भ्रष्टाचार
अपने बड़ो की इज्जत करना,
शिष्टाचार कहलाता है,
छोटे बड़ो का आदर करना,
सब इसके अन्दर आता है,
अब ये शब्द लगता है पुराना,
भ्रष्टाचार का रोग लगा,
आज शहद की मक्खी पर ही,
शहद खाने का आरोप लगा,
सरकारी दफ्तर बने अड्डा,
घूसखोरी का जोर हुआ,
डरा रहता है हर घर आज,
रखवाला ही चोर हुआ,
किसको पकडे किसको छोड़े,
आज इसी भंवर में फस गया,
जिस धरा को सीचा अपनाकर,
पग धरे की वही धस गया,
क्या करू क्या कहू इस बारे में,
अवगुणों की जैसे माला बनी हो,
ऐसा जादू चला पैसा का,
हर कोई सोचे वही धनी हो,
अपने लड़े गैरों के जैसे,
समझाने वाले पर आरोप लगा,
असाध्य रोग लगे है सधने,
पर ये कैसा रोग लगा,
क्या भ्रष्टाचार का यही है पता,
या फिर कुछ नए की बारी है,
मैं था इससे अंजन अभी तक,
पर आगे की तैयारी है,
रचना दीपक पनेरू (दैनिक जागरण पर प्रकाशित)