घुघती*
गढवाल में सामजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की छटपटाहट दर्शाती गढवाली कविता
कवि – सुरेश स्नेही
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वा घुघती यख अब नी रयीं,
जू ब्वेकु रैबार लौन्दी छैई,
मैत्यूंकि छ्वीं बतैकी हमेश,
खुदेड़ बेटी ब्वारयूं बुथ्यौन्दी छैई।
कै मील उड़ीतैं औन्दी छै ज्वा दूर,
बासौं रैकि तैं जान्दी छैई,
बेटी ब्वारयूं कु रंत रैबार,
वींका मैत्यूंमु पौछौन्दी छैई।
अब ना उ बेटी ब्वारी रैगिन जौतैं,
खुद लगो अपणा मैतै की,
घुघती जगा मोबाइलून लेली,
जू सैदा लगौन्दिन सब्यूं की।
डाली बोटी, घौर बौण सैरी,
काटि लीन गौमा मनख्यून,
जख बणौन्दा छा घोळ अपणा स्यू
यून सैरा जगैकि फूकिलीन।
घुघती कि घूर घूर अब कखि सुणेन्दी नी,
घुघती बासुती बाळौ तैंं सिखायेन्दी नी,
चौक तिवारी सैरी बॉजा पड़ी छन,
बिसगूण खान्दी घुघती कखी दिखेन्दी नी।
घुघत्यून बि अपणू रैबासू बदलीयाली,
डॉडी काठ्यूं छोड़ी सैरू तिरपॉ उडणै सोच्याली,
अणमिलौ ह्वेगिन मनख्यू दगड़ी सीबि यख,
जिद्द अर हींसा ठींसा यूनबि सिख्याली।
*सुरेश स्नेही,*