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Kumauni & Garhwali Poems by Various Poet-कुमाऊंनी-गढ़वाली कविताएं

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Bhishma Kukreti:
"नि सकदु"
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विनीता मैठाणी पौड़ी
-   

बिंडी सी बल खै नि सकदु ,
कम खयां मां रै नि सकदु ।
त्वै बिना बल रयांदु नि छौ,
मिली गे अब सै नि सकदु ।
माया की झौळ कुभौड्या,
जै कैथै भी बतै नि सकदु ।
बेटी भली कि ब्वारी भली,
जमना थै दोष दे नि सकदु ।
मनखि थै क्या चयेंदु होलु ,
जु वैमा संतोष कै नि सकदु ।
रोजगार पैली चयेणु आज,
बेरोजगार ब्यो लै नि सकदु।
खाणु थै दूध घ्यू असली दे,
गौड़ी बाछी पाळी नि सकदु।
पढ्यां - लिख्यां बल हम त ,
जिकुड़ी भेद बाँची नि सकदु ।
-
©®विनीता मैठाणी पौड़ी
ऋषिकेश उत्तराखंड

Bhishma Kukreti:
पौंणां ""
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Vinita Maithani
-
आशा अर अभिलाषा का ,
ब्यो मां जांँदु मि कई रोज ।
"पौंणा "बणिकी पौंछी रैंदी ,
मेरा सुपन्यों की बडी़ फौज ।
रूप, गुण, हिर्स ,माया,सज्यांँ !
वख बनि-बनि भौंणिक भोज ।
मन ललचाणु रौंद यनि सोचि ,
क्ये-क्ये का स्वाद माँ आली मौज़ ।
स्वाणि बणैकि अफु थै पौंछी जांँदु ,
मिथै रंगमत कै जा विं माया खोज ।
सभी देखी मिन अफि-अफि पुल्यांद ,
दुन्या लगणि बदलीं बदलीं सी रोज ।
..... ©®विनीता मैठाणी ..
पौड़ी गढ़वाल
ऋषिकेश उत्तराखंड

Bhishma Kukreti:
खैरी
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गढवाली लोकगीत  – बिमला रावत
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कख हर्चि होला वू दिन
जब रैंदी छै यख चखल -पखल
तिबरी डिण्ड्यलि चौक , छज्जा मा
नौना -बालों को घपरौल
बेटी -ब्वारियूँ को फफराट
गंजल्यूं की धमक ,
जन्दरयूं की घूँघ्याट ।
कख हर्चि होला वु दिन
छौडिकी चलि गैनी सबि मीथैं
यूँ डिण्ड्यलि तिबरी चौक छज्जा थैं
रै ग्यों मि यख यखुली उदास
दिखणुँ छौ बाटु सुचणुँ छौ दिन-रात
कब आला मेरा नौना -बाला बौडिक
अर् कब्ब मेरी उंसै भैंट होलि
कख हर्चि होला वू दिन
खुद्द मा तुमरी खुद्याणु छौ
बार-त्यौर मा जिकुड़ी हौंदी उदास
ऋतु ऎनी गैनी तुम नी आया
ए जावा अपरी मुखड़ी दिखै जावा
नि कर सकदु अब ज़ग्वाल
तीस मैरी ऑख्यौ की बुझै ज़ावा।
कख हर्चि होला वू दिन
संभाली सकदा त संभाली ल्यावा
युँ उज़ड़दी डिड्यलि तिबरि चौक छज्जा थै
जब तलक छौं बच्यू , बोडि जावा
ददा - परददो कि अमानत ते बचै ल्यावा
खंद्वार हूंण से मीथै बचै द्यावा
पुरणा दिनों से मीथै भिटै द्यावा।
मौलिक रचना
सर्वाधिकार  - बिमला रावत (ऋषिकेश )
उत्तराखण्ड — with Bimla Rawat.

Bhishma Kukreti:
""बंधन""
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Garhwali Folk Poetry
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Poetry by Vinita Maithani
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माया हमारी च त अपेक्षा मां मायादार किलै सतयुँ,
जिकुड़ी अपड़ी च त हमरु बिना पुछ्याँ किलै बसयुँ ।
ज्यु त हमारु बोदु माया की छुंई लगाणु कु वैमा ,
ज़बरदस्ती हुंगरा पुजणा का बाना गैल किलै बैठयुँ ।
शरील अपणा अपणा छिनी चुचों बंधन जीणु कु स्वांग,
एक हैका थै भाग मां मांगी ला जिबाळ किलै बणयुँ ।
कुटुम्बदारी हमारी च निभौण भी धर्म च दगड्या,
मुखड़ी फरकै रणसूर सी अफु थै होलु किलै चितयुँ ।
विनीता मैठाणी
पौड़ी गढ़वाल
ऋषिकेश
उत्तराखंड

Bhishma Kukreti:
"""मुडरू""
सुबेर कल्यो रुटि खावा ,
हजि दुफरा कु भात पकावा ।
रुसड़ा कु साफ सफै करि जनि ,
तनि चा कु भि फिर टैम ह्वे जावा ।
जबरि भांडा उबै नि साकी जरा ,
ब्यखुनि कु क्या भुज्जी बणावा ।
यु भारी कठिण सवाल ,
रोज-रोज क्या खाणु पकावा ।
कुई बोदु आज दाल किलै ,
कुई बोदु जरा झोळि भि बणावा ।
मुखुम खाणु सौंरि कि धन तब,
तौंका नखरा पचावा ।
कैथै मोटी रुठि कैथै फुलका ,
कैथै रसदार कैथै लटपटी खलावा ।
खाणु बणाणु सगत ""मुँडारु" भै ,
कमी रै हि जाँदि चा कन कन बणावा ।
पर जब सब्युँ कु मनपसंद बणदु ,
मन खुश होंदु सुणि कि और लावा ।
©® विनीता मैठाणी
पौड़ी ऋषिकेश
उत्तराखंड

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