Author Topic: Heart Touching Poems on Uttarakhand- पहाड़ पर लिखी गयी ये भाविक कविताये  (Read 18652 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

इस टोपिक में हम उत्तराखंड के पहाड़ जीवन पर लिखे गए विभिन्न कवियों की हृदय स्पर्शी कविताएं प्रस्तुत कर रहे है! कही न कही इन कविताओ में आपको पहाड़ का दुःख, जन समस्याए, पलायन की पीड़ी  आदि की झलक दिखने को मिलेगी! यह पहली कविता है विक्रम नेगी की !
 

  • आओ इस बार काफल खूब पके हैं,
     हिसालू-किलमोड़े,
     तुम्हारी राह देखे हैं,
     मिलम, पोंटिंग, दारमा, व्यास घाटियां,
     तुम्हारे क़दमों के निशां याद कर रही हैं,
     बहुत अरसा हो गया,
     तुम नहीं आये,
     हिमालय की बर्फ पिघलने लगी है
     
     रोज बच्चे आ जाते हैं,
     सडकों पर
     काफल बेचने के लिए,
     उन्हें एक लंबी सी कार का इंतज़ार है,
     रोडवेज की पुरानी बसें
     और धूल उड़ाती हुई जीपें देखकर वो बोर हो गए हैं,
     
     आओ
     पहाड़ आओ
     मैदानों की तपती गर्मी में तुम्हारा हाल बुरा होगा,
     पहाड़ एक वैश्या की तरह
     आज भी तुम्हें ठंडक देने के लिए बड़े-बड़े रिजोर्ट्स की बालकोनी से झांक रहा है,
     
     तुम्हारे आते ही,
     सब कुछ भूल जाता है पहाड़,
     अपना दर्द, अपनी चोटें, अपना दुःख,
     बस मुस्कुराके फोटो खिंचाने के लिए खड़ी हो जाती हैं,
     दूर जंगल से घास लाती हुई औरतों की टोली,
     
     आओ,
     पहाड़ आओ,
     इस गर्मी में तुम्हें राहत मिलेगी,
     हमेशा की तरह,
     इस बार भी तुम्हें पहाड़ मीठा ही लगेगा,
     ये पहाड़ का वादा है तुमसे...
     ......
     "बूँद"
     २२ मई २०१२
--------------

M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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देव भूमि बद्री-केदार नाथ देख कंण
 
 देख कंण जलणा
 धुं धुं  कै की पैटण छीण
 जंगलात म्यार  देवभुमी  का
 म्यारा  उत्तराखंड का
 
 कंण राख  होणा छीण
 वनसंपदा नस्ट होण छीण
 खेल  खेल्णु  को यख
 विपदा सैणु को यख
 जंगलात म्यार  देवभुमी  का
 म्यारा  उत्तराखंड का
 
 धोयेन्ड़ो धोयेन्ड़ो होंयुंच
 सरकार क्ख्क सीयंच
 बातणी ऐ बरसा की नेता दीदा
 हर बरसा ईणी पैटणु चा
 जंगलात म्यार  देवभुमी  का
 म्यारा  उत्तराखंड का
 
 देख मनखी दुःखणी
 व्यथा यकुली वा गणणी
 शरीर दगडी जलणाणी
 डाली मेरा गढ़देशा की
 जंगलात म्यार  देवभुमी  का
 म्यारा  उत्तराखंड का
 
 देख कंण जलणा
 धुं धुं  कै की पैटण छीण
 जंगलात म्यार  देवभुमी  का
 म्यारा  उत्तराखंड का
 
 बालकृष्ण डी ध्यानी
 देवभूमि बद्री-केदारनाथ
 मेरा ब्लोग्स
 http:// balkrishna_dhyani.blogspot.com

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु ‎"बादलों  की चादर ओढ़े"
 
 मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
 मन में मेरे प्यार जगे,
 देखता हूँ जब-जब,
 अपना प्यारा पहाड़,
 छुप जाते हैं कोहरे में,
 घर, जंगल और झाड़,
 मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
 बादलों  की चादर ओढ़े,
 अपना प्यारा पहाड़.....
 
 बादल गरजे घड़-घड़,
 चमके बिजली चम् चम्,
 बरखा हुई पर्वतों पर,
 भीग गए पर्वतजन,
 घर, जंगल और झाड़,
 मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
 बादलों  की चादर ओढ़े,
 अपना प्यारा पहाड़...
 
 बस्गाळ्या बरखा लाती,
 कोहरे को साथ,
 छुप जाता है गाँव प्यारा,
 कोहरे की ओट में,
 तब, ठिठुरते हैं हाथ,
 झूमते हैं पेड़ प्यारे,
 जंगल और झाड़,
 मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
 बादलों  की चादर ओढ़े,
 अपना प्यारा पहाड़...
 
  "कुयेड़ी की चादरी ओढि"
 
 मैकु प्यारा-प्यारा लग्दा,
 मन मा मेरा प्यार जग्दु,
 देख्दु छौं जब-जब,
 अपणु प्यारू पहाड़,
 लुकि जान्दा कुयेड़ा मा,
 घर, जंगळ अर झाड़,
 मैकु प्यारा-प्यारा लग्दा,
 कुयेड़ी की चादरी ओढ्याँ,
 अपणा प्यारा  पहाड़.....
 
 द्योरू गिगड़ान्दु घड़-घड़,
 बिजली चम्कदि चम् चम्,
 बरखा ह्वै पहाड़ फर,
 भिगिग्यन  मनखी सब्बि,
 घर, जंगळ अर झाड़,
 मैकु प्यारा-प्यारा लग्दा,
 कुयेड़ी की चादरी ओढ्याँ,
 अपणा प्यारा  पहाड़.....
 
 बरखा ल्ह्यौन्दि दगड़ा अपणा,
 स्या पापी कुयेड़ी,
 जैंका पिछनै छिपि जाँदा,
 हमारा प्यारा गौं,
 ठँड लग्दि हात खुट्यौं मा,
 झुम्दा छन डाळा बुटळा,
 जंगळ अर झाड़,
 कुयेड़ी की चादरी ओढ्याँ,
 अपणा प्यारा  पहाड़.....
 (रचियता एवं गढ़वाली रूपान्तरण कर्ता)
 -जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
 (सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २३.५.१२)
 लोकरंग फाऊन्डेशन को समर्पित
 E-mail: j_jayara@yahoo.com

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ijay Gaur ‎"उत्तराखंड"
 
 क्या कभी म्यरा भी दिन आला..
 सी दिन पैली भी गरीबी मा ही कटेनी,
 और आज भी कुछ नि बद्ल्ये I
 घुंडा पैली भी चिर्याँ ही रैंदा छाँ,
 आज भी थ्यगली थैं लारू नि ऐ I
 पैली बिराणों का बीच अपुथैं खुज्यांदु छौ,
 आज अपणो  मा भी पछ्याण नि रै I
 कभी क्वी इना फर्काणु कभी क्वी उना,
 फ़र्क्ये की भी कुछ हथ नि ऐ I
 कबी यू पी मा छऊ, फिर उत्तराँचल व्है ग्यों,
 अब उत्तराखंड व्है की बी क्या व्है I
 मी ता तब भी तिरस्कृत ही छौ,
 अलग हवे की बी कुछ बक्की नि व्है I
 फरक इथगा ऐ ग्ये की पैली बिराना लुटना छयाँ,
 अब अपनों मा होड़ मची ग्ये I
 मेरी  आज बी वी टक्क लगई चा ,
 क्या कभी म्यरा भी दिन आला..???
 
 विजय गौड़
 २२.०५.२०१२
 सर्वाधिकार सुरक्षित

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dinesh Nayal


थम चुकी है बारिश
 बस रह-रह कर गीली दीवारों से
 कुछ बूँदें टपक पड़ती है
 मैं अपनी छत पर जाकर
 देखता हूं पहाड़ों का सौंदर्य
 कितना खुशनसीब हूं मैं
 कि पहाड़ मेरे पास हैं
 
 मेरे घर के ठीक सामने के पहाड़ पर
 है बाबा नीलकंठ का डेरा
 इधर उत्तर में विराजमान हैं
 माता कुंजापुरी आशीष दे रहीं
 इनके चरणों मैं बैठा हूँ
 कितना खुशनसीब हूं मैं
 कि पहाड़ मेरे पास हैं
 
 बारिश के बाद अब धुलकर
 हरे-भरे हो गए हैं पहाड़
 सफ़ेद बादलों के छोटे-२ झुण्ड
 बैठ गए है इसके सर पर
 इस अप्रतिम सौंदर्य को निहारता हूँ
 कितना खुशनसीब हूं मैं
 कि पहाड़ मेरे पास हैं
 
 पहाड ने दिए हमें पेड़, पानी, नदियाँ, गदेरे
 ये रत्न-गर्भा और ठंडी बयार
 पर पहाड़ का पानी और जवानी
 दोनों ही बह गए इसके ढलानों पर
 मैं पहाड़ पर नहीं हूँ फिर भी
 कितना खुशनसीब हूं मैं
 कि पहाड़ मेरे पास हैं
 
 पहाड़ को कभी रात में देखा है
 हमारी संस्कृति का ये महान प्रतीक
 अँधेरे में सिसकता है, दरकता है
 पुकारता है आर्द्र स्वर में कि लौट आओ
 मैं पहाड़ पर लौट नहीं पा रहा हूँ पर
 कितना खुशनसीब हूं मैं
 कि पहाड़ मेरे पास हैं
 
 ये खुदेडा महीना उदास कर रहा है क्यों
 बादल ही तो बरसे हैं फिर
 भला आँखें मेरी नम हैं क्यों
 पहाड़ रो रहा है, हिचकी मुझे आती है क्यों
 मैं समझ नहीं पा रहा हूँ
 क्या वाकई खुशनसीब हूं मैं
 कि पहाड़ मेरे पास हैं
 
 नोट- इस कविता में पहाड़ों से युवाशक्ति के पलायन और पहाड़ का दर्द व्यक्त करने की ये मेरी एक कोशिश भर है|

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
‎"रोटी के जुगाड़ में"
 
 पहाड़  में भी रहता था,
 प्रवास में भी रहता हूँ,
 सुबह से शाम तक,
 नौकरी की आड़ में,
 उलझा उलझा रहता हूँ,
 उलझनों के झाड़ में,
 मिल जाये मुझे इतना,
 जीवन मेरा सुधर जाए,
 रहता हूँ ताड़ में,
 सोचता हूँ,
 प्रवास से खाली हाथ,
 क्या बुढ़ापा लेकर जाऊंगा,
 अपने प्यारे पहाड़ में,
 कहता है पहाड़ मुझे,
 कब तक रहेगा,
 हे ! कवि  "जिज्ञासु" तू,
 मुझ से दूर दूर,
 नहीं निहारेगा सौंदर्य मेरा,
 लिखता ही रहेगा,
 कविताएँ मुझ पर,
 और उलझा ही रहेगा,
 "रोटी के जुगाड़ में"...
 कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु",
 (सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २२.५.१२)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्रस्तुतकर्ता प्रभात सेमवाल ( prabhat semwal )

  क्या त्वेन भि कभि कैकू इंतजार कै
   क्या त्वेन  भि  कभि  कैकू इंतजार कै

   क्या  त्वेन  भि  कभि  कैसी  प्यार  कै

   कै त जाणी सकदी तू मेरा मनका हाल

  नि  करी   त  न  पूछ  तू  मै और सवाल .


  क्या कैका आंसूमा त्वे पीड़ा आपडी दिखे

  क्या कैकी पीड़ामा तेरी अंख्यों  आंसू   ऐ

  आई त जाणी सकदी तू मेरा मनका हाल

  अगर नि आई तू न पूछ तू मै और सवाल ,,,

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सुमित्रानंदन पन्त की कविता : पहाड़ मा बस्गाळ   (गढ़वाली अनुवाद )
 
                  जन्म दिवस पर प्रकृति के सुकुमार कवि को समर्पित ,गढ़वाली अनुदित उनकी एक रचना
 
                      अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी
 
 विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताएँ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का दक्षिण एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का भारतीय अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का उत्तर भारतीय अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का हिमालयी अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का मध्य हिमालयी अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का गढ़वाली अनुवादक का अनुवाद ;
 
 -- पर्वत प्रदेश में पावस
 
 पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
 पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
 
 मेखलाकर पर्वत अपार
 अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
  अवलोक रहा है बार-बार
 नीचे जल में निज महाकार,
 
 -जिसके चरणों में पला ताल
 दर्पण सा फैला है विशाल!
 
 गिरि का गौरव गाकर झर-झर
 मद में लनस-नस उत्‍तेजित कर
 मोती की लडि़यों सी सुन्‍दर
  झरते हैं झाग भरे निर्झर!
 
 गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
 उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
 है झॉंक रहे नीरव नभ पर
 अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।
 
 उड़ गया, अचानक लो, भूधर
 फड़का अपार वारिद के पर!
  रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
 है टूट पड़ा भू पर अंबर!
 
 धँस गए धरा में सभय शाल!
 उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
 -यों जलद-यान में विचर-विचर
 था इंद्र खेलता इंद्रजाल
 
 ( सुमित्रानंदन पन्त )
 
 पाsडु (पहाड़) मा बस्गाळ
 
 (गढ़वाली अनुवाद )
 
 बस्गल्या मैना छाई ,छाई पहाड़ी देश
 सर सर बदलणी छाई प्रकृति अप्डू भेष !
 
 
 करद्वडी जन्न पहाड़ चौदिश
 फूलूं सी आंखियुं थेय खोलिक अप्डी हज़ार
 देख्णु छाई भन्या बगत बगत
 पाणि मा अप्डू बडू अकार
 
 जैका खुट्टौं मा सैन्त्युं च ताल
 दर्पण सी फैल्युं चा विशाल
 
 गैकी गीत गिरि गौरवऽका
 कैरिक नशा मा उत्तेजित नस नस
 मोतीयुं क़ि माला सी सुन्दर
 खतैणा छीं गाज भोरिक छंछडा झर झर
 
 उठ उठिक छातीम पहाड़ऽक
 डाली लम्बी लम्बी जन्न आशऽक
  झकणा छीं शांत असमान फर
 अन्ध्यरु ,अटल ,कुछ चिंता फर |
 
 उडी ग्याई ,ल्यावा अचाणचक्क ,पहाड़
 फड्डकीं जब पंखुडा बड़ा बड़ा बादल
 सन्न रै ग्यीं छंछडा फिर
 सरग चिपट ग्याई धरती फर जब !
 
 धसिक ग्याई धरती मा डैरिक सान्दण
  उठणु च धुऑं ,हल्ये ग्याई दयाखा ताल
 सलका डबका दगड बदलौं का
 इंद्र खेल्दु छाई अप्डू इंद्र जाळ |
 
 ( गढ़वाली अनुवाद : गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित )
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' क्या चैदुं त्वे हे पहाड़
 
 पहाडु तैं विकाश चैदुं
 जनता तैं हिसाब चैदुं
 इन मरियुं यूँ नेताऊ कु
 युं दलालु तैं ताज चैदुं
 ठेकादारी युंकी खूब चलदी
 रुपयों पर युं तै ब्याज चैदुं
 गरीबु तै गास चैदुं
 बेरोज्गारू तै आस चैदुं
 गोरु बाखरों तै घास चैदुं ........राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी'

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From :Awanish Dabral

चलो फिर एक कहानी लिख दे..
धुप मे हु मै कब से खड़ा...
वो आचल की छाव वो...
प्यारा गाना लिख दे.....
चलो फिर एक कहानी लिख दे...

जिससे सिखाया हँसना मुझको..
है काटों मे भी मुस्कराना मुझको..
चलो वही कुछ पल याद कर ले..
चलो फिर एक कहानी लिख दे...

हो अगर नाउम्मीदी का साया घना..
तू चला चल, उम्मीदों का लेकर दीया..
चलो फिर एक, दीया जला दे...
चलो फिर एक कहानी लिख दे....

सोचता हु तुझे आज ऐ "माँ"....
क्या कही मे फिर खो गया हु ??
जो दिए वो मोती तुने मुझको..
क्या उन्हें मे कही भूल गया हु ??

अब धुप मे हु मै कब से खड़ा...
वो आचल की छाव वो...
प्यारा गाना लिख दे.....
चलो फिर एक कहानी लिख दे...
..(अवनीश डबराल)

 

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