कविता संग्रह >> भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं
| | | | | | | | | | | | भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं | << | | खरीदें | | | हरीशचन्द्र पाण्डे | << | | | आपका कार्ट | पृष्ठ | : | 116 | << | | | अपने मित्रों को बताएँ | मूल्य | : | $ 6.95 | प्रकाशक | : | भारतीय ज्ञानपीठ | आईएसबीएन | : | 81-263-1228-9 | प्रकाशित | : | | | मई २७, २००६ | पुस्तक क्रं | : | | | 2008 | मुखपृष्ठ | : | | | सजिल्द |
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सारांश: प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं। हिन्दी के यशस्वी कवि हरीशचन्द्र पाण्डे का तीसरा कविता-संग्रह है। उनका एक अन्य कविता-संग्रह एक बुरूँश कहीं खिलता है, काफी चर्चित हुआ।
हरीशचन्द्र पाण्डे जी की कविता का विषय सामान्य होता है लेकिन उसका ढाँचा एक नयी अनुभव-निर्मित लेकर आता है जिससे हमें एक नये प्रकार का आस्वाद मिलता है। वहाँ बाहर की चमक हो या न हो, भीतर की मलिनता को माँजकर उसमें चमक लाने की मेहनत स्पष्ट देखी जा सकती हैं। उसके भीतर का कमरा सिर्फ कमरा नहीं रह जाता,वह पाठक का आत्मीय बन जाता है,सदा का संगी-
जो भी जाएगा घर से बाहर कभी कहीं भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा।
भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं का कवि घटनाओं और स्थितियो को बनाता नहीं,उन्हें सिर्फ दिखाता है,उनका कुछ इस तरह शब्द संयोजन करता है कि नया अर्थ फूटे। साथ ही,उन विसंगतियों की ओर इंगित करता है, जिनका बोध सामान्यतः हमें नहीं होता। वह एक सह्रदय पाठक को उस बोध की पीड़ा देकर कविता से उपजा एक नया आस्वाद देता है,काव्यगत रसानुभूति कराता है।
हरीशचन्द्र पाण्डे की ये कविताएँ सौन्दर्य बोध के विवादी स्वर भी उभारती हैं। वहाँ वे खुरदुरेपन के साथ साथ खूबसूरत मानवीय भावबोध भी पैदा करती हैं।
आशा है,पाठक को इन कविताओं में रसानुभूति के नये बिम्ब प्रतिबिम्ब मिलेंगे।
एक दिन में दन्त्य ‘स’ को दाँतों का सहारा
जितने सघन होते दाँत
उतना ही साफ़ उच्चरित होगा ‘स’
दाँत छितरे हो तो सीटी बजाने लगेगा
पहले पहल
किसी सघन दाँतों वाले मुख से ही फूटा होगा ‘स’
पर ज़रूरी नहीं
उसी ने दाख़िला भी दिलवाया हो वर्णमाला में ‘स’ को
सबसे अधिक चबाने वाला
ज़रूरी नहीं, सबसे अधिक सोटने वाला भी हो
यह भी हो सकता है
असमय दन्तविहीन हो गये
या आड़े-तिरछे दाँतों वाले ने ही दिया हो वर्णमाला को ‘स’
अभाव न ही दिया हो भाव
क्या पता किसी काट ली गयी जुबान ने दिया हो ‘ल’
अचूमे होठों ने दिया हो ‘प’
प्यासे कण्ठ ने दिया हो ‘क’
क्या पता अभवों के व्योंम से ही बनी हों
सारी भाषाओं की वर्णमालाएँ
और एक दिन में ही नहीं बन होगी कोई भी वर्णमाला...
ध्वनि शुरू हो इस यात्रा में
वर्णमाला तक
आये होगें कितने पड़ाव
कितना समय लगा होगा
कितने लोग लगे होगें !
दिये होंगे कुछ शब्द जंगलों ने कुछ घाटियों ने
कुछ बहाव ने दिये होंगे कुछ बाँधों ने
कुछ भीड़ के एकान्त ने दिये होंगे
कुछ धूप में खड़े पेड़ों की छाँव ने
कुछ आये होंगे अपने ही अन्तरतम से
और कुछ सूखे कुओं की तलहटी से
कुछ पैदाइशी किलकारी ने दिये होंगे
कुछ मरणान्तक पीड़ा ने
सुनी गयी होंगी ये सारी ध्वनियाँ सारी आवाज़ें
सुनने वाला ही तो बोला करता है
पहली बार बोलने से पूर्व
जाने कितने दिनों तक
कितने लोगों को सुनता है एक बच्चा
जाने कितने लोग रहे होगें
कितने दिनों तक
शब्दों को सुनने ही से वंचित
न सुनने ने भी दिये होगें कितने-कितने शब्द
एक दिन में नहीं बन गये अक्षर
एक दिन में नहीं बन गयी वर्णमाला
एक दिन में नहीं बन गयी भाषा
एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक
लेकिन
एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय
(Source -
www.pustak.org )