Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 76157 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Go through these lines. See the Corruption Basant in uttarakhand
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बसंत आयी, बसंत गयी पहाड़ में
विकास क बसंत नि आय हो पहाड़ में.

जस आयी रो बसंत में बहार
उस है रेई उत्तराखंड में ले बहार
खूब खाण रेई सरकार भीतेरे
खूब खाण रेई साकार बहार ले.

वाह रे वाह क्या बसंत आयी छा
खाओ क्या खाण बहार आयी छा

तुमार सरकार छो
तुमार बहार छो
तुमार घर में बसंत छो

खूब खाओ, तुमार घर में बसंत छो !


धनेश कोठारी

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बसंत
हर बार चले आते हो
ह्‍यूंद की ठिणी से निकल
गुनगुने माघ में
बुराँस सा सुर्ख होकर

बसंत
दूर डांड्यों में
खिलखिलाती है फ्योंली
हल्की पौन के साथ इठलाते हुए
नई दुल्हन की तरह

बसंत
तुम्हारे साथ
खेली जाती है होली
नये साल के पहले दिन
पूजी जाती है देहरी फूलों से
और/ हर बार शुरू होता है
एक नया सफर जिन्दगी का

बसंत
तुम आना हर बार
अच्छा लगता है हम सभी को
तुम आना मौल्यार लेकर
ताकि
सर्द रातों की यादों को बिसरा सकूं
बसंत तुम आना हर बार॥
Copyright@ Dhanesh Kothari

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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Kothari ji bahut achchhi kavita likhi hai wah bahut badiya

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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सभी कवि भाईयो व दोस्तो को सादर प्रणाम,
आपकी कविताऐ पढकर मन गद गद हो गया है।
युही लिखते रहिए,मन बहलाते रहिए।

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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मोहन जी अगर ताली बजाने वाले नही होंगे तो कवि सम्मेल सफल कैसे होगा।

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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सभी दशॅको व कवि भाईयो व बहनो से एक बार पुनः
निवेदन है कि वह मेरा पहाड़ पर कवि सम्मेल मे,
अपने आफिस व घरेलु समय सारणी को ध्यान मे रखते हुए अवश्य भाग लै।

हम आपका बहुत-बहुत आभार प्रकट करते है।

(यानी आपको बहुत-बहुत मिस करते है)

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Bahut badiya daju logo maja aa gaya...

Waise kavitaye to mujhe samajh me aati nahi hain lekin Bhaw samjh thoda bahut samajh leta hu......

Bahut khub.....

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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दोस्तो मैने इस कविता मे एक जगह गढवाली शब्द का प्रयोग किया है.
जो भी उस शब्द को पहले पकड लेगा उसको मै एक करमा दुंगा।
दोस्तो पकडिये उस गढवाली शब्द को और अपना एक करमा बढाईये।


(फिर जीवन की वसंत आ गई)
 

फिर जीवन की एक, वसंत आ गई है।
फिर से वादियां सजने लगी है।
मेरा पहाड़ मे कवि गोष्ठी, सुरू हो गई है।

फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
झरनो की रवानगी से, नदियों की छल-छल से।
कफुवे की खत-खत से, कोयल की कूक से।
पपीहे की प्यास, बडने लगी है।

फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
सैमल खिलकर धरा पर, बिखरने लगा है।
वादियों मे बुरास खिलकर, हसने लगा है।

गुलाब खिलकर, मुस्कराने लगा है।
कलियां खिलकर, खितकने लगी है।

फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
फाल्गुन के रंगो मे, चैत रंगने लगा है।
कोयल की पीडा सुनकर,
"सुन्दर" गमगीन हो गया है।

घुघुती की घुर-घुर सुनकर,
मेरी आंख भर आई है।

फिर जीवन की एक, वसंत आ गई है।
 
गेहुं की हरियाली देख, सरसो खिल गई है।
पिली-पिली सरसो देख, भवरे गुन-गुनाने लगे है।

वादियां सजने लगी है, सहनाईयां बजने लगी है।
वसंत ऋतु श्रंगार कर के, सज धज गई है।
वसंत की भीनी-भीनी, खुशबु आने लगी है।
 
फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
सुन्दर सिंह नेगी 11-03-2010

jagmohan singh jayara

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    "ऋतु बसंत में"

पीली साड़ी पहन,
ऋतु बसंत में,
पहाड़ के एक पाखे में,
काट रही वह घास,
सोच रही लौटेंगे वे,
बहुत दिनों से दूर हैं,
बसंत की बयार आने से,
मन में जगि है आस.

कोलाहल करते पोथ्ले,
तोता, घुघती, हिल्वांस,
फूलों  के लिए  फूल्यारी,
घूम रहे खेतों और पाखों  में,
फूल रही है सांस.

खिले हैं सर्वत्र बण में,
साखिनी, बुरांश,गुरयाळ,
ऋतु बसंत के रंग में रंगे,
हमारे प्यारे मुल्क
रंगीलो कुमाऊँ,
और छबीलो गढ़वाळ.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १०.३.२०१०)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल.

Ravinder Rawat

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"khitkane"
दोस्तो मैने इस कविता मे एक जगह गढवाली शब्द का प्रयोग किया है.
जो भी उस शब्द को पहले पकड लेगा उसको मै एक करमा दुंगा।
दोस्तो पकडिये उस गढवाली शब्द को और अपना एक करमा बढाईये।


(फिर जीवन की वसंत आ गई)
 

फिर जीवन की एक, वसंत आ गई है।
फिर से वादियां सजने लगी है।
मेरा पहाड़ मे कवि गोष्ठी, सुरू हो गई है।

फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
झरनो की रवानगी से, नदियों की छल-छल से।
कफुवे की खत-खत से, कोयल की कूक से।
पपीहे की प्यास, बडने लगी है।

फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
सैमल खिलकर धरा पर, बिखरने लगा है।
वादियों मे बुरास खिलकर, हसने लगा है।

गुलाब खिलकर, मुस्कराने लगा है।
कलियां खिलकर, खितकने लगी है।

फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
फाल्गुन के रंगो मे, चैत रंगने लगा है।
कोयल की पीडा सुनकर,
"सुन्दर" गमगीन हो गया है।

घुघुती की घुर-घुर सुनकर,
मेरी आंख भर आई है।

फिर जीवन की एक, वसंत आ गई है।
 
गेहुं की हरियाली देख, सरसो खिल गई है।
पिली-पिली सरसो देख, भवरे गुन-गुनाने लगे है।

वादियां सजने लगी है, सहनाईयां बजने लगी है।
वसंत ऋतु श्रंगार कर के, सज धज गई है।
वसंत की भीनी-भीनी, खुशबु आने लगी है।
 
फिर जीवन की एक वसंत आ गई है।
 
सुन्दर सिंह नेगी 11-03-2010


 

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