Author Topic: Harish Chandra Pandey's Poem- हरीश चन्द्र पाण्डेय की कविताये एव कृतिया  (Read 7484 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

Dosto,

Uttarakhand soil has produced several reputed Poets, Literate etc time to time like Sumitra Nandan Pant, Himanshu Joshi, Manohar Shyam Joshi, Shekhar Joshi, Shailesh Matiyani, Shivani Gaura Pant, Kunwar Chandra Barthwal, Shiva Nand Nautiyal etc etc.

In this series, we are sharing here information about Harish Chandra Pandey ji who born in Almora District of Uttarkahand.

Introduction



 Browse: Home / हरीश चन्द्र पाण्डे हरीश चन्द्र पाण्डे हरीश चन्द्र पाण्डे (Harish Chandra Pandey)
(माताः श्रीमती मुन्नी देवी पाण्डे, पिताः श्री जगन्नाथ पाण्डे)
जन्मतिथि : 28 दिसम्बर 1952
जन्म स्थान : सदीगांव
पैतृक गाँव : बयेला
जिला : अल्मोड़ा
वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : 4 पुत्रियाँ
शिक्षा : एम.काम.
प्राथमिक शिक्षा- प्राइमरी पाठशाला, महाकालेश्वर (अल्मोड़ा)
मिडिल- जूनियर हाईस्कूल, महाकालेश्वर
हाईस्कूल- मिशन इण्टर कालेज, द्वाराहाट
इंटर- रा.इ.का. पिथौरागढ़
बी.काम./एम.काम.- कानपुर विश्वविद्यालय
जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ः इलाहाबाद में पाए उस साहित्यिक परिवेश को मैं महत्वपूर्ण मोड़ मानता हूँ जिसने मनुष्य के प्रति मेरी आस्था को प्रगाढ़ता दी और उसे अभिव्यक्ति देने की रचनात्मक प्रेरणा भी।
प्रमुख उपलब्धियाँ : ‘एक बुरूंश कहीं खिलता है’ (कविता संग्रह) तथा ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’ (कविता-पुस्तिका) प्रकाशित। एक बाल-कथा संग्रह भी प्रकाशित। कविता संग्रह ‘कल की तारीख’ में प्रकाशनाधीन परिमल सम्मान योजना के अंतर्गत कविता हेतु वर्ष 1995 का सोमदत्त सम्मान प्राप्त। कविताओं के अनुवाद कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित। कुछ कहानियां भी प्रकाशित। वर्ष 2001 में केदार सम्मान मिला, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का सृजन पुरस्कार।
युवाओं के नाम संदेशः कामना है यह राज्य राजनीति की भी गंगोत्री हो। इसे माफियों की नजर न लगे। भ्रष्टाचारियों की नजर न लगे। इसकी प्रकृति और संस्कृति बची रहे।
विशेषज्ञता : साहित्य, सृजन।

(More details you can get from our another site http://www.apnauttarakhand.com/harish-chandra-pandey/)
M S Mehta




एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

Some of the Popular Books Written by Harish Chandra Pandey

  • भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • एक बुरुन्श कहीं खिलता है / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • किसान और आत्महत्या / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • गोधूलि / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • देवता / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • नाम / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • भाई-बहन / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • लय / हरीशचन्द्र पाण्डे
  • हिजड़े / हरीशचन्द्र पाण्डे

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0







गुल्लक[/color][/size]
 
 
 
 मिटटी का है
 हाथ से छूटा नहीं की
                             टूटा
 
 
 
 सबसे कमजोर निर्मिती है जो
 उसी के भीतर बसे हैं बच्चों के प्राण
 
 
 
 बच्चे जब दोनों हाथों के बीच ले कर बजाते हैं इसे
 तो पैसों भरा एक ग्लोब बजने लगता है
 
 
 
 कभी कभी मोर्चा हार रहे माँ बाप के सामने बच्चे
 इन्हें ले कर भामाशाह बन कर खड़े हो जाते हैं
 
 
 
 जब मदद के सारे श्रोत हाथ खडा कर देते हैं
 जब कर्ज का मतलब भद्दी गली हो जाता है
 अपने अपने गुल्लक लिए खड़े हो जाते हैं नन्हें
 जैसे दुनिया के सारे कर्ज इसी से पट जायेंगे
 
 
 
 ये वही गुल्लक हैं
 जिसमें पड़ते खड़े सिक्के की खनक सीधे उनकी आत्मा तक पहुंचती है
 जिन्हें नींद में भी हेरती रहती हैं उनकी अंगुलियाँ
 जिन्हें फूटना था भविष्य में गले तक भरा हुआ
 वही बच्चे निर्मम हो कर फ़ोड़ने लगे हैं इन्हें... ...
 
 
 और अब जब छंट गये हैं संकट के बादल
 वही चक्रवृद्धि निगाह से देखने लगे हैं माँ-बाप को
 मंद-मंद मुस्कराते
 
 
 किसी कुम्हार से पूछा जा सकता है
 इस वक्त कुल कितने गुल्लक होंगे देश भर में
 कितने चाक पर आकार ले रहे होंगे
 कितने आंवों पर तप रहे होंगे
 और कितनी मिटटी गुथी जा रही होगी उनके लिए
 
 
 
 पर जो चीज बनते-बनते फूटती भी रहती है
 उसकी संख्या का क्या हिसाब
 किसी स्टॉक एक्सचेंज में भी तो सूचीबद्ध नहीं हैं ये
 कि कोई दलाल उछल-उछल कर बताता इनके बढ़ते गिरते दाम
 
 
 
 मिटटी के हैं ये
 हाथ से छूटे नहीं कि
                             टूटे
 पर इतना तो कहा ही जा सकता है किसी कुम्हार के हवाले से
 दुनिया से मुखातिब हो कर
 कि ऐ दुनिया वालों
 भले ही कच्चे हों गुल्लक
 पर यह बात पक्की है
 जहाँ बचपन के पास छोटी-छोटी बचतों के संस्कार नहीं होंगे
 वहां की अर्थव्यवस्था चाहें जितनी वयस्क हो
 कभी भी भरभरा कर गिर सकती है.
 
 
 
 
किसान और आत्महत्या[/color]
 
 
 
 
 उन्हें धर्म गुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
 आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
 तब भी उन्होंने आत्महत्या की
 
 
 
 क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती
 
 
 
 वे क्यों करते आत्महत्या
 जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
 लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह प्रवाहमान थे
 उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें खिची चली आई थीं
 उनका आत्म तो कपास की तरह उज्जर था
 वे क्यों करते आत्महत्या
 
 
 
 वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह बरतते थे
 वे जड़ें थे फुनगियाँ नहीं
 अन्नदाता थे बिचौलिए नहीं
 उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपने संरक्षित ऊर्जा से थपथपाती थी
 उनके खेतों के नाक-नक्स उनके बच्चों की तरह थे
 वे क्यों करते आत्महत्या
 
 
 
 जो पितरों के ऋण तारने के लिए
 भाषा भूगोल के प्रायद्वीप नाप् डालते हैं
 अपने ही ऋणों के दलदल में फंस गए
 जो आरूणी की तरह शरीर को ही मेड बना लेते थे मिटटी में जीवन द्रव्य बचाने
 स्वयं खेत हो गए
 
 
 
 कितना आसान है आत्महत्या को हत्या कहना
 और दुर्नीति को नीति
 
 
 
 
 सम्पर्क -
 
 अ/114, गोविन्दपुर कालोनी
 इलाहाबाद २११००४
 उत्तर प्रदेश

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
नाम / हरीशचन्द्र पाण्डे चूँकि झाड़ी की ओट में नहीं छुपाई जा सकती थी आवाज़
 एक किलकारी उसका वहाँ होना बता ही गई
 
 झाड़ी न होती तो कोई नाला होता या ताल
 मिल ही जाता है ऎसे नवजातों को अपना कोई लहरतारा
 
 क्रंदन करते
 टुकुर-टुकुर ताकते
 और कभी निष्पंद...
 
 कयास ही लगाए जा सकते हैं ऎसे में केवल
 जैसे लगाए जते रहे हैं समय अनंत से
 अवैध आवेग की देन होगा
 कुँवारे मातॄत्व का फूल
 किसी अमावस पल में रख गया होगा कोई चुपचाप यहाँ
 
 होगा... होगा... होगा...
 
 जो होता कोई बड़ा तो पूछ लिया जाता
 कौन बिरादर हो भाई
 कौन गाँव जवार के
 कैसे पड़े हो यहाँ असहाय
 
 बता देती उसकी बोली-बानी कुछ
 कुछ केश बता देते कुछ पहनावा
 होने को तो त्वचा तक में मिल जाती है पहचान
 
 अब इस अबोध
 लुकमान!
 बचा लो यह चीख़...
 
 एक गोद में एक फल आ गिरा है
 एक गिरा फूल एक सूखी टहनी से जा लगा है।
 
 ०००
 
 चार-पाँच घंटे एक शिशु को
 दूध देने से पहले दे दिया गया है एक नाम
 
 नाम- जैसे कोई उर्वर बीज
 एक बीज को नम ज़मीन मिल गई है
 धँस रहा है वह
 अंकुरा रहा है वह
 
 इस नाम को सुनते-सुनते वह समझ जाएगा यह मेरे लिए है
 इस नाम को सुनते ही वह मुड़ पड़ेगा उधर
 जिधर से आवाज़ आ रही है
 
 अपने नाम के साथ एक बच्चा सयाना हो रहा है
 और सयाना होगा और समझदार
 इतना कि वह नफ़रत कर सकेगा दूसरे नामों से
 
 नाम को सुनकर
 आज उसने कई घर जलाए हैं
 नाम को सुनकर आज उसने कई घर छोड़ दिए हैं
 
 धुआँ है नाम
 वह आग तक पहुँच रहा है
 
 कोई है
 जो नाम के पीछे चौबीसों घंटे पगलाए इस आदमी को
 झाड़ी के पीछे के
 अनाम-अगोत्र पाँच घंटों की याद दिला दे...

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
कवि -हरीश चन्द्र पाण्डे[/size]
 संपर्क -09455623176

कविता

 
[/font][/color][/size]रेजगारी के सबसे बड़े
 
रोजगारी भिखारी होते हैं आज एक भिखारी ने कह दिया मुझसे नहीं लूँगा तुम्हें 'क्यों ?मैंने पूछा चवन्नी चलन से बाहर हुई है ,मैं नहीं पूछ लो चाहे रिजर्व बैंक से या वित्त सचिव से -भिखारी ने मुझे दूर फेंकते हुए कहा -भिखारी किसी सरकारी घोषणा से बंधे नहीं होते .......मैं अभी कुछ दिन पहले ही तो निकली थी टकसाल से छन्न से फर्श पर गिरी हूँ और फिर उछल कर नाली में यूँ एकाध बार हाथ से छूटकर फ़र्श पर पहले भी गिरी थी एक बार तो मोची के लौह सामदान पर भी पर इस बार लगा मेरी छनक में अब वह बात नहीं वैसे दाता हाथों से गिरने व भिखारी हाथों से गिरने में अंतर तो होता ही है -हालांकि कभी -कभी दाता हाथों से गिरने पर भी वही छनक होती है जो भिखारी हाथों से गिरने पर ऐसे में समझो दाता खुद एक भिखारी है अब क्या बताऊँ चवन्नी तुम थी तो हम भी थे तुम्हारे होने से ही था हमारा बड़प्पन तुम्हारे जाने से अब हम कूल के डगमगाते पत्थर हो गए जाओ चवन्नी !जाओ तुम हमेशा हमारे दिल में उछलती -कूदती और चमकती रहोगी वैसे तुम बहुत सही समय पर जा रही हो चवन्नी क्योंकि इधर लोगों के स्वाभिमान में भिखारीपन बढ़ता जा रहा है |

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
 कविता संग्रह >>  भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं
भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं
<<
खरीदें
हरीशचन्द्र पाण्डे
<<
आपका कार्ट
पृष्ठ: 116
<<
अपने मित्रों को बताएँ
मूल्य: $ 6.95 
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
आईएसबीएन: 81-263-1228-9
प्रकाशित: मई २७, २००६
पुस्तक क्रं:2008
मुखपृष्ठ:सजिल्द
सारांश:  प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश  भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं। हिन्दी के यशस्वी कवि हरीशचन्द्र पाण्डे का तीसरा कविता-संग्रह है। उनका एक अन्य कविता-संग्रह एक बुरूँश कहीं खिलता है, काफी चर्चित हुआ।
 हरीशचन्द्र पाण्डे जी की कविता का विषय सामान्य होता है लेकिन उसका ढाँचा एक नयी अनुभव-निर्मित लेकर आता है जिससे हमें एक नये प्रकार का आस्वाद मिलता है। वहाँ बाहर की चमक हो या न हो, भीतर की मलिनता को माँजकर उसमें चमक लाने की मेहनत स्पष्ट देखी जा सकती हैं। उसके भीतर का कमरा सिर्फ कमरा नहीं रह जाता,वह पाठक का आत्मीय बन जाता है,सदा का संगी-
 जो भी जाएगा घर से बाहर कभी कहीं भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा।
 भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं का कवि घटनाओं और स्थितियो को बनाता नहीं,उन्हें सिर्फ दिखाता है,उनका कुछ इस तरह शब्द संयोजन करता है कि नया अर्थ फूटे। साथ ही,उन विसंगतियों की ओर इंगित करता है, जिनका बोध सामान्यतः हमें नहीं होता। वह एक सह्रदय पाठक को उस बोध की पीड़ा देकर कविता से उपजा एक नया आस्वाद देता है,काव्यगत रसानुभूति कराता है।
 हरीशचन्द्र पाण्डे की ये कविताएँ सौन्दर्य बोध के विवादी स्वर भी उभारती हैं। वहाँ वे खुरदुरेपन के साथ साथ खूबसूरत मानवीय भावबोध भी पैदा करती हैं।
 आशा है,पाठक को इन कविताओं में रसानुभूति के नये बिम्ब प्रतिबिम्ब मिलेंगे।
   एक दिन में  दन्त्य ‘स’ को दाँतों का सहारा
 
 जितने सघन होते दाँत
 उतना ही साफ़ उच्चरित होगा ‘स’
 दाँत छितरे हो तो सीटी बजाने लगेगा
 
 पहले पहल
 किसी सघन दाँतों वाले मुख से ही फूटा होगा ‘स’
 पर ज़रूरी नहीं
 उसी ने दाख़िला भी दिलवाया हो वर्णमाला में ‘स’ को
 सबसे अधिक चबाने वाला
 ज़रूरी नहीं, सबसे अधिक सोटने वाला भी हो
 
 यह भी हो सकता है
 असमय दन्तविहीन हो गये
 या आड़े-तिरछे दाँतों वाले ने ही दिया हो वर्णमाला को ‘स’
 अभाव न ही दिया हो भाव
 
 क्या पता किसी काट ली गयी जुबान ने दिया हो ‘ल’
 अचूमे होठों ने दिया हो ‘प’
 प्यासे कण्ठ ने दिया हो ‘क’
 क्या पता अभवों के व्योंम से ही बनी हों
 सारी भाषाओं की वर्णमालाएँ
 और एक दिन में ही नहीं बन होगी कोई भी वर्णमाला...
 
 ध्वनि शुरू हो इस यात्रा में
 वर्णमाला तक
 आये होगें कितने पड़ाव
 कितना समय लगा होगा
 कितने लोग लगे होगें !
 
 दिये होंगे कुछ शब्द जंगलों ने कुछ घाटियों ने
 कुछ बहाव ने दिये होंगे कुछ बाँधों ने
 कुछ भीड़ के एकान्त ने दिये होंगे
 कुछ धूप में खड़े पेड़ों की छाँव ने
 कुछ आये होंगे अपने ही अन्तरतम से
 और कुछ सूखे कुओं की तलहटी से
 कुछ पैदाइशी किलकारी ने दिये होंगे
 कुछ मरणान्तक पीड़ा ने
 सुनी गयी होंगी ये सारी ध्वनियाँ सारी आवाज़ें
 सुनने वाला ही तो बोला करता है
 
 पहली बार बोलने से पूर्व
 जाने कितने दिनों तक
 कितने लोगों को सुनता है एक बच्चा
 जाने कितने लोग रहे होगें
 कितने दिनों तक
 शब्दों को सुनने ही से वंचित
 
 न सुनने ने भी दिये होगें कितने-कितने शब्द
 
 एक दिन में नहीं बन गये अक्षर
 एक दिन में नहीं बन गयी वर्णमाला
 एक दिन में नहीं बन गयी भाषा
 एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक
 
 लेकिन
 एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय

(Source - www.pustak.org )


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
 अख़बार पढ़ते हुए  ट्रक के नीचे आ गया एक आदमी
 वह अपने बायें चल रहा था
 एक लटका पाया गया कमरे के पंखे पर होटल में
 वह कहीं बाहर से आया था
 एक नहीं रहा बिजली का नंगा तार छू जाने से
 एक औरत नहीं रही अपने खेत में अपने को बचाते हुए
 एक नहीं रहा डकैतों से अपना घर बचाते हुए

 ये कल की तारीख़ में लोगों के मारे जाने के समाचार नहीं

 कल की तारीख़ में मेरे बच कर निकल जाने के समाचार हैं
   पानी  देह अपना समय लेती ही है
 निपटाने वाले चाहे जितनी जल्दी में हों

 भीतर का पानी लड़ रहा है बाहरी आग से

 घी जौ चन्दन आदि साथ दे रहे हैं आग का
 पानी देह का साथ दे रहा है

 यह वही पानी था जो अँजुरी में रखते ही

 ख़ुद-ब-ख़ुद छिर जाता था बूँद-बूँद

 यह देह की दीर्घ संगत का आन्तरिक सखा भाव था

 जो देर तक लड़ रहा था देह के पक्ष में

 बाहर नदियाँ हैं भीतर लहू है

 लेकिन केवल ढलान की तरफ भागता हुआ नहीं
 बाहर समुद्र है नमकीन
 भीतर आँखें हैं
 जहाँ गिरती नहीं नदियाँ, जहाँ से निकलती हैं

 अलग-अलग रूपाकारों में दौड़ रहा है पानी


 बाहर लाल-लाल सेब झूम रहे हैं बगीचों में


 गुलाब खिले हुए हैं

 कोपलों की खेपें फूटी हुई हैं
 वसन्त दिख रहा है पूरमपूर

 जो नहीं दिख रहा इन सबके पीछे का

 जड़ से शिराओं तक फैला हुआ है भीतर ही भीतर
 उसी में बह रहे हैं रंग रूप स्वाद आकार

 उसके न होने का मतलब ही

 पतझड़ है
 रेगिस्तान है
 उसी को सबसे किफ़ायती ढंग से बरतने का नाम हो सकता है
 व़ुजू

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
देवता / हरीशचन्द्र पाण्डे           

पहला पत्थर
 आदमी की उदरपूर्ति में उठा
 
 दूसरा पत्थर
 आदमी द्वारा आदमी के लिए उठा
 
 तीसरे पत्थर ने उठने से इन्कार कर दिया
 
 आदमी ने उसे
 देवता बना दिया

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
किसान और आत्महत्या / हरीशचन्द्र पाण्डे

उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
 आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
 तब भी उन्होंने आत्महत्या की
 
 क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
 
 वे क्यों करते आत्महत्या
 जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
 जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
 लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
 प्रवहमान थे
 उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
 खिंची चली आई थीं
 उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
 वे क्यों करते आत्महत्या
 
 वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
 बरतते थे
 वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
 अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
 उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
 ऊर्जा से थपथपाती थी
 उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
 
 वो पितरों का ऋण तारने के लिए
 भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
 अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
 वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
 मिट्टी का
 जीवन-द्रव्य बचाने
 स्वयं खेत हो गए
 
 कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
 और दुर्नीति को नीति।


(Source http://www.kavitakosh.org)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
गोधूलि / हरीशचन्द्र पाण्डे           

दुनिया की रंगत देख चुका वह युगल
 धीरे-धीरे चल रहा है
 
 गोधूलि बेला है
 
 मांसपेशियाँ पहले का आकार छोड़ चुकी हैं
 काले बाल रूई का आकार ले चुके हैं
 
 न चाल में त्वरा, न आवाज़ में वज़न
 वही बोल रहे हैं, वही सुन रहे हैं
 
 चक्की के दो पात हैं ये
 चलते-चलते थक गए अब
 अपने हिस्से का पूरा पिसान दे चुके हैं दुनिया को
 
 मोटे को महीन बनाया
 बहुत सुपाच्य
 
 दोनों चल रहे हैं,    हल्का-सा फ़ासला लिए
 लगातार घिसने के बाद जैसे पाट ले लेते हैं
 
 न लें,   तो टकरा जाएँ बार-बार
 
 बीच में छूट गई यह जगह
 वह गलियारा है
 जहाँ से हवा गुज़रती है
 
 और स्मृतियाँ भी...।
(Source -http://www.kavitakosh.org)

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22