Author Topic: Kumauni & Garhwali Poems by Various Poet-कुमाऊंनी-गढ़वाली कविताएं  (Read 131311 times)

Bhishma Kukreti

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  रुद्रप्रयाग से बाल गढवाली कविताएँ
-
- संकलन - अश्विनी गौड़



नै छवाळि नै हौंस दगड़ि ना सिर्फ कलम चलौंणी बलकन समसामयिक घटनाचक्र पर भी पैनी नजर च रखणीं,
नै छवाळि यन कलम मौरोंदि रौ, नै पांण गड़दि रौ।
  अर हमारी भाषा की नै बिज्वाड़ खूब लकदक बणींतै शब्दों की हैर्याळि खूब पौजौ---


---1---
   कोरोना वौरियर जवान---  जै हिंद सैल्यूट---

पैलि अफु बचला, तब हौरुबि बचौला,
कोरोना मामारी मा, सबि एकमुठ्ठ रौला,
बड़ि भारी जंग च, जु जीति हमुन औण,
जूंदि रौ मनख्यात, यनु मिशाल बणौण,
दया,दान, धरम,  धरम का करम,
आवा सबि फर्ज निभै,  ह्वै जौला एकमुठ्ठ
   कोरोना वौरियर जवान---- जै हिंद सैल्यूट--

दवै दगड़ा-दगड़ि हमुन, भला बिचार बणौण
चै कुछ ह्वे जौ,  या बीमारी अब हरौण,
पुण्य की ईं धरती मा,यन बिज्वाड़ डाळा,
बेरोजगार परिवारों मा, भूखा ना रौ बाळा,
     भूखा निंद द्यौला, उनिंदौ स्यवोला---
 आवा सबि फर्ज निभै, ह्वै जौला एकमुठ्ठ
   कोरोना वौरियर जवान---  जै हिंद सैल्यूट---

दिन रात खड़ा रैक, जु नियम बणौणा,
हमारी सुरक्षा खातिर, ड्यूटी छिन निभौणा,
हमबि अपड़ि जुम्बरि, अर फर्ज निभौला,
बेफिजूल-बेमतलब, यथ-वथ नि जौला,
   अपड़ौ फिकर मा तौं, हमरि भी फिकर च-
 आवा सबि फर्ज निभै,  ह्वै जौला एकमुठ्ठ
   कोरोना वौरियर जवान---  जै हिंद सैल्यूट---

कखि खाकी वर्दी,पुलिस बणीं डट्यांन
अस्पताल भैर भितर डौगटर लग्यांन
कखि क्वे भग्यान सेवादार बणींक
अन्न-धन सक्या सामर्थ दिनरात जुट्यांन
   गिच्चा पैर्या मास्क, बीमारी हरौणौ टास्क
आवा सबि फर्ज निभै, ह्वै जौला एकमुठ्ठ
   कोरोना वौरियर जवान---  जै हिंद सैल्यूट---
वौरियर

------@अश्विनी गौड़ दानकोट रूद्रप्रयाग ।


----2----
   
-----कुरिण----
ईं बीमारी कू कुरिण भी, दिये जौलू
नै सुबेर ह्वौलि यु अंध्यारु छंट्यै जौलू ।

अफू भी समझा, हैका भी समझा दूं
आज भितर ग्वड्यां, भोळ आजाद ह्वौला ।

आज द्वि गजे दूरी
भोळ अपणा साथ ह्वौला
देस-परदेस संगता राजी ख़ुशी
भोळ अपणौ दगड़ि त्यौहार मनौला ।
 
शिक्षा अर रोजगार मा,
 फिर सी भलीऽ उन्नति ह्वौलि
ईं बिमारी तै दूर भगै
मुखड़ि मा हैंसी रौली।

लापरवै  कतै ना कर्यन
वैक्सीन लगा सुरक्षित रा,
मास्क, सेनिटाइजर लगौण
बगत पर समझि जा।

ईं बीमारी कू कुरिण भी, दिये जौलू
नै सुबेर ह्वौलि यु अंध्यारु छंट्यै जौलू ।

----------@कविता कैंतुरा  चिरबटिया रुद्रप्रयाग


---3---
-----"बचपन हर्ची फौनौ पर"------

पैलीऽ चार, नि रै अब कुछ,
देखदि- देखदि यु समाज बदलिगी।
लोग बदलिगीन, खांणु बदलिगी।
रहन - सहन, रीति -रिवाज बदलिगी।

नौनौकि थ्वबड़ि देखा जरा तुम,
गैम खेली-खेली  सि पस्त ह्वयां
सासु कु भीतर ककड़ाट मचायुं
ब्वारी फोनों पर व्यस्त ह्वयां।

आजा छोटा-छोटा नौनौ का
हाथौ  छन फोन दीन्या
दिन रात लग्यां सि फोनौ पर
और औनलैन छिन गैम ख्यन्ना।

छोटि  उमर का जब हम था त,
बांजा  लिकवाळ रिंगौंदा था,
दगड़ा मिली पिठ्ठू खैलदा था
 कागज फाड़ी जाज उड़ौदा था।

कन दिन था सि, जब हम बच्चा
फोनौ बटि भौत दूर रंदा था,
राढ़ करोंदा था,खौळा-खौळा मा
गौं मुल्क मा अपड़ा मसूर रंदा था।

थ्यगलै  बौल सिली सिली हम
बाँज कु फटफटु बैट बणौंदा था,
द्वी टैरे  कन गाड़ी रंदी थे,
तै पर रिंगाळी कु लाठु मिस्यौंदा था।

पैंट रंदि थे फटी - फटी
और तौं पर हमारा टाला रंदा था।
कुछ नी थो, पता फोनों का बाराम
यरां हम त जन लाटा रंदा था।

बारह का बाद ही फोन दिलौला
ब्वे- बाबा तब चित्त बुझौंदा था,
फौन से जादा पढ़ै जरुरी च
यीं बात बार-बार समझौंदा था।

आजा बच्चा देखा, जरा तुम
यतरा-यतरा भि, फौन चलौणा
खेल पिरेम और रिश्तौं बिसरी
फौनौ पर छन बचपन ख्वौंणा।

आज नी दिख्यैंदु, गौं मा कुईं
तार मोड़ि  गाड़ी बणौ जु
अफुम सब व्यस्त ह्वयां छन
क्वै निरै अब हैका समझौ जु।

समय से पैली बच्चों मा
हाथों मा छन फौन दीन्या
छोड़ धरातल गतिविधी त्वीन
दिन कटणां छन फौनौ मा।

पढ़ै- लिखै क्या फैदा च?
जब घौर बसौण सैरौं मा,
मातृभूमि कु रंत -रैबार,
हाल पूछणां छिन गैरौं मा।

 -----@- सचिन रावत, बजीरा लस्यां रूद्रप्रयाग
 ( Team - Uttrakhandi Kalakaar UK13)


-4--
बण की बिपदा '

कुळै डाळी अर बाजैं डाळी
आपस मा छुयी लगौंणी छिन
क्या पायी हौलु इथगा करि
आपस मा पिड़ा बुझौणी छिन |

बटौयूं तै छैल दिनी
भूखौं तें खाणुं दिनी
हवा दिक सबुतैं पराण दिनी
अपणु ल्वै-मासु चुल्लु जगौंणो दिनी
सब करी - धरी भी
हमारी पिड़ा कैन नी समझी
बणौं का बण फुक्यैगिन
यीं आगे हाळ कैन नी समझी |

कुळै  डाळी भी हुगांरा भरिक
अपणा मनै अब रखणी च
बिधाता ते पुकारी अब
प्रार्थना स्या या कन्नी च |

हे बिधाता ! मेरी ना सही
यौं जानबरों की पिड़ा त देख तू
कन माँ अपणा बाळों तें
आग मा जगदा द्येखणी ह्वेली
यीं पिड़ा त समझ तू
देख ये बणां राजो भी
क्या हाल आज होयूं च
अपणा आध फूक्या गात लीक
यख तख सु भी भागणूं च |

मनख्यूं सी भी अब आस नीन
हे बिधाता मेरी पुकार सूंण तू
बरखा कि बुंद बरखै क
यूं जानबारौ कु पराण  बचौ तू
यू सभी - धाडी द्येखीक भी
हमारी पिड़ा कैन नी समझी
बणौं का बण फुक्यैगीन
पर यीं आगै हाळ कैन नी समझी |
   
       ---@रिंकी काला, मयाली लस्या रूद्रप्रयाग


--5---
    ----मेरु क्या कसूर--
अगर ड़ाम का टूटण से
ग्वोरु, भैसौं जन,
बौग्यूं मि,
पाण्यां भितर अमोख्यै-अमोख्यै तै
मर्यूँ  मि,
त तब क्वे बात नी!

सड़क पर हिटदा-हिटदि
गाड्या तौळा एग्यूं मि,
त तब बि क्वे बात नी।

क्वे जंगलि जानवर
चीरि-फाड़ी..
खै द्योला मेरि जिकुड़ी
त तब बि क्वे बात नी!

सीमा युद्ध का,
बर्चस्व की लड़ै मा बि,
 अच्यांणचक मार्येग्यू  मि।
त तब बि क्वे बात नी!
बल्कि, ठिकै त ह्वे!
कि, फट-फटाक मर्यूं मैं।
न पिड़ा ह्वे,
ना जादा भुगती मैन।
ख़ुशी की बात च।
शांति मिलली मेरि आत्मा तै
मेरु जीवन कैका त काम ऐ।

हौर बि भौत बाना छन ज्यूंरा मु
म्यरा परांण लूछणा।

पर ईं अजांण, अणदेखी
मामारी का दिनौं मा,
घबरांणू अर, डर्यूं-डर्यूं छौं मि।
कि, कखि मरि न जौं।
मन मा भितरा-भितरी कबलाट ह्वौंणू च।

जबकि, हर कै बेमौत मर्दारौं
रौंदि-बिबलांदि, तड़फिदि आत्मा
की बाच आज बि धै लगौणी।।

----@गितांशू कप्रवान,जवाड़ी, रूद्रप्रयाग..

Bhishma Kukreti

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बिधाता तेरी माया, तेरी छाया
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गढवाली कविता -मधुर वदनी तिवारी

-


बिधाता तेरी माया
तेरी किरपा तेरी छाया
बिधाता तेरी माया।
तेरी बिज्वाड़ तेरा अंगरा
तेरा लगुला तेरा ठंगरा
तेरा जलड़ा तेरा टुख
दुख दि चा तु दी दे सुख
य तेरी काया तेरा जाया
बिधाता तेरी माया
बिधाता तेरी माया
तेरी किरपा तेरी छाया।
जु खैलि सु अंग भिजिगि
लिनि दिनि होलू त
दून्या याद रखिली
क्या मेरो क्या तेरो
तेरी किरपा तेरी छाया
बिधाता तेरी माया।
गुणत्याळि जिकुडि
रुगबुग्या आंखी
बिगरैलि सूरत द्यायी
माया दगडि घुट्टु पिट्टु
त्वैनै हमुतैं चखायी
हां त्वैने हमुतैं गिजाई
भूंचण दे या छट्ट छुडैदी
या त तेरी माया
तेरी किरपा तेरी छाया
बिधाता तेरी माया।
तेरी रंचणा तेरो संगसार
तू रितुखित्तु तू मौळ्यार
छै रितु तेरी तू धार गाड़
तेरा छप्पर तेरा तप्पड़
हम छां जातरी
आया जाया
हां हम छां जातरी आया जाया
तेरी किरपा तेरी छाया
बिधाता तेरी माया
बिधाता तेरी माया
तेरी किरपा तेरी छाया।
==
सर्वाधिकार @ मधुरवादिनी तिवारी

Bhishma Kukreti

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** विधाता छन्द में  रैबार *****
-
कविता , लोक गीत – प्रेमलता सजवाण
-
-
क्य द्यूं रैबार कैथै मी
कु सूणालू पिडा़ मेरी।
नि रैणू सार कैकू भी
अफी सांसू तु हो कैरी।
कि हैंसी का दगड्या वो
नि रोई खैरि तू कैमा।
वु द्वी मा चार जोड़ी की
लगाला छ्वीं जि सब्यूं मा।
उलारो बांध तीकों मा
दिखौ बाटो जमानों थै ।
कि गौरा भी तु तीलू भी
जुटो प्राणो कु सांसो थै।
नि छै अबला तु नी हारी
लडै़ माने समाने की ।
तिथै देखी कि नै पीढी़
बडा़णी हाथ साथे की।
नि रै जा चोलि क्वी तीसू
बणी पाणी सि तू लाटी।
तु रैबारी बणी की हो
मयल्दू "प्रेम" थै बांटी ।
===
सर्वाधिकार @ प्रेमलता सजवाण..
==
उलारो = उल्लास
तीकों = कमर


Bhishma Kukreti

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*"कूड़ी क चूंदा"*
-
अंजना कंडवाल

-
जनि सरग गगड़ाद,
डाँडों कुएड़ी लौंकी जांद,
वे निर्भगी कु पराण,
झर-झर झूरी जाँद,
कूड़ु कुरों पर लगीं च झूरी,
जगा जगा चूणु तपराट करि,
खटुली सरकणा कु भी,
अब जगा नि रयीं
कैनि छाणि अब या कूड़ी,
क्वी भी त नि सारु भारू,
को च आणू गरीबों कु ध्वारु
पण हे राम!
इनों कु क्वी नि होन्दू,
को च जु वे कु संकट तारु।
पता छन वे भी कै योजना,
कभी इंदिरा आवास योजना,
कभी अटल आवास योजना,
वे की ल्याखा त कुछ भी ना
पण हे राम!
दौड़ भाग कन्न कु भी त,
रुप्या चायेणा बल,
अर रुप्या जी हुँदा,
त या मेरी कूड़ी,
जगा जगा किले चूंदा।
@अंजना कण्डवाल 'नैना'


Bhishma Kukreti

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             " द्वी दिन बि  अनमोल "
-   
-   (गढवाली लोक गीत )
-   -
©संदीप रावत, न्यू डांग,श्रीनगर गढ़वाल

जिंदगी का द्वी दिन बि   बड़ा अनमोल
ह्वायि नि अज्यूं अबेर अब बि आँखा खोल  ।

 अपणि पीड़ा अर हूनर तैंईं पर्वाण बणौ
 जीत  होलि तेरी जरूर अफुतैं कम ना तोल   ।

तिमला का तिमला खत्येंदा नांगू को नांगू द्यिख्येंद
भेद अपणि जिकुड़ी को जै-कै मा सुद्दि ना खोल   ।

  काचा झाड्यों मा ना चढ़ी ऐंच सुद्दि ना उड़ी
  तोली-मोली फिर तू बोली सुद्दि खती ना बोल। 

कुछ  नि होण पर्बि त्वेमा  बच्यूं रै जालो भौत
शून्य बटि फिर शुरू कन्न  दिन बौड़ी आला भोळ ।
 ठण्डो रौण हीरा जन , झट्ट तची ना  काँच सी
उलखणी छ्वींयूं बटी तू कैर  मुण्ड निखोळ।

©संदीप रावत, न्यू डांग,श्रीनगर गढ़वाल


Bhishma Kukreti

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"नि सकदु"
-
विनीता मैठाणी पौड़ी

-   

बिंडी सी बल खै नि सकदु ,
कम खयां मां रै नि सकदु ।
त्वै बिना बल रयांदु नि छौ,
मिली गे अब सै नि सकदु ।
माया की झौळ कुभौड्या,
जै कैथै भी बतै नि सकदु ।
बेटी भली कि ब्वारी भली,
जमना थै दोष दे नि सकदु ।
मनखि थै क्या चयेंदु होलु ,
जु वैमा संतोष कै नि सकदु ।
रोजगार पैली चयेणु आज,
बेरोजगार ब्यो लै नि सकदु।
खाणु थै दूध घ्यू असली दे,
गौड़ी बाछी पाळी नि सकदु।
पढ्यां - लिख्यां बल हम त ,
जिकुड़ी भेद बाँची नि सकदु ।
-
©®विनीता मैठाणी पौड़ी
ऋषिकेश उत्तराखंड


Bhishma Kukreti

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पौंणां ""
-
Vinita Maithani
-
आशा अर अभिलाषा का ,
ब्यो मां जांँदु मि कई रोज ।
"पौंणा "बणिकी पौंछी रैंदी ,
मेरा सुपन्यों की बडी़ फौज ।
रूप, गुण, हिर्स ,माया,सज्यांँ !
वख बनि-बनि भौंणिक भोज ।
मन ललचाणु रौंद यनि सोचि ,
क्ये-क्ये का स्वाद माँ आली मौज़ ।
स्वाणि बणैकि अफु थै पौंछी जांँदु ,
मिथै रंगमत कै जा विं माया खोज ।
सभी देखी मिन अफि-अफि पुल्यांद ,
दुन्या लगणि बदलीं बदलीं सी रोज ।
..... ©®विनीता मैठाणी ..
पौड़ी गढ़वाल
ऋषिकेश उत्तराखंड


Bhishma Kukreti

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खैरी
-
गढवाली लोकगीत  – बिमला रावत
-
कख हर्चि होला वू दिन
जब रैंदी छै यख चखल -पखल
तिबरी डिण्ड्यलि चौक , छज्जा मा
नौना -बालों को घपरौल
बेटी -ब्वारियूँ को फफराट
गंजल्यूं की धमक ,
जन्दरयूं की घूँघ्याट ।
कख हर्चि होला वु दिन
छौडिकी चलि गैनी सबि मीथैं
यूँ डिण्ड्यलि तिबरी चौक छज्जा थैं
रै ग्यों मि यख यखुली उदास
दिखणुँ छौ बाटु सुचणुँ छौ दिन-रात
कब आला मेरा नौना -बाला बौडिक
अर् कब्ब मेरी उंसै भैंट होलि
कख हर्चि होला वू दिन
खुद्द मा तुमरी खुद्याणु छौ
बार-त्यौर मा जिकुड़ी हौंदी उदास
ऋतु ऎनी गैनी तुम नी आया
ए जावा अपरी मुखड़ी दिखै जावा
नि कर सकदु अब ज़ग्वाल
तीस मैरी ऑख्यौ की बुझै ज़ावा।
कख हर्चि होला वू दिन
संभाली सकदा त संभाली ल्यावा
युँ उज़ड़दी डिड्यलि तिबरि चौक छज्जा थै
जब तलक छौं बच्यू , बोडि जावा
ददा - परददो कि अमानत ते बचै ल्यावा
खंद्वार हूंण से मीथै बचै द्यावा
पुरणा दिनों से मीथै भिटै द्यावा।
मौलिक रचना
सर्वाधिकार  - बिमला रावत (ऋषिकेश )
उत्तराखण्ड — with Bimla Rawat.


Bhishma Kukreti

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""बंधन""
-
Garhwali Folk Poetry
-
Poetry by Vinita Maithani

-
माया हमारी च त अपेक्षा मां मायादार किलै सतयुँ,
जिकुड़ी अपड़ी च त हमरु बिना पुछ्याँ किलै बसयुँ ।
ज्यु त हमारु बोदु माया की छुंई लगाणु कु वैमा ,
ज़बरदस्ती हुंगरा पुजणा का बाना गैल किलै बैठयुँ ।
शरील अपणा अपणा छिनी चुचों बंधन जीणु कु स्वांग,
एक हैका थै भाग मां मांगी ला जिबाळ किलै बणयुँ ।
कुटुम्बदारी हमारी च निभौण भी धर्म च दगड्या,
मुखड़ी फरकै रणसूर सी अफु थै होलु किलै चितयुँ ।
विनीता मैठाणी
पौड़ी गढ़वाल
ऋषिकेश
उत्तराखंड


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"""मुडरू""
सुबेर कल्यो रुटि खावा ,
हजि दुफरा कु भात पकावा ।
रुसड़ा कु साफ सफै करि जनि ,
तनि चा कु भि फिर टैम ह्वे जावा ।
जबरि भांडा उबै नि साकी जरा ,
ब्यखुनि कु क्या भुज्जी बणावा ।
यु भारी कठिण सवाल ,
रोज-रोज क्या खाणु पकावा ।
कुई बोदु आज दाल किलै ,
कुई बोदु जरा झोळि भि बणावा ।
मुखुम खाणु सौंरि कि धन तब,
तौंका नखरा पचावा ।
कैथै मोटी रुठि कैथै फुलका ,
कैथै रसदार कैथै लटपटी खलावा ।
खाणु बणाणु सगत ""मुँडारु" भै ,
कमी रै हि जाँदि चा कन कन बणावा ।
पर जब सब्युँ कु मनपसंद बणदु ,
मन खुश होंदु सुणि कि और लावा ।
©® विनीता मैठाणी
पौड़ी ऋषिकेश
उत्तराखंड


 

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