलि गढ़वाळम साहितिक वातावरण नि छौ अब बणनू छ ! लोग कव्यु तैं
सुणन लग गेनी ! वुंकी लिक्खीं किताब बी पड़ण लग गेनी ! फरक त पोड़ी छ !
सवाल : मंचीय कविता से गढ़वाळी कविता तै कत्गा फैदा या नुकसान होलो ?
जवाब : कवि सम्मेलनों से बहोत्त फैदा हि व्हे अर होलो,मंचु से कव्यु तै
मंच मिली,नया कवि ऐथर ऐनी,कविता संग्रह छपेनी,कव्यु कि पछ्याण बणि !
हालाँकि कवितो का जरिया अपड़ी पछ्याण बनौण बहुत मुस्कल काम छ ! तौ बी
 यांसे बहुत से कव्यु तै अपड़ा गौं खोल़ा का लोग बि पछ्याणन बैठ गेनी! आम
लोगु तै बी अब कविता पड़नौ, सुणनों ढब्ब पोडनू छ गढ़वाळी कविता अर
साहित्य दुयों का वास्ता या बहुत अछि बात छ !
 सवाल : आप गढ़वाळी का पुराणअ कौं कव्यु से प्रभावित छन ?
जवाब : हर्सपुरि, तारादत्त गैरोला,चक्रधर बहुगुणा ,केसव अनुरागी,
गिरधारी प्रसाद 'कंकाल',केसव ध्यानी, अबोध बंधू बहुगुणा , कनाया लाल
डंडरियाल !
सवाल : अबारी गढ़वाळीमा बहुत कवि लिखना छन पर टीरी अर उत्तरकाशी बटी बहुत
 कम लिखवार लिखणा छन, क्या करये जावु
जवाब : चमोलि बटी बि कम लिखणा छन! बकि हौरि जिलों बटी कुछ ना कुछ
जरुर लिखणा छन ! यूँ जिलोंमा भाषा का निब्त जागरुकता लौणे जर्वत छ !
किल़ेकि जै दिन गढ़वाळी भाषा को मानकीकरण होलो, वे दिन य़ू छेत्र का
 लोगुन सबसे पैलि बोन्न की यी गढ़वाळी भाषामा त हमारि भाषा का शब्द नि
छन अयान ! जब क्वी अपड़ी भाषामा लिखलो हि न , त वखा शब्द कख बटी औण !
या हरेक मनखी कि जिम्मेदारी छ की वो अपड़ा इलाका का शब्दु तै जीवित
रखो ! वखा लिख्वार अपड़ी भाषामा नि लिखला त वे छेत्र का शब्द वखि रै
 जाला या त हर्ची जाला !
यिं बातो आप तै एक छोटु सि उधारण देंदो ,मिन उत्तरकाशीमा कुछ फुल्लू
का नौ सुणनि, ई फूल सिर्फ उख ही मिल्दन ,हमारा यख [पौड़ी मा ] सैत नि
मिल्दन ! जनकि "जयाण ", "लैसर ," ताज" आदि, इन्नी अर इना बहुत सारा
 शब्द !जयाण का फूल बी नीला अर पीला द्वी रंगा होंदन ! अब इना शब्दू
अर जानकारी तै वखा लिखवार ही त ऐथर ल्हाला !

सवाल : हिंदी अकादमी दिल्लीन साल २०१० मा पैली बार गढ़वालीक द्वी कव्यु
 तै समान्नित करि ,या से गढ़वाली भासा अर साहित्य पर कत्गा अर क्या फरक
पोड़लो ?
जवाब : हिंदी अकादमी का पुरस्कार मिलण से फरक त जरुर पड़लो!
दुर्भाग्य यो छ कि अकादमी का यूँ पुरस्कार तै जादा प्रचार प्रसार नि मिल
 साकि! अकादमि पछ्याण देली त लिख्वारू तै होसला मिललो !

सवाल : गढ़वाळीमा जबकि आपा गितुमा पूरी एक संस्कृति ज्यूंदी छ, आपतै नि
लग्दो कि आप तै अबारी तक रास्ट्रीय स्तर पर ‘ पद्मश्री ‘ या क्वी हैंको
 बडू सम्मान मिल जाण चयेणु छौ ?
जवाब : जरुरी नि छ ! जत्गा सम्मान मेतै मिल्यां छन,वू जनता दियां छन अर
यु बड़ा सम्मान छन ! सरकारी पुरस्कार पाणा वास्ता प्रयास या सिफारिश
कराण पोड़दि ! य़ाकि मि कबी उम्मीद नि करि सकदू ! मि जब सरकार का खिलाप
 लिखदो त पुरस्कार कनक्वे मिलण !

सवाल : नई पौंळ का लिख्वारू तै आप क्या सलाह देण चैल्या ?
जवाब : नई पौंळ का लिख्वारू से हतजुड़े कर सकदो कि गढ़वाळी समाज का बीच
 बैठी लिखा त जादा बड़ीया लिखेलो,यखौ वातावरण लिखणों तई बहुत प्रेरित करदो
!लिखणा वास्ता वातावरण बहुत सहायक होंदो अर अच्छा वातावरण से बेहतर
रचना औंदन ! पित्र-लिख्वारो का लिख्या तई जरुर पड़न चएंदो!

सवाल : अर आखिर दा, आपे नजरमा गढ़वाळी कविता को भवेस्य क्या छ ?
जवाब : देश कि होरी भाषाऑ कि तरो गढ़वाळीमा बि अछि कविता लिखेलि त
कविता को भवेस्य बि अछू होलो अर कव्यु को बी !


with regards

 वीरेन्द्र पंवार
 

Bhishma Kukreti

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                    ऐन्सु होरिमा


फ्यूंली अर बुरांस रंग रंग्य़ू छ ऐन्सु होरिमा !
माया को तिसालु रंग मिल्युं छ ऐन्सु होरिमा !!

कूंजा ,पैंया ,ग्वीराले की डाळी मौळी  गैनी
न्युतु यूँ बसंत को दीन्यु छ  ऐन्सु होरिमा !!

दडकि छै जु हत खुटी ह्युंद कि हिंवाळमा
बाटू मौळयार को अयूँ  छ  ऐन्सु होरिमा !!

मौकि पंचमी का थड़या, चौंफुलोँ  कि खुदमा
मन्खी को क्वांसू रंग रळयूँ छ  ऐन्सु होरिमा !!

बौडला जु राजी खुसि अपणा बिराणा कबि
तौंका नौंको उच्याणों रंग धर्युं छ ऐन्सु होरिमा !!

गौळअ मा बाडूळी लगि हत-खुट्युमा पराज
मन पऱाण  मयाल़ू छळय़ू छ ऐन्सु होरिमा !!


वीरेन्द्र पंवार

Bhishma Kukreti

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सन १९९१ में गढ़वाली के कवि वीरेंद्र पंवार की निम्न कविताएँ पराज मासिक में प्रकाशित हुईं थीं

किन्तु कविताएँ आज भी सजीव व औचित्यपूर्ण हैं

इकीस साल पालि वीरेंद्र पंवारै कविता पराज मा छपी छे जु अबि बि औचित्यपूर्ण छन


               सफै

              वीरेंद्र पंवार (पौड़ी  )


पवित्र गंगा का पाणी

कि सफै  पर पैसा

पाणी तरां बगयेणु च

फेर बि 'सफै' पूरी तरां नि ह्वाई 

इन सुणेणू च

          रिस्ता


चुला  कि आग अर

पोटगी आग मा

एक रिस्ता सि होंद

पैलि जगी जांद

त दुसरी बुझी जांद


Bhishma Kukreti

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                Been (बीं): A Mile Stone in the History of Garhwali Literary Criticism

(Review of ‘Been’ (बीं) a collection of Literary Criticism Notes on Garhwali literature by Virendra Panwar)

Notes on Asian languages Literary Criticism, Indian Literary Criticism, North Indian Languages Literary Criticism, Himalayan languages Literary Criticism, Uttarakhandi languages Literary Criticism, Garhwali Literary Criticism

                                                   Bhishma Kukreti

                Been a collection of reviews of forty books by Virendra Panwar is a historical and a celebration book for Garhwali language literature.  Till right now, the criticism in Garhwali literature was thought as a secondary aspect of literature. However, ‘Been’ will make criticism a very serious aspect of creativity and research in Garhwali literature.
               Virendra Panwar has been reviewing poetry and prose books since 2000. In an interview with this author, Abodh Bandhu Bahuguna named a brilliant gem among nine gems of Garhwali criticism.  Literature creative are aware that criticism is to facilitate readers to understand and realize the writings whose effects might otherwise have been unduly limited.  There is also no doubt that critics can’t reduce the original text.  Virendra Panwar is knowledgeable, insightful and fair minded and fulfils the basic requirement for a reputed critic. .  The criticism of forty books in ‘Been’ criticism collection by Virendra certainly establishes that Virendra Panwar has been successful to mediate the reviewed literature with readers   and readers definitely find new range of interest, enjoyment and making relationship with the author while reading the actual text. 
          Due to various reasons, the criticism in Garhwali language started only after 1976 and more after 1989. Before, 1976, the writers used to write criticism in Hindi. Thus, the criticism branch of Garhwali literature is very new.  Since, mostly, the learning medium for Garhwalis in schools and colleges is Hindi; there is had been hundred percent shadow of Hindi criticism on Garhwali language criticism style. Garhwali critics have borrowed the vocabulary of Hindi criticism and all literature creative accepted this fact too.   However, there has been an endeavor from a couple of Garhwali critics who are in search of words of Garhwali to fit in criticism and which could be applied by other creative too. The readers will be happy to note that Virendra Panwar is one of the rare critics who are trying infusing Garhwali phrases for Garhwali criticism literature. The readers will find this development in the critical essays of 2002 (Awaj) , 2008 (Ghanghtol) and 2011 (Jyundal) of  Virendra Panwar that he is attempting to create an exclusivity in the Garhwali criticism literature.
            The Garhwali literature is oriented towards religious, social and political values. Hence, it is obvious that   Virendra Panwar   measures the literature from the point of view of philosophy, social values and political values.  Virendra Panwar uses all three types of criticism -aesthetic, descriptive and normative criticism as and where it is needed. Criticisms of poetry, prose or any literary conference as ‘Kavi sammelan’ by Virendra Panwar reveal that Virendra has the in-depth capacity of examining or analyzing the subject and literature. The forty articles in this volume are witness that Panwar takes care about digging the geographical, historical and social settings with their effects in the poems or prose. Virendra Panwar has sharp eyes to find the main characters; secondary characters; their inter-relation with each other, the struggle, and the conflicts of a particular poem/poem collection or prose book.
         Reading between the lines is major job for a critic and Virendra shows his capability in doing so from the beginning.
               Virendra’s reviews reveal the style, grammar, wordings, subject in the literature. At the same time, Virendra Panwar has also been evolving his own style of criticism with the time and need of the readers. This his own thrust on evolving his own style makes him relevant all the time in Garhwali criticism.
           As a critic, this author knows that the biggest problem a Garhwali critic faces for telling the black as black and white as white. However, Virendra took the job of a critic as critic and not only praising the literature creation. Virendra has shown many negative points in his various critical essays. He had to get unfriendliness from the writers when Virendra showed negative points in the particular collection. However, it is reality and this is where a critic has to live in a paradox.
      The last essay about characteristics of Garhwali literature from Dhanga se sakshatkat (1980) till date definitely puts new light on Garhwali literature and is certainly a new example in Garhwali criticism.
 The contribution of Virendra Panwar in criticism will always be remembered as the world literature creative remember the work s of Marcel Arland, Geoffrey Benington, Daiches David, Denish Holier,  Millod Hmida,  Venteseslav Konstantinov, August Ahlqvist, Toni Jerrman, Jovan Skerlic, Hugo Achugar, Jorge Medina, Hanan Ashrawi , Ihab Hassan, Pablo Antonio Cuadra, Oscar Coello, Manthia Diawara, Alfonso Chase,   Niyi Osundare, Chinua Achebe, Jose  Simoes Dias, Rexhep Qosja, Wai-Lim yap, Karoly Molter, Otto Maria Carpeaux, Istavan Blazsetin, Arne Novak, O.S. Urdaneta, Murat Belge, Abdul Nabi Isstaif, I.F. Ismail , Ivan Drach. 
        There was a gap for Garhwali critical literature for a comprehensive book on exclusive subject of criticism in Garhwali language and ‘Been’ is successful not only filling the gap but ‘ Been’ is a milestone in the history of Garhwali literature.
‘Been’ (बीं)
Bu Virendra Panwar
(Garhwali Bhasha ka Pahla Sameeksha Sangrah) , 2012
Dhad Prakashan, Dehradun
Virendra Panwar 09897840537
virendra.pauri@gmail.com
Copyright@ Bhishma Kukreti

Notes on Asian languages Literary Criticism, Indian Literary Criticism, North Indian Languages Literary Criticism, Himalayan languages Literary Criticism, Uttarakhandi languages Literary Criticism, Garhwali Literary Criticism to be continued…..

Bhishma Kukreti

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मेरा पहाड़ .कौम  के श्री महिपाल सिंह  मेहता के  साथ वीरेन्द्र पंवार की लिखा-भेंट--------

महिपाल सिंह  मेहता  (एम् एस मेहता) आम उत्तराखंडी के लिए भले ही अभी नया
 नाम हो लेकिन इस युवा ने उत्तराखंड को इन्टरनेट के जरिये विश्वपटल  पर
सर्वसुलभ बना दिया है ३२ वर्षीय श्री मेहता पेशे से आई टी हैं.बर्तमान
में वे नॉएडा में रहतेहैं .श्री मेहता अपनी टीम के साथ इन्टरनेट पर 'मेरा
पहाड़ 'फोरम संचालित करते हैं.
  इस फोरम ने २१ अप्रैल २०१२ को पांच वर्ष पूरे किये हैं. इस फोरम पर उत्तराखंड
के इतिहास ,भूगोल,साहित्य ,संगीत, पुरातत्व , कला-संस्कृति एवं करियर से लेकर
तमाम अद्यतन गतिविधियों की जानकारी अत्यंत ब्यवस्थित तरीके से उपलब्ध है.इस
 फोरम के जरिये उत्तराखंड को एक नयी पहचान मिल रही है .अपनी इस उपलब्धि के
लिए मेरा पहाड़ की पूरी टीम बधाई की पात्र है.इस अवसर पर प्रस्तुत है इस
फोरम के प्रमुख कार्यकर्त्ता   महिपाल सिंह  मेहता के  साथ हुयी बातचीत
के प्रमुख
 अंश -----------

वीरेन्द्र पंवार - सबसे पहले आपको 'मेरा पहाड़' के ५ साल पूरे करने पर हार्दिक बधाई
!हमारे पाठकों के लिए आपसे ये जानना चाहेंगे की  इन्टरनेट की सोसल साईट पर
 सामाजिक तौर  से आप कबसे सक्रिय हैं ?

महिपाल सिंह मेहता-  -  धन्यवाद पंवार जी! अपनी मात्र भूमि से दूर जब पहाड़ की नराई / खुद
सताती है कभी नेट में बैठे हर कोई कुछ न कुछ अपने इलाके के बारे में गूगल
 सर्चमें जानकारी खोजता है! मेरा भी इसी प्रकार से एक सोसियल  नेटवर्किंग
साईट सेसंपर्क हुवा, किन्ही कारणों से वह साईट चल नहीं पाई! मेरे संपर्क
में श्री कमल कर्णाटक जी के मेरापहाड़ के संथापक है एव एक अन्य मित्र अनुभव उपाध्याय
 जी आयेऔर यही से शुरुवात हुयी मेरापहाड़ मंच को तैयार करने की! २१ अप्रैल
२००७ में हमलोगो ने आधिकारिक रूप से मेरापहाड़ फोरम को सञ्चालन शुरू
किया! शुरवाती सालो में बहुत ही संघर्ष हमें करना पड़ा लेकिन धीरे-२
कारवा बढता चल गया और आज मेरापहाड़ में १५,००० से ज्यादे पंजीकृत सदस्य
 है और हर महीने ७ लाख से ज्यादेवियुज मेरापहाड़ फोरम में होते है !


 वीरेन्द्र पंवार - आप किस प्रकर के कार्यक्रम  इन्टरनेट पर आपरेट कर रहें हैं, सामाजिक,
 आर्थिक, राजनैतिक साहित्यिक, मनोरंजक  अथवा समस्त सन्दर्भ! इन्टरनेट पर 'मेरा
पहाड़' के अतिरिक्त  अन्य कोई और मंच भी है,जो आप संचालित करते हो ?

महिपाल सिंह मेहता- मेरापहाड़ फोरम के अलावा हमारे अन्य भी साईट है जैसे www.merapahad.com,
 www.apnauttarakhand.com & www.hisalu.com  ! मुझे यह बात कहने गर्व
 महसूश हो रहा है कि मेरापहाड़ मंच के द्वारा हम प्रवासी उत्तराखंडी कही न
कही उत्तराखंड की लोक संगीत, भाषा, पर्यटन, लोक संगीत, इतिहास आदि को
बढावा देने में अपना थोडा योगदान दे पा रहे है! आज मेरापहाड़ फोरम के
द्वारा कई पर्यटक उत्तराखंड भ्रमण के लिए हमें संपर्क करते है, अभी तक हम
 सैकड़ो लोगो को उत्तराखंड में भेजचुके है! हर दिन हमारे पास १०-२० मेल और
इसी प्रकार से फोन कॉल भी आते है! इसके आलवा हम मेरापहाड़ फोरम के द्वारा
उत्तराखंड में सरकारी और गैरसरकारी नौकरी के
बारे में भी विज्ञापन देते है जिसे लोगो को नौकरिया भी मिल पा रही है!
 मेरापहाड़ में समय -२ पर करियर गाईडैन्स और विपिदा के समय पहाड़ में कैप भी
लगाये है !

 वीरेन्द्र पंवार - इन्टरनेट के जरिये उत्तराखंडी समाज से आपका जुड़ाव अधिक है, वर्तमान में
 संचार एवं सूचनाओं के इस तीव्रतम दौर में समग्र उत्तराखंडी (प्रवासी एवं
अप्रवासी) समाज को कहाँ पर खड़ा पाते हैं?

 महिपाल सिंह मेहता-  हाँ यह बात सही है, नेट पर ज्यादे लोग प्रवासी उत्तराखंडी है! लेकिन अभी नेट
 मोबाईल के द्वारा लोग गाँवों में भी इस्तेमाल कर रहे है! मुझे अभी लोगो के कॉल
उत्तराखंड के कई हिस्सों से आते है, जब मै लोगो से पूछता हूँ आपको मेरा नंबर
कहाँ से मिला तो लोग बताते है मेरापहाड़ फोरम के जरिये! मुझे इन्टरनेट के
 जिरिये लगता है कि प्रवासी लोगो का अब उत्तराखंड की तरफ काफी लगाव बड़ रहा है
और लोग अपने-२ गावो में कुछ न कुछ सामाजिक कार्यो में हिस्सा लेना चाहते है,
लेकिन अप्रवासी समाज उत्तराखंड में अपेक्षित विकास ना होने से काफी नाखुश है!
 
वीरेन्द्र पंवार -  प्रवासी एवं अप्रवासी समाज में से इन्टरनेट का उपयोग सर्वाधिक कौन कर रहा
है! इसमें पहाड़ की क्या स्थिति  है?
 
महिपाल सिंह मेहता- निश्चित रूप से प्रवासी समाज ज्यादे इन्टरनेट पर सक्रिय है! नयी पीड़ी कही न कही
अपनी जड़े इन्टरनेट के जरिये खोज रही है!

 वीरेन्द्र पंवार - उत्तराखंड से इन्टरनेट के जरिये किस तरह के मुद्दे अधिकतर उठाये रहे हैं,
 आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक अथवा अन्य?

 महिपाल सिंह मेहता- मेरापहाड़ फोरम के माध्यम से हमने उत्तराखंड हर पहलू को छूने की कोशिश की है
चाहे हो उत्तराखंड के राजधानी गैरसैंन का मुद्दा हो, उत्तराखंड में बन रहे डामो
 के बारे में, वन संपदा के बारे, पर्यटन सम्बंधित आदि! सामाजिक मुद्दों पर हम
जनता की राय फोरम में लेते है एक दो बार हमें फोरम में उत्तराखंड के मंत्रियो
का भी जनता से लाइव चैट करवाया है! ताकि लोग अपनी बात व्यक्त कर पाए! इसके आलवा
 हमने कई मुद्दों पर अपने एक्सपर्ट के द्वारा लोगो के मुफ्त जानकारी देने भी
व्यस्था की है! जैसे करीर के बारे, मधुमेह के बारे में, टैक्स के बारे में,
तकनीकी जानकारियों के बारे में, पर्यटन के बारे में आदि, लोग हमारे इस पहल का
 काफी लाभ उठा रहे है!

वीरेन्द्र पंवार -  इन्टरनेट पर उत्तराखंडी  भाषा-साहित्य  की स्तिथि क्या है? क्या साहित्य को
पर्याप्त स्थान मिल रहा है?
 
 महिपाल सिंह मेहता-  हमने मेरापहाड़ फोरम में उत्तराखंड के भाषा साहित्य के लिए एक अलग बोर्ड
बनाया है जहाँ पर हमारी कोशिश है कि उत्तराखंड के साहित्य, कवि,
 रचनाकारों और आदि के बारे में ज्यादे से ज्यादे जानकारी पोस्ट की जा सके!
कुश हमारे वरिष्ठ सदस्य जैसे भीषम कुकरेती जी, पूरन चन्द्र कांडपाल जी,
नवीन जोशी जी,  डी एन बडोला जी आदि लोग काफी जानकारी दे रहे है!
 
 वीरेन्द्र पंवार - आपकी दृष्टि में इन्टरनेट के जरिये किस हिस्से में उत्तराखंडी भाषा साहित्य
ज्यादा प्रचारित-प्रसारित हो रहा है-ब्लॉग, ईमेल, फेसबुक  आदि
 
 महिपाल सिंह मेहता- मेरे हिसाब से फेसबुक और ब्लॉग से उत्तराखंडी भाषा को प्रचारित एव प्रसारित में
काफी मदद मिल रही है! बाकी मेरापहाड़ में भी उत्तराखंड के साहित्य की काफी
जानकारी समाई हुयी है !
 
 वीरेन्द्र पंवार - आपकी दृष्टी में गढ़वाली और कुमाउनी साहित्य में मोटे तौर पर क्या  समानताएं
दिखाई देती हैं? एवं क्या फर्क है?
 
 महिपाल सिंह मेहता- मै समझता हूँ गढ़वाली और कुमाउनी भाषा में 90% समानता है!  जब में कोई भी
गढ़वाली गीत सुनता हूँ तो मुझे 90% पूरा गाना समझ में आता है! कही-२ पर शब्दों
में विभिन्नता है! गढ़वाल और कुमाऊ की भौगौलिक स्थिति एक ही है तो साहित्य में
 जहाँ भी पहाड़ी की सुन्दरता यह जन जीवन की बात कई गयी है मै समझता हूँ उसमे कोई
अंतर नहीं है!

 वीरेन्द्र पंवार -  इन्टरनेट पर उत्तराखंडी  भाषाओँ की कविताओं के अतिरिक्त क्या प्रकाशित हो
 रहा है?

वीरेन्द्र पंवार - जहाँ तक इन्टरनेट में कविताओ का सवाल है लोगो ने अपने ब्लॉग में बही काफी जगह
अपनी स्वरचित कविताये पोस्ट की है लेकिन मेरापहाड़ में हमारी सदैव कोशिश रही है
 कि हम उन कवियों की कविताये पोस्ट करे जो अभी हमारे बीच नहीं है! इसके अलावा
गढ़वाली कुमाउनी नाटको के बारे में भी मेरापहाड़ फोरम में काफी जानकारी हमने
प्रस्तुत की है! सबसे ज्यादे हमने उत्तराखंड की लोकोक्तिया, आण (पहेलियाँ) आदि
 प्रस्तुत की है, ये सारी जानकारियां केवल मेरापहाड़ फोरम में ही उपलब्ध है जहाँ
इन्टरनेट की बात है!

 वीरेन्द्र पंवार - नेट पर प्रकाशित हो रही कविताओं का स्तर आपकी दृष्टी में  कैंसा है?
 
जहाँ कविताओं के स्तर का सवाल है मेरे हिसाब से इन्टरनेट में लोगो ने काफी
कविताएं पोस्ट की है! यहाँ सिर्फ एक ही चीज का दुर्प्रयोग हो रहा है वह है कॉपी
पेस्ट का! लोग कई बार दूसरो के रचनाओं के नीचे अपना नाम लिख कर अपने-२ ब्लॉग या
 फेसबुक में पोस्ट कर देते है और असली रचियता को उसका श्रेय नहीं मिलता है!

 वीरेन्द्र पंवार - गढ़वाली और कुमाउनी रचनाकारों में कौन से इन्टरनेट पर अधिक सक्रिय है?
 
 महिपाल सिंह मेहता- गढ़वाली और कुमाउनी रचनाकारों में नयी पीड़ी के लोग जो इन्टरनेट चलाना जानते है
वो तो पूरी तरह से नेट पर सक्रिय है! इसमें से अधिकतर गढ़वाली कवी ही नेट पर
अधिक सक्रिय देखे गये है!
 
 वीरेन्द्र पंवार - दोनों भाषाओँ में किस भाषा में स्थानीय भाषा एवं शब्दों का अधिक इस्तेमाल
हो रहा है?

वीरेन्द्र पंवार - मुझे लगता है गढ़वाली! लेकिन गढ़वाली एव कुमाउनी भाषा में भी काफी शब्द विलुप्त
 होते जा रहे है! जैसे कुमाउनी के यह शब्द लीजिये ... डाड (पेट)! अगर किसी कहना
है, "मेरे पेट दर्द हो रहा है"! वह कुमाउनी में बोलता है "म्यार पेट में दर्द
हुण रेई:" ! आजकल के आम बोल चाल में "डाड" शब्द अब कही न कही गायब हो रहा है!
 
 वीरेन्द्र पंवार - आपकी दृष्टि में इन्टरनेट पर उत्तराखंडी साहित्य को हिंदी अथवा अंग्रेजी
में प्रकाशित करना लाभप्रद अथवा नुक्शानदेह होगा?
 
 महिपाल सिंह मेहता- - मेरे हिसाब से हिंदी में लोगो की अच्छी रूचि बड़ रही है! शायद लोग इंलिश ज्यादे
सजह न हो पाय!  जहाँ तक प्रकाशित करने की बात है इसमें मुझे नुक्सान ज्यादे
 नहीं दिख रहा है! अगर उत्तराखंड के साहित्य को राष्टीय एव अंतरराष्ट्रीय पटल पर
ले जाना है तो शायद हिंदी एव अंग्रेजी में प्रकाशित करना लाभदायक होगा! आज
बंगला कवियों के कई साहित्य हिंदी एव अंग्रेजी में प्रकाशित है और बांगला के
 आलवा सारे हिंदी भाषी इन कृतियों को पड़ते है!

 वीरेन्द्र पंवार - इन्टरनेट के उपयोग से उत्तराखंडी  भाषाओँ का कितना भला हो सकता है?
 
 महिपाल सिंह मेहता- इन्टरनेट से मुझे लगता है उत्तराखंड के भाषाओ का अच्छा प्रचार हो रहा है! नयी
पीड़ी की इन्टरनेट के जरिये से भाषा सिखने की ललक बड़ रही है जो एक अच्छा संकेत
है!
 
वीरेन्द्र पंवार - उत्तराखंडी भाषाओँ के पक्ष में इन्टरनेट के उपयोग को आप किस तरह से देखते
हैं?

 महिपाल सिंह मेहता- साकारात्मक है! इन्टरनेट में लोगो ने अपने ब्लॉग गढ़वाली एव कुमाउनी भाषाओ में
 भी लिखे है जिससे कही न कही इन भाषाओ का प्रचार एव प्रसार हो रहा है!

वीरेन्द्र पंवार - उत्तराखंडी साहित्य को  इन्टरनेट पर आप  किस तरह से  प्रस्तुत करते हैं ?
 

 महिपाल सिंह मेहता- इन्टरनेट पर सामग्री मूल रूप में अभी दो तरह से प्रस्तुत की जाती है,एक
तो फोरम के जरिये और दूसरी  वेबसाइट के जरिये.वेबसाइट के जरिये लोगों की
व्यूवार्शिप गूगल सर्च में आ जाती है .
 

वीरेन्द्र पंवार - क्या आप बताएँगे कि लगभग कितने लोग इन फोरम या टॉपिक को देखते या पढते हैं ?


 महिपाल सिंह मेहता- व्यूवर्सिप के अनुसार जैसे 'मेरा पहाड़' फोरम के अंतर्गत भीष्म कुकरेती
 जी के टॉपिक क़ी मासिक व्यूवर्सिप २-३ हज़ार से अधिक है .उनके टॉपिक को दो
साल के अंदर  करीब ३० हज़ार से अधिक लोगों ने देखा या पढ़ा है .इसी तरह
वीरेन्द्र पंवार जी के टॉपिक क़ी व्यूवर्सिप ६ महीने के अंदर ५ हज़ार से
अधिक है. बर्तमान  में 'मेरा पहाड़' फोरम क़ी  व्यूवर्सिप(अप्रैल २०१२
 में ) ७ लाख पहुँच गयी है.


वीरेन्द्र पंवार - आप कहना चाहते हैं कि इन्टरनेट पर पहाड़ के मुद्दों को देखने या पढने
वालों कि तादात बहुत जादा है ?
 

 महिपाल सिंह मेहता- जी बिलकुल .

वीरेन्द्र पंवार -  इन्टरनेट पर प्रकाशित हो रहे उत्तराखंडी  साहित्य से उत्तराखंडी समाज कितना
 जुड़ पा रहा है?

महिपाल सिंह मेहता- मुझे यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि उत्तराखंड की नयी पीड़ी जी महानगरो में पली
बड़ी है, उनका लागाव काफी अच्छा दिख रहा है! मै इन्टरनेट पर कई लोगो के ब्लॉग
 पड़ता हूँ और लोग हमें संपर्क करते है उत्तराखंड के विभिन्न साहित्यकारों एव
रचनाकारों के बारे में जानकारी लेने के लिए!

 वीरेन्द्र पंवार - वर्तमान में कुछ ऐंसे  नाम गिनाएं जो रचनाकार इन्टरनेट के जरिये
 (उत्तराखंडी साहित्य में) अपनी  पहचान बनाने में कामयाब हुए हों?

 महिपाल सिंह मेहता- बहुत सारे नाम है जिनमे से प्रमुख है जैसे जगमोहन सिंह जाय्डा, बाल कृष्ण
ध्यानी, मन मोहन सिंह बिष्ट, जगमोहन सिंह आज़ाद, महेंद्र सिंह राणा आदि !
 
 वीरेन्द्र पंवार - इन्टरनेट पर प्रकाशित हो रही साहित्यिक सामग्री पर उत्तराखंडी  समाज की
क्या प्रतिक्रिया है? क्या वह साहित्य में रूचि ले रहा है?
 
 महिपाल सिंह मेहता- मेरा अनुभव इस अनुभव बहुत ही अच्छा रहा है! जिस तरह से लोगो के फोन कॉल एव मेल
मेरे पास आते है उससे प्रतीत होता है लोगो की काफी रूचि है उत्तराखंड के
साहित्य एव साहित्यकारों के बार में!  हमारी कोशिश रहेगी की हम उत्तराखंड के
 साहित्य के बारे में और भी विशिष्ठ जानकारियां इस पोर्टल के माध्यम से जनता तक
पहुचाये!

 वीरेन्द्र पंवार - प्रवासी  उत्तराखंडी  अपनी भाषाओँ के सम्बन्ध में क्या विचार रखते है?
 
 महिपाल सिंह मेहता- जैसे कि मैंने पहले भी कहा है! लोगो की रूचि अभी बड़ रही है अपनी लोक भाषावो को
सिखने के लिए! शायद इसमें इन्टरनेट का बहुत अच्छा योगदान रहा है!

 वीरेन्द्र पंवार - जनसामान्य में इन्टरनेट के बढ़ रहे चलन से (ऑफलाइन प्रकाशित हो रही)
 पत्र-पत्रिकाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

 महिपाल सिंह मेहता- हाँ यह जरुर एक चिंता का विषय है! यहाँ तक के देश के प्रमुख समाचार पत्रों पर
भी यह खतरा दिख रहा है! अभी बड़े-२ समाचार पत्रों ने भी ई पेपर इन्टरनेट पर
 डालना शुरू कर दिया है! दूसरी तरफ शायद देखा जाय तो इन्टरनेट के द्वारा इनका
प्रचार प्रसार बड़ भी रहा है!

 वीरेन्द्र पंवार - उत्तराखंडी  राज्य में छोटे छोटे शहरों से इतर ग्रामीण छेत्रों में
 इन्टरनेट के प्रति कितनी जागरूकता दिखाई देती है?

 महिपाल सिंह मेहता- मोबाइल क्रांति के द्वारा अब दूर-२ गावो में भी लोग इन्टरनेट से जुड़े हुए है और
लोगो की जागरूकता काफी बड़ी हुयी है! भविष्य में 4G के पूरे तरह आने पर
 इन्टरनेट के प्रति रुझान और भी बढेगा!

 वीरेन्द्र पंवार - इन्टरनेट और अंग्रेजी के बढ़ते साम्राज्य की रौशनी के बीच उत्तराखंडी
भाषाओँ का भविष्य आपको कैंसा लगता है?
 
 महिपाल सिंह मेहता- पहले इन्टरनेट पर केवल अंग्रेजी में ही लोग लिख या पड़ पाते थे, लेकिन यूनिकोड
के आने से कई भाषाओ को भी हम आज अपनी बात इन्टरनेट पर लिख सकते है!  जहाँ तक
बोल चाल की बात है वह थोडा सा चिंता का विषय है! महानगरो में रहने वाले लोगो को
 इस तरफ ध्यान देने की जरुरत है! उत्तराखंडी लोग अपनी भाषा अपनी पीड़ी को जरुर
सिखाये तभी संस्कृति का भी विकास हो पायेगा!

 वीरेन्द्र पंवार - - मौजूदा सच्चाइयों को स्वीकार करते हुए उत्तराखंडी  भाषाओँ को जीवित रखने के
 लिए आपकी दृष्टि में बर्तमान प्रयासों के अतिरिक्त और क्या किया जाना चाहिए?

महिपाल सिंह मेहता- मै कई उत्तराखंड के सांस्कृतिक कार्यकर्मो में भाग लेता रहा हूँ लेकिन वहां पर
 मुझे एक निराशा हाथ लगती है वह है अपनी बोली में वार्तालाप का न होने का !
कलाकार अपनी प्रस्तुतियां गढ़वाली या कुमाउनी बोलियों में देते है लेकिन मंच
में उद्घोषक केवल हिंदी में ही बात करते है! अगर भाषा को बचाए रखना है हमें नीव
 डालनी होगी कि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक माचो से उत्तराखंड के बोलियों में
संवाद किया जाय! उत्तराखंड व्यक्ति विशेषो को भी जनता के बीच अपनी बोलियों में
बोलनी की शुरुवात करनी चाहिए! मेरापहाड़ फोरम के तहत हमने कई टोपिक बनाये है
 जहाँ पर हम लोगो को भाषा सिखाने की कोशिश कर रहे है!

 वीरेन्द्र पंवार - 'मेरा पहाड़' जैसे फोरम में भविष्य की अन्य क्या योजनाये है?
 
 महिपाल सिंह मेहता- मेरापहाड़ ग्रुप उत्तराखंड के भाषा, लोक संगीत, कला, संस्कृति, पर्यटन आदि के
प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय है और भविष्य में भी और सक्रिय रहेगा! आज
मेरापहाड़ फोरम को इन्टरनेट में ज्वाइन करने वालो के संख्या दिन प्रतिदिन बड़ते
 जा रही है! इसके पीछे केवल एक ही कारण है वह है इस फोरम में उपलब्ध विशिष्ठ
जानकारियां! हमने मेरापहाड़ के तहत उत्तराखंड के कई विशेष व्यक्तियों के लाइव
चैट भी समय-२ पर करवाए है जैसे उत्तराखंड से पैत्रिक सम्बन्ध रखने वाले
 प्रसिद्ध हाकी खिलाड़ी मीर रंजन नेगी,  हिंदी फिल्मो की पार्श्व गायिका सपना
अवस्थी, अभिनेता हेमंत पाण्डेय, दीपक डोबरियाल, फिल्म निर्मेत्री बेला नेगी,
पूर्व मंत्री प्रकाश पन्त, उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक गायक नरेन्द्र सिह नेगी,
 अनिल बिष्ट, गजेन्द्र राणा, ललित मोहन जोशी, प्रीतम भरतवाण, पराशर गौर जी, आदि!
मेरापहाड़ फोरम के सदस्यों ने उत्तराखंड के लोक संगीत को बढावा देने कल लिए २
म्यूजिक एल्बम भी बाजार में निकल है "म्यर पहाड़ 1 और म्यर पहाड़ 2! इसके आलवा
 उत्तराखंड  लोकोतियों एव आण की एक किताब भी मैंने और हमारे सदस्य दयाल पाण्डेय
ने प्रकाशित की है!
हमारी योजनाये समय-२ बनती रही है और इस पर कार्य होते रहता है !


वीरेन्द्र पंवार - अपने ब्यस्त समय में से समय निकालने के लिए आपका बहुत धन्यवाद.
  महिपाल सिंह मेहता- धन्यवाद.

 


वीरेन्द्र पंवार

Copyright@ Virendra Panwar, Pauri, Pauri Garhwal, 10/5/2012

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शेरसिंह बिस्ट 'अनपढ़'  दगडा छ्वी-बथ 

 

                             वार्ताकार : वीरेन्द्र  पंवार
 
 

(शेरसिंह  बिस्ट 'अनपढ़' कुमाउनी / कुमोनी का जणयां -मणयां कवि छन.ये दाना कवि तै आपन कत्गाई बार मंच पर बि कुमोनी मा कविता पाठ करदा सुणी होलो .आज ७८ साल कि  उम्रमा यु कवि जब मंच बटी कविता पाठ करदा त वे टैम पर लगदा कि 'शेरदा' अबी प्रेम-प्यार कि छविं-बतुमा  ज्वानु  तै बि छकै सक्दन. पूरा प्रदेशमा वू  इन्ना बुजुर्ग कवि छन जौंतई लोग पूरी गंभीरता अर  टक्क  लगैकी सुणदन. मंच पर कविता सुणोंणा अपणा ख़ास अंदाज का कारण वु सुणदरोंमा खास लोकप्रिय  छन.वूँका ब्यक्तित्व  अर कृतित्व   पर रिसर्च बि हुयां  छन.

           अबारी तक 'मेरी लटपटी', 'जोठी घुँघर', 'फचैक', 'दीदी बैणि', 'हंसणया- बहार','ये कहानी है नेफा लधाक  कि,

         'शेरदा- समग्र',जनि किताबु का लिखवार शेरदा लिखण से लेकि  कवि सम्मेलानुमा खास लोकप्रिय छन. वूंकी कवितोंमा सामाजिक ब्यवास्थों  पर जोरदार चोट  होंद त कत्गाई बतु तैं वु अफु पर घटैकी लोखु तैं जीवन जिणों तरीका बतोंदन .
 
 २-३-४ अप्रैल २०११ का दौरान उत्तराखंड भाषा संस्थान देहरादून द्वारा उरायाँ  लोकभासा सम्मेलनमा  वूँ दगड़ा सुबेर चाय पर  मुखाभेंट व्हे. वीरेन्द्र पंवार अर बिमल नेगी दगड़ा होईं  वीं बातचीत कि ख़ास -ख़ास बात---)
 
 

 सवाल...शेरदा आपन लिखनै सुरुवात कब बटी करि अर कुमोनीमा लिखणै प्रेरणा आपतै  कख बटी मिली ?

जवाब...मि सन १९६० बटी लिख्णु छौं. सन १९३३ को मेरु जनम छ.,अर सन १९५० मा मि फ़ौज मा भर्ति व्हेगे छौ.१३ साल कि उम्र बटी लिख्णु सुरु करेली छौ.अनपढ़ छौ,इल्लै हिंदीमा मिन नि लिखी. बाळपन बटी हि  मैतै कुमोनी कविता सुणनौ बडू शौक छौ.बस यी शौक  मेरि प्रेरणा को कारण बणी.मैतै लगि कि मेतै बी कुमोनीमा हि लिखण चयेणु छ.
 
 

सवाल... आप पढ़याँ  लिख्यां नी छा,फेर बी आपन खूब लेखी.क्या यु हम तै 'गोड -गिफ्ट' बोलण चयेणु छ?

जवाब...मनखी अपणा अनुभवों से लिख्णु सिखदा. मन का भित्र बिचार पैदा हुन्दन अर वुन्तई कागज पर लिख देंदो. सब कुछ मन मा याद जनो आन्द. एक तरों से आप येतैं 'गोड -गिफ्ट' बी बोल सक्दन.
 
 

सवाल...जबारी आपन कुमोनी मा लिख्णु सुरु  करि वु  दौर आज चुलै कन्नु छौ ?

जवाब...वू टैम बडू सीधु सादु छौ .पढ़यां -लिख्याँ लोग कम छा.ईमानदारी से ब्वन्न त वु दौर सिधू-सचु दौर छौ.लोगुं को अपड़ी भाषा से जुड़ाव बी छौ.आज  लोकभासा मा पढ़यां लिख्याँ लोग बी औणअ  छन अर लोगु कि मानसिकता मा बदलाव औणु छ. वे टैम बटी कुमोनी मा भोत्त फरक ऐगी .लोग अपड़ी भाषा तैं अपनौणा छन. बिचारों मा बी काफी फैलावा दिखेनु छ. समाजमा जाग्रति औणी छ.कुमोनीमा आज सब्बि बिधोंमा लेखन होणु छ.कविता ,कहानी,उपन्यास अर हौरि  बिधाओं मा पिछ्ल्या कुछ बरस बटी कत्गाई लोग काम कन्ना छन.लोकभासों का वास्ता या भोत्त अछि बात अर सुरुवात छ.
 
 

सवाल  ... पुराणा  दौर का मुकाबला आज आपतै  क्या फरक नजर औणु छ?

जवाब...  हाँ..फरक साफ़ दिखेणु छ.आज साहित्य  -लेखनमा तेजी ऐगी. लोकभासामा आज डिग्रीधारी लोग बी छन. इल्लै साहित्य को स्तर बी बढ़ीगे.पुराणी अर आजै कवितामा अंतर बी साफ़ दिखेणु छ.कंटेंट मा बी फरक दिखेणु छ.लेखनमा समाज कि चिंता साफ़ दिखेणी छ.
 
 

 

सवाल...कुमोनीमा बि  गढ़वाली कि तरों कत्गाई बोली छन,यांका  कारण भाषा का मानकीकरण को झगडा वख बी छ,आप तै  क्या लगदो कि कुमोनी कें तरों से लिखीं  चयेणी छ?
 
जवाब...कुमोनीमा बी भोत्त बोली छन,इल्लै हमते एक मानक भाषा त बणोंण  हि पड़लि.फेर बी जादा से विद्वानु को  बोलण छ कि कुमोनी मा ख़ास प्राज्य( अल्मोड़ा का आस पास ) कि भाषा  हि कुमोनी भाषा को अच्छो प्रतिनिधित्व  करदी,या कुमों कि सबसे सौंगी भाषा छ अर पूरो कुमों ईं भाषा तै अच्छा ढंग से समझी सकदा.
 
 

सवाल...शेरदा प्रदेश मा लोक्भासों का बिकास का वास्ता सरकार कि क्या भूमिका होंण  चयेणी छ?

जवाब... प्रदेशमा गढ़वालि अर कुमोनी का विकास  का वास्ता सरकार तै अगव़ाड़ी  औंण चयेणु छ.अब तक सरकारन  याँ खुण कुछ नी करि. हमारा मुख्यमंत्री अफु साहित्यकार बी छन. वूँसे उम्मीद छ कि जरुर कुछ करला. उत्तराखंड भाषा संस्थान अब लोकभाषाओं का वास्ता काम कनु छ. या हमारा लोक कलाकारों अर लोक भाषा प्रेम्युं तैं एक शुभसंकेत छ.
 
 

सवाल...आपतैं नी लगदो कि संस्कृत अर हिंदी अकादमी कि तरों प्रदेशमा बी एक लोकभासा अकादमी होंण चयेणी छ?

जवाब... लोकभासों पर तबी काम अगव़ाड़ी  बढ़ी सक्दो जब प्रदेशम बी लोकभासा अकादमी को गठन करे जालो.सरकार तैं याँपर जल्दी कारवाई कन चयेणी छ.
 
 

 

वीरेन्द्र पंवार (उत्तराखंड खबर सार १ जून २०११) : पौड़ी



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ललित केशवान  दगड़s वीरेन्द्र पंवार की लिखाभेंट

 

(ललित केशवाण गढ़वाळी काब्य जगत कि इन्नी हस्ती छन जौंन गढ़वाळी कवितामा हास्य -ब्यंग को इनो रल़ो-मिसो करि बल  गढ़वाळी कवितामा ललित केशवान एक बिगळि/  अलग पछ्याण बण गेनी. अबारी ये दौरमा वु गढ़वाळी का यकुला इन्ना कव्युं मधे  छन जौंन गढ़वाळी कि तीन साख्युं /पीढ़ी  का लिख्वारू दगडा कविता का अनुभव साझा करनी .पैलि पीडीमा अबोध बन्धु  बहुगुणा, कन्हयालाल डंडरियालजी,दुसरिमा नेत्रसिंह असवाल,नरेन्द्र सिंह नेगी  अर तिसरि  साखी मा गणेश खुग्साल,वीरेन्द्र पंवार. नयी साखी . नवाडी साखी   तै वूंसे   भोत कुछ सिखणो  मिली . श्री केशवान गढ़वाली कविता मंचू का लोकप्रिय कव्युं मधे छन.गढ़वाळी काव्यमा द्वि-अर्थ वल़ा(double meaning) शब्दु कि पवाण कखि न कखि केशवान जीन हि लगाई.

                            अबी तक वूंका खिल्दा फूल हंसदा पात,दिख्याँ दिन तप्यां घाम, दिवा व्हेजा दैणी, सब मिलिकी रौला हम  ( सब्बि काव्य), हरी हिंदवाण,गंगू रमोला  ( नाटक ),जय बद्री नारेण( पांच एकांकी )प्रकाशित व्हेगेनी .यांका अलावा वूंकी भोत पुस्तक हिंदी मा प्रकाशित छन. ) 

 

वीरेंद्र पंवार ... आप तै मुंबई मा अर्जुन सिंह गुसाईं पुरस्कार मिलण पर भौत भौत  बधाई.अबारी कनु चिताणा छाँ ?

 ललित केशवान - भलो लगणु च अर वा बि अर्जुन सिंग जी क कर्मस्थली मा पुरूस्कार मिलणो च. यो मेरो सौभ्याग्य च. 

वी.पं  -.आपन गढ़वाळी काव्यमा हास्य-ब्यंग कि ज्व़ा बिजवाड़ बूति,ईं बिजवाडै बिजवाड़-डाळी आपतै कख बटी  अर कैका सगोड़ा  बटी  मिलि ?

ल.के.--इन च बल बाळा  पन से मेरो रुझान गीत, संगीत, स्वान्गु म ह्वे गे छौ याने कि परबिर्ति को हिसाबन  काव्य को तरफ झुकाव छयो. मीन बारा साल मा अभिमन्यु स्वांग मा  उत्तरा को पाठ ख्याल जैमा उत्तरा पाठ मा एक  गाणा छयो अर मीन गाणा गाई छौ.

   याने कि कवित्व मेरो सुभाव मा छौ . जख   तख हंसणो अर हंसोड्या बाण को सवाल च मी छ्वट s  बिटेन  अपण गौंका  जुपुलू भै क हंसोड्या प्रविरती से प्रभावित छौ. जुप्लू भै अपण दुःख ब्यथा तै बि हंसोड्या  भौण अर शब्दों मा गीत बणैक सुणै  देंदो छौ. वां से मी पर लोगूँ दगड हंसोड्या भौण मा बचळयाणो  या हंसोण्या शब्दों इस्तेमाल करणो  ढब पोड़ी गे. ट मी माणदो छौं हंसी जुप्लू डा कि मेहरबानी च.

               जख तलक गढ़वळी मा हंसोड्या, चखन्योर्या , चबोड्या  साहित्य या गढवळी साहित्य को सवाल च मी कन्हैयालाल डंडरियाल जी से प्रभावित हों. एक कवि सम्मेलन मा जब मीन पाई कि सुणदरा डंडरियाल जी कि कविता क बाद ' वन्स मोर '

बुलणा रैन त मी ऊंको भक्त सि ह्व़े गेऊं.   

वी.पं  ...प्रवासमा अपड़ा मुल्क पर क्वी बी रचना कनु कतगा सोंगु  या असौंग  होंदु ?

  ल'के.-'  म्यरो हिसाब से प्रवास मा अपण मुलक पर रचना करण सौंग च .

वी.पं- ...परदेश्मा जब अपड़ा ओर- पोर क्वीबी अपड़ी भाषामा  बोल्दु बच्यान्दो नि  ,तब कनु लाग्दो?

ल.के.-- जब क्वी बि अपणि बोली, भाषा मा नि बच्याळो  त जिकुड़ी झुरदि  च 

वी. पं . प्रवासमा बल अपड़ा  'मुल्कै खुद' लेखक तै लिखोणो बान प्रेरित करदी  ,आप क्या बोल्दा?

ल.के.- आप सोळ आना  सच बुलणा छन.

वी.पं ...आपा समै का कव्युंमा केवल डंडरियालजी हि हास्य लिखदा छा,आपै कवितोंमा ब्यंग कि ज्व़ा धार छ, आप क्या समजदन वे दौरमा पड़दारा -सुणदरोंन कत्गा पसंद करनी ?

 ल.के. -जख तलक हंसोण्या, चबोड्या कवितों  सवाल च डंडरियाल जुग या ये समौ मा डंडरियाल जी, जया नन्द खुगसाल 'बौळया', अबोध जी, कंकाल जी , प्रेम लाल भट्ट अर मी सौब हंसोड्या, चखन्योर्या कविता बि रचदा  छ्या. फिर सिंग सतसई, न्रिमोही जीक हिलांस मा बि चरचरा  -बरबरा व्यंग्यात्मक कविता छन हाँ !  बात जग जाहिर च कि डंडरियाल जी  हंसोण्या, चबोड्या कवितों  सिरमौर छ्या.

आपक दुसरो  सवाल को जबाब च -  जब गींतुं/काव्य थौळु  मतबल  काव्य समेलनो मा  सुणदेर मेरा च्बोड्या/व्यंग्यात्मक कवतौं पर ताळी बजान्दा छाया त यांको सीधो अर्थ च बल सुणदेर अर बंचनेर मेरो चाबोड्या, चखन्योर्या  कवितौं तै खूब पसंद करदा छ्या. आज बि जवान पीढ़ी का सुणदेर मेरी कवितौं  पर खूब  ताळी बजान्दन अर याँ से मी इथगा सालुं से यीं विधा म जम्यूं छौं.असला मा मी माणदो बल हमर  गढ़वळी लोकुं/ सुणदेरूं  की  चबोड़ या व्यंग्य समजणै समज साहित्यकारों से जादा च .   

वी.पं. ... आप इन्ना भगयान( honourable) कवि छाँ कि आपन गढ़वाळी काव्य  कि तीन प्रतिनिधि पीड़यूँ दगडा काव्य-सृजन को मौका पाए,कनु लगणू छ ?   

 ल.के.-  जी, जी  नागरजा, नरसिंग , भैरों अर पितरूं आशीर्वाद  च कि मी तै गढ़वाळी साहित्यकारूं तीन साखी दिखणो सौभाग्य मील. 

वी.पं - ...आप तै अज्काल अर अबोध जी का समौ  रचनो मा कथगा  भेद/फरक मैसुस होंदो?

ल.के. - यू भौत बड़ो जटिल सवाल च अर लम्बो उत्तर होलू .

जख तलक शहर अर गाँवूं का भेद छौ आज गढ़वळी मा गांवू मा या पौड़ी जन कसबौं  मा डिल्ली जन शहरूं  से जादा कवि छन अर यी गाँव या कस्बों कवि  विषय को हिसाब से नयापन लाणा इ छन.

आज का कवि जादा पढया  लिख्यां  अर नया नया माध्यमों से रूबरू छन त ऊंको ज्ञान मा पैलो बनिस्पत भौत फ़रक च अर याँ से  कविता मा फरक दिख्यांद च. जानानी कवित्री  आज समुचित ना सै  पण आण इ बिसे गेन  याँ से बि बदलाव आन्द.

काव्य भाषा संरचना मा -व्याकरणीय, शैल्पिक संरचना अर आंतरिक संरचना मा भारी बदलौ दिखे सक्यांद . विशेषणों क  प्रयोग मा भारी बदलाव ऐ गे . आज का कवि क्या सबि साहित्यकार  गढवाळी क कारक छोडिक हिंदी का नजीक  चली गेन. खासकर अब साहित्यकारुन हिंदी का  कारकों तै पूरी तरां से अंगीकार  इ कौरी याल. जन कर्म कारक , सम्प्रदान समंध कारको आज फरक च

अलंकारों या प्रतीकुं मा नया प्रयोग दिखया णा छन जन हम पैल 'चिलंग' प्रयोग करदा छ्या त आजौ  मदन डुक्लाण हवाई जाज प्रयोग करद दिख्यांद. इनी अंगरेजी का शब्द भौत इस्तेमाल होणा छन. अर यांसे बिम्ब मा भी बदलाव च .

असलियत वाद को तरफ झुकाव च आज.

आज परम्परित , शाश्त्रीय लय मा कमी ऐ गे अर गढवळी कवतौं मा मुक्त लय को फवारा छूटणा छन.

विरोधाभास अर विडम्बना मा बि आज नया प्रयोग होणा छन.

 

वी. पं .....आपै नजर मा पूरण पंत, नेत्रसिंह असवाल , जी कि पीड़ी  कि कविता अर हमारा(वीरेन्द्र पंवार ) दौर तक कवितामा कुछ फर्क आये कि जान्यो-तन्नी छ?

ल.के. आपौ जबाब मीन पैलि दे आल.हाँ आजै पीढ़ी का कवि जन आप  , मधु सुदन थपलियाल, शान्ति प्रकाश जिज्ञासु, हरीश जुयाल, जयपाल रावत या बिलकुल नवाडी  कवि गीतेश नेगी पूरण पंत , असवाल या हमारी पीढ़ी क काम तै अग्वाड़ी बढ़ाणा चं वां

मधुसुदन थपलियाल जी को  गजल तै अंगीकार करण मा, गणेश 'गणी' अर आपक हाइकु कवितौं क रचना करण, हरीश  जुयाल को जागर शैली को आधुनिकीकरण या अंग्रेजी शब्दों तै गढवळी मा लाण , जयपाल रावत को छिपड़ जन कीड़ो या जानवरो तैं प्रतीक बणांण.  शान्ति प्रकाश जिज्ञासु कि छ्वटि छ्वटि  कविता, मदन डुकलाण  को नया बिम्ब पैदा करण,  वीणा बेंजवाल अर नीता कुकरेती क नयो ब्युंत मा  प्रकृत वर्णन, चिन्मय सायर को दर्शन तै नै जामा पैनाण  गीतेश नेगी को विश्व प्रसिद्ध कवियूँ कवितौं  गढवळी मा अनुवाद करण   jani बात दर्शांदी  बल हर जुग मा कवि अपण हिसाब से विकाश करणो         

वी.पं.  .....तबारी अर अबारी  का काव्यम हास्य-ब्यंग मा कत्गा फरक आये ?

 ल.के. भौत फ़रक च. आज विडम्बना अर विसंगती, अनाचार , अत्याचार , भ्रष्टाचार, कि खबर  जादा मिल्दन या यि विसंगती बढना छन त व्यंग्य या हौंस का साहित्य मा संख्यात्मक अर गुणात्मक रूप मा बि बढ़ोतरी होणि च

वी.पं ... आपा दौरमा कव्युंमा एक बनी सामाजिक झिजक रैंदी छाई बल  कि इन्नु नि लिखणो , तन्न  नि लिखणो,सची बात  छ?

 ल.के.- ना इन बात नी च.  हाँ वै बगतां  गां गौळ (समाज) मा साहित्य मा स्व अनुशाशन जादा छौ. 

वी.पं .. देशकाल का हिसाब से आपो समै अच्छो छौ कि अबारी को ?
 
 ल.के.- प्रगति क दगड दगड समस्या बढ़णि छन अर  जटिल होणा छन.  आज हमारो गढ़वळी साहित्य जादा समृधी क तर्फां  ढळक्याणो च. जनि जनि समाज /गाँ गौळ मा संकट बढ़णो च या समस्या जटिल हुणा छन तनि तनि गढ़वळी साहित्य मा एक्श्क्लूजिव साहित्य याने  हरेक विधा मा विकास हुणो च .
 
वी.पं ...गढ़वाळी काव्यमा द्वि अर्थ वाल़ा शब्द आपै रचनो बटी मिल्दन , यांकी प्रेरणा आपतै कख बटी मिली ?

 ल.के. मी समजदु  बल या शैली हमारो गाँ गौळ मा परम्परागत इ च .मोती ढांगू लोक गीत तै आप क्या नाम देल्या?

वी.पं....अबारी का लिख्वारूमा आप अपणि जनि रचनो कि अन्वार कौ - कौं  लिख्वारै रचनो मा देखदान ?

 ल.के.-थ्वडा थ्वडा मेरी स्टाइल की लौंस त सबि चबोड्या कवियों मा च.

वी.पं- ... आपै नजर मा अबारी का कु लिखवार अच्छो लिखणा छन ?

ल.के. चिन्मय सायर, मदन डुकलाण, हरीश जुयाल, गेतेश नेगी, वीरेंद्र पंवार, त्रिभुवन उनियाल, विमल नेगी, नरेंद्र सिंग नेगी, नरेंद्र कठैत,   शांति प्रकाश, पाराशर  गौड़, शैलेन्द्र रावत, प्रकश मणि धष्माना, वीना बेंजवाल, नीता कुकरेती, वीना कंडारी,भीष्म कुकरेती, प्रीतम अप्छ्याण , डा ढौंडियाल, पूरण पन्त , दिनेश ध्यानी, ब्रजेन्द्र नेगी, बालेन्दु बडोला, ओम प्रकाश सेमवाल, , देवेश जोशी,  कुंजविहारी मुडेपी, नीलाम्बर, आदि खूब लिखणा छन.   
 
वी.पं ....गढ़वाळी काव्यमा हास्य -ब्यंग कि कत्गा संभावना छन ?

 जथगा जादा विसंगति वळा  परिवर्तन तथ्गा जादा संभावना

वी.पं..... अबारी का गढ़वाळी काव्य -लेखन से आप कतगा संतुस्ट छन?
 
ल.के. आज हरेक विधा इख तक कि समीक्षा कि किताब छपेणि छन ट बोली सक्यांद कि गढवळी कविता विकास की सीढ़ी चढ़णि च

वी.पं. .....नया प्रवासी कवि गढ़वाळी कविता का निब्त कत्गा गंभीर छन? 

ल.के.- यि लोग शिल्प मा जादा ध्यान दीणा छन .

वी.पं ...... आपै नजरमा गढ़वाळी कविता को भविष्य क्या छ?

ल.के. -गढ़वाळी कविता को भविष्य उज्वल च अर अब कुछ बि ह्वाओ उत्तराखंड संस्कृति विभाग या भाषा संस्थान  कुछ ना कुछ कंळदारी  मिळवाक दीणा छन त प्रकाशन मा ब्रिधि   होली इ


वी.पं ..... अर गढ़वाळी भाषा  को भवेस्य क्या छ?

ल.क. गढ़वाळी भाषा को भविष्य विकास्नुमुखी इ च मि माणदो जब लोक सभा मा छ्वीं लगणि च त माने सक्यांद यीं भाषा का समर्थक भौत छन .

 

 

वीरेन्द्र पंवार

lमुंबई मा ललित केशवान तै अर्जुनसिंह गुसाईं पुरस्कार मिलण पर (27 मई 2012)


Bhishma Kukreti

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वीरेन्द्र पंवार की गंजेळी कविता (गजल)



[गढवाली गजल, उत्तराखंडी भाषाई गजल, मध्य हिमालयी गजल, हिमालयी गजल, उत्तर भारतीय क्षेत्रीय भाषाई गजल , भारतीय क्षेत्रीय भाषाई गजल , दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय भाषाई गजल , एशियाई क्षेत्रीय भाषाई गजल , लेखमाला ]



क्वी हाल नी दिखेणा चुचौं कुछ करा

पौड़ छन  पिछेणा चुचौं कुछ करा



नांगो छौ त नंगी ही रेगी नांग

तिमला छन खत्येणा चुचौं कुछ करा



अज्युं तलक बी मैर कखी त बांग देंद

कखि नि ऐ बियेण्या चुचौं कुछ करा



छाडिकी फटगीक  बीं बुखो इ पै

चौंळ छन बुस्येणा चुचौं कुछ करा



रड़दा  पौड़ टुटदा डांडौ   देख्यकी

ढुंगा छन खुदेणा चुचौं कुछ करा



द्व्वता सब्बि पोड्या छन बौंहड़

झणि कब होला दैणा चुचौं कुछ करा



Copyright@ Virendra Panwar, Paudi, 10/7/2012

गढवाली गजल, उत्तराखंडी भाषाई गजल, मध्य हिमालयी गजल, हिमालयी गजल, उत्तर भारतीय क्षेत्रीय भाषाई गजल , भारतीय क्षेत्रीय भाषाई गजल , दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय भाषाई गजल , एशियाई क्षेत्रीय भाषाई गजल , लेखमाला जारी 

Bhishma Kukreti

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वीरेन्द्र पंवार का कुछ गढ़वळि दोहा


यखुली रैगिन गाणि - स्याणि बूड बुड्या लाचार

गौं से इत्गा इ रिश्ता रै गे छंचर अर ऐतवार

***

मयाळदु ऐ छौ शहर जनै मंख्यात का संग

चार दिनों का मेल मा रंगगे शहर का रंग

**

सिकासौर्यून फौंस्यूंमा उलटा ह्व़ेगेनि काम

भाषा बूड़ी दादी सि कूणा मा ह्यराम

**

गबदू दादा सोचणु च होणु छ तैयार

परधानी को मौक़ा मिलु ह्वेजा नया पार

Copyright@  Virendra Ppanwar , Pauri

 

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