Author Topic: Garhwali Poems Hisotry - गढ़वाली कविताओ का इतिहास  (Read 27665 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

We are sharing information about Modern language and its specialty. This information has been compiled by our senior member Mr Bhishm Kukreti.

आधुनिक  गढवाली भाषा कहानियों की विशेषतायें  और कथाकार                                  (   Characteristics of Modern Garhwali Fiction and its Story Tellers)                                                                                                     भीष्म कुकरेती                                           कथा कहना और कथा सुनना मनुष्य का एक अभिन्न  मानवीय गुण है . कथा वर्णन करने का सरल व समझाने की सुन्दर कला है अथवा कथा प्रस्तुतीकरण का एक अबूझ नमूना है . यही कारण है कि प्रतेक बोली-भाषा में लोक कथा एक आवश्यक विधा है. गढ़वाल में  भी प्राचीन काल से ही लोक कथाओं का एक सशक्त भण्डार पाया जाता है . गढ़वाल में हर चूल्हे का, हर जात का, हर परिवार का, हर गाँव का , हर पट्टी का  अपना विशिष्ठ  लोक कथा भण्डार है जहाँ तक लिखित आधुनिक गढ़वाली कथा साहित्य का प्रश्न है यह प्रिंटिंग व्यवषथा  सुधरने व शिक्षा के साथ ही विकसित हुआ . संपादकाचार्य विश्वम्बर दत्त चंदोला के अनुसार गढ़वाली गद्य की शुरुवात बाइबल की कथाओं के अनुबाद (१८२० ई.  के करीब ) से हुयी  ( सन्दर्भ: गाड मटयेकि गंगा १९७५ ) .गढ़वालियों में सर्वप्रथम डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर पद प्राप्तकर्ता  गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने (उन्नीसवीं  सदी के अंत में ) हितोपदेश कि कथाओं का अनुबाद पुस्तक छापी थी (सन्दर्भ :गाड म्यटेकि गंगा).                                                                     आधुनिक गढ़वाली कहानियों के   सदानंद कुकरेती                 आधुनिक गढ़वाली कथाओं के जन्म दाता विशाल कीर्ति के संपादक, राष्ट्रीय महा विद्यालय सिलोगी,मल्ला  ढागु के संस्थापक सदा नन्द कुकरेती को जाता है . गढवाली ठाट के नाम से यह कहानी विशाल कीर्ति (१९१३ ) में प्रकाशित हुयी थी. इस कथा का  आधा भाग प्रसिद्ध कलाविद बी . मोहन नेगी , पौड़ी के पास सुरक्षित है . कथा में चरित्र निर्माण व चरित्र निर्वाह बड़ी कुशलता पुर्बक हुआ है . गढवा ळी विम्बो का प्रयोग अनोखा है , यथा :       "गुन्दरू की नाक बिटे सीम्प कि धार छोड़िक विलो मुख , वैकी झुगली इत्यादि सब मैला छन, गणेशु की सिरफ़ सीम्प की धारी छ पण सबि चीज सब साफ़ छन . यांको कारण , गुन्दरू की मा अळगसी' ख़ळचट  अर लमडेर छ. . भितर देखा धौं ! बोलेंद यख बखरा रौंदा होला . मेंल़ो  (म्याळउ ) ख़णेक घुळपट  होयुं च . भितर तकाकी क्वी चीज  इनै क्वी चीज उनै . सरा भितर तब मार घिचर पिचर होई रये.  अपणी अपणी जगा पर क्वी चीज नी.  भांडा कूंडा ठोकरियों मा लमडणा  रौंदन . पाणी का भांडों तलें द्याखो धौं . धूळ को क्या गद्दा जम्युं छ. युंका भितर पाणी पेण को भी ज्यू नि चांदो . नाज पाणी कि खाताफोळ , एक मणि पकौण  कु निकाळण त द्वी माणी खते जान्दन , अर जु कै डूम डोकल़ा , डल्या , भिकलोई तैं देण कु बोला त हे राम ! यांको नौं नी .   रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' ने इस कथा को पुन :  गुन्दरू  कौंका घार स्वाळ पक्वड़ ' शीर्षक के नाम से 'हिलांस'   में प्रकाशित किया था . सदानंद कुकरेती ( १८८६-१९३८) का जन्म ग्वील-जसपुर , मल्ला  ढागु , पौड़ी गढ़वाल में हुआ था .वे विशाल कीर्ति के सम्पादक भी थे                   गढवाली ठाट के बारे में रामप्रसाद पहाड़ी का कथन सही है कि यह कथा दुनिया की १०० सर्वश्रेष्ठ कथाओं में आती है. कथा व्यंगात्मक अवश्य है और कथा में सुघड़ व  आलसी , लापरवाह स्त्रियों के चरित्र की तुलना हास्य, व्यंग्य शाली बहुत रोचक ढंग से हुआ है. कथा असलियत वादी तो है,  वास्तविकता से भरपूर है, किन्तु पाठक को प्रगतिशीलता की ओर ल़े जाने में भी कामयाब है .कथा का प्रारभ व अंत बड़ी  सुगमता व रोचकता से किया गया है भाषा सरल व गम्य है . भाषा के लिहाज से  जहाँ ढागु के शब्द सम्पदा कथा में साफ़ दीखती है रमती है वहीं सदानंद कुकरेती ने पौड़ी व श्रीनगर कई शब्द व भौण भी कथा में समाहित किये हैं जो एक आश्चर्य है.    ' गढवाली ठाट ' के बारे में अबोध बंधु बहुगुणा (सं -२)  लिखते हैं ' सचमुच में गद्य का ऐसा नमूना मिलना गढ़वाली का बाधा भाग्य है. बंगाली, मराठी आदि भाषाओं में भी साहित्यिक गद्य की अभिव्यक्ति उस समय नहे पंहुची थी. यहाँ तक कि हिंदी में भी उस समय (सन १९१३ ई. में  ) गद्य अभिव्यक्ति इतनी रटगादार , रौंस (आनन्द , रोचक ) भरी मार्मिक नहीं थी. इस तरह कि हू-ब-हू चित्रांकन शैली के लिए  हिंदी भी तरसती थी.       गढवाल कि दिवंगत विभितियाँ  के सम्पादक   भक्त दर्शन का कथन है " सदानंद कुकरेती चुटीली शैली में प्रहसनपूर्ण कथा आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं "     डा अनिल डबराल का कहना है कि सदानंद कुकरेती कि अभिव्यक्ति की  प्रासगिता आज भी बराबर बनी है .                भीष्म कुकरेती के अनुसार ( सन्दर्भ 1) सदानंद कुकरेती का स्थान ब्लादिमीर नबोकोव, फ्लेंनरी ओ'कोंनर, कैथरीन मैन्सफील्ड , अर्न्स्ट हेमिंगवे, फ्रांज काफ्का, शिरले जैक्सन , विलियम कारोल विलियम्स , डी .एच लौरेन्स , सी. पी गिलमैन, लिओ टाल्स्टोय , प्रेमचंद, इडगर पो , ओस्कार वाइल्ड जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों की श्रेणी  में आते हैं         परुशराम  नौटियाल : अबोध बंधु बहुगुणा ने  गाड म्यटयेकि गंगा (पृ ४०) में लिखा है श्री परुशराम  कि 'गोपू' आदि डो कहानियाँ इस दौरान ( १९१३- १९३६ ) प्रकाशित हुईं थीं श्री देव सुमन : बहुगुणा के अनुसार श्री देव सुमन ने ' बाबा ' नाम कि कथा जेल में लिखी थी.

By - Bhishm Kukreti.

M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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  आधुनिक गढ़वाली का प्रथम कहानी संग्रह'पांच फूल '    भगवती प्रसाद पांथरी (टिहरी रियासत , १९१४- स्वर्गीय ) ने ' १९४७ में   पाँच फूल ' कथा संग्रह प्रकाशित किया जो कि गढवाली का प्रथम कहानी संग्रह है . 'पांच फूल'  में 'गौं की ओर', 'ब्वारी', ' परिवर्तन',आशा', और न्याय पांच कहानियाँ है  पांथरी की कथाएं प्रेरणादायक व नाटकीयता लिए हैं. अबोध के अनुसार ब्वारी यथार्थवादी कहानी है और इसे बहुगुणा कथा साहित्य हेतु विशिष्ठ दें  बताता है रैबार कहानी विशेषांक (१९५६ई. ) : सतेश्वर आज़ाद के सम्पादकत्व में डा शिवा नन्द नौटियाल, भगवती चारण निर्मोही, कैलाश पांथरी , दयाधर बमराड़ा, कैलाश पांथरी , उर्बीदत्त उपाध्याय व मथुरा  दत्त नौटियाल की कहानियाँ प्रकाशित हुईं. . गढवाली साहित्य इतिहास में  'रैबार' का यह  प्रथम गढवाली कथा विशेषांक एक सुनहरा पन्ना है  (सन्दर्भ -४)




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दयाधर बमराड़ा( धारकोट, बगड़स्यूं १९४३-दिवंगत ) दयाधर बमराड़ा अपने  उपन्यास हेतु प्रसिद्ध है, इनकी कथा  रैबार (१९५६ ) में छपी है    डा शिवा नन्द नौटियाल (कोठला , कण्डारस्यूं  , पौड़ी ग. १९३६- ) चंद्रा देवी, पागल, हे जगदीश, चुप रा, दैणि ह्व़े जा, से ळी या आग (१९५६) , धार मांकी गैणि जैसी उत्कृष्ट कहानियां प्रकाश में आई हैं सभी कहानियां १९६० से पहले की ही हैं. डा अनिल के अनुसा r  डा नौटियाल की अपणी विशिष्ठ क्षेत्रीय शैली कहानी में दिखती है

भगवती चरण निर्मोही (देव प्रयाग, १९११-१९९०)  भगवती प्रसाद निर्मोही की कहानियाँ रैबार व मैती (१९७७ का करीब ) में प्रकाशित हुईं  जिनकी प्रशंषा अबोध बंधु व डा अनिल डबराल ने  की. काशी राम पथिक की  कथा ' भुला भेजी देई'  मैती (१९७७ ) में  छपी और यह कहानी सवर्ण व शिल्पकारों के सांस्कृतिक संबंधों की खोजबीन करती है.   उर्बी दत्त उपाध्याय (नवन, सितौनस्युं १९१३ दिवंगत ) के  दो कथाएँ ' रैबार' में प्रकाशित हुईं

भगवती प्रसाद जोशी' हिमवंतवासी' (जोशियाणा , गंगा सलाण १९२०- दिवंगत ) डा अनिल के अनुसार जोशी सामान्य प्रसंगों को मनोहारी बनाने में प्रवीन है. चारत्रों को व्यक्तित्व प्रदान करने के मामले में जोशी व रमा प्रसाद पहाड़ी में  साम्यता है. शैली में नये मानदंड मिलते हैं . वातावरण बनाने हेतु हिमवंतवासी प्रतीकों से विम्बों को सरस बाना देते हैं.  भाषा में सल़ाणी पण साफ़ झलकता है.

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गढ़वाली कहानी का वेग-सारथी  मोहन लाल नेगी (बेलग्राम, अठूर, टिहरी ग. १९३० -स्वर्गीय)  प्रथम आधुनिक  गढ़वाली कानी प्रकाशित होने के  ठीक ५५ साल उपरान्त मोहन लाल नेगी ने गढवाली कहानी को नव अवतार दिया जब नेगी ने १९६७ में ' जोनी पर छपु किलै ?' नामक कथा संग्रह प्रकाशित किया . नेगी ने दूसरा कथा संग्रह ' बुरांस की पीड़ ' १९८७ में प्रकाशित हुआ. डा अनिल डबराल व अबोध अबन्धु बहुगुणा के अनुसार मोहन लाल नेगी के २१-२५ गढ़वाली में कहानियां प्रकाशित हुईं . नेगी के कहानियों में विषय विविधता है . मोहन लाल नेगी संवेदनाओं को विषय में मिलाने के विशेषग्य है. लोकोक्तियों का प्रयोग लेखक कि विशेष विशषता बन गयी है . डा अनिल अनुसार मोहन लाल नेगी भाषा क्रीडा में  माहिर है. कहानियों में कथाक्रम व विषय अनुसार वातावरण तैयार करने में कथाकार सुवुग्य है. मोहन लाल के कथाओं में भाषा लक्ष्य पाने में समर्थ है. यह एक आश्चर्य ही है कि मोहन लाल नेगी के दोनों संग्रह २० साल के अंतराल में प्रकाशित हुए और दोनों संग्रहों में शैली व तकनीक में अधिक अंतर नही दिखता . डा अनिल डबराल के अनुसार ' इन तकनीकों के अधिक विकास का अवकाश नेगी जी को नही मिला'. आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ( उदखंडा , कुंजणि टि.ग. १९१०-२००२ ) आचार्य  कोठियाल कि कुछ कथाएं १९७० से पहले युगवाणी आदि समाचार पत्रों में छपीं. कथाओं में टिहरी के विम्ब उभर कर आते हैं

शकुन्त जोशी  (पौड़ी ग. ) जोशी की कथाएँ मैती (१९७७ ) में छपीं हैं तो   काशीराम पथिक की (मैती १९७८ ) की 'भुला भेजी देई' व  चन्द्र मोहन चमोली की सच्चा बेटा (बडुली १९७९) कथाओं का सन्दर्भ भी मिलता है ( सं. ४ )

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पुरूषोत्तम डोभाल ( मुस्मोला, टि.ग. १९२० -दिवंगत ) डोभाल की प्रथम कहानी 'बाडुळी (१९७९ ) में प्रकाशित हुयी और डोभाल ने चार पाँच कथाएँ छपीं हैं. कथाएं सौम्य व सामाजिक परिश्थिति बताने में समर्थ हैं. गढ़वाली कथाओं को शिष्टता हेतु का कथाकार अबोध बंधु बहुगुणा ( झाला,चलणस्यूं , पौ.ग १९२७-२००७ ): अबोध बंधु बहुगुणा ने गढ़वाली साहित्य के हर विधा में विद्वतापूर्ण 'मिळवाक'/भागीदारी  ही नही दिया अपितु नेतृत्व भी प्रदान किया है . बहुगुणा ने गढवाली कथाओं को नया कलेवर दिया जिसे भीष्म कुकरेती अति  शिष्टता की ओर ल़े जाने वाला मार्ग कहता है . बहुगुणा की कथाओं में वह सब कुछ है जो कथाओं में होना चाहिए. बहुगुणा ने भाषा में निपट /घोर ग्रामीण गढवालीपन  को छोड़ संस्कृतनिष्ट भाषा को अपनाने की कोशिश भी की है . कथा कुमुद व रगड़वात दो कथा संग्रह गढवाली कथा साहित्य के नगीने हैं. अबोध बंधु की कथाएं बुद्धिजीवियों हेतु अधिक हैं. डा अनिल का मानना है कि बहुगुणा की कई कथाओं में बहुगुणा मनोवैज्ञानिक शैली में लेखक किशी शब्द विशेष का प्रयोग कर पाठक को बोध या चिन्ताधारा की दिशा निर्धारित कर देता है. अनिल डबराल का मानना है बहुगुणा कि कथाओं में लोक जीवन के प्रति अनुसंधानात्मक प्रवृति भी पायी जाती है बहुगुणा शब्दों के खिलाड़ी भी है तथापि शब्द , मुहावरों में गरिमा भी है . बहुगुणा ने भुग्त्युं भविष्य उप्न्यास भी  प्रकाशित किया है. भीष्म  कुकरेती ने अबोध को  गढवाली साहित्य का सूर्य की संज्ञा दी है. गढ़वाली कहानियों का परिपुष्ट कर्ता दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल (  पदाल्यूं , कुटूळस्यूं, पौड़ी ग., १९२३-२००२) भीष्म कुकरेती के अनुसार दुर्गा प्रसाद  घिल्डियाल के बगैर गढवाली कथाओं के बारे में सोचा ही नही जा सकता . घिल्डियाल के तीन गढवाली कथा संग्रह 'गारी' (१९८४), 'म्वारी' (१९९८६) , और 'ब्वारी (१९८७ ) ' गढ़वाली साहित्य के धरोहर हैं. उच्याणा दुर्गाप्रसाद का उपन्यास भी गढवाली में छपा है. सभी ४० कहानियों की विषय वस्तु का केंद्र गढवाली जनमानस अथवा जीवन है . डा डबराल के अनुसार चरित्र चित्रण के मामले में दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल सफल कथाकार है . घिल्डियाल का प्राकृत वातावरण से अधिक ध्यान देश -काल की ओर रहता है. डा अनिल के अनुसार घिल्डियाल को जितनी सफलता कथा वस्तु, विचार तत्व व पत्रों के निर्माण में मिली है उतनी सफलता भाषा सृजन में नही मिली है . यानी कि अलंकारिक नही अपितु सरल है प्रयोगधर्मी भीष्म कुकरेती ( जसपुर , मल्ला ढान्गु  पौ.ग. १९५२) भीष्म कुकरेती की पहली गढवाली कहानी ' कैरा कु कतल' (अलकनंदा १९८३ ) है जो की एक प्रकार से गढवाली में एक प्रायोगिक कहानी है. कथा में प्रतेक वाक्य में 'क' अक्षर अवश्य है याने की अनुप्राश अलंकार का प्रयोग है.कुकरेती की अब तक पचीस  से अधिक कहानियाँ गढवाली में अलकनंदा, बुरांश, हिलांस, घाटी के गरजते स्वर, गढ़ ऐना आदि में प्रकाशित हुए हैं . अबोध बन्धु के अनुसार भीष्म कुकरेती की मुख्यतया चार प्रकार की कहानियाँ हैं - स्त्री दुःख व सम्वेदनात्मक (जैसे 'दाता की ब्वारी कन दुखायारी ' कीड़ी बौ' देखें सन्दर्भ -४ ) , व्यंग्य व हास्य मिश्रित कथाएँ जैसे 'वी .सी .आर को आण ' बाघ, मेरी वा प्रेमिका' 'प्रेमिका की खोज' आदि  ( देखें कौन्ली  किरण पृष्ठ १४७ ) या डा अनिल डबराल (पृष्ठ २४४) की समालोचना . तीसरा  सामाजिक चेतना युक्त कहानियां जैसे ' बिट्ठ भिड्याणो सुख या सवर्ण स्पर्श सुख' व अन्य विवध कथाएँ जिनमे कई कथाएँ मनोविज्ञानिक (जैसे नारेण दा)   कथाएँ हैं . भीष्म कुकरेती विषय गत व शैलीगत प्रयोग से कतई नही घबराता  व भीष्म की एक कथा ' घुघोति बसोती ' ( घाटी के गरजते स्वर (१९८९) स्त्री समलैंगिक संबंधों पर आधारित कथा है जिस पर मुंबई  की शैल सुमन संस्था  की एक बैठक में बड़ी बहस भी हुयी थी कि गढवाली में ऐसी कहानी की आवश्यकता है कि नही?. डा अनिल के अनुसार भीष्म की कहानियों में चुटीलापन होता है.व अपनी बात सटीक ढंग से कहता है.  वहीं बहुगुणा ने भीष्म की कहानियों में गहरी  सम्वेदना  पायी है.     भीष्म कुकरेती ने विदेशी भाषाओं  की कुछ कथाओं का गढवाली में अनुवाद भी प्रकाशित किया है ( गढ़ ऐना १९८९-१९९०)

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रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' ( जन्म-बड़ेथ ढान्गु , पैत्रिक गाँव डांग श्रीनगर पौड़ी  ग.  १९११-२००२ ) की  'मेरी मूंगा कख होली'  (हिलांस १९८१) व ' घूंड्या द्यूर ' (हिलांस १९८०) नाम कि दो  कहानियाँ प्रकाशित हुईं . जहां मेरी मूंगा संस्मंरणात्मक शैली में है जिसमे बड़ेथ से व्यासचट्टी बैसाखी मेले  जाने का वृतांत दीखता है,  वंही घूंड्या द्यूर एक सामाजिक संस्कार पर चोट करती हुयी चेतना सम्वाहक कहानी है. डा अनिल डबराल (३ ) के अनुसार इस कथा का विषय  पुरुष विशेष और ष्ट्री विशेष के सौन्दर्य वोध पर आधारित है .


नित्यानंद मैठाणी ( श्रीनगर, पौ.ग. १९३४ )  ने कुछेक मौलिक गढ़वाली कथाएँ दी हैं. किन्तु मैठाणी का योगदान आकाशवाणी में गढवाली कथाओं का बांचना , डोगरी , कश्मीरी कथाओं का अनुबाद आकश वाणी से आदि में खीं अधिक है . नित्यानंद की कथाओं में पैनापन, व नाटकीयता की विशषता है नित्यानंद का उपन्यास ' निमाणी' गढवाली कथा साहित्य का एक  चमकता मणि है .

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कुसुम नौटियाल : कुसुम नौटियाल के दो कथाएं हिलांस ( काफळ १९८१, नाच दो मैना , १९८२ ) मै प्रकाशित हुईं.

सम्वेदनाओं  का चितेरा  सुदामा प्रसाद डबराल प्रेमी ( फल्दा, पटवालस्यूं , पौ.ग १९३१-) सुदामा प्रसाद डबराल 'प्रेमी' का गढवाली कथा संसार को काफी बड़ा है, सुदामा प्रसाद 'प्रेमी' के तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं. गैत्री की ब्व़े ( १९८५ ) संग्रह में छपी.  कथाएँ सरल, व प्रेरणा सूत्र लिए होती  हैं. कथाओं में सरल बहाव होता है. कई कथाएँ ऐसी लगती हैं जैसी कोई लोक कथा हो.कथाकार सुदामा प्रसाद ने गढवाली कहावतों से कथाओं का अच्छा प्रयोग किया है. डा अनिल के अनुसार भाषा ढबाड़ी है(हिंदी -गढवाली मिश्रित)  सुधारवादी कथाकार डा. महावीर प्रसाद गैरोला ( दालढुंग , बडीयारगढ़, टि.ग १९२२-२००९ ) ने बीस से अधिक कथाएँ प्रकाशित की हैं व ड़ उपन्यास गढवाली में प्रकाशित हैं. हिंदी के मूर्धन्य कथाकार और समालोचक  डा गंगा प्रसाद विमल डा महावीर गैरोला को सुधारवादी कथाकार मानते हैं किन्तु गैरोला की सुधारवादी कथाएं बोझिल नही रोचक हैं. डा महावीर प्रसाद की कथाओं में टिहरी की बोल चाल की बोली, टिहरी की ठसक अवश्य मिलती है. कभी कभी ऐसे शब्द भी मिलते हैं जो पौड़ी गढवाल से ब्रिटिश सत्ता व पढ़ाई लिखाई के कारण लुप्त हो गए हैं. संवाद, चरित्रों के चरित्र को उजागर करने में सक्षम हैं. कथा कहने का ढंग पारम्परिक है और अधिकतर कथाएं पीड़ा लिए अवश्य हैं किन्तु सुखांत में बदल जाती हैं  बालेन्दु बडोला ( मूल गाँव बडोली, चौन्दकोट , पौ .ग. ) बालेन्दु बडोला ने  चालीस से अधिक कथाएं हिलांस (१९८५ के बाद ), चिट्ठी पतरी, युगवाणी जैसी पत्रिकाओं में  प्रकाशित की हैं. बालेन्दु की कथाओं पर लोक कथाओं की शैल़ी  का भी प्रभाव दीखता है . कथाएँ बहु विषयक हैं व कथा कहने का ढंग पारम्परिक है. चरित्र व विषय वस्तु आम गढवाली के व गढवाल सम्बन्धी  हैं किन्तु कई कथाओं में चरित्र काल्पनिक भी लगते हैं . भाषा सरल व वहाव लिए होती है. ऐसा लगता है बालेन्दु परम्परा तोड़ने से बचता है  . बालेन्दु की  कहानियों में प्रेरणा दायक पन अधिक है किन्तु ऐसी कथाओं में रोचकता की कमी नही झलकती .गढवाली प्रतीकों के अतिरिक्त कई हिंदी कहावतों का गढवाली में अनुवाद भी मिलता है . वर्तमान में बालेन्दु की कथाएँ युगवाणी मासिक पत्रिका में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं . बालेन्दु बडोला ने बाल कथाएँ भी प्रकाशित किये हैं (हिलांस, चिट्ठी पतरी, युगवाणी ).

सदानंद जखमोला (चन्दा , शीला, पौ. ग. १९००-१९७७ ) के पाच  कथाएँ प्रकाशित हूई  जैसे छौं को वैद (गढ़ गौरव १९८४) लोक मानस का चितेरा कथाकार प्रताप शिखर (कोटि, कुणजी , टिहरी ग. १९५२ ) प्रताप शिखर का कथा संग्रह 'कुरेड़ी फट गे ' (१९८९) में नौ कथाएँ संग्रहीत हैं. कथायों में समाज का असलियतवादी चित्रण है, कई कथाएँ रेखाचित्र भी बन जाती है, प्रताप शिखर टिहरी भाषा का प्रयोग करता है जो कि कथाओं को एक वैशिष्ठ्य प्रदान करने म सक्षम है . कुसुम नौटियाल की दो ही कथाओं का जिक्र गढवाली साहित्यिक इतिहास में मिलता है (बहुगुणा १९९० ) और दोनों कथाएं हिलांस (१९८१, १९८२ ) में प्रकाशित हुयी  हैं. कथाएं सम्वेदनशील हैं व गढवाली कथाओं को एक नया  दौर देने की पहल में शामिल होने के कोशिश भी. पूरण पंत पथिक ( अस्कोट, चौन्दकोट, पौ ग १९५१ ) पंत की दो कथाएं (हिलांस १९८३ व चिट्ठी २१ वां अंक ) प्रकाशित हुए हैं . कथाओं में कथात्व कम है विचार उत्प्रेरणा अधिक है ( डा अनिल )  . हाँ व्यंग्यात्मक पुट अवश्य मिलता है ( बहुगुणा  , सं. ४ व ६ ) मनोविज्ञानी कथाकार  काली प्रसाद घिल्डियाल (पदाल्युं, कटळस्यूं ,१९३०-) गढ़वाली  नाटक वेत्ता काली प्रसाद  घिल्डियाल की केवल तीन कहानियां प्रकाश में आई हैं (हिलांस १९८४ ) . काली प्रसाद की कहानियों में जटिल मनोविज्ञान मिलता है , जो कि गढवाली कथाओं के लिए एक गति शीलता का परिचायक भी बना . जटिल मनोविज्ञान को सरलता से काली प्रसाद घिल्डियाल कथा धरातल पर लाने में सक्षम है.

जबर सिंह कैंतुरा (रिंगोली , लोत्सू, टि.ग. १९५६-) : जबर सिंह कैंतुरा की कथाएं हिलांस (१९८६), धाद (१९८८) आदि पत्रिकाओं में दस -बाढ़ कथाएं प्रकाशित हुयी हैं. कथाओं में मानवीय सम्वेदना, संघर्ष, शोषण की नीति , पारवारिक सम्बन्ध प्रचुर मात्र में मिलता है (कैंतुरा की भीष्म  कुकरेती से बातचीत ,ललित  केशवान का पत्र  व डा. अनिल डबराल ) . भाषा टिहरी की है व कई स्थानीय शब्द गढवाली शब्द भण्डार के लिए अमूल्य हैं. कैंतुरा का कथा संग्रह प्रकाशाधीन है

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मोहन लाल  ढौंडियाल ( दहेली , गुराड़स्यूं , १९५६ ) कवि ढौंडियाल के दो कथाएं हिलांस व धाद (१९८५-८६ )  में छपी हैं. कथाएँ सीख व परंपरा संबंधी हैं ( लेखक की भीष्म कुकरेती से  बातचीत व केशवान )!

 
विजय सिंह लिंगवाल : विजय सिंह लिंगवाल  के एक कहानी ( हिलांस १९९८८) में प्रकाशित हुयी जो डा अनिल अनुसार सरल, सहज व मुहावरेदार हैजगदीश जीवट : जीवट के एक कहानी'दिन'  धाद १९८८) प्रकाश में आई है जो सरस है.

विद्यावती डोभाल (सैंज,नियली,  टि.ग. १९०२ -१९९३) कवित्री विद्यावती डोभाल  की  कहानी 'रुक्मी ' (धाद १९८९) उनकी प्रसिद्ध कहानियों में एक  है खुशहाल सिंह 'चिन्मय सायर' ( अन्दर्सौं, डाबरी , पौ ग. १९४८) कवि 'चिन्मय सायर' की एक लघु कथा 'धुवां' (चिट्ठी २१ वां अंक) में प्रकाशित हुयी. विजय गौड़ : हिंदी के कवि विजय गौड़ की 'कथा 'भाप इंजिन ' (चिट्ठी २१ वां अंक )  गढवाली में अति आधुनिक कहानी मानी जाती है!


विजय कुमार 'मधुर' (रडस्वा , रिन्ग्वाड़स्यूं १९६४ ) विजय कुमार 'मधुर' ने तीन कहानियाँ प्रकाशित हुयी हैं जैसे चिट्ठी -२१ वां अंक . एक बालकथा भी छपी है.

गिरधारी लाल थपलियाल 'कंकाल (श्रीकोट, पौ.ग. १९२९-१९८७) : नाटककार , कवि गिरधारी लाल थपलियाल 'कंकाल के एक ही कथा 'सुब्यदरी ' (धाद १९८८) प्रकाशित हुयी दिखती है . क्य्हा मुहावरे दार और चपल किसम की शैली में है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जगदम्बा प्रसाद भारद्वाज  : भारद्वाज की  एक ही कहानी मिलती है - सच्चु  सुख की कहानी  , धाद १९८८ . कहानी अभुवाक्ति कौशल का एक उम्दा नमूना है सुरेन्द्र पाल  : प्रसिद्ध गढवाली कवि की कथा 'दानौ बछरू' एवम 'नातो' (धाद १९८८) गढवाली कथा के मणि हैं!

 
मोहन सैलानी : मोहन सैलानी के कथा ' घोल' (धाद १९९०) एक वेदना पूर्ण कहानी है. महेंद्र सिंह रावत : रावत के एक ही कहानी गाणी (धाद १९९० ) प्रकासहित हुयी है . सतेन्द्र सजवाण : सतेन्द्र सजवाण  के एक कहानी 'मा कु त्याग ' (बुग्याल १९९५ ) प्रकाश में आई है .बृजेंद्र सिंह नेगी (तोळी , मल्ला  बदलपुर, पौ . ग. १९५८ ) बृजेंद्र की अब तक पचीस से अधिक कथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं व अधिकतर युगवाणी मासिक में प्रकाशित हुयी है. सं २०००  के पश्चात् ही  'उमाळ ' व छिट्गा' नाम से दो कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं  . कथा विषय गाँव, मानवीय सम्बन्ध , अंधविश्वास , समस्या संघर्ष , आदि हैं जो आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी से सम्बन्ध रखते हैं. भाषा में सल़ाणी भाषा की प्रचुरता है , स्थानीय मुहावरों से कथा में वहाव आ जाता है . पारंपरिक शेली में लिखी कथाएं आम आदमी को लुभाती भी हैं (ललित केशवान का पत्र व भीष्म कुकरेती की लेखक से बातचीत ) )

ललित केशवान (सिरोंठी , इड्वाळस्यूं , अपु.ग. १९४०-) प्रसिद्ध गढवाली कवि केशवान की तीन कथाएं (हिलांस, १९८४, १९८५ ) व धाद में प्रकाश में आये हैं. कथाएं रोमांचित कर्ता  अथवा सरल हैं  .

ब्रह्मा नन्द बिंजोला ( खंदेड़ा , चौन्दकोट १९३८ ) कवि  बिंजोला के आठ नौ कथाएं यत्र तत्र प्रकाशित हुईं व ललित केशवान के अनुसार ' फ़ौजी की ब्योली ' कथा संग्रह प्रकाशाधीन है. ललित केशवान के अनुसार कथाएं मार्मिक व गढवाल के जन जीवन सम्बंधीं हैं. कथायों में कवित्व का प्रभाव  भी है.

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राजाराम कुकरेती ( पुन्डारी, म्न्यार्स्युं १९२८-) राजाराम के कुछ कथाएं यत्र तत्र पत्र पत्रिकाओं में १९९० के पश्चात प्रकाशित हुईं ( ललित केशवान का लेखक को लम्बा पत्र, २०१०  ) व २० कथाओं का संग्रह प्रकाशाधीन है ).

कन्हया लाल डंडरियाल ( नैली मवालस्युं , पौ.ग. १९३३-२००४ ) डंडरियाल ने दो तीन कथाये लिखी हैं (२)  लोकेश नवानी ( गंवाड़ी ,  किनगोड़   खाल , १९५६ ) लोकेश नवानी के चारेक कथाएं धाद, चिट्ठी , दस सालैक खबर सार (२००२)  , मे प्रकाशित हुए हैं गिरीश सुन्दरियाल (चूरेड़ गाँव, चौन्दकोट, १९६७ ) सुंदरियाल ने छ के करीब कहानियाँ लिखीं हैं जो 'चिट्ठी' के इकसवीं  अंक मे छपी व कुछ कथाएं चिट्ठी पतरी  (२००२) मे जैसे ' काची गाणि' आदि  प्रकाशित हुईं. डा अनिल डबराल ने लिखा की ऐसी मादक, हृदयस्पर्शी , प्रगल्भ, कथा बिरली ही हैं.!

डा कुटज भारती (भैड़ गाँव , बदलपुर  १९६६ ) : डा कुटज भारती की 'जी ! भुकण्या तैं घुरण्या ल़ीगे ' कहानी  (खबर सार , १९९९ ) एक बहुत ही आनंद दायक, प्रहसनयुक्त , लोक लकीर की कहानी है!

 
वीणा पाणी जोशी ( देहरादून १९३७) नब्बे के दशक के बाद ही कवित्री की गढवाली कथा ' कठ बुबा ' प्रकाश में आया . डी एस रावत : डी एस रावत की एक कथा 'छावनी'  चिट्ठी पतरी , १९९९) प्रकाश मे आई है , कथा एक बालक का सैनिक छावनी को अपने नजर से देखने का नजरिया है. वीरेन्द्र पंवार  ( केंद्र इड्वाल स्यूं 1962 )  कवि, समीक्षकवीरेन्द्र पंवार   की एक  कथा ही प्रकाश में आई  है अनसुया प्रसाद डंगवाल ( घीडी, बणेलस्यूं , पौ ग. १९४८ )  डंगवाल ने अब तक दस बारह कथाएं प्रकाशित की हैं और अधिकतर कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक (२००० के पश्चात ) में प्रकाशित हुयी हैं . कथाएं सामाजिक विषयक हैं. भाषा चरित्रों  के अनुरूप है. कथों से पाठक को आनंद पारपत होता है . भीष्म कुकरेती का मानना है की कथाएं ' रौन्सदार' हैं . कई कहानियाँ पाठक को सोचने को मजबूर कर देती हैं

 

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