Author Topic: Kumaoni Poem by Sunder Kabdola-सुन्दर कबडोला की कुमाउनी कविताये  (Read 12439 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सबै हैगिण छल- बल पहाडि
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सबै हैगिण छल-बल पहाडि
 दुर दँराजु नँगरु किनाँरु
 गौ ले लागणो यु सुनसान
 बँखाई मा लागि यु वरदान
 सिमट गये रे घर परिवार
 ना सुख-दुख कैकु मनमा आज
 मस्त मँलग यु अपणु आप
 जूँउ तरिकु ले बदलि गै
सबै हैगिण छल-बल पहाडि
 पढि लिखि तुम अनपँढ छा
“पता नही है तुमको आज”
‘अपणु सँस्कृति कु आधार
 बोलि-भाषा कु व्यवहार’
एम॰ए-बी॰ए तुम अनपँढ छा
 बोलि-भाषा ममी-डेडि
 कँहा गये रे ईजा-बौज्यु …?
सबै हैगिण छल-बल पहाडि
 दि डबलु कु टुकुडि मा
 एक घुँट कु दाँरु मा
 दँबग बनि तुम लोटि ऊँछा
 दि चार दिनु कु छुट्टि मा
 “दँबग गैई यु तुमरि देखि”
गौ कु बाँटु तै दँबग
 ब्यौ-बँरातु तै दँबग
 बोलि-भाषा तै दँबग
 फैन्शि-फैशन तै दँबग
 गिज-खापडि तै दँबग
 डँबलु वालु तै दँबग
 कै यु छा तुमरि यु दँबग …?
बुँढ-बाँढि एक नजर
 कैथे बोलि उ नजर
 धुँधलित दैखणि वैक उँमर
 यौवन छाडि बुँढि हैगे
 सार ऊमर हाँट-बाँट तोडि
 तै बनि
 यु पहाड यु दँबग
 यु पहाड यु दँबग
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बोलो दगडियोँ कौन दँबग …?
सबै हैगिण छल-बल पहाडि
 रित कु र्कज निभे दे आज
 बँखाई मा जोडो कल कु बात
 कुड पाँथरि अण्यार उजैलि
 धात लगुणो यु पहाड
 पुरैण जमान कु पुरैण रिर्वाज
 बुँढ-बाँढि कु यु आँखण
 आज निभे दे यु रिर्वाज
 गुजर जमान कु झँवड- चाँचरि
 बुँढ-बाँढि कु यु नजर
 तरसि गी रे यु डगर
 हुँडकि-बौल थाल नचै दे
 बुढिण आँखण चमक जगै दे
 चिमडि ग्लाँड हँसि दिखै दे
लेख-सुन्दर कबडोला
 गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
 © 2013 sundarkabdola , All Rights Reserved

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कै लिखदूँ (पलायन का र्दद)

मी यस कै लिखदूँ
 त्यर आँखा भरदूँ
 बोल पँहाडि परदेशी
 कै लिखदूँ…
बुँढि ईजा कू आँख्यु कु स्याहि
 कलम डूँबै बै
 ईजा कु किमत आँसू मा रचँदु
 जैकु बगणु आँखण आँसू
 नहर किनारुँ बौल किनारुँ
 पुश्तैणि धरति सिचणु कु काँरु
 आँखण आँसू खेत- खलियाण मेड़ मा बैठि
 पुतैई दगैई वैकु सुख- दुख हैगे
 आँखा आँसू खेत मा बरकि
 हरि- भरि यु खेत ले हैगे
बोल पँहाडि परदेशी
 कै लिखदूँ…
 बुँढ- बाँप कु छैई तू लाँठि
 कसि बतु मि.. ओ ईजा
 परदेशी हैगो उ लाँठि
 ज्युँ छि बुढिण काँऊ कु तुमरि लाँठि
 परदेशी हैगो सैण दगडि उ लाँठि
बोल पँहाडि परदेशी
 कै लिखदूँ…
 कस उगैई यु फसल
 जबै बनेलै तू ले बौज्यु
 त्यर सैण ले होलि कैकि ईजा
 जस उगैई यु फसल
 यु पिड़ै… याद करि मेहसूस ले हाल
 किले कि दगडि
 जस उगैई वस कटैई
 जस उगैई वस कटैई
लेख-सुन्दर कबडोला
 गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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आज-कलक-ब्वारि

सैणि लट कुन्दि मुँह
 मिले आणु तुमर दगडि
 साँसु भल नि करनी म्यर दगडि
 ना देन्दि लुकुडि खुट कु चपल
 मै नि रेन्दि तुमर कुडि मा
 परदेश लि जावा
 नै तै जाणू आपण मैति मा
 त्यर ईज…
 “बूत-बते यदुक भागा-भागा
 कमर ले हैगेँ म्यर आदा-आदा”
 त्यर ईज गाई देन्दि मिगि
 बुत-बुत कर कैन्दि मिगि
 रँग रुप ले फिकि छा
 त्यर ईज ले कभतै भल करिया छा
 कौतिक बार…मैतक छुट्टि
 गिन-गिन बे देन्दि छा
“मैसल माणि सैण उजाणि
 मण-मण हैगो माँ उजाणि”
जैल धरि नौ महण
 दुख मा रैबे
 ठण्ड पूष मा गिल मा जबै
 उगणि रखि सुख मा हैबे
 सुख-दुखै मा…
 ममता कु आँचल उडाई
 अँगुलि पकडि दुनिया देखि
 माँ हैबेर सैणि छा कै
एक तराजु तौल है कैसा
 एक तराजु तौल है कैसा
 माँ अर सैणि तौल बराबर
 नाप तौल मा कै छू गड-बड
 आपण पराई मा भेद के करनी
 एक तराजु माँजि-सैणि
 तौल बराबर दुनियादारी
 माँ तराजु सब से उपर
 माँ तराजु सब से उपर
“सैणि एक रव्टु आध हिस्स हुन्दि
 पर पुर रव्ट मा माँ कु हँक हुन्दा”
लेख-सुन्दर कबडोला
 गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
 © 2013 copy right पहाडि कविता ब्लाँग , All Rights Reserved

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जाण दै ईजू परदेशा डिगरी म्यरोँ हाथ मा

जाण दै ईजू परदेशा
 डिगरी म्यरोँ हाथ मा
 नि हुणो गुजरोँ… कुलि बोल मा
 ढूँग तोडि गाड़ मा
 कमरे टूटि एक चोट मा
जाण दै ईजू परदेशा
 डिगरी म्यरोँ हाथ मा
 दगडे छिण दगडि ले
 ले गिणा परदेशा
 छोटि मोटि नौकरी करी
 डबल भैजुण मर्निओडरा
सुन ले म्यर ‘सुन्दरा’ तू
 कसकै रोकू तुगणि रे
 डिगरी त्यरोँ हाथ मा
 त्यर बौज्युल ये रैबेर
 जिन्दगी काटी… यु पहाड मा
कसकै रोकू तुगणि रे
 डिगरी त्यरोँ हाथ मा
 दुध बेचि हल लगाई बैर
 कोलेज कराई तुगणि रे
 दिन दोपहरी घाम मा
 छवट मवट काम करि रे
 रैबेर यु पहाड मा
 सबुक पेट पालि… यु पहाड मा
कसकै रोकू तुगणि रे
 डिगरी त्यरोँ हाथ मा
 सरकारले पट करि रे
 नौकरी चाकरी
 पहाड बटि दुर करि रे
 पहाडि नानतिणा कै
 सरकारले तोडि आस
 तू नि तोडिये हमरे आस रे
 बुढ पराण छिण
 बुढ पराण छिण
जाण दै ईजू परदेशा
 डिगरी म्यरोँ हाथ मा
 बिन घुसक नि मिलि
 सरकारी नौकरी
 सरकारी नौकरी
 डिगरी लिबेर फेल हैगिण
 सरकारी दफतर मा
 सरकारी दफतर मा
लेख-सुन्दर कबडोला
 गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
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From - Sunder Kabdola

मै होती माँ मै भी माँ होती

मै होती
माँ मै भी माँ होती
नव-जीवन अँकुर मे… मै होती

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अगर धरा मे मै भी रहती
तो सुहागन मै भी होती
नव-जीवन अँकुर मै देती
तेरी जैसी मै भी होती
जितने रुप तुझमे होते

एक रूप तो मुझको देती माँ
एक रूप तो मुझको देती माँ
80-90 दिन कि थी मै
अगर तू रखती मै भी होती
अपने यौवन बाल्य अवस्था मै भी हँसती
एक रूप तो मुझको देती माँ॥
एक रूप तो मुझको देती माँ॥

मै होती
बाबा मै भी माँ होती
तेरे घर कि कन्यादान मै होती
आँख के आँसु मे ही रखते
छलक के मै निकल ही जाती
कन्यादान मे तेरो बाबा
याद तो आती तुमको मेरी
अगर धरा मे मै भी होती
80-90 दिन कि थी मै

“यु ही मार गिरा दो
भाई हाथ के रक्षा बँन्धन को”

जब पुछेगा ये भाई मेरा
कहा है मेरी छोटी बहना?
जवाब तो तुमको देना होगा
जवाब तो तुमको देना होगा
80-90 दिन कि थी मै
अगर तुम रखते मै भी होती

भाई हाथ का रक्षा बँन्धन॥
भाई हाथ का रक्षा बँन्धन॥

जब त्यार ब्यार मे रौनक होगी
याद तो तुमको मेरी होगी
जब आलि ईजा त्यर माँ भिटौलि

तू किसको देगी बोल भिटौलि
अगर धरा मे मै भी होती
“मै भी होती आस मे बैठी
कब आलि म्यर माँ भिटौलि”

अगर तू रखती मै भी होती
80-90 दिन कि थी मै॥
80-90 दिन कि थी मै॥

लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
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चलता पानी
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पहाडोँ का ओ चलता पानी
 पलभर रुँकता है ओ पानी
 नदि मोड़ मे पीछे मुड़ के
 निहार ओ लेता तीव्र वेग से
 जिस धरा से उँदगम उसका
 उत्तँराखण्ड के पर्वत शिखँला
 पलभर रुँक के नमन: ओ करता
 छल छल करके चलता पानी
जब मेडँ लगा के नदियोँ मे
 नहरो मे चलता है ये पानी
 बौल मे दौडे छल छल करके
 ग्रेहुँ धान फसल को
 जड़ चेतना देता है ये
 फिर भी देखोँ…
 पथ पथ मे मेली
 अस्त्तिव है खोती
 जिस धरा से चलती है ये
कोई कैसे समझे…
 उस पानी कि दुख र्व्यथा
 जिसकी नीयती चलना है
 निर्स्वाथ ही उसकी धारा हे
 निर्स्वाथ ही उसकी धारा है
लेख-सुन्दर कबडोला
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ओ बुढि राते
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पहाडोँ मे बिति ओ दिन राते
 कहा गये रे ओ बाते
 जब आँगण मे सज्जती थी ओ मेहफिल
 ठण्ड पूँष कि थी ओ बुढि राते (लम्बी राते)
 चाँदनी भी हँसति थी तारो सँग
 जब सज्जती थी बँखाई आँगण मे ओ मेहफिल
 झव्ड चाँचर कि होती थी ओ राते
 बुँढ बाँढा फँसक फँसाक आण काथ कि ओ उलझि राते
 जब चलती थी ओ ब्यार
 देव वाँध्य कि होती झनकार
 कम पड जाती थी ओ बुढि राते
 कुछ ऐसा बिता पहाडो मे पहले
 जो फिर ना लोटा
 पहाडो कि ओ बुढि रातोँ मे
तुम बदले हम बदले
 ना बदले ओ बुढि राते
 आज भी चलती है ओ राते
 आज भी चलती है ओ राते
लेख-सुन्दर कबडोला
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मै,सँस्कृति और उत्तँरा (उत्तँराचल)
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मै,सँस्कृति और उत्तँरा (उत्तँराचल)
प्रकृति से लिपटी धरोहर मेरी
 कुँमो गँडु मे फैला आँचल
 मै और मेरी वन सम्प्रँधा
 अनत् रुप मे बिखरे शाँखा
 अदभुत रचना सँस्कृति मे मेरी
 देव नाम का शँखनाद उजागर
 मै हुँ उत्तँरा
 देवलोक कि तप भुमि
 महाकाव्य कि बाँहे फैली पथ रेखा
 मै हुँ उत्तँरा
क्या कहुँ अब मेरी उत्तँरा
 क्या-क्या ना उजड़ा
 दारुण (असहाय्) जैसा
दिशा हिन को उडते पँछि
 तेरी बोली मँड्डवे कि खेति
 कागज मे चलती पैसो मे बनती
 विवश रुप मे बैठि सँस्कृति तेरी
 देव वाँद्य भी वैराग्य औठँ मे
 अब ये समृद्धि उत्तँरा तेरी
 तिमिर हो रही जड़ चेतना तेरी
बँजर से होती तेरी सँस्कृति
 फैन्शी फैशन विराणि सँस्कृति
 वैभव के कारण मोक्ष प्राप्ति
 तत पे बैठा पहाडि मानव
 पहेचान भुला के तृष्णा ले के
 छोड चले रे आँचल तेरी
 भुला रहे ये सँस्कृति तेरी
प्रकृति से लिपटी सुन्दर धरोहर
 कोई खोदे आँचल जल स्रोत किनारे
 कोई सुखाऐ तेरे नव जीवन चेतन
ओ रे उत्तँरा
 तूँ और तेरी विकल वेदना
 बेसुद होती उत्तँरा सँस्कृति आँचल
ओ रे उत्तँरा
 कँहा गये ये हुँडकि ढोल
 सुने मे नही आते कोई बोल
 क्या ये तेरी रित-रिवार्ज कि पिड़ा है
 या मैरे कलम को हो रहा है भ्रँम र्निदेश… भ्रँम र्निदेश… भ्रँम र्निदेश?
लेख-सुन्दर कबडोला
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जल

‘हिमाल कोण से दुल्हन जैसी
अपने मिलन को दौडि’
प्रेम रँग मे रँगती
कल-कल करती
जल रास रसिया
र्निमल प्रतिबिम्ब शाँन्त सरोवर
निछवर धारा- कटोर धरातल
आलिँगन लेती मिलन घोषणा
करे याञा समुद्र तट को
बाँधित होती हर मोड पे चलती
बाँहे फैली कितने पथ पे चलती
संकल जनोँ कि प्यास बुझाती
गाँव से लेकर नगर-नगर मेँ
हरयाली-खुशयाली देती
जँह-जँह से होकर बँढती
तँह-तँह से मेली गँढती
अशक्त दशा मे समक्ष बर्बरता
जीव प्राणी सहम भी जाते
खेत-खलियान गीत भी गाते
धरती माता प्यास बुझा दे
छण-मण-छण-मण
बर्रखा रुपि आँसू लाती
सर्म्पुण जगत कि प्यास बुझाती
संकुचित रुप इति बना के
सार्मथ्य होती मिलन दिशा
प्रेम रँग मे रँगती देखो
कठीन याञा सफल बनाती
“कुछ क्षण ठहर भी जाती
अपने मिलन तट किनारे”
समुद्र है खारा
नदी है शीतल
मिलन भी होता आत्म मंथन जैसा
“प्रकृति जगत कि सच्ची प्रेम धारणा
चल के देखो देव मान्यता”

लेख-सुन्दर कबडोला
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एक उँडाण गौ- गुठाँरु

गौ-गुठाँरु पँछि हौला
 एक उँडाण गौ-गुठाँरु
 बौटि डाई घुमि आला
 फल फुलारु रमडि हौला
 बुढ-बाढि फल टिपणि हौला
 च्याला ब्वारि घौर कु औला
 ईजा-बौज्यु बुढि-बाढा
 हँसणि मुखडि हँसणि रौला
 आँगण मा नान दौडि रौला
 बुँढ पराण कस हौँसि हौला
 जण सोचि लिया
 जण सोचि लिया
 म्यर गौ-गुठाँरु पँछि हौला
 यकुलु पराण कण सुखि हौला
 ईजा-बौज्यु कै सोचणि हाला
 आस पराई कण रिश्त बनाई
 गौ-गुठाँरु पँछि हौला
 phadi kavita blog height=107
 
 लेख-सुन्दर कबडोला © 2013

 

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