Author Topic: ON-LINE KAVI SAMMELAN - ऑनलाइन कवि सम्मेलन दिखाए, अपना हुनर (कवि के रूप में)  (Read 77352 times)

सत्यदेव सिंह नेगी

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अभी मेरी करें छुट्टी स्वीकार
 
मेरा पहाड़ के इस मंच पर,   
मिला मौका लिखने का,   
निकालने दिल का गुबार।   
मेहता जी कृपा आपकी,   
आशीष पंकज दा का,   
दीपक सुन्दर, राजे का आभार॥   
जीवन है तो ऐसे भी जी लेंगे,   
लड़ेंगे हर लड़ाई,   
चाहे लगी रहे कष्टों की भरमार।   
ऐ जिंदगी हों पड़ाव तेरे जितने भी,   
तरेंगे हम,   
मौत न कर सके तुझ पर प्रहार॥     
उम्र है तो चलेगी बिपरीत काल के,   
लड़ेंगे अश्त्र हमारे,   
सेवा सत्य और सदाचार।   
बचपन था बीता जैसे भी,   
कैसे जियें करेंगे तय खुद,   
अब आएगी जीवन में बहार॥   
कमजोर यहाँ हर है कोई हम भी है, 
अपनाएंगे कमजोरी को,   
होगा उसमे भी सुधार।   
ले चुके हैं कसम, न होगा, 
हार शब्द शब्दकोष में,   
करेगा समय हमारी जयजयकार ॥   
चला हूँ नए सफ़र में मै, 
हूँ अभी अकेला अभी तक,   
मित्र और भी मिलेंगे नानाप्रकार।   
होगा समयाभाव, 
कम मिल पाऊँ शायद, 
होंगे आप स्मृति में,   
अभी मेरी करें छुट्टी स्वीकार॥
 

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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नेगी जी बहुत सुंदर लेकिन ये छुट्टी ले कर म्योर पहाड़ के प्रोग्राम मैं द्वाराहाट आ रहे हो न, कल गैरसैण में हम लोग राजधानी के समर्थन मैं प्रदर्शन भी कर रहे हैं,

सत्यदेव सिंह नेगी

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 दयाल जी कक्षाएं चालू हो गयी हैं (सेमिस्टर ब्रेक के बाद) तो कवि मित्रगण से अर्जी लगायी है आपका आभार की इस नाचीज की कविता पर रहम फ़रमाया     जी मै इस पवित्र कार्य (गैरसैण आन्दोलन) में आने को छटपटा रहा हूँ मगर अभी कुछ बेड़ियाँ हैं 
नेगी जी बहुत सुंदर लेकिन ये छुट्टी ले कर म्योर पहाड़ के प्रोग्राम मैं द्वाराहाट आ रहे हो न, कल गैरसैण में हम लोग राजधानी के समर्थन मैं प्रदर्शन भी कर रहे हैं,

सत्यदेव सिंह नेगी

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चाह रहती है की लिखूं
इस फोरम में नित नित नया
अपनों के बीच है सुरक्षा
ये नहीं कि हर गलती पर गया

सवाल नाक का बन जाये
ऐसा नहीं होता घर हरेक
मेरा पहाड़ है उपवन
हरियाली और दे खुशबु यहाँ प्रत्येक

हैं कई प्रसंसक निशंक के
कुछ घोर विरोधी नौछमी के
मुझे भी मिलते रहते चाहक मेरे भी
चाहे हों गिनती के

इस आँगन में खुशियाँ लाये बहार
इस चाहत में रहूँ सदा
बसते हो तुम ह्रदय में मेरे
पर याद करलिया करो यदाकदा

सावन है घटायें हैं बरसेंगी
सुनाएंगी अफ़साने मेरे यार के
लगी हो बाहर रिमझिम वर्षा
गुनगुनालो गीत बीती बार के

सम्मलेन के प्रतियोगी पहुचे "जागरण"
जाने शब्दों का मोल
कभी मुफ्त में भी बरसालो
नित राह देखू आपकी मै डोल डोल

सत्यदेव सिंह नेगी

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कवि सम्मेलन पर क्यों जड़ा इतना बड़ा ताला
देदो है कोइ खबर या दो किसी का हवाला

समझिये आप युवा कवि के भीतर की ज्वाला
उसकी मासूमियत है सच्ची है दिल से भोलाभाला

कहा छिटके सभी युवा क्यों सबने नाता तोड़ डाला
रोजमर्रा में हैं ब्यस्त दिखा है या कहीं और उजाला

किसने लगाई सेंध यहाँ किसका या ये गड़बड़झाला
गड़बड़ी नहीं है ये तुच्छ लगता है ये बड़ा घोटाला

सत्यदेव सिंह नेगी

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चला दगडियो अपरा घार बस्गाल लग्युं वख झमाझम   
कनु व्हालू म्यारू घर गांवु  बरखा टुटी नि हूणी कम -2
     
टुटी गिनी सब्या बाटा कनिके पौछला अपरा गाँव   
कभी जौला गाड़ी म कभी पैदल कभी काटिकी बा
 
गाँव गल्या म व्हाला लोग लग्याँ व्हाला हमारा सार   
.बचि जाला गोर भैंसा द्वी चार पुंगडि  कूडि तुमारा भ्वार     
 
खुदेड हुन्द पराण आन्द मिथई जब बालपन अपुरु   
कन भलु छाई भ्वारयुं गांवु खाली व्हे गयई पुरु       
 
चला दगडियो अपरा घार बस्गाल लग्युं वख झमाझम   
कनु व्हालू म्यारू घर गांवु  बरखा टुटी नि हूणी कम
 

दीपक पनेरू

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गरीबी का सुख
   
    गरीबी को हमारे समाज में,
    अभिशाप समझा जाता है,
    दुत्कार दिया जाता है तब,
    जब कोई गरीब सामने आता है,
   
    अमीरों की जिंदगी भी क्या,
    उतनी हंसी होती होगी,
    एक सवाल उठता है मन में,
    ये अमीरी कैसी होती होगी?
   
    एक गरीब की गरीबी का सुख,
    वह अमीर क्या जाने,
    जो सोये नहीं चैन से रत दिन,
    सब पर शक करे जाने अनजाने,
   
    दिन भर जो ईट और गारे से,
    अपने तन को भिगोता है,
    अमीरों से अच्छा तो वाही गरीब,
    रात को चैन से सोता है,
   
    ना उम्मीद है कुछ पाने की,
    ना कुछ खोने का अभाश,
    बस प्रेम भाव से बढ़ाये मित्रता,
    और जीत ले मन का विश्वाश,
   
    डरता है जो हर पल छल से,
    अमीरों ने जो विरासत में पायी है,
    धरती है गरीबों का बिछोना,
    और खुला आसमान रजाई है,
   
    ये सुख है गरीब जीवन का,
    जिसको अमीरों ने दुत्कारा है,
    पर अपने को टूटने से बचाकर,
    गरीब कभी नहीं हारा है,
   
    हर इन्सान सुखी समाज का,
    विकसित देश यह पहचान,
    हर घर में फैले खुशहाली,
    गरीब ना कहलाये कोई किसान.
   
    रचना दीपक पनेरू
    दिनाक ११-सितम्बर-२०१०

सत्यदेव सिंह नेगी

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गरीबी को पहचानो
किस आप कहेंगे गरीब
ढूढ़ने की जरुरत नहीं
मिलेंगे हमेशा करीब

यहाँ हर कोई गरीब है
देखे नित गरीबी पडोसी में
खुद में कब झांकेगा बन्दे
मत रह इस मदहोशी में

कर प्रतिशप्रधा खुद से भी
मत देख सदा दांये बांये
देख पीड़ा खुद की भी देख
बच्चे तेरे भी बिलबिलाये

भर्मित न हो क्यों उदास है तू
देख ईंट गारे के इंसान
न टूटे फिर भी तेरा तेरा
भ्रम चले आना दारू की दुकान 

काम करे तू दिनभर और
हर शांय मिले तुझे भी तेरा पैसा
मिलेंगे तब उस रोज सोचेंगे
क्यों न हम भी रोज करें ऐसा

बेहतर होता कि गरीब पर नहीं
कुछ लिख लेते गरीबी पर
होता इसमें जनहित दिखता असर
तुझ पर और तेरे करीबी पर

मजदूरी को दे नाम गरीब
न करो पहाड़ियों के हित पर प्रहार
न पढ़ सके हर पहाड़ी बच्चा क्या करोगे तुम
क्या करेगी सरकार

सत्यदेव सिंह नेगी

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हे बद्री विशाल बचालो टूटा है कुदरत का कहर 
हे भैरों कहाँ हो देखो विनाश होवे आठों पहर
हे नरंकार देवता क्यों भरा मेघों में ये जहर
रात विनाश भई खूब बख्श तो इस दोपहर
हे नरसिंग देखो लोग हैं गए कितने सिहर
दया करो हे कैलाशपति बंधू बांधव गए हैं गुजर

Vinod Jethuri

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HINDI GAZAL :-
बहार से हम, मुस्कूराये जा रहे है
अन्दर का गम, कोई ना जाने..:(
बहार से आन्सू, दिख ना पाये..!
अन्दर से आन्सू, बहे जा रहे है
अन्दर से आन्सू, बहे जा रहे है..

बातें तो मीठी, किया करते थे..:)
बगल मे चाकू, घीसे जा रहे थे.:(
जिनको मै अपना, समझ रहा था.
वही मुझसे दगा, किये जा रहे थे
वही मुझसे दगा, किये जा रहे थे..

झूट जो बोलता, जीत चुका था.:
सच्च जो बोला, हार गया मै.:(
सच्चायी की.. जीत है होती...
ईसी आस मे मै, जिये जा रहा था.
ईसी आस मे मै, जिये जा रहा था.

बहुत बडी मै, खता कर गया था.
पहली नजर मे, फ़िदा हो गया था.
ओ क्या जाने, होती है तडपन ?
काश जो उनको, अहसास होता.!
काश जो उनको, अहसास होता.!

बहार से हम मुस्कूराये जा रहे है
अन्दर का गम, कोई ना जाने..:(
बहार से आन्सू दिख ना पाये..!
अन्दर से आन्सू, बहे जा रहे है
अन्दर से आन्सू, बहे जा रहे है..!


(Vinod Jethuri on 12th Sep 2010 @ 11:15 AM)
Copyright © 2010 Vinod Jethuri
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