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Himanshu Joshi Famous Author -हिमांशु जोशी उत्तराखंड मूल के प्रसिद्ध साहित्यकार

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Dosto,

Today we are sharing information about a great Author, Journalist Mr Himanshu Joshi who born in the soil of Uttarakhand

हिंदी के सुचर्चित कथाकार एव पत्रकार हिमांशु जोशी जी का जन्म   उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के जोसयूड़ा गाव में ०४ मई १९३५ में हुवा था!   हिमांशु जोशी जी एक प्रसिद्ध स्वाधीनता सेंनानी के सुपुत्र रहे है! यही   कारण रहा है की बालपन की स्मर्तियो में पिता की जेल यात्राये और परिवार की   यंत्रणाए आज भी बनी है! बालपन हिमांशु जोशी जी का जोसयूड़ा से कही अधिक   खेतीखान में बीता! लोहाघाट से अल्मोड़ा जाने वाली सड़क के किनारे इस कसबे   में सब ठीक ठाक ठाक चल रहा था की वर्ष १९५१ में इनके पिता का निधन हो गया!   खेतीखान से मिडिल की पढाई कर आगे की पढाई के लिए १९४८ में हिमांशु जोशी जी   नैनीताल आये! आर्थिक आभावो के कारण जीवन संघर्ष में इन्हें स्वेदना के सहज   पाठ तो पढाये लेकिन विद्यालय में नियमित पढाई नहीं कर पाए! प्राइवेट ही   सहारा बनी! टयूसन करते और स्वय भी पड़ते रहे लगनशील हिमाशु जी!   




हम इस टोपिक में हिमांशु जी के साहित्य रचनाये और उपलब्धियों के बारे में बतायंगे!   

एम् एस मेहता

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

IN DETAIL ABOUT HIMANSHU JOSHI JI





अग्रणी   कथाकार एवं पत्रकार हिमांशु जोशी का जन्म ४ मई १९३५ को उत्तर प्रदेश (अब Uttarakhand  में हुआ था. लगभग २९ वर्ष देश की अग्रणी पत्रिका ’साप्ताहिक   हिन्दुस्तान’ में वरिष्ठ पत्रकार. कोलकाता से प्रकाशित साहित्यिक मासिक   पत्रिका ’वागर्थ’ के सम्पादक रहे.
* जोशी जी की प्रमुख प्रकाशित कृतियों   में अरण्य, महासागर , छाया मत छूना मत, कगार की आग, समय साक्षी है,   तुम्हारे लिए तथा सु-राज (सभी उपन्यास०, अन्ततः तथा अन्य कहानियां,   मनुष्य-चिन्ह तथा अन्य कहानियां, जलते हुए डैने तथा अन्य कहानियां, रथचक्र ,   तपस्या तथा अन्य कहानियां, गंधर्व-गाथा, इस बार फिर बर्फ गिरी तो , नंगे   पांवो के निशान सहित अठारह कहानी संग्रह, तीन कविता संग्रह, दो वैचारिक   संस्मरण-संकलन, साक्षात्कार, यात्रा-वृत्तान्त, जीवनी तथा खोज, रेडियो नाटक   और बाल साहित्य की नौ पुस्तकें प्रकाशित.

*लगभग ३५ शोधार्थियों ने साहित्य पर शोध कर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. कई विश्वविद्यालयों में रचनाएं पाठ्यक्रम में.
* अनेक भारतीय भाषाओं , अंग्रेजी, नेपाली, वर्मी, चीनी, जापानी , इटालियन, नार्वेजियन सहित लगभग २४ भाषाओं में साहित्य अनूदित.
*   उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी अकादमी, दिल्ली, तथा राजभाषा विभाग   बिहार सरकार द्वारा पुरस्कृत. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का सर्वोच्च   समान ’साहित्य वाचस्पति’ . नार्वे का साहित्य के लिए ’अंतरराष्ट्रीय हेनरिक   सम्मन’ वर्ष २००७ .

* अनेक संगठनों एवं संस्थानों से संबद्ध. भारत सरकार की हिन्दी-सलाहकार समितियों मे.
*   अमेरिक, नार्वे, स्वीडन , डेनमार्क, जर्मनी, फ्रांस, नेपाल, ब्रिटेन,   मारीशस, त्रिनिदाद, थाईलैण्ड, सूरानाम, नीदरलैण्ड, जापान, कोरिया, आदि अनेक   देशों की यात्राएं.
* सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन. नार्वे से प्रकाशित पत्रिका ’शांतिदूत’ के विशेष सलाहकार.

Source :
http://vaatayan.blogspot.com

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

Himanshu Joshi
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Mr Himanshu Joshi worked almost 24 yrs in Hindustan (Saptahik) Hindustan Times Limited as a Senior Journalist. He was also Chief Editor of Weekly magazine published from Kolkata called "Vaagarth"

उनकी pramukh kartiyo me aath Upniyas hai!

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
     
रचनाकार: हिमांशु जोशीप्रकाशक: किताबघर प्रकाशनवर्ष: २००६भाषा: हिन्दीविषय: --शैली: --पृष्ठ संख्या: 152   
 
 
चौदहवें संस्करण पर
किशोर वय के सुकोमल सपने !
किशोर वय की सुमधुर स्मृतियाँ, कहीं जीवन के समांतर, जीवन के साथ-साथ चलती हैं। वे दिन, वह शहर, वह कस्बा या गाँव भी कहीं तब रोम-रोम में समा आते हैं। इलाहाबाद के प्रति कई साहित्यकार मित्रों का ऐसा ही गहरा सम्मोहन मैंने निकट से देखा है, एक तरह के जुनून की हद तक।

लगता है, मेरे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही घटित हुआ था। नैनीताल एक पराया अजनबी शहर, कब मेरे लिए अपना शहर बन गया, कब मेरे सपनों का शहर, याद नहीं।
हाँ, याद आ रहा है-
शायद वह वर्ष था 1948 ! महीना जुलाई ! तारीख पाँच, यानी अब से ठीक 54 साल पहले ! हल्द्वानी से रोडवेज की बस से, दोपहर ढले ‘लेक-ब्रिज’ पर उतरा तो सामने एक नया संसार दिखलाई दिया।
धीमी-धीमी बारिश की फुहारें !

काले काले बादल, फटे रेशमी कंबल की तरह आसमान में बिखरे हुए, ‘चीना-पीक’ और ‘टिफिन टाप’ की चोटियों से हौले-हौले नीचे उतर रहे थे, झील की तरफ। उन धुँधलाए पैवंदों से अकस्मात् कभी छिपा हुआ पीला सूरज झाँकता तो सुनहरा ठंडा प्रकाश आँखों के आगे कौंधने सा लगता। धूप, बारिश और बादलों की यह आँखमिचौली-एक नए जादुई संसार की सृष्टि कर रही थी।
दो दिन बाद आरंभिक परीक्षा के पश्चात् कॉलेज में दाखिला मिल गया तो लगा कि एक बहुत बड़ी मंजिल तय कर ली है...!
साठ-सत्तर मील दूर, अपने नन्हे-से पर्वतीय गाँवनुमा कस्बे से आया था, बड़ी उम्मीदों से। इसी पर मेरे भविष्य का दारोमदार टिका था। मैं पढ़ना चाहता था, कुछ करना। अनेक सुनहरे सपने मैंने यों ही सँजो लिए थे, पर सामने चुनौतियों के पहाड़ थे, अंतहीन। अनगिनत। उन्हें लाँघ पाना आसान तो नहीं था !

तब एक दूसरा ही नैनीताल था। एक दूसरा ही नजारा। अंग्रेजों को इस छोटी विलायत’ से गए अभी एक साल भी बीता नहीं था। अभी तक भी अच्छे-अच्छे सभी बँगलों के वे ही स्वामी थे। अंग्रेजी स्कूलों में अधिकांशतः उन्हीं के बच्चे थे। नैनीताल अपने सहज स्वाभाविक रूप में तब कितना सुंदर था।
जल से लबालब भरी ठंडी हरी झील !
गहरे हरे पहाड़। झील पर झुक-झुककर, अपना प्रतिबिंब देखते ! झील में आकंठ डूबे !
रात को जगमगाती धुली रोशनी में नैनीताल परी-लोक जैसा अद्भुत लगता।
इसी स्वप्न-संसार में बीते थे मेरे जीवन के पाँच साल। पाँच वसंत पतझड़ तब आता भी होगा तो कभी दिखा नहीं।
‘गुरखा लाइंस’ का छात्रावास, ‘क्रेगलैंड’ की चढ़ाई, चील-चक्कर, लड़ियाकाँटा, तल्लीताल, मल्लीताल, पाइंस, माल रोड, ठंडी सड़क, क्रास्थवेट हॉस्पिटल-ये सब कहीं उसी रंगीन-रंगहीन मानसिक मानचित्र के अभिन्न अंग बन गए थे।

वर्षों बाद जब मैं ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में धारावाहिक प्रकाशन के लिए तुम्हारे लिए लिख रहा था, तो यह सारा का सारा शहर, इसमें दबी सारी सोई स्मृतियाँ जागकर फिर से सहसा साकार हो उठी थीं।

‘तुम्हारे लिए’ लिखे भी अब लगभग ढाई दशक हो चुके होंगे। पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद पुस्तक-रूप में इसके कई संस्करण हुए। हाँ, दूरदर्शन के लिए जब धारावाहिक बन रहा था, तब मुहूर्त के लिए निर्माता अवश्य पकड़कर ले गए थे। तब एक बार फिर नैनीताल को जीने का अवसर मिला।

अब तक अनेक रूपों में, रंगों में पाठकों ने इस उपन्यास को देखा, पढ़ा, परखा। अधिकांश की प्रायः यही जिज्ञासा रही कि क्या यह कहानी सच है ? क्या यह उपन्यास मैंने अपने पर ही लिखा है ?
कई पाठक ऐसे भी रहे, जिन्होंने इसे अपनी ही जीवन-कहानी समझ लिया। एक नवोदित लेखक स्वर्गीय कुमार गौतम एक बार मिलने आए। बोले, ‘इस उपन्यास को पढ़कर मैं इतना सम्मोहित हुआ कि नैनीताल जाने से अपने को रोक नहीं पाया। पता नहीं कैसे ग्वालियर से नैनीताल जा पहुँचा। वहाँ उन सारे स्थानों को मैं पागल की तरह खोज खोजकर देखने लगा, जिनका वर्णन इस उपन्यास में किया गया है। आपको सच नहीं लगेगा, मैं इसकी प्रतियाँ वर्षों से खरीद-खरीदकर बाँटता रहा हूँ...।’

इंदौर से एक महिला डॉक्टर ने लिखा कि यह तो मेरी ही अपनी कहानी है। अनुमेहा की तरह मैंने भी मामा के घर रहकर पढ़ा। मुझे भी पढ़ाने...।
ऐसे सैकड़ों पत्र ! सैकड़ों प्रतिक्रियाएँ।
आज भी अनेक पत्र यदा-कदा मिलते हैं। इसमें इसी तरह के प्रश्न होते हैं। अधिकांश इसे आत्मकथा का ही एक अंश मानते हैं। कितनी बार कह चुका हूँ कि यह तो कहानी है। परंतु फिर विचार आता है कि क्या कहानी, मात्र कहानी होती है, सच नहीं ? कल्पना और यथार्थ के ताने-बाने से ही तो सही साहित्य की सरंचना होती है।
ऐसे पाठकों की संख्या कम नहीं रही, जिन्होंने इसे दो-चार बार नहीं, अनेक बार पढ़ा।
दिनांक 15 अक्टूबर, 1999 का एक विस्तृत पत्र मेरे सामने रखे कागजों में पड़ा है, जिसमें नागपुर से मराठीभाषी श्री विजय कुमार सपात्ती ने लिखा है :

‘मैं पेशे से इंजीनियर हूँ। एक अमेरिकन कंपनी का मध्य भारत में एरिया मैनेजर। साहित्य और संगीत के प्रति विशेष लगाव है। कविताएँ भी कभी-कभी लिख लेता हूँ।
‘यह पत्र मुझे आज से दस वर्ष पूर्व लिखना चाहिए था, परंतु विदेश-प्रवास, प्रशिक्षण आदि अनेक कामों में उलझे रहने के कारण संभव न हो पाया। आज मैंने ‘तुम्हारे लिए’ को दो सौ पचासवीं बार पढ़ा। सच कह रहा हूँ, मेरी आँखें भीग आई हैं। अब तक हर बार ऐसा ही होता रहा है। मैं अपने आप में विराग को क्यों देखता हूँ ? अनुमेहा को, अपनी न मिली प्रेमिका के रूप में ? मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ। इसी आशय से यह पत्र भेज रहा हूँ। मुझे आपसे इनके शीघ्र उत्तर की अपेक्षा है...’
ऐसा क्या है इस उपन्यास में ? मेरे लिए यह सदैव एक रहस्य रहा है। पर ऐसे पत्र कभी-कभी बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करते हैं।
सब अतीत बनकर खो गया है आज !

पर आज भी कभी नैनीताल जाता हूँ तो उन भीड़-भरी सड़कों पर मेरी आँखें अनायास कुछ खोजने सी क्यों लगती हैं ? रात के अकेले में, उन वीरान सड़कों पर भटकना अच्छा क्यों लगता है ?
साहित्य की सच्ची सार्थकता इसमें है कि साहित्य, मात्र साहित्य नहीं, कहीं जिया हुआ यथार्थ भी लगे। इस दृष्टि से अभी बहुत कुछ अधूरा है। उस अधूरे के सामने भी अनेक प्रश्नचिन्ह हैं। क्या इसके लिए पूरा एक जन्म भी कम नहीं ?

7/सी-2, हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट्स,
मयूर विहार, फेज-एक,
दिल्ली-110091
-हिमांशु जोशी
तुम्हारे लिए
अभी तक भी सच नहीं लग रहा है। लगता है, यह एक सपना था। सपना भी तो कभी-कभी सच का अहसास दे जाता है न !
अपनी जेब से हलके नीले रंग का अधफटा टिकट निकालकर देखता हूं। हवाई-अड्डे का ही है। बायीं ओर का हिस्सा तिरछा फटा है। सबसे ऊपर अंग्रेज़ी और नीचे हिन्दी में लिखा है-‘पालम विमानपत्तन’।
फिर कैसे मान लूं अनुमेहा, कि जो कुछ अभी-अभी घटित हुआ, वह सत्य नहीं था ?

सुबह छह बजे जब भागा-भागा पहुंचा, तब तुम्हारे विमान को उड़ान भरे शायद पन्द्रह मिनट हो चुके थे। मतलब यह कि अब तक तुमने आसमान में लगभग सौ किलोमीटर की दूरी तय कर ली होगी। इतनी लम्बी दूरी इन छोटे-से हाथों की सीमा से परे हैं। दृष्टि से भी दूर। केवल कल्पना की उड़ान द्वारा मात्र अनुभव कर सकता हूं कि इस समय तुम कहां होगी ? किस पर्वत, किस नदी, किस शहर के ऊपर ?
हवाई-अड्डे पर अनचाहे तुमने पीछे मुड़कर देखा होगा न ! जब सभी यात्री विमान पर चढ़ने के लिए बढ़ रहे होंगे, उस समय सबकी तरह तुम्हारे भी हाथ हवा में लहराते होंगे !

विमान पर चढ़ते समय तुम्हें कैसी अनुभूति हुई होगी ? यह सब सोचते हुए मुझे अजीब-अजीब सा लग रहा है।
कोई अन्त समय में कुछ कहना चाहे, किन्तु बिना कहे ही सदा-सदा के लिए चला जाए-तो कैसी विकट अनुभूति होगी ? वैसा ही कुछ-कुछ मुझे भी हुआ। एक असह्य, अव्यक्त वेदना से मैं भीतर-ही-भीतर बुरी तरह, देर तक घुटता रहा।
तुम्हें मालूम था, तुम यहां अधिक जिओगी नहीं। वहां जाकर ही जी सकोगी, इसकी भी सम्भावना नहीं। फिर तुमने यह सब क्यों किया ? किसके लिए ? किसलिए ?

एक अजीब से रहस्य की सृ्टि तुम सदैव करती रही। स्वयं को छलती रही-निरन्तर। दूसरों को छलने की अपेक्षा स्वयं को छलना अधिक दुष्कर होता है न ! शायद इसीलिए तुम्हारे एक व्यक्तित्व के भिन्न-भिन्न कई प्रतिबिम्ब एक साथ उभर आये थे। जो एक दूसरे के कितने सार्थक सिद्ध हुए, कितने बाधक, यह सब मैं नहीं बतला पाऊंगा, क्योंकि परखने की दृष्टि से मैंने कभी तुम्हें देखा ही नहीं था।
याद है, उस साल कितनी बारिश हुई थी ! ऐसी ही बौछारें कई दिनों तक झरती रही थीं। लेक-ब्रिज के ऊपरी हिस्से के पास तक झील का पानी लहराने लगा था। पुल के नीचे तीव्र वेग से घाटी की ओर बहता जल बड़े-बड़े प्रस्तर खंडों से टकराता, तो प्रपात का जैसा दृश्य उभर आता था। धुंधला-धुंधला सफेद धुआं-सा। फव्वारे के-जैसे छींटे दूर-दूर बिखरने लगते।
 
इस तरह दिनों तक निरन्तर बारिश होती। सारा शहर कुहासे से ढका रहता। बड़े-बड़े पहाड़ों से घिरी झील कुएं जैसी लगती। कभी-कभी तो दम घुटने सा लगता था।
उस साल नैनीताल पहली बार गया था और शायद पहली बार तुम्हें देखा था ! तब क्या उमर रही होगी ? यही, कॉलेज में दाखिला लिया ही था न !

एक दिन सुबह-सुबह किताबें खरीदने सुहास के साथ मल्लीताल गया था। नौ बजे का भोंपू भी शायद अभी बजा न था। ‘अशोक टाकीज़’ से होकर सीधी चढ़ाई चढ़कर मेन बाजार पर अभी हम पहुंचे ही थे कि शीशे की सफेद कटोरी में दही लिये तुम घर की ओर लौट रही थी। सफेद सलवार, सफेद कुर्ता। अभी अभी सूख रहे स्वच्छ सुनहरे बाल तुम्हारी दूधिया आकृति के चारों ओर बिखरे हुए थे।
पल-भर में पता नहीं क्या हुआ ? चलते-चलते मेरे पांव एकाएक जड़ हो गये। अनायास मैंने पीछे मुड़कर झांका तो आश्चर्य की सीमा न रही। तुम भी उसी तरह अचरज से पीछे पलटकर देख रही थी।

क्या देख रही थी, अनुमेहा ? उन निगाहों में ऐसा क्या था, आज तक समझ नहीं पाया।
वासना ! नहीं नहीं। प्रेम वह भी नहीं। शायद इससे भी अलग, इससे भी पावन कोई और वस्तु थी, जिसे नाम की संज्ञा में बांधा नहीं जा सकता।
उस सारे दिन हवा महकती रही थी। झील के ऊपर तैरते बादल अनायास रंग बदलते रहे थे।
जुलाई का महीना अब सम्भवतः बीतने ही वाला था।
 
इस बार पढ़ाई का सिलसिला जारी रखना कठिन लग रहा था। पिताजी बूढ़े हो चुके थे। दीखता भी कम था। मां के अथक परिश्रम के बावजूद खेतों से उतना उपज न पाता था, जिंदा रहने के लिए जितनी ज़रूरत थी। इसलिए ऋण का भार निरन्तर बढ़ता चला जा रहा था। पिताजी चाहते थे, मैं घर का काम देखूं, सबसे बड़ा हूं-दो अक्षर लिख-पढ़कर उनके कमजोर कंधों को सहारा दूं। परन्तु मुझमें एक अजीब सी धुन सवार थी-पढ़ने की। पिताजी से बिना पूछे ही मैंने आगे पढ़ने का निश्चय कर लिया था। जून बीत रहा था और जुलाई आरम्भ होने ही वाला था कि एक दिन उन्होंने खुद ही बुलाकर कहा, ‘‘अच्छा है वीरू, कुछ और पढ़ लो। दो खेत और रेहन रख देंगे, क्या अन्तर पड़ता है ?’’ पिताजी ने बड़े सहज भाव से कहा था, परन्तु ये शब्द मुझे कहीं दूर तक छील गये।
‘‘आप पर अधिक भार नहीं डालूंगा। कुछ ट्यूशनें कर लूंगा या छोटा-मोटा कोई और काम।’’ कहने को तो कह गया था, किन्तु मुझे लगता नहीं था कि यह सब इतना आसान होगा।
इसलिए दाखिला लेते ही मैंने ट्यूशनों की खोज आरम्भ कर दी थी।

कॉलेज से लौट रहा था एक दिन। तल्लीताल पहुंचा ही था कि रामजे रोड पर सुहास टकरा गया था। सुहास, वही गोरा-चिट्टा, लम्बा-चौड़ा मेरा क्लासफैलो। चहकता हुआ, मेरी पीठ पर धौल जमाता हुआ बोला, ‘‘विराग, चाय पिला तो एक अच्छी खबर सुनाऊं !’’
चलते-चलते मैं ठिठक पड़ा। भूख मुझे भी लग रही थी कुछ-कुछ। नुक्कड़ वाली दुकान से मैंने गरम-गरम बालू में भुनती मूंगफलियां लीं, एक आने की। सुहास की ओर बढ़ाता हुआ बोला, ‘‘ले, खा, चीनियां बादाम।’’
‘‘विराग शर्मा दे ग्रेट, नाऊ यू आर ए किंग।’’ हंसते हुए उसने कहा।
प्रश्न-भरी दृष्टि से मैंने उसकी ओर देखा।
‘‘यार, तुम्हारे लिए ट्यूशन ढूंढ़ ली है।’’
‘‘सच्च ?’’ मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।

‘‘बीस रुपये मिलेंगे, पर फिफ्टी-फिफ्टी होंगे।’’
मैं ज़ोर से ठहाका लगाकर हंसा।
तिराहे के पास से हम फिर लेक-ब्रिज की ओर लौट पड़े थे।
‘‘एक घंटे के कुछ कम नहीं होते, गुरु !’’ उसने कुछ रुककर कहा, ‘‘पर हां, मैथ्स पढ़ानी होगी, साइंस भी। पढ़ा पायेगा ?’’ उसके शब्दों में आत्मीयता ही नहीं बुज़ुर्गियत भी थी।
माल रोड के समानान्तर बनी कच्ची सड़क पर चल रहे थे हम। वीपिंग-विलो की लताएं नीचे जल की सतह तक झुक आयी थीं। एक घोड़ा धूल उड़ाता हुआ आगे निकल गया था। कुछ सैलानी झील के किनारे बेंच पर बैठकर कुछ खाते हुए ज़ोर-ज़ोर से हंस रहे थे।
बीस रुपये उस ज़माने में कम नहीं होते थे। छात्रावास के कुल खर्चे का एक तिहाई।
‘‘कहां जाना होगा पढ़ाने के लिए ?’’
‘‘डॉ. दत्ता के घर-ब्लू कॉटेज ।’’

दूसरे दिन शाम को ठीक समय पर मैं जा पहुंचा।
बाहर लोहे की ज़ंजीर से बंधा एक झबरैला कुत्ता मुझे देखते ही, जंजीर तुड़ाकर झपटने के लिए लपका।
कॉल-बैल के बटन पर मैंने अंगुली रखी ही थी कि सहसा द्वार खुला अचरज से मैंने देखा। ‘कहिए’ की मुद्रा में तुम खड़ी थी। हां-हां, तुम !
‘‘डॉक्टर साहब ने बुलाया है। ट्यूश...!’’ मैं अभी अटक-अटककर कह ही रहा था कि श्वेतकेशी एक वृद्धा भीतर के दरवाज़े पर टंगा पर्दा हटाकर आयीं, ‘‘आइये, आइये ! अनु के लिए कह रहे थे।’’
सोफ़े पर मैं सिमटकर, सिकुड़कर बैठ गया। बाहर कुछ-कुछ बारिश हो रही थी। लगता था, कुहरा झर रहा है। मेरे कपड़े तनिक भीग आये थे। काले जूतों के तलों पर गीली मिट्टी चिपक गयी थी। फ़र्श पर बिछी कालीननुमा क़ीमती दरी पर पांव रखने में अजीब-सा संकोच हो रहा था।

अभी मैं बैठा ही था कि एक छोटा-सा बच्चा आया और मुझे भीतर ले गया। एक छोटी-सी कोठरी में ले जाकर उसने बैठने का आग्रह किया।
यह कोठरी क्या थी बगीचे की तरफ वाले हिस्से में एक अर्द्धवृत्ताकार कमरा था-काठ का। खिड़कियों पर शीशे के रंग-बिरंगे टुकड़े लगे थे। पुराने ज़माने की नन्हीं सी गोल मेज़ के आमने-सामने बेंत की दो कुर्सियां थीं। सीने से बस्ता चिपकाये धीरे से तुम आयी और सामने वाली कुर्सी पर चुपचाप बैठ गयी।

मैं तुम्हारी ओर चाहकर भी नहीं देख पा रहा था। इस प्रकार की अतिरिक्त गम्भीरता ने मुझे अकारण घेर लिया था। मैं अभी तक भी बाहर की ओर ही देख रहा था। हवा में हिलती अधमुखी खिड़की से सारा दृश्य साफ़ दिखलायी दे रहा था। आड़ू का छतरीनुमा बौना वृक्ष बारिश की हलकी-हलकी बौछारों से भीग रहा था। पहाड़ी के ऊपरी भाग से घना कुहासा भागता हुआ नीचे की ओर लपक रहा था। अब खिड़की की राह भीतर आने ही वाला था कि तुमने खिड़की का पल्लू तनिक भीतर की ओर खींच लिया था।
 
टीन की कत्थई छत पर पानी की बौछारों का संगीत साफ़ सुनाई दे रहा था। कहीं बिजली कड़क रही थी। बीच छत से एक पतला तार नीचे लटक रहा था। उसके अन्तिम सिरे पर झूलता एक बीमार बल्ब टिमटिमा रहा था।
तुमने मैथ्य की दो पुस्तकें मेरी ओर सरका दीं।
मैं बतलाता रहा, सिर झुकाये तुम हिसाब बनाती रही। आज्ञाकारी सुशील बच्चे की तरह तुमने एक भी प्रकार अपनी ओर से नहीं पूछा।
समय का भान हुआ तो मैं अचकचाया। पूरा डेढ़ा घंटा बीत चुका था। तुम्हारी किताबें, कॉपियां, पेंसिल तुम्हारी ओर सरकाकर मैं कुर्सी से उठने ही वाला था कि डॉक्टर दत्ता ने अधमुंदा दरवाज़ा खोला।

‘‘शर्माजी, आप तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं।’’ वह मेरे समीप आकर खड़े हो गये थे, ‘‘हमें ऐसे ही ट्यूटर की आवश्यकता थी। हमारे बहनोई साहब भी डॉक्टर थे न ! उनकी इच्छा थी कि हमारी यह बिटिया भी डॉक्टर बने। आपका सहयोग मिला तो शायद यह सपना कभी साकार हो जाए।’’ मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए उन्होंने अपनी प्रौढ़ दृष्टि से कुछ टटोलते हुए देखा। फिर होंठों पर टिकी पाइप हाथ में थमाते हुए बोले, ‘‘वैसे पढ़ने में तो ठीक है न ?’’
‘‘जी, हां। जी, हां।’’
‘‘होस्टल में ही रहते हैं आप ?’’
‘‘जी, हां।’’
‘‘आपकी आवाज़ कुछ भारी-भारी क्यों लगती है ? सर्दी की तो शिकायत नहीं ?’’
‘‘जी, नहीं। कल झील में देर तक तैरते रहे थे, उसी से कुछ हो गया लगता है।’’ मैंने सकुचाते हुए कहा था।
‘‘कल सुबह हॉस्पिटल आ जाइएगा। मौसम ठीक नहीं। सर्दी लग गई तो परदेस में परेशानी में पड़ जाएंगे।’’
डॉक्टर दत्ता के साथ-साथ मैं भी बाहर निकल आया था।
बाहर अब अंधेरा था। कुहरा था। पानी भी बरस रहा था। उन्होंने मेरे मना करने के बावजूद भीतर से छतरी मंगायी और मेरे हवाले कर दी।
अपने घर की-सी इस आत्मीयता ने कहीं मेरा रोम-रोम भिगो दिया था।
 
 
Courstesy:
 
http://gadyakosh.org/gk/index.php 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
  Kagaar Kee Aag
 
      कगार की आग 
रचनाकार: हिमांशु जोशीप्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठवर्ष: २००२भाषा: हिन्दीविषय: --शैली: --पृष्ठ संख्या: 100ISBN: --विविध: --आरम्भ में
(पहले संस्करण से)
एक गाँव की कहानी है यह। गाँव का नाम कुछ भी हो सकता है। किसी भी नाम से पात्रों को सम्बोधित किया जा सकता है। क्या अन्तर पड़ता है इससे !
यह उन अभिशप्तों की जीवन-गाथा है, जो समाज द्वारा बहिष्कृत किये गये हैं, सदा के लिए तिरस्कृत !
सच पूछें तो दुख की साकार, सदेह प्रतिमाएँ हैं ये। दर्द के जीते—जागते पुतले ! गोमती, पिरमा, खिमु’ का-ये सारे चित्र यन्त्रणाओं की स्याह सफेद रेखाओं से चित्रित किये गये हैं, काल की तूलिका से !
वृद्ध खिमु’ का आज भी जीवित हैं-इस व्यथा-कथा के साक्षी। बित्तेभर की चौरस भूमि की ओर इंगित कर कहते हैं, ‘‘हाँआ, यहीं पर थी वह झोपड़ी, दो भाई रहते थे यहाँ। बड़े का नाम पिरमा था और छोटे का...।’’ इससे अधिक कुछ न कहकर, न जाने किस दृष्टि से शून्य में ताकते रहते हैं !
यहाँ अब ऊँची-ऊँची घास, दृष्टि के कँटीले पौधे उग आये हैं। फँइयाँ का नन्हा-सा नाज़ुक बिरवा मिट्टी की दीवार के उस पार झाँक रहा है।

आज भी दिन-रात धौंकनियाँ चल रही हैं। ठण्डा लोहा तप रहा है। गरम लोहे पर ठण्डे लोहे का आघात ! आग के छीटें बिखर रहे हैं।
दूर कहीं अन्धकार में एक मानवाकार छाया-सी आज भी कभी-कभी उभरती दिखलाई देती है तो लोग दहशत से घरों के किवाड़ मूँदकर छिप जाते हैं।
गोमती की यह सच्ची कहानी मैंने सच-सच नहीं लिखी। यदि सच लिखता तो लोगों को सच न लगती। इसलिए उसकी अन्तहीन यन्त्रणाओं को कहीं-कहीं से कम करने का अपराध-भर मैंने अवश्य किया है, ताकि यह सच्ची कहानी झूठी न लगे। गोमती अब कहाँ है ?
कुन्नु का क्या बना ?
मुझे स्वयं पता नहीं। हाँ, कुछ दिन पहले उस गाँव अवश्य गया था, जहाँ गोमती रहती थी कभी। उसकी वृद्धा माँ का अभी-अभी देहान्त हुआ है। लोगों से गोमती के विषय में पूछा तो कुछ भी पता न चला। गाँव के कुछ पढ़े-लिखे लोगों को अवश्य शिकायत थी कि मैंने उनके गाँव की अन्तरंग बातें जगजाहिर क्यों की ? अखबार में क्या लिखा ? गोमती के चरित्र पर लांछन क्यों लगाया ?

गोमती के चरित्र पर लांछन की भूल मैं कैसे कर सकता हूँ ? वह तो किसी भी सती-सावित्री से ऊँची थी !
इस उपन्यास पर पाठकों की प्रतिक्रिया देखने लायक थी। गाँव की इस सीधी-सादी कहानी में ऐसा क्या है, जो उन्हें कहीं इतना गहरा छू रहा है।–मेरी समझ में यह बात अभी तक समझ में नहीं आयी। ‘छाया मत छूना मन’ के पश्चात् मेरे लिए एक और आश्चर्य है !
इसे मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि साधारण पाठकों के साथ-साथ प्रबुद्ध लोगों को भी यह कहानी रुचिकर लगी। पाठकों का जो अपरिमित स्नेह मुझे मिला, वह किसी भी लेखक के लिए ईर्ष्या का विषय बन सकता है।
साहित्य में मैंने मनोरंजन के लिए नहीं, मिशन के रूप में लिया है। मेरा प्रयास रहा है कि असंख्य यन्त्रणाओं से घिरे गूँगे आदमी को स्वर मिले। यों मेरा दुख-दर्द उनके दुख-दर्द से अलग कहाँ है ? वस्तुतः उनके माध्यम से मैंने अपनी व्यथा को ही वाणी देने की कोशिश की है।
इन विवश लोगों की व्यथा आपको कुछ सोचने के लिए विवश करे तो समझूँगा कि मेरा प्रयास विफल नहीं रहा।
कगार की आग
(पाँचवें संस्करण पर)
‘कगार की आग’ को प्रकाशित हुए अब लगभग बीस वर्ष होने को आये हैं। इन दो दशकों की अवधि में कितना कुछ नहीं बदला ! आज सब एक सपना-सा लगता है।
मुझे याद आ रहा है, यह ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के ‘रजत जयन्ती विशेषांक’ में प्रकाशित हुआ था, तब पाठकों के पत्रों का कैसा अम्बार लगा था ! उन सैकड़ों पत्रों में एक पत्र यशपाल जी का भी था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि पहाड़ी जन-जीवन का बड़ा सशक्त सजीव चित्रण हुआ है, इस उपन्यास में। इस पर्वतीय अंचल को मैंने कई बार निकट से देखा है। वे अतीत की स्मृतियाँ इसे पढ़कर पुनःसाकार हो आयीं। हमारे यहाँ सभी पर्वतीय क्षेत्रों का जन-जीवन इसी तरह का है-संघर्षमय !

यशपाल जी मूलतः हिमाचल प्रदेश के थे।
कुछ वर्ष। बाद दिल्ली में ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ का आयोजन हुआ। उसमें प्रायः सारे संसार से हिन्दी विद्वान/हिन्दी सेवी आये थे। इन्हीं में एक थे-चीन के पेइचिंग विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक प्रो.ल्यु-को नान।
जब वे भारत से स्वदेश लौट रहे थे, मैंने भेंट-स्वरूप उन्हें एक पुस्तक प्रदान की।
जाते-जाते मैंने कहा, ‘‘इसे आपको दे तो रहा हूँ परन्तु पढ़िएगा नहीं। क्योंकि आंचलिक शब्दों की बहुतायत से आपको पढ़ने में कठिनाई होगी। एक मित्र के नाते मेरा कर्तव्य बन जाता है कि आपके प्रति कुछ भी ऐसा न करूँ जिससे आपको किंचित कष्ट हो...।
ल्यु-को नान की अपनी निश्छल हँसी में देर तक हंसते रहे थे। बात आयी-गयी हो गयी !
तभी कुछ महीने पश्चात एक दिन देखता हूँ, उनका एक पत्र मेरी मेज़ पर पड़ा है। कलात्मक ढंग से अपने हस्तलेख में, हिन्दी में लिखा है-
‘‘ ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ के समय आपने अपना उपन्यास ‘कगार की आग’ मुझे भेंट किया था। और इसे न पढ़ने का आग्रह किया था। पर सच कहूँ तो इसे आपने इतना अच्छा लिखा है कि मैं एक ही साँस में पूरा पढ़ गया। मुझे बहुत पसन्द आया। शायद इसीलिए कि इसकी कहानी मेरे ही परिवार की अपनी कहानी है। चीन में ‘मुक्ति आन्दोलन’ से पूर्व मेरी एक भानजी थी बहुत सुन्दर बहुत तेज। वह मुझे मामाजी कहकर पुकारती थी, हालाँकि उम्र में मुझसे दो-तीन साल बड़ी थी। वह मेरी बहन की मँझली बेटी थी.....।

बचपन में अक्सर वह हमारे घर आया करती थी, और हम दोनों साथ-साथ खेलते थे। दौड़ने में, पेड़ पर चढ़कर अंगूर तोड़ने में, मछलियाँ पकड़ने में मैं हमेशा उससे पीछे रह जाता था। लेकिन वह बेचारी गरीब घर में जन्मी थी। पिता खेत मजदूर थे। माँ जमींदार के घर नौकरानी। हमारा घर स्वयं इतना गरीब था कि हम उनके परिवार की, चाहते हुए भी कोई मदद नहीं कर पाते थे।
‘‘एक दिन अनायास उसकी शादी हो गयी और वह रोती-रोती विदा हुई। पता चला कि उसका पति तो एकदम अन्धा है ! तब भानजी की उम्र केवल चौदह साल की थी। कई बार वह घर भाग आयी, लेकिन हर बार पकड़ी गयी और हर बार मार-मार अधमरी कर दी गयी। पर फिर भी उसने हार नहीं मानी। उसकी हिम्मत कभी नहीं टूटी। आखिरकार वह भागने में एक दिन सफल हो गयी। कहाँ चली गयी, किसी को मालूम नहीं। न मेरे माता-पिता न मेरे बहन-बहनोई ही उसके बारे में कुछ जानना चाहते थे और न कोई इस सम्बन्ध में किसी से पूछता ही था। क्योंकि इस तरह औरत का भाग जाना, माता-पिता और रिश्तेदारों के लिए कलंक समझा जाता था...।

‘‘मुक्ति के बाद मैं एक ज़मीन-सुधार दल में शामिल होकर पड़ोसी जिले में गया। वहाँ मुझे मालूम हुआ कि एक ज़मींदार से संघर्ष करते समय, उसके काले-कारनामे से मेरी प्यारी भानजी की जान चली गयी। आपका यह उपन्यास पढ़ते-पढ़ते मुझे अहसास होता रहा कि इसकी नायिका गोमती और कोई नहीं, मेरी ही दिवंगता भानजी है जो अब भी जीवित है, और विशाल भारत-भूमि में आज भी अपने बच्चे का हाथ थामे अँधियारे में, पता नहीं कहाँ जा रही है !
चीन में तो सुबह हो चुकी है, लेकिन वह बेचारी पता नहीं, कैसे भटकती-भटकती भारत पहुँच गयी ! क्या करें ?
‘‘आपको पत्र लिखने का मकसद यह है कि मैं अपनी प्यारी भानजी को अपने देश वापस बुलाना चाहता हूँ ताकि यहाँ चीन की उसकी बहनें उसकी दुखभरी राम-कहानी समझ सकें। पता नहीं, आप इज़ाजत देंगे...

अगर आप अनुमति दें तो मैं इसका मूल हिन्दी से चीनी में अनुवाद का कार्य आरम्भ करूँ ! अगर हाँ, तो उसके लिए एक भूमिका और अपना संक्षिप्त परिचय भेजना न भूलें...।
सुप्रसिद्ध बर्मी लेखक उ पारगू ने भी इसे मूल हिन्दी में पढ़ा। उन्होंने भी कहा, ‘‘यह तो हमारे देश बर्मा की जैसी कहानी है।’’
कोंकणी के लेखक चन्द्रकान्त केणी ने इसका बहुत वर्ष पूर्व कोंकणी में रूपान्तर किया था। मैंने कहा, आप अनुवाद से पूर्व स्थानीय बोली के शब्दों का अर्थ पूछ लेते तो अनुवाद और अधिक अच्छा होता....।
उन्होंने उत्तर दिया, हमारे समाज की परिस्थितियाँ पर्वतीय समाज से अधिक भिन्न नहीं। हमें कहीं यह अपने ही प्रदेश की जैसी कहानी लगती रही, इसलिए कठिनाई का प्रश्न कहाँ उठता ?
उड़िया की अग्रणी लेखिका डॉ. प्रतिभा राय ने मूल हिन्दी से इसका उड़िया में अनुवाद किया, जिसके दो संस्करण हुए। उनका कहना था कि मौलिक उड़िया लेखन के मुकाबले में यह पुस्तक अधिक बिकी। नारी-शोषण और सामाजिक विसंगतियों की स्थितियाँ वहाँ भी कमोबेश वैसी ही हैं...।

एक पत्रकार/लेखिका ने कहा था, आपातकाल के दौर में जब मैं मध्यप्रदेश के किसी जेल में थी, तब ‘साप्ताहिक’ में इसे पढ़ा था। मैंने ही नहीं, पचास से अधिक राजनीतिक बन्दियों ने भी। पढ़ते-पढ़ते इसके पन्ने बिखर गये थे। मैं ज़िन्दगी में दो ही बार रोयी, पहली बार जब मेरी माँ का निधन हुआ और दूसरी बार जब यह उपन्यास पढ़ा...।
एक अपेक्षित तिरस्कृत लोहारों के गाँव की इस साधारण-सी कहानी में ऐसा क्या है ? यह रहस्य समझ नहीं पाया। अब पूरे तीस चालीस वर्ष बीत रहे हैं, उस परिवेश को देखे। एक बार मन करता है, उस गाँव को फिर देखूँ, ! देखूँ वह गोमती कहाँ है, जिसके संघर्षों की गाथा, भारत में ही नहीं, चीन बर्मा, नार्वे आदि अनेक देश के वासियों को अपनी, नितान्त अपनी लगती है। क्यों ?
कगार की आग
(सातवें संस्करण पर)
निर्धूम अग्नि-ज्वाल !
बुरादे की आग ! सदैव सुलगती हुई !
आज लगभग तीस वर्ष बीत गये, पर उस आग की तपिस का अहसास अभी तक निरन्तर होता रहा है !
समय के साथ-साथ सारी स्थितियाँ, परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। गाँव भी अब वे गाँव नहीं रहे। न वे लोग ! न वे बातें ! लगता है, एक नये सपने, नये यथार्थ से साक्षात्कार हो रहा है ! मैं देख रहा हूँ—सारा गाँव उमड़ आया है। आस-पास के गावों के लोग भी ! गोमती सदेह, साक्षात खड़ी दिखलायी दे रही है। पिरमा ठण्ड से ठिठुरता हुआ, चीथड़ों में लिपटा, खम्भे के सहारे ! यह रजत-पट की गोमती है—वास्तविक गोमती से अधिक जीवन्त।
बिजली के हण्डे जल रहे हैं। बड़ा-सा मूवी कैमरा घूम रहा है, लोग कहते हैं—अब गोमती की यह कहानी दूर दूर तक जाएगी। कैमरे के माध्यम से भविष्य में भी जीवित रहेगी !
हम होंगे या नहीं, पर यह कहानी रहेगी !
हिमांशु जोशी
एक
पहले भी ऐसा ही हुआ था-रात के अँधियारे वह दो तीन बार भागकर आयी थी-अकेली। माँ ने तब भी इसी तरह अधीर स्वर में पूछा था, ‘गोमु, इस तरह ? साथ कोई नहीं..?
वृद्धा माँ के सूखे अधर किंचित खुल आये थे। झुर्रियों से ढके उस उदास चेहरे की ओर गोमती क्षण-भर देखती रही थी, मुझ अभागी को कौन छोड़ने आएगा इजा ! मौत भी तो नहीं आती !
बाँज के छिलके-सी अपनी रूखी हथेलियों में मुँह छिपाकर गोमती नन्ही बच्ची की तरह बिलख पड़ी।
माँ समझाती रही, औरत के लिए केवल वही घर है इजु ! जैसे भी हो अपनी घड़ी तुझे वहीं काटनी है। सब दिन एक-से तो नहीं रहते। कभी कुछ सह भी लिया कर...।
‘‘कब तक सहूँ इजा ?’’ तार-तार फटी, अपनी मैली-कुचैली कुरती का चाल उसने ऊपर उघाड़कर दिखलाया, यह देख, अब भी कहती है...! तूने पैदा होते ही मुझे ज़मीन में गाड़ क्यों नहीं दिया था..?
बेटी की फूल-सी कोमल देह में नीले-नीले निशान देखकर माँ का दिल दहल उठा। फटी पिछौड़ी के चाल में अपनी आँख के आँसू समेटती हुई बोली, ‘‘कैसे काने करम लेकर जनमी तू ! किन राकसों के पल्ले पड़ गयी अभागी ! नोच-नोचकर तुझे खा डालेंगे वे।

तरह-तरह के उदाहरण देकर माँ फिर समझाती रही, पर इस बार गोमती का मन कुछ अधिक उखड़ा हुआ था। उसके पति पिरमा के सामने ही ककिया ससुर ने उसे किनमोड़े की मोटी लाठी से पीटा था। ककिया सास उसका झोंटा पकड़कर बाज की तरह झपटी थी, जनिजौंसि राँड नौ घर का जूठन खाकर यहाँ चली आयी हैं ! नंगी नौंहाल ! एक खसम खा चुकी है बेशरम ! गोदलि कहती थी जलेबी के दोने खाती है ! जंगल के चौकीदार पतरौल के साथ कल वन में कहाँ जा रही थी ? घोड़िया डॉक्टर से क्या बातें कर रही थी ? हमारी इज्जत तूने मिट्टी में मिलाकर रख दी। अजब का जोबन चढ़ा है तुझ पर रण्डी !
लातों से, घूँसों से गोमती चुपचाप पिटती रही। धरम राम सरपंच गाँव न आये होते तो शायद सब मिलकर, उसे जान से ही मार डालते, पर उन्होंने किसी तरह बीच-बचाव कर छुड़ाया था।
पिरमा घुटने मोड़े बैठा था-गूँगे मिड़गू की तरह। माँ को यों पिटते देख कुन्नू दीवार से सटकर छिप गया था। भय से आतंकित रो भी न पा रहा था...।
पुराने पयाल की झीनी झोंपड़ी के एक कोने में पड़ी गोमती नन्हें कुन्नू को कलेजे से लगाये सिसकती रही और पास पड़ा पिरमा सारी रात खों-खों खाँसता रहा था।

गोमती किससे कहती ? कौन सुनता उसकी कि ‘घोड़िया डॉक्टर’ से वह पति के लिए दवा लेती है। उससे और कोई सम्बन्ध नहीं। जंगल में हफ्ते-भर से उसने पतरौल की सूरत तक नहीं देखी। गाँव की औरतों के साथ घास काटने जंगल गयी, उन्हीं के साथ लौटी। फिर गोदलि ने उसे कहाँ देखा ? कब ? बेशरम खुद ही पतरौल से बीड़ी माँग-माँगकर पीती थी। इसी बरसात में एक दिन अपनी आँखों से उसने गोदलि को देखा था-बीच वन में स्थित लीसेवालों की काठ की कोठरी से बाहर निकलते हुए। घाघरी का चाल भीगा था...। परन्तु देखकर भी अनदेखा कर दिया था गोमती ने !
कहीं गोमती किसी से कुछ कह न बैठे-इस भय से शायद गोदलि ने पहले ही उस पर लांछन लगा दिया हो। पर, अब इन खबीसों को क्या हो गया है !

अन्धकार में उसके सामने ककिया ससुर-कलिय’ का का डरावना चेहरा घूमने लगा। शराबियों की जैसी बड़ी-बड़ी लाल आँखें ! घनी मूँछे ! जिन्दा दैंत।
पिरमा से सौ बार कह चुकी है-तुम्हारे कका की नज़र अच्छी नहीं। इनके मन में पाप उपज गया है। बड़ी गन्दी निगाह से देखते हैं।
लेकिन पिरमा ने हमेशा की तरह जैसे इस बात को भी सुना नहीं, तू तो निरी बावली है ! इतने बूढ़े पर शक करती है ? तुझे पाप लगेगा। परलोक बिगड़ेगा तेरा। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे ? बिना बात थू-थू !
यह सुनकर गोमती मन मसोसकर रह गयी थी। पिरमा पागल है-परमहंस निरीह पशु ! सबको पता है। कका बैल की तरह ज़िन्दगी भर उसे जोते रहे। जब तक एक परिवार में रहे, खाना भी कभी भर पेट नहीं दिया। रूखा-सूखा, जूठा-पीठा, टूटी-फूटी थाली में फेंक दिया। पहनने के लिए अपने बेटे तेजुवा के उतारे चीथड़े !
इधर कुछ दिनों से अकल शायद कुछ अधिक ही मारी गयी है बुढ़ऊ की। पिरमा को रोज रात को आलू के खेतों की रखवाली के लिए भेज देते हैं। उसकी सारी रात ‘आ लो लो, छेपो-छेपो ! हाड् च-अ ! हाड् च-अ ! कर शौली को भगाने में ही बीत जाती है। पल-भर के लिए भी आँख लगी नहीं कि सारा खेत चौपट...
जब सब सो जाते हैं, सारा गाँव मशान-सा सूना हो जाता है, बूढ़े ककिया ससुर कलिया अँधियारे में दबे पाँव उसकी टूटी झोपड़ी के छीने कपाट टटोलने लगते हैं। दो-तीन बार वह दुत्कार चुकी है, पर कुत्ते की तरह फिर-फिर मुड़कर देखने से बाज नहीं आते !

परसों रात जब किवाड़ खोल ही लिये तो उसे कुछ सूझा नहीं कि क्या करे ? सिरहाने पर रखी हँसिया उसने अन्धकार में जोर से फेंककर दे मारी !
तब कहीं दुम दबाकर भागे निरलज्ज !
सुबह किसी ने पूछा, ‘कलिय’ का, माथे पर चोट कैसे लगी ? तो कहते थे-पाँव फिसल जाने से गिर पड़ा यार ! अँधियारे में अब बिलकुल आँख से नहीं देखता !

तब से बदला लेने की ताक में थे और वह भी कल ले ही लिया। पत्नी को सिखलाकर तैयार किया। गोदलि को गुड़ खिलाया और फिर रचा यह महाभारत...!
आग के उसे लिटाकर अम्मा उसके दुखते घावों को गरम कपड़ें से सेंकती रही। खाने के लिए आज कुछ भी न था घर में। तवे पर गरम राख डालकर, सोयाबीन-भट् के कुछ दाने भूनकर दोनों ने चख लिये और ऊपर से लोटा-लोटा भर ठण्डा पानी गटकर आँखें मूँद लीं। बूढ़ी माँ के हाथ-पैर अब अधिक चल न पाते थे। इसलिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी सम्भव न रहा था। महीने में कई-कई ‘एकादसियाँ’ हो जातीं।
पता नहीं रात का कौन-सा पहर बीत रहा था ! बुझी आग के पास गुदड़ी में लिपटी गोमती को नींद न आ पा रही थी। इतनी बड़ी दुनिया में उसे कहीं, कोई ठौर नज़र न आ रही थी। पति पगला-विक्षिप्त। न सास, न ससुर। एक देवर- वह भी लाम में। मैके में टूटे किवाड़ खोलने के लिए अकेली बूढ़ी विधवा माँ। आज मरी कि कल !
कई बार आत्महत्या का विचार आया। सोचा-दुल्ल के अगास को छूते ऊँचे पेड़ पर रस्सी बाँधकर लटक जाए। हजार झंझटों से छुटकारा मिल जाएगा, पर कुन्नू का निरीह चेहरा बीच में दीवार की तरह आ खड़ा होता। नन्हें-नन्हें हाथ ! दूधिया दाँत ! वह उलझ पड़ती-अन्धकार में कुछ टटोलती हुई।..पिरमा के ठूँठ-से काले हाथ उसका फटा आँचल पकड़ लेते....। उसे पता है-कलिय’का क्या चाहते हैं-

गोमती किसी के साथ कहीं भाग जाए या नदी में डूब मरे और पिरमा खरीदे हुए गुलाम की तरह ज़िन्दगी-भर उनकी चाकरी करे। वह मरे तो उसके हिस्से की ज़मीन ‘वारिस’ बनकर स्वयं हथिया लें। गजार के तलाऊँ तीन खेत उन्हीं के पास तीन बीसी रुपये में रहन पड़े हैं-पिरमा की माँ के क्रिया-कर्म के समय से ! और भी बहुत कुछ है, हथियाने के लिए !
तेजुवा उस दिन पोखरी की दुकान में डंके की चोट से कहता था-पिरुमुआ पागल मरे तो गोमती राँड़ को अपने घर में रख लूँगा..

अपना रूप-रंग अपने को ही अभिशाप-सा लग रहा था उसे। गोमती सोचती रही कि नोच-नोचकर अपना चेहरा कुरूप कर ले। देवदार के जलते छिलके से झुलस ले। परमेसर भी कितना कठोर है ? इतना रूप उसे न देता तो आज वह सब न भुगतना पड़ता-! बाहर के ही नहीं, घर के भीतर के भी सब दुश्मन हो गये हैं !
‘‘अभी सोयी नहीं गोमु ?’’ माँ ने करवट बदलते हुए पूछा।
‘‘नींद नहीं आ रही इजा !’’ गोमती ने यों ही उखड़े-उखडे स्वर में उत्तर दिया।
तेरे देवर देबिया की लाम से कोई चिट्ठी-पतरी आयी ?
‘‘इधर बहुत दिनों से कुछ नहीं। माघ-फागुन में एक चिट्ठी ज़रूर मिली थी। तुलिया बतला रहा था कि किसी दूसरी जगह बदली हो गयी है तब से कुछ नहीं।
‘‘पैसा-पाई तो फिर क्या भेजा होगा ?’’

‘‘द, कहाँ से ? पहले दो-तीन महीने में नोन-तेल के लिए कुछ भेज देते थे, पर अब वह भी नहीं। हमारी जान को तो ये सब दुश्मन लग गये हैं। कौन जाने किसी ने कोई ऐसी-वैसी चिट्ठी न भेज दी हो ! वह चुप हो गयी, कहती-कहती।
‘‘मल्ले घर ठुल कका की लड़की धरी का कुछ पता-पानी मिला इजा ?’’ गहरा मौन तोड़ती हुई गोमती बोली।
कहाँ चला ? माँ ने अनिच्छा से उत्तर दिया, कहते हैं टनकपुर में किसी नाई के घर बैठ गयी है !
ठुल कका की लड़की धरी और गोमती कभी सच्ची सहेलियाँ थीं। देवीधूरे के मेले में उस साल वे साथ-साथ गयी थीं। सारी-सारी रात उन्होंने झोंटे गाये थे ! हुड़के की ताल पर थिरकती रही थीं-उड़ती रही थीं-हवा में ! कहाँ गये अब वे दिन ?
घुटनों को ठोड़ी से मिलाये गोमती पता नहीं कहाँ भटक गयी थी !
 
 
 
 
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