Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 77356 times)

सत्यदेव सिंह नेगी

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अरे गाना कहाँ दीपक जी बस आपकी शागिर्दगी में तुकबंदी तक ही है हेहेहे

दीपक पनेरू

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मैं नरेन्द्र सिंह नेगी जी की बात कर रहा हूँ श्रीमान "डाल्यु नि कटा भुल्यु तो डाली नि काटा"

अरे गाना कहाँ दीपक जी बस आपकी शागिर्दगी में तुकबंदी तक ही है हेहेहे

सत्यदेव सिंह नेगी

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दीपक जी नहीं हमें साहित्य का अधिक ज्ञान
विज्ञानं पढ़े विज्ञानं करे है काम हमारा तकनीकी
तभी तो कहूँ मै नित सीखी आपसे ही है बारीकी
कला क्षेत्र बहुत बड़ा है नहीं हम उसके लायक
थामे उंगली चल रहे आपकी फिसले नहीं पलक झपक

dramanainital

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paneru saab,mujhe hamesha dharam jee kahte ho, mera naam harshvardhan verma hai.

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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   "मेरा जीवन मेरा अनुभव"


प्यार से बडा़, त्याग होता है,
सुन्दरता से बडा, चरित्र होता है,

इंसान से बडा़, भाईचारा होता है.
परिधानो से बडा़, गुण ज्ञान होता है.

जो इन गुणो को नही जानता,
वो इंसान बहुत परेशान रहता है.

तनहा इंसान 20-08-2010

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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प्यारे कवि मित्रो खुब जमायी है तुमने,
आन रहकर कवि सम्मेलन मे, कवि मण्डली.

तनहा रहता है, बहुत तनहा आजकल,
क्योकी वो आफिस से, बाहर रहता है.

तनहा इंसान 20-08-2010


दीपक पनेरू

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बहुत दिनों से सुनसान पड़ा है ये कॉलोम,
  कुछ करने की  जहमत आज उठाई है,
  मत हो "सुंदर जी" तनहा इतना...
  ये जग की प्रीत पराई है......
 
  इन कुछ बीते दिनों में कुछ पाया नहीं हमने,
  बस खोते गए अनमोल हीरों को.....
  कभी छोटे से मासूम बच्चों को,
  कभी "गिर्दा" और "प्रताप भैय्या" जैसे बीरों को ....

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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हम तनहाईयों के सावन मे, भिगे बहुत है दिपक जी.
कपडे सुखा रहे हवाओ मे, और नहा रहे वरसातो मे जी.

डब-डबाती आंख भर आई, गिरदा ने कहा जब अलविदा जी.
मदहोश हुआ पहाड़ सारा, जब खबर पहुची ये हर घर पर जी.

सुन्दर सिंह नेगी/तनहा इसान
27/08/2010

dramanainital

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दीपक पनेरू

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भ्रष्टाचार

अपने बड़ो की इज्जत करना,
  शिष्टाचार कहलाता है,
  छोटे बड़ो का आदर करना,
  सब इसके अन्दर आता है,

  अब ये शब्द लगता है पुराना,
 
  भ्रष्टाचार का रोग लगा,
  आज शहद की मक्खी पर ही,
  शहद खाने का आरोप लगा,

  सरकारी दफ्तर बने अड्डा,
 
  घूसखोरी का जोर हुआ,
  डरा रहता है हर घर आज,
  रखवाला ही चोर हुआ,

  किसको पकडे किसको छोड़े,
 
  आज इसी भंवर में फस गया,
  जिस धरा को सीचा अपनाकर,
  पग धरे की वही धस गया,

  क्या करू क्या कहू इस बारे में,
 
  अवगुणों की जैसे माला बनी हो,
  ऐसा जादू चला पैसा का,
  हर कोई सोचे वही धनी हो,

  अपने लड़े गैरों के जैसे,
 
  समझाने वाले पर आरोप लगा,
  असाध्य रोग लगे है सधने,
  पर ये कैसा रोग लगा,

  क्या भ्रष्टाचार का यही है पता,
 
  या फिर कुछ नए की बारी है,
  मैं था इससे अंजन अभी तक,
  पर आगे की तैयारी है,

 
  रचना दीपक पनेरू (दैनिक जागरण पर प्रकाशित)
 

 

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