Author Topic: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?  (Read 14659 times)

राजेश जोशी/rajesh.joshee

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #20 on: August 10, 2010, 12:10:05 PM »
यह बात मान ली जाए की कुमाऊनी/ गडवाली बोली नहीं भाषाए हैं तो क्या इससे स्थिति बदल जायेगी?  आज इन भाषाओं /बोलियों की वर्तमान स्थिति बड़ी दयनीय है| आज शायद १० साल से कम उम्र के १०% बच्चे भी  नहीं होंगे जो इन भाषाओं को बोल पाते हों और लिखने वाले तो शायद कुल बोलने वालों का भी ०.१% होगे|  वो तो भला हो म्यूजिक  और विडिओ  एलबूम का जिनकी वजाh से हम इन भाषाओ को शहरों में सुन पाते हैं, वैसे भाषा और संस्कृति का सत्यानाश करने में इन एलबूम ने भी कोई कमी नहीं छोडी|
केवल कह देने से क्या ये भाषा का रूप ले लेंगी, या इन भाषाओं में जब अधिक से अधिक साहित्य, समाचार, पत्रिकाऎं छ्पेंगी।  अधिक से अधिक लोग इनको सीखेंगे, मैं समझता हूं इस फ़ोरम के कितने प्रतिशत सदस्य ऎसे है जो अपनी भाषा लिख और बोल सकते हैं?
केवल एक नारा लगा देना कि कुमाऊनी/ गडवाली बोली नही भाषा हैं से काम नही चलेगा।  जो इन भाषाओं को जानते हैं उनको इसे प्रचारित करना होगा और जो नही जानते उनको सीखने की कोशिश करनी होगी। आज तो स्थिति यह है कि अगर कोई इन भाषाओं का प्रयोग करता है तो उसे गंवार और अनपढ़ समझा जाता है। 
मैं कई उत्तराखण्डियों को जानता हूं जो शहरों में रहकर पंजाबी, बंगाली, मारवाड़ी और गुजराती तो बोल लेते हैं क्योंकि उन भाषाओं को सीखना व्यवसायिक मजबूरी है, पर कुमाऊनी गड़वाली नही बोल पाते।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #21 on: August 10, 2010, 12:39:10 PM »

जोशी जी बिलकुल सहमत हूँ आपके बातो से!

हामी यो पोर्टल क माध्यम लगातार यो जोर देते उन रियो की आपुन बोली क प्रचार प्रसार करन छे! इन बोलियों के जियोंन रखन क लीजी सख्त कदम उठाई जाण चैनी!


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #22 on: September 07, 2010, 03:16:02 PM »
लोकभाषा अकादमी के गठन की मांग


देहरादून। लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी के नेतृत्व में उत्तराखंड लोक भाषा साहित्य समिति के एक प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री डा.रमेश पोखरियाल से मुलाकात कर लोकभाषा अकादमी के गठन की मांग की।

श्री नेगी से सीएम से कहा कि सूबे की लोकभाषाओं के विकास एवं संरक्षण के लिए लोकभाषा अकादमी का गठन आवश्यक है। उन्होंने मुख्यमंत्री से गढ़वाली-कुमाऊंनी भाषाओं को प्राथमिक स्तर पर शैक्षणिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का आग्रह किया। सीएम ने प्रतिनिधिमंडल को यथोचित कार्यवाही का आश्वासन दिया और भाषा शोध संस्थान के निदेशक को इस बारे विस्तृत रिपोर्ट मांगी।
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6689800.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #23 on: January 25, 2011, 02:08:15 AM »

Now a days, there is a lot of talk on this issue. I believe State Govt is also going to give status of state languages to both the dialects.

I do agree with the suggestion given by our Senior Member D N Badola Ji. However, i have a suggestion that we should have only one language in the state. We should develop one language which is combination of Garwali and Kumoani since 80-90% similiary in both the spoken language. This will have many benefits in long terms. May be many people will not agree with this suggestion because they wish to give new status to the both language.

Already there are rifts / gaps between both the region over the dialets. It will be better idea if we develop one common language for long term benefts.


Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #24 on: January 25, 2011, 07:22:39 AM »

Survival of regional languages is essential. We all should work towards this.

It is would be definitely better if there is one language.


हेम पन्त

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #25 on: January 31, 2011, 07:56:20 AM »
गढवाली-कुमाऊंनी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा करके संस्कृत को द्वितीय राजभाषा घोषित करके भाजपा की सरकार ने एक बार पुन: यह सिद्ध कर दिया है कि उनकी सरकार राज्यहित या जनता की सोच से नहीं बल्कि भाजपा की सोच से काम कर रही है... संस्कृत को जो सम्मान दिया गया है उस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन लाखों लोगों द्वारा बोली जा रही गढवाली-कुमाऊंनी-जौनसारी भाषाओं को यदि सरकार ने संरक्षण नहीं दिया तो इन बोली/भाषाओं के अस्तित्व पर गंभीर संकट पैदा हो जायेगा.

इस विषय पर गढवाल के सांसद सतपाल महाराज ही क्षेत्रीय बोली-भाषाओं के समर्थन में आगे आये हैं. सतपाल महाराज ने गढ़वाली व कुमाऊंनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने संबंधी निजी विधेयक लोकसभा पटल पर रखे हैं।

हेम पन्त

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #26 on: January 31, 2011, 08:11:33 AM »
इस मुद्दे पर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार बटरोही जी का एक लेख पिछले दिनों "अमर उजाला" के सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ था...

पहचान मिटाने की कोशिश
बटरोही
पिछले दिनों खबर आई कि उत्तराखंड में युवाओं के एक वर्ग ने राज्य स्तरीय परीक्षाओं में स्थानीय भाषा, रीति और परंपरा की जानकारी की अनिवार्यता का विरोध किया है। समाचार में राज्य के विभिन्न जातिगत संगठनों का हवाला देते हुए कहा गया कि सरकार राज ठाकरे के नक्शे-कदम पर चल रही है। सिद्धांत रूप में बात गलत नहीं लगती। मगर क्या ठाकरे के मराठी पहचान से जुड़े आंदोलन को इस शासनादेश के समकक्ष रखा जा सकता है? समाचार पढ़ते ही मुझे कुछ महीने पहले अपने साथ घटी एक घटना याद हो आई। सरकार द्वारा संस्कृत को राज्य की दूसरी राजभाषा बनाए जाने की तैयारी से पहले भाषा और संस्कृति का पूरा बजट संस्कृत पर झोंकने के निर्णय पर मेरा एक लेख छपा था, जिसमें मैंने संस्कृत को अतीत की भाषा बताते हुए इस फैसले को युवाओं के साथ अन्याय कहा था। मेरा इशारा उत्तराखंड की दूसरी राजभाषा के रूप में हिंदी और कुमाऊंनी-गढ़वाली, जौनसारी, बुक्सा, थरुआटी आदि उपभाषाओं को प्रोत्साहित करने की ओर था। यह भी कि उत्तराखंड में रहने वाले दूसरे भाषा-समूहों जैसे उर्दू, पंजाबी, भोजपुरी आदि पर भी सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए। इन सभी भाषाओं का दूसरी राजभाषा के पद पर संस्कृत से पहले हक है।

लेख छपते ही मेरे मोबाइल की घंटियां बजने लगीं और करीब दस-बारह दनों तक मुझे लगातार धमकियां दी जाती रहीं। ऐसे उत्तराखंड के बारे में तो मैंने नहीं सोचा था। मगर रहना हमें इसी उत्तराखंड में है, जहां मेरे विरोध के बावजूद संस्कृत को दूसरी राजभाषा बना दिया गया है।

इस बीच ऐसा लगता रहा कि जिस प्रजातंत्र को हमने अपनी सुरक्षा के लिए चुना है, उसमें ऐसे विरोधाभास तो आएंगे ही। जब ऊपर से ही धर्म, जाति और संप्रदायों को मुक्ति के रास्तों के रूप में परोसा जा रहा हो, तो हम अकेले कर ही क्या सकते हैं? जिस घर में रहना है, उसकी बगल से गंदा नाला बहता हो, तो हमें उस दुर्गंध
को सहने की आदत तो डालनी ही पड़ेगी।

इसीलिए बीच का रास्ता अपनाते हुए यह एहसास हुआ कि संकट ही एक दिन उसका उपचार बनकर सामने आता है। आज यही हुआ है। जिस पहाड़ी पहचान को लेकर इस राज्य का गठन हुआ था, उसी के बारे में कहा जा रहा है कि हम उसके पहाड़ीपन की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करते। और ऐसा भावुकतावश नहीं कहा जा रहा है। वे जानते हैं कि उनके पास नए परिसीमन का ब्रह्मास्त्र है, जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता। पहाड़ी क्षेत्रों के विधायकों की संख्या तो मुख्यमंत्री नहीं बना सकती, इसलिए मैदानी क्षेत्रों के लोग जैसा चाहेंगे, वैसा ही होगा।

मगर जरा ठंडे दिमाग से सोचें कि यह पहाड़ी-मैदानी है क्या चीज। जिन लोगों ने मुझे मार डालने की धमकी दी थी, वे कोई हरिद्वार-उधमसिंहनगर के युवा तुर्क नहीं थे। बाद में पता चला कि संस्कृत के साथ उनका कारोबार जुड़ा था, और पुरोहिती का कारोबार उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में ही होता है। अब यह चिंता साफ दिखाई दे रही है कि सरकार के निर्णय से उन लोगों का करोबार प्रभावित हो रहा है, जो पहले प्रतिपक्ष में थे। झगड़ा वहीं होता है, जहां स्वार्थ टकराते हैं। यह कोई जरूरी तो नहीं कि हरिद्वार या उधमसिंहनगर का प्रतिनिधित्व करने वाला विधायक या सांसद पहाड़-विरोधी या अल्मोड़ा-टिहरी का विधायक मैदान-विरोधी ही होगा। यह चिंतन आखिर हमें कहां ले जाएगा?

आम अनपढ़ आदमी तो हमेशा अपने से बड़ों की नकल करता है। तकलीफ तब होती है, जब सत्ता के शीर्ष पर बैठा आदमी इस तरह की सोच रखने लगता है। हमारे एक नेता को उत्तराखंड में फौजियों के अलावा दूसरी प्रजाति दिखाई ही नहीं देती। दूसरे नेता को लगता है कि भगवान ने सारी कूटनीति उन्हीं के दिमाग में परोसी है, वह जब चाहें, संजीवनी पर्वत को हनुमान जी की तरह हिमालय के भाल में स्थापित कर सकते हैं और देवभूमि को जब चाहें, देवताओं की भूमि बना सकते हैं। जिस नैनीताल में पढ़ा हुआ विद्यार्थी मानेकशॉ देश का पहला सेनाध्यक्ष रहा हो, देश के पहले नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक सर सी. बी. रमन के शिष्य जिन डी. डी. पंत ने यहां के एकमात्र क्षेत्रीय दल यूकेडी (उत्तराखंड क्रांति दल) को जन्म दिया हो, वहां अवैज्ञानिक और अतार्किक बातें सुनकर आज बड़े-बड़े संस्थाध्यक्ष मुंडी हिलाते हैं। जाहिर है, ऐसे समाज से उम्मीद रखना कुछ ज्यादा ही है।

Anil Arya / अनिल आर्य

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #27 on: January 31, 2011, 08:19:47 PM »
We have created a community awareness cause in facebook i.e. "Pahadi Must be Official Language in India " . Humble request to all of you who are in facebook to join/support the cause. We have not yet added any website there. May we add our forum's website in the cause ?
Shri Navin Joshi Ji of the forum is very active member in the cause and his bulletins are inspiring.
My opinion is that we all together must make all efforts by any means to make our "Matrabhasha" as Official Language. Jai Uttarakhand !

Anil Arya / अनिल आर्य

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #28 on: January 31, 2011, 08:45:18 PM »
Shri Satpal Ji ka sath Uttarakhand ke Sabhi MP de rahe hai. Shri K,S,Airy sahab bhi is disha mai atyadhik prayas kar rahe hai. Hamai apani matrabhasha ki suraksha karani hi hogi, warna hamari dudhboli bhasha vilupt ho jayegi. Pichhle 1 mahine ke dauran Kumaun & Garhwal mai lagbhag 4000 km yatra kar chuka hu. Jaha bhi ruka, jis se bhi mila chahe wo pahchan ka tha ya anjan. Maine Pahadi mai hi baat ki lekin mujhe uttar hindi/hinglish mai mil rahe the. Samajhte sab hai wo.. Bol bhi sakte hai.. Pata nahi bolte kyo nahi ? Mujhe bahut dukh huwa.:( Lekin Almora se pahle Kapadkhan mai ek Angrej se mila. Maine poochha - Which country you belong sir... He replied.. UK dajyu .:)

कमल

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Re: How to develop Kumaoni & Garhwali as Official Language of Uttarakhand?
« Reply #29 on: February 01, 2011, 01:26:05 AM »
इसी विषय पत बटरोही जी का लेख यहाँ पढें।

http://www.nainitalsamachar.in/mail-from-readers-on-language-and-nainital-samachar/

कुछ अंश

मैंने कभी एक लेख में लिखा था कि उत्तराखंड के नया राज्य बनने के बाद सबसे पहले यहाँ की स्थानीय भाषाओं के विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बीजेपी की सरकार बनने के बाद खंडूरी ने संस्कृति और भाषा के हिस्से का सारा पैसा संस्कृत के प्रचार-प्रसार में झोंक दिया था। उसी की प्रतिक्रिया में था वह लेख। जिस दिन लेख छपा मेरे पास दर्जनों फोन आये। पहले मुझसे कहा गया कि जिसे मैं नहीं जानता, उसके बारे में न बोलूँ, मैंने संस्कृत को मृत भाषा कहकर उनकी माँ का अपमान किया है। मैंने उन्हें बताया कि संस्कृत मेरी भी माँ है और मैं अपनी स्वर्गीया माँ को जिंदा कैसे कहूँ ? एकाएक वे फोन पर ही दहाड़े, ‘‘हम लोग दूसरा तरीका भी जानते हैं… (भद्दी अश्लील गाली) तुम तब मानोगे, जब नैनीताल के चौराहे पर नंगा करके गधे पर बैठाकर तुझे घुमाएँगे। (भाषा में मैंने कोई फेरबदल नहीं किया है।)

 

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