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पहाड का भोला भाला लोको
हमारी पहाड़ी बोलियों कु इस्तेमाल पहाड़ी इलाकों तक ही सिमित ह्वेगी
जू भी स्यकुंद (नीचे मैदानी इलाकों में) एक दां उतरी जांदू वू अपणी बोली यखी छोड़ी जांदू ..
उत्तराँचल माँ, पहाड़ी बोली बुलान वोला अब्ब कम ही दिखेंदा
अपणी बोली ता अपणी ही होंदा ना
यानी अपणी माँ की बोली ...अर्थात मातृभाषा (बोली) ...और भूलो एक बात और की "जाती" कवी भी हो पछ्याण ता बोली से होंदी ना ?
प्रत्येक उत्तरांचली यानी की गडोली, कुमयाँ,
जौनसारी हो चमोल्याण हो या फिर टिरी वलु हो
बात ता आसानी से अपनी अपनी बोली माँ कैरी ही सकदा न ..
अरे नि बोली सकदा आसानी से एक दूसरा की बोली लेकिन बींगी (समझी) ता सकदा ही न?..
हमारी बोली ता सिर्फ एक ही च "पहाड़ी बोली" जू हर पांच मील अंतर माँ वैका इस्तेमाल से लहजा (dilect) माँ मामूली फर्क ता एई ही जांदू
लेकिन यु फर्क जब एक किनारा का लोग
दूसरा किनारा का लोगु तैं मिल्दन तब महसूस होन्दु
हमारी पछ्याण निर्भर च हमारी अपनी "बोली" पर बोली कु ता लोप च होनु
हमारा संस्कृति का वास्ता हमारी बोली ज़रूरी च
ता भै बंदौ शुरू कैरी द्यावा अपणी बोली माँ बच्यान (बुलान)
हमारी बोली मा सौम्यता,विनम्रता,गोपनीयता और मिठास च..साथ साथ अपना विचार प्रकट करना की सुगमता भारी मयल्दी (प्यारी)च हमारी बोली
.
आज ही बीटी. ..ना...ना...ना.... बल्कि अब्बी बीटी शुरू करा फ़िर देखा चमत्कार "जै बद्री विशाल लाल" कु
अपणु कवी गढ़देशी अब्ब जब भी मिलु ता अपणी बोली कु आनंद लेवा
ओ भैजी .. एक दां जरा ..शुरू त करा मुस्कान का साथ.
देखा धौं..... क्या जी ....हुन्द