Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 94617 times)

सत्यदेव सिंह नेगी

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आओ यारो कुछ धमाल करे
कभी मिल बैठें बातें चार करें
न खींचे एक दूजे की हम चादर
दें हर इंसान को आदर
पैदा हुए इंसान फिर जानवर को क्यों करें कॉपी
न तू खींच मेरा साफा न मै तेरी टोपी
अहम् ही हमारा है दुश्मन जान ले मेरे यार
चल निकलते हैं उसकी ओर तू भी होले तैयार
लगे तुझे कि ओ तेरे बिपरीत खड़ा है 
मत सोच ऐसा क्योंकि ये मैदान बहुत बड़ा है
खाना ख़तम हो जायेगा ऐसा सोअच के मत बैठ
है पतीला बहुत बड़ा खुरचन से भी भर जायेगा तेरा पेट

"सुंदर जी" मैं वाकिफ हूँ,
इन शब्दों की क्या तारीफ करू,
हाँ अब तो कर देता हूँ वादा,
जीऊ यही और यही मरू,
जख्म तो मैं ढककर,
रखने लगा था पास अपने,
पर सोने नहीं देते है मुझे,
ये दिन में दिखने वाले सपने......

"दिपक" अपने सुखे हुवे जख्मो पर,
"दिपक" की लौ मत लगने देना.
जख्म होते है यादो को जलाने के लिए.
यादे होती है जीवन को जीने के लिए.
लगे जब कुरेदने, जख्मे दर्द तुमहै.
मेरी साम ए महफिल मे गा कर देखना.


तनहा इंसान 13-08-2010

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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मडुवे के आटे मे जब हमने, गेहु का आटा मिलाना सिखा.
जै की पी ली बीयर हमने, कौणी से झुंगरे को टकराते देखा.
देश का विकाश तो सबने ही देखा. कोंन है जिसने न देखा.
फटी पैन्ट की जेब पर ये तो बताओ, जय हिन्द किसने लिखा.


तनहा इंसान 13-08-2010

दीपक पनेरू

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"नेगी जी" क्या बात कही,
मैं साथ चलू शुरुवात तुम्हारी,
ये तो बस सवाल जवाब है,
टांग खीचने की नहीं है तैयारी,
अहम् से दूर रहे सदा हम,
इससे टूटे दोस्ती और यारी,
दुःख सुख तो जीवन के साथी,
सब जाने अब ये बारी बारी,
खुरचन ही काफी है इस महगाई,
चलो करैं पेट भरने की तैयारी............

आओ यारो कुछ धमाल करे
कभी मिल बैठें बातें चार करें
न खींचे एक दूजे की हम चादर
दें हर इंसान को आदर
पैदा हुए इंसान फिर जानवर को क्यों करें कॉपी
न तू खींच मेरा साफा न मै तेरी टोपी
अहम् ही हमारा है दुश्मन जान ले मेरे यार
चल निकलते हैं उसकी ओर तू भी होले तैयार
लगे तुझे कि ओ तेरे बिपरीत खड़ा है 
मत सोच ऐसा क्योंकि ये मैदान बहुत बड़ा है
खाना ख़तम हो जायेगा ऐसा सोअच के मत बैठ
है पतीला बहुत बड़ा खुरचन से भी भर जायेगा तेरा पेट

विनोद सिंह गढ़िया

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मैं तो चला था उत्साह बढाने,
तो आपने बोल दिया छुपा रुस्तम !

आप इतना अच्छा लिखते हो,
तो मेरा भी करने लगा लिखने का मन,

बस एक विनती, न कहना छुपा रुस्तम !! न कहना छुपा रुस्तम !!


छुपे हुए रुस्तम निकले आप,
"विनोद जी" के विनोद से मैं अनजान,
अब आ गए हो इस जुगलबंदी मैं तो,
दे जाना कुछ ज्ञान,

सीख की शुरुवात हो चुकी है अभी से,
हाँ आज मेरा कल किसी का होने वाला है,
आज की कामयाबी का हिस्सा हर कोई मागेगा,
कल मरे तो कोई नहीं रोने वाला है,,,,,

फिर भी मैं धैर्य दिलाता हूँ |

आप बनेंगे अच्छे लेखक, अच्छे कवि !
आप करेंगे जग उजियारा, आपकी होगी अपनी छवि !!

फिर भी मैं धैर्य दिलाता हूँ |

कुछ नहीं इस संसार में,
बस तेरा-मेरा का बोलबाला है,
मत पड़ इस जंजाल में,
बस आज तेरा और कल किसी का होने वाला है !!

फिर भी मैं धैर्य दिलाता हूँ !!
 
मैं फिर आपको आभास दिलाता हूँ,
मैं लेखक नहीं हूँ मझा हुआ,
बस आपको प्रेणा मानकर,
ये मस्तिष्क भी है शब्दों से सजा हुआ,
हाँ कोशिश यही करूँगा कि मैं,
आपको अभाश ये दिलाता रहू,
ख़ुशी नहीं तो हसी ही सही,
रोज किसी नए से मिलाता रहू......



Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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मेरा दिन का सपना कुछ, ऐसे गुजरता है,
जलता हुआ "दिपक" आंख, मिचैली करता है.
अब सुरज को क्या बताऊ, 'दिपक" के बारे मे.
"दिपक" तो रोशनी करता है, गैरो के चलने लिए.


तनहा इंसान 13-08-2010

दीपक पनेरू

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धन्यवाद उत्साह बढाने के लिए,
राधा समझ के बोला था पर आप तो मीरा निकले,
छुपा रुस्तम तो बस यूही कह गए हम,
मोती ढूढने निकले थे हम आप तो हीरा निकले,
उत्साह आप बढाइये लिखता मैं भी रहूँगा,
अगर हो गयी हो कुछ गलती तो,
उसके लिए माफी कहूँगा.......


मैं तो चला था उत्साह बढाने,
तो आपने बोल दिया छुपा रुस्तम !

आप इतना अच्छा लिखते हो,
तो मेरा भी करने लगा लिखने का मन,

बस एक विनती, न कहना छुपा रुस्तम !! न कहना छुपा रुस्तम !!

सत्यदेव सिंह नेगी

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दीपक जी इस कच्चे कवि को दिया आपने सुधार
फिर भी न कर पाया ये आपका सपना साकार
गलतियों पर गलती ऐसा भी भला होता है
अब कर दो कृपा ये नया कवि रोता है
देदो वो भस्म जो कर दे मेरी नय्या पार
ड़ोज थोडा कम देना ताकि न हो आज बुखार
कर दो इस कवि की लेखनी पर करिश्मा
नहीं तो बहुत रोयेंगे पाठक बना देंगे कीमा

"नेगी जी" क्या बात कही,
मैं साथ चलू शुरुवात तुम्हारी,
ये तो बस सवाल जवाब है,
टांग खीचने की नहीं है तैयारी,
अहम् से दूर रहे सदा हम,
इससे टूटे दोस्ती और यारी,
दुःख सुख तो जीवन के साथी,
सब जाने अब ये बारी बारी,
खुरचन ही काफी है इस महगाई,
चलो करैं पेट भरने की तैयारी............

आओ यारो कुछ धमाल करे
कभी मिल बैठें बातें चार करें
न खींचे एक दूजे की हम चादर
दें हर इंसान को आदर
पैदा हुए इंसान फिर जानवर को क्यों करें कॉपी
न तू खींच मेरा साफा न मै तेरी टोपी
अहम् ही हमारा है दुश्मन जान ले मेरे यार
चल निकलते हैं उसकी ओर तू भी होले तैयार
लगे तुझे कि ओ तेरे बिपरीत खड़ा है 
मत सोच ऐसा क्योंकि ये मैदान बहुत बड़ा है
खाना ख़तम हो जायेगा ऐसा सोअच के मत बैठ
है पतीला बहुत बड़ा खुरचन से भी भर जायेगा तेरा पेट

दीपक पनेरू

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"नेगी जी" मैं योगी नहीं जो,
भस्म नहीं आपको दे पाउँगा,
मैं तो अल्पज्ञानी इस महफ़िल का,
अपने को सार्वजनिक कर जाऊंगा,
आपकी लेखनी ही आपका,
परिचय सबसे कराएगी,
मैं क्या हो क्या रजा है मेरी,
ये लेखनी ही नय्या पार लगाएगी,
पाठक बन जायेगे भक्त आपके,
"कीमा" शब्द का न होगा ज्ञान,
हाथ मैं होगी कलम उनकी और,
मन मैं आपका होगा ध्यान ........

दीपक जी इस कच्चे कवि को दिया आपने सुधार
फिर भी न कर पाया ये आपका सपना साकार
गलतियों पर गलती ऐसा भी भला होता है
अब कर दो कृपा ये नया कवि रोता है
देदो वो भस्म जो कर दे मेरी नय्या पार
ड़ोज थोडा कम देना ताकि न हो आज बुखार
कर दो इस कवि की लेखनी पर करिश्मा
नहीं तो बहुत रोयेंगे पाठक बना देंगे कीमा

"नेगी जी" क्या बात कही,
मैं साथ चलू शुरुवात तुम्हारी,
ये तो बस सवाल जवाब है,
टांग खीचने की नहीं है तैयारी,
अहम् से दूर रहे सदा हम,
इससे टूटे दोस्ती और यारी,
दुःख सुख तो जीवन के साथी,
सब जाने अब ये बारी बारी,
खुरचन ही काफी है इस महगाई,
चलो करैं पेट भरने की तैयारी............

आओ यारो कुछ धमाल करे
कभी मिल बैठें बातें चार करें
न खींचे एक दूजे की हम चादर
दें हर इंसान को आदर
पैदा हुए इंसान फिर जानवर को क्यों करें कॉपी
न तू खींच मेरा साफा न मै तेरी टोपी
अहम् ही हमारा है दुश्मन जान ले मेरे यार
चल निकलते हैं उसकी ओर तू भी होले तैयार
लगे तुझे कि ओ तेरे बिपरीत खड़ा है 
मत सोच ऐसा क्योंकि ये मैदान बहुत बड़ा है
खाना ख़तम हो जायेगा ऐसा सोअच के मत बैठ
है पतीला बहुत बड़ा खुरचन से भी भर जायेगा तेरा पेट

jagmohan singh jayara

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पहले हर कोई कच्चा होता है,
फिर कल्पना में डूबकर,
कच्चा कवि भी परिपक्व  होकर,
कालजयी कवितायेँ लिखकर,
कल्पना में कहीं भी जाकर,
जैसे पर्वत शिखर पर,
आकाश और पाताल,
देवभूमि उत्तराखंड में,
कुमाऊँ और गढ़वाल,
करता है कमाल,
कवितायेँ लिख लिखकर,
ये है मुझ कवि "जिज्ञासु" की,
कविता के रूप में अनुभूति.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१३.८.१०

Raje Singh Karakoti

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इस कवि सम्मलेन को अब यही पर दो विराम
    कल पुनः यही मिलेंगे लेकर हरी का नाम !   
 आयो सब मिल कर बोले जय श्री राम,जय श्री राम,!!   
 
पहले हर कोई कच्चा होता है,
फिर कल्पना में डूबकर,
कच्चा कवि भी परिपक्व  होकर,
कालजयी कवितायेँ लिखकर,
कल्पना में कहीं भी जाकर,
जैसे पर्वत शिखर पर,
आकाश और पाताल,
देवभूमि उत्तराखंड में,
कुमाऊँ और गढ़वाल,
करता है कमाल,
कवितायेँ लिख लिखकर,
ये है मुझ कवि "जिज्ञासु" की,
कविता के रूप में अनुभूति.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१३.८.१०


 

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