Author Topic: Poem & Articles Writen by Devesh Joshi-देवेश जोशी जी की कविताएं  (Read 4877 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,
 
We will be sharing here the Poems, Articles written by famous Writer Shri Devesh Joshi ji who is also bacially from Uttarakhand soil. Mr Joshi is also member of Merapahadforum Community and visits the portal regularly. He will also write his articles, poems here.
 
I hope you will appreciate the articles by Joshi ji.
 
This is the photo Cover of one of of Books Written by Mr Joshi .
 

 
देवेष जोषी की प्रकाशित पुस्तकों का विवरण   
                                         
जिंदा रहेंगी यात्राएँ।
प्रकाषक - पहाड़, परिक्रमा तल्ला डांडा तल्लीताल नैनीताल।
प्रकाषन वर्ष -1999
सम्पादक - देवेष जोषी
मूल्य - रु0 125.00

उत्तरांचल: स्वप्निल पर्वत प्रदेष।
प्रकाषक - नन्दादेवी महिला लोक विकास समिति गोपेष्वर।
प्रकाषन वर्ष -2001
सम्पादक - देवेष जोषी


M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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घुघुती न बासऽ.....

                                     
-Devesh Joshi 

      मायके की खुद/नराई से आकुल पहाड़ी लोकगीतों की नायिका द्वारा यह अनुनय घुघुती (संस्कृत में पंडुुक/पेंडुकी, अरबी में फ़ाख्ता, अंग्रेजी में डव) से सदियों से की जाती रही है। चैत-पूस के महीने बहुओं के मायके जाने/भेजे जाने की पहाड़ी समाज में परम्परा रही है। यही वे दो महीने होते हैं जब बहुएं ससुराल की कष्टपूर्ण एकरस दिनचर्या से थोड़ा बहुत आजादी की अनुभूति पाती हैं।ष्कह सकते हैं चैत पहाड़ी बहुओं के लिए स्वतंत्रता दिवस का पर्याय है तो पूस गणतंत्र दिवस का। चैत-पूस का एक-एक दिन ससुराल में काटना उनके लिए वर्षों के समान हो जाता है। चैत के महीने दिषाभेंट के लिए औजियों (दर्जी/ढोलवादक जाति) का आना, भाइयों का भेंटुली लाना आदि कई पहाड़ी परम्पराएँ, पहाड़ी ब्याहताओं की मायके से दूरी (भौगोलिक भी और हार्दिक भी) कम करने के ही प्रयास रहे हैं।
 
      घुघुती प्रवर्जन करने वाला वह पक्षी है जो शीतकाल में तराई/मैदानी इलाकों में प्रवर्जन करता है और चैत (बसंत) प्रारम्भ होते ही पहाड़ी वादियों में घु-घू-घू के उदासी भरे स्वर में अपनी उपस्थिति दर्ज करता है। पहाड़ी बहुएं घुघुती के इस प्रवर्जन को उसके ससुराल से मायके लौटने से जोड़ती रही हैं और अपने मायके से दूरी के दुःख से सहज ही उनके मुख से फूट पड़ता है - घुघुती न बासऽ।
 
      घुघुती के उदासी भरे स्वर को भी पहाड़ी ब्याहताएं उसके ससुराल की व्यथा कथा के रूप में लेती हैं और सहानुभूति से बोल उठती हैं-घुघुती न बासऽ।
सहानुभूति के साथ-साथ खतरा यह भी है कि उनकी अपनी व्यथा के जख्म, जिनसे उन्होंने लगभग समझौता-सा कर लिया है, भी हरे हो जाएंगें। इसलिए - घुघुती न बासऽ।
 
      घुघुती पहाड़ी नायिकाओं के लिए सदियों तक संदेशवाहक भी रही है बतर्ज़ मेघदूत, पवनदूतिका। संदेशवाहक काक (कागा) भी रहा है पर उसकी निःष्छलता को पहाड़ी नायिकाएॅं संदिग्ध ही मानती रही है। घुघुती को, अपने समान विरहणी  मानकर और मायके-ससुराल के दो-पाटों में पिसती जानकर पहाड़ी नायिका योग्यतम संदेशवाहक समझती है। अपनी व्यथा का संदेश घुघुती को समझाकर कहती है सीधे मेरे मायके में जाकर मेरी माँ को ये संदेश सुनाना और कहीं भी - घुघुती न बासऽ।
 
      बच्चों को भी घुघुती का बोलना बड़ा अच्छा लगता है। बड़े-बुजुर्ग दोनों हाथों को मुँह से लगाकर घुघुती की आवाज निकालते हैं तो उन्हें बड़ा मज़ा आता है। पहाड़ी बच्चों के लिए लोकसृजित सर्वश्रेष्ठ लोरी भी कदाचित् इसीलिए घुघुती से जुड़ी है - घुघूती     -  बसूती ।
 
ममा कौ च -  ममाकोटी।
क्या ल्यालो - दुध भाती।
को खालो  - बाळू खांदी।
बाळू खैक  - स्ये जांदी।
बाळो हमरो - स्ये जांदी।
 
 
           

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कुमाऊॅं क्षेत्र में मकर संक्रांति के अवसर पर मनाया जाने वाला घुघुत्या त्योहार  तो वास्तव में बच्चों का ही त्यौहार है। इस अवसर पर आटे और गुड़ से बनने वाले मालपुओं को घुघुते कहा जाता है। बच्चे इनकी माला बनाकर गले में लटका लेते हैं और कौऔं का आह्वान करते हैं कि मेरे घुघुते खाओ मुझे आशीष दे जाओ। आशय यही है कि कौए नकली घुघुते खाएंगे तो असली घुघुते और उनके अण्डों को नुकसान नहीं पहुॅंचायेंगे। धन्य है वह समाज और भूमि जहाँ बच्चों को प्रकृति प्रेम नारे की तरह नहीं बल्कि हॅंसी-खुशी भरे संस्कार के रूप में सिखाया जाता है। बच्चों को भी सहानुभूति घुघुती से है और उसे सचेत करते रहते हैं कि कौए, बाज आसमान में     मँडरा रहे हैं इसलिए - घुघुती न बास।
      घुुघ्ुाती जिसे अंग्रेजी में डव कहा जाता है, की उत्तराखण्ड में पायी जाने वाली प्रजातियां स्पॉट्ेड डव, टर्टल डव, एमरैल्ड डव तथा स्टॉक डव हैं। इनमें लोकगीतों की संदेशवाहक और आलोच्य स्पॉट्ेड डव ही है। सामान्यतया इसी को हम घुघुती के नाम से जानते हैं क्योंकि यही खुलकर गले को फुलाकर ‘बासती‘ है और इंसानों से सर्वाधिक घुल-मिल कर रहती है। वास्तव में इंसान से सहज रूप से घुल-मिल कर रहने वाले पक्षियों में गौरेया के बाद घुघुती का ही नाम आता है। स्पॉट्ेड डव के गले पर स्थित सफेद-काली छींट वाले डिजायन तथा हल्की गुलाबी-भूरे रंग से आप इसे आसानी से पहचान सकते हैं। टर्टल डव में छींट का अभाव होता है। जलीय कछुवे की पीठ की तरह डिजाइन व मटमैले-भूरी रंगत का होने से इसे टर्टल डव नाम दिया गया है। एमरैल्ड डव हरे पंखों वाली होती है जिसे घरों के आसपास देखना लगभग असम्भव ही है। इसे सदाबहार नम वनों में आसानी से तलाशा जा सकता है। हरे गले वाला आकर्षक स्टॉक डव भी बस्तियों में कम ही दिखायी देता है पर पिछले दो तीन वर्षों में ये गोपेश्वर स्थित मेरे आवास की दीवार पर अन्य घुघुतियों के साथ-साथ यदा-कदा दिख रहा है। सभी प्रकार के डव पक्षी पूर्णतया शाकाहारी होते हैं। अनाज तथा बीज इनके प्रिय खाद्य हैं।
      एक पौराणिक कथा के अनुसार घुघुती (वास्तव में अग्नि) की निरीहता से द्रवित होकर दयालु राजा शिवि ने, बाज़ रूपधारी इन्द्र से उसकी रक्षार्थ उसके भार के बराबर स्वयं का मांस काट कर दे दिया था। कपोत (कबूतर) की निकट सम्बंधी घुघुती वस्तुतः सच्ची शांतिदूत हैं। हालांकि कबूतरों का शांति-प्रतीक के रूप में प्रयोग रूढ़ हो गया है पर व्यवहार में घुघुतियों से परिचित कोई भी व्यक्ति कबूतरोें को ढीठ ही अधिक बताएगा।
      घुघुती से जुड़ी पहाड़ी लोककथा भी कम करुण नहीं है। संवेदनशील पहाड़ी लोकमानस (निश्चित रूप से महिलाओं) ने घुघुती के बोलने को इस तरह ग्रहण किया है- घुघुती बसूती, भै भूको मैं सूती। कारण के लिए सृजित/प्रचलित कथा के अनुसार - बाल्यावस्था में ही दूर के गॉंव में ब्याही गयी किसी बहू की सालों तक उसके गरीब मॉं-बाप, सुध-समाचार नहीं ले पाए। चैत-पूस में सबके मायके से लिवाने या मिलने कोई न कोई आता रहता तो वह अपने भाग्य को कोस कर, मन मसोस कर रह जाती।
अभागी को यह तक पता न चल सका था कि उसके ब्याह के बाद उसका एक भाई पैदा हुआ था। उधर मायके में अकेला भाई भी उदास रहता कि काश उसकी भी कोई बहिन होती तो वह भी अन्य साथियों के साथ उसे भिंटोली (उपहार) देने जाता। एक दिन मॉं ने किन्हीं भावुक क्षणों में उसे उसकी ब्याहता बहिन के बारे में बता दिया। भाई ने अगले चैत में बहिन को भिंटोली पहुॅंचाने का मन बना लिया। चैत आया तो मॉं ने भाई को समझाने का बहुत प्रयास किया कि बहिन का गॉंव बहुत दूर है, जंगली रास्ता है, कई गाड-गदेरों को पार करना पड़ता है। भाई रुका नहीं। एकमात्र बहिन से मिलने की खुशी के आगे कोई बाधा उसे कैसे रोक सकती थी। इधर भाई, बहिन से पहली बार मिलने चला उधर बहिन को शुभ-सगुन दिखने लगे। उसका मन कर रहा था आज जरूर कोई न कोई मायके से उसे मिलने आएगा। उसने सास को अपनी आशा बतायी तो सास ने लापरवाही से उसे डाँटकर चुपचाप काम में जुटे रहने का हुक्म सुना दिया। शाम के झुरमुटे में थका-माँदा भाई बहिन के आँगन में पहँंच गया। सास ने बहिन को न बताकर भाई को चुपचाप बाहर ही पेड़ के नीचे बैठने को कहा। सास को डर था कि बहिन को भाई के आने का पता चल जाएगा तो वह सब काम छोड़-छाड़कर उसी के पास बैठ जाएगी। बहिन काम में लगी रही, भाई पेड़ के नीचे ही बहिन के इंतजार में सो गया। सर्दियों के दिन थे। रात को बहिन ने सपने में भाई को देखा। सुबह उठी तो पेड़ के नीचे भाई को भेंटुली हाथों में लिए मरा पाया। बहिन के मुख से निकला- भै भूको मैं सूती। भाई भूखा रहा और मैं सोती रही। असह्य वेदना में बहिन ने भी प्राण त्याग दिए। वही घुघुती पक्षी बन गयी और गहरी उदासी भरे स्वर घर-घर के ऑंगन में जाकर बोलती रहती है- भै भूको मैं सूती। घुघुती की करुण कथा से विह्वल, सहानुभूतिवश पहाड़ी ब्याहताओं के हृदय से सहज ही स्वरलहरी फूट पड़ती है- घुघुती न बासऽ।
            प्राचीन समय में महिलाओं को अभिव्यक्ति की न तो स्वतंत्रता प्राप्त थी न ही अवसर। स्वामीजी (पतिदेव) अब्बल तो साथ में होते ही नहीं थे (प्रवास के कारण), होते भी थे तो बातें कहॉं हो पाती थी- खासकर मन की बातें। कारण कई थे - संयुक्त परिवारों में एकांत क्षणों और अवसर का अभाव, शर्मो हया के अतिरेक में संस्कारित मन, दैन्यबोध से कुंठित आत्मबल और हर हाल में चुप रहने-सब सहने के लिए मात-पिता षिक्षित-उपदेषित मस्तिष्क। अघोषित-गैर सरकारी सेंसरशिप-सा था यह सब। लगता है अभिव्यक्ति का अधिकार इन्हीं के लिए संविधान में रखना पड़ा। तीन बीसी (साठ) अवस्था पार कर चुकी उस महिला का बिम्ब मन में तैर रहा है जो विवाहित जीवन के पूर्वाद्ध में पूर्व वर्णित कारणों से पति से खुलकर बतिया नहीं पायी और उतरार्द्ध में पति स्वयं ही परदेष में इस तरह रम गया कि घर और घरवाली दोनों को भुला बैठा। ज़फ़़र का शेर थोड़ी मरम्मत के साथ इन जैसी महिलाओं के लिए सटीक बैठता है कि-
उर्मे-दराज़ मॉंग के लाए थे चार दिन
दो शरमा के बीत गए, दो इंतजा़र में।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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इन परिस्थितियों में पशु-पक्षियों को ही ‘प्रवक्ता‘ बनाने के सिवा महिलाओं के पास चारा भी क्या था। फलतः सृजित हुए गीत और कथाएं। गीतों में दर्द महिलाओं का था, ताने ससुरालियों और माता-पिता के लिए थे। एक तरह की संसदीय प्रणाली ही हुई यह। गालियां दो, फिकरे कसो विपक्षियों को और सम्बोधित करो माननीय अध्यक्ष जी को। गोया अध्यक्ष, अध्यक्ष न हुए गालियों-फिकरों के जंक्शन हो गए। पक्षियों का मुक्ताकाश में विचरकर दूूर-दूर तक सहजता से पहुँच जाना, ससुराल की कीली पर घूमती ब्याहता के लिए रस्क़ का विषय तो था ही। कथाओं में कथा ब्याहताओं की अपनी थी पर पात्र पषु-पक्षी थे (विष्णु शर्मा को पंचतंत्र की प्रेरणा इन्हीं ब्याहताओं से मिली थी कि नहीं, शोध का विषय है)। सृजित गीतों और कथाओं को जब समधर्मी और हमदर्दी भरा पाया गया तो उन्हें जनता की आवाज़ अर्थात लोकगीत और लोककथा बनते देर नहीं लगी। अक्सर ही समाज में दुःखी व्यक्ति को सांत्वना देने के लिए उस जैसे या उससे अधिक दुःखी व्यक्ति की याद/उदाहरण दिया जाता है। यही मनोविज्ञान यहॉं भी काम करता है। अपना दर्द भूलकर ब्याहता कह उठती है- घुघुती न बासऽ।
 
      घुघुती की इस लोककथा का पुनर्पाठ भी किया जा सकता है। कह नहीं सकता कि उत्तराखण्ड महिला कल्याण विभाग को, घुघुती को अपना आइकन बनाना चाहिए या साइरन। पर एक बात स्पष्ट है कि महिलाओं के दर्द की प्रतीक घुघुती को किसी प्रतीक-पिंजरे में कैद नहीं कर दिया जाना चाहिए। ‘धारों‘(ेचनत) के पीछे दुखियारी और भी हैं.......की उद्घोषिका घुघुती का सरकारी तंत्र को शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि वह उन्हें कर्तव्य पथ का चिरस्मरण करा रही है। देवीस्वरूपा, मातृशक्ति, जननी जन्मभूमिश्च जैसी शब्दांजलि से उनका तर्पण करने के बजाय सुपात्राओं तक कल्याणकारी योजनाओं की सुगम पहुॅंच सुनिश्चित कर उनका अभिसिंचन करें। घुघुती तब भी बासेगी जरूर पर उसका अर्थनिरूपण तब कुछ इस प्रकार होगा-घुघूती बसूती, न क्वी भूको न सूती।

’’’’’’’’’’’ 

                                                      (देवेश जोशी)
 
 

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गढ़वाली लोकगीतों की सामर्थ्य
और ठसक

(स्नोबॉल्स ऑव गढ़वाल को पढ़ते हुए)

-देवेष जोषी

कविता की दूसरी परम्परा वह है जो लोकधर्मी है। यह लोकध् ार्मी काव्य परम्परा जितनी ऊर्जस्वी है उतनी ही सुदीर्घ भी। हिन्दी के स्वनामधन्य आलोचक नामवर जी की इस स्थापना से षायद ही कोई असहमति व्यक्त कर सकता है। फिर भी एक समय मैं कतिपय
लोक गीतों को लेकर यह धारणा बना बैठा था कि कुछ नहीं टाइमपा स के लिए रची गयी पंक्तियां हैं जिन्हें बिना सीमेंट, चूने, मिट्टी की र्स्नििग्धता के एक के ऊपर एक आड़े तिरछे रख दिया गया है (ये समझते हुए भी कि हर लोकगीत में अर्थगौरव और तार्किकता की तलाष न तो ज़ायज है और न ही उनके सृजन का आध्ाारभूत सिद्धांत)।
उदाहरणार्थ लेते हैं

 
एक गढ़वाली लोकगीत-
ना बैठ ना
बैठ बिन्दी चर्खी मां।

 
इस लोकगीत को पहली बार नरेन्द्र सिंह नेगी की एलबम में सुना था तो निराष ही हुआ था। नेगी जी की गीत सृजन क्षमता के साथ-साथ लोकगीत चयन दृष्टि भी अद्भुत है। ना बैठ ना बैठ बिन्दी चर्खी मां गीत को सुनते हुए मैं कभी यह नहीं समझ पाया था कि बिन्दी के चर्खी में बैठने से लोककवि को क्यों दर्द हो रहा था। नेगी जी के द्वारा सुर और संगीत की चाषनी में भिगोकर लोककवि के तर्कों को भरपूर मध् ाुरता प्रदान करने के बावजूद बात कभी गले उतरी नहीं। इस लोकगीत के मर्म को मैं पहली बार तब समझा जब 8 मई 2010 को पहाड़ संस्था द्वारा अपनी स्थापना के रजत समारोहों की कड़ी में नागनाथ-पोखरी में उत्तर प्रदेष के पूर्व काबीना मंत्री एवं लेखक-सम्पादक नरेन्द्र सिंह भण्डारी की विमोचित पुस्तक स्नो बॉल्स ऑव गढ़वाल से गुजरने का अवसर मिला। श्री भण्डारी द्वारा पचास के दषक में संकलित-प्रकाषित इस पुस्तक में समीक्ष्य गीत का सेंट्रल आइडिया मिल ही गया जिसने मेरी पूर्व धारणा को यू टर्न दे दिया। श्री भण्डारी की पुस्तक में दिए गए इस लोकगीत के अंग्रेजी रूप की संदर्भित पंक्तियों का भावार्थ है कि-

झूलना ही है तो मेरी
बॉंहों में पसर जा
ऐ बिन्दी!-
मैं झुलाऊँगा तुझे हौले से।
रहम कर मुझ पर
क्योंकि मुझसे तुम करती हो असीम प्रेम।
(और मेरे सामने ही झूलोगी गैर की बॉंहों
में)
ओ बिन्दी!
ना बैठो, ना बैठो इस झूले में।

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नायिकाओं का नायक की बाँसुरी के प्रति आकर्षण के बावजूद ईर्ष्यालु हो उठने का भाव तो कई भाषा-बोलियों के गीत-कविताओं में मिल जाता है किन्तु नायक का प्रेम की हदें लाँघ कर निर्जीव झूले के प्रति ईर्ष्यालु हो जाना और कई तर्कों-कुतर्काें के सहारे नायिका को झूले से दूर रखने का यह अद्भुत भाव अन्यत्र दुर्लभ तो है ही साथ ही लोकगीतों को कविता की दूसरी परम्परा मानने की स्थापना का भी अप्रतिम उदाहरण है।

हो सकता है नेगी जी ने इस गीत का जो रूप संकलित किया हो उसमें संदर्भित पंक्तियां न रही हों, क्योंकि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि उन्होंने उपलब्धता के बावजूद इन पंक्तियों को छोड़ दिया हो। गीत का सेंट्रल आइडिया मिस होने से जहॉं श्रोता के मन में हर अन्तरे के बाद उमड़ता प्रष्न- आखिर क्यों अनुत्तरित रह जाता है वहीं इस गीत के वीडियो में भी वो एक्सप्रेषन्स नहीं आ पाए हैं जो अन्यथा आते। नायक का ईर्ष्यालुपन कहीं भी वीडियो में परिलक्षित नहीं हो पाया, मात्र चर्खी को ही फोकस किया गया है। कह सकते हैं कि समीक्ष्य गीत में षब्दों का तो चलचित्र बना दिया गया किन्तु भाव का रूपान्तरण नहीं हो सका।
 पुस्तक में गीत के साथ दिये गए फुटनोट- कि भण्डारी की बिन्दी के स्थान पर षिवानन्द नौटियाल ने गोबिन्दी बैठा ली है पर भी टिप्पणी करना चाहूॅंगा। हुआ मात्र यह है कि वाचिक रूप में जो गो बिन्दी था वह मुद्रित रूप में गोबिन्दी हो गया। गौरतलब है कि गढ़वाली के कुछ क्षेत्रीय रूपों में सम्बोधन में नाम से पहले गो लगाया जाता है (ए गो भनुली तु कख जाणी)।
 पहाड़ की ओर से प्रस्तुत भूमिका में लैमार्क (भूलवष डार्विन) को  ठीक ही उद्धृत किया गया है कि जिसका कोई उपयोग नहीं होता वह धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है। गढ़वाली-कुमाँउनी को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाकर राजभाषा के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करने के प्रयास सराहनीय तो हैं पर मात्र सर्वनाम व क्रिया    षब्दों के सहारे लड़खड़ा कर चलती व बाहरी संज्ञा, विषेषणों के पैबन्द वाली इन बोलियों का भी लैमार्कीय हश्र न हो, यह भी समान रूप से विचारणीय है।

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स्नो बॉल्स ऑव गढ़वाल के 1946 में प्रकाषित मूल संस्करण में प्रकाष में आए गढ़वाली गीतों के अंग्रेजी रूप जिनकी भी नज़रों से गुजरे होंगे उन्होंने इस भाषा की सामर्थ्य को सराहा जरूर होगा। द ग्रासकटर सिंग्स और अ पीजेंट गर्ल्स साँग आष्चर्यजनक ढंग से विलियम वर्ड्सवर्थ के सॉलिटरी रीपर से मिलते हैं। एक बार को तो लगता है कि वर्ड्सवर्थ ने मात्र एंगल बदलकर गढ़वाली लोकगीत से हीे भावाधार लिया हो। नन्दकिषोर हटवाल ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक मूल गढ़वाली लोकगीतों को तलाषा है किन्तु कछ गीतोें के मूल रूप प्राप्त न हो पाना चिन्ता का विषय है। षोधार्थियों और संकलनकर्ताओं के लिए यह अवसर भी है और चुनौती भी कि वे अवषेष गीतों के मूल रूपों को प्राप्त करने का प्रयास करें। विषेषकर फार्मिंग साँग, सॉँग ऑव द षेफर्ड, द बास्केट सेलर व वाइंडिंग बुलक्स अत्यंत महत्वपूर्ण लोकगीत हैं। इनकी महत्ता जहाँ इनके गढ़वासियों के श्रम-स्वेद को उद्घाटित करने की क्षमता के रूप में है वहीं इनकी मौलिक भाव-भूमि के रूप में भी है।
 जनपद चमोली-रुद्रप्रयाग के  ब्रिटिषकालीन नागपुर परगने के विकास-पुरुष के रूप में लोकप्रिय राजनीतिज्ञ नरेन्द्र सिंह भण्डारी के व्यक्तित्व के ढके-छिपे पहलू को प्रकाष में लाने के लिए पहाड़ पत्रिका-आंदोलन व टीम के प्रमुख षेखर पाठक, जीवन परिचय लिखने वाले अजय रावत व श्री भण्डारी के विद्वान अनुज राजेन्द्र भण्डारी व भतीजी सुषमा  और श्री भण्डारी की इस दुर्लभ कृति को सहेज कर रखने-सुपात्रों तक पहुँचाने के लिए श्री भण्डारी के सहपाठी के.एस.पांगती  साधुवाद के पात्र हैं। देष की आजा़दी के पूर्व-वर्ष में तत्कालीन षासकों की भाषा में उन पर स्नो बॉल्स उछालने की गढ़वाली की ठसक को अनुभूत करना चाहते हों तो पहाड़ द्वारा प्रकाषित स्नो बॉल्स ऑव गढ़वाल के पन्ने अवष्य पलटें।
                         
                                         ’’’’’’’’’’’
 
           
           

                                 

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घनष्याम ढौंडियाल: षिक्षक का षास्त्रीय उदाहरण
                                               
-देवेष जोषी
 
 बाज़ारीकरण के इस दौर में जबकि षिक्षा भी एक बड़े बाज़ार में तब्दील हो चुकी है और राजकीय विद्यालयों के स्तरहीन होने और राजकीय षिक्षकों के लगभग गैर जिम्मेदार होने की चर्चाएं अधिकतर होती रहती हैं, विष्वास करना षायद कठिन होगा कि ऐसा भी एक षिक्षक अपने प्रदेष में है जिसने उच्च षिक्षित होने के बावजूद प्राथमिक षिक्षा के लिए इस तरह अपने को समर्पित कर दिया है कि अब उसे न वेतन का ध्यान है न पदोन्नति की चाह। जो सच्चे अर्थ में विद्यार्थियों को देवता समझता है और अपने विद्यालय को मन्दिर। जो ये  भूल
चुका है कि राजकीय सेवा में स्थानान्तरण जैसी भी कोई व्यवस्था होती है और जिसका विष्वास इतना दृढ़ व लगन इतनी पक्की है कि वो अपने विद्यालय के लिए हर संसाधन व विद्यार्थियों को तराषने-निखारने की हर आवष्यकता को सहज ही मुमकिन बना देता है। जी हाँ ऐसा षिक्षक है जनपद चमोली में राजकीय प्राथमिक विद्यालय स्यूंणी मल्ली में कार्यरत- घनष्याम ढ़ौंडियाल।
गैरसैंण-रानीखेत मोटर मार्ग पर आगरचट्टी नामक जगह से 05 किमी की खड़ी चढ़ाई पर स्थित है श्री ढ़ौंडियाल की कर्मस्थली - प्राथमिक विद्यालय स्यूंणी मल्ली। पहाड़ों में 05 किमी की खड़ी चढ़ाई और वहाँ की चुनौतियों का क्या अर्थ होता है ये पहाड़ों में रह रहे/रह चुके लोग अच्छी तरह समझ सकते हैं। दुर्गम क्षेत्र के सरकारी विद्यालयों की सभी खामियां व समस्याएं इस विद्यालय में भी थी। कुछ हट कर करने के लिए संकल्पित श्री ढ़ौंडियाल ने स्थानान्तरण के जुगाड़ मेें जुटने के बजाय यहीं से परिवर्तन की षुरुआत करने की ठान ली। विद्यालय की तत्कालीन परिस्थितियों के सम्बंध में श्री ढ़ौंडियाल बताते हैं कि - टपकती छत वाला जीर्ण षीर्ण भवन, प्रांगण में आधी-अधूरी खुदाई से छूटे उघड़े हुए पत्थर, मैले-कुचैले अनुषासनहीन बच्चे, जो पाँचवी कक्षा में भी वर्णमाला व गिनती का ज्ञान नहीं रखते थे और नियमबद्ध खेलों व संगीत से लगभग अपरिचित बच्चे मुझे विरासत में मिले थे। पूरे गाँव में मात्र एक व्यक्ति स्नातक था। महिलाएं घर-गृहस्थी में इतनी व्यस्त कि साल में षायद दस दिन भी बच्चों से दिन में बतियाने का समय नहीं निकाल पाती। ऐसे में मैंने कैनवस के खुरदरेपन की षिकायत करने के बजाय इसी पर अपना सब कुछ अर्पित कर कुछ बेहतर रचने-सजाने का संकल्प ले लिया।
एक वर्ष की मेहनत से ही उन्होंने विद्यालय को इस स्तर पर पहुँचा दिया कि बच्चों के द्वारा भव्य वार्षिकोत्सव का आयोजन करवा दिया। आयोजन जहाँ अभिभावकों को विद्यालयी गतिविधियों से जोड़ने में सफल रहा वहीं अपने बच्चों की उपलब्धि व प्रदर्षन से चमत्कृत हो वे षिक्षा के महत्व व ताकत से भी परिचित हो सके। प्राथमिक विद्यालय स्यूंणी मल्ली में आने से पूर्व ही  प्राथमिक विद्यालय झूमाखेत में भी उन्होंने प्राइवेट विद्यालयों में पलायन रोकने के लिए कक्षा-1 से ही अंग्रेजी षिक्षण स्वयं के प्रयासों से बिना किसी अतिरिक्त सहायता के प्रारम्भ कर दिया था। इसके अतिरिक्त विद्यालय सौंदर्यीकरण, षैक्षिक के साथ-साथ षिक्षणेत्तर गतिविधियों में उल्लेखनीय सुधार किया था। 
धुन के पक्के ढ़ौंडियाल के पास हर समस्या का समाधान था। विद्यालय में विभिन्न गतिविधियों के आयोजन हेतु आर्थिक समस्याएं आई तो अपने वेतन का एक हिस्सा नियमित विद्यालय के लिए लगाना ष्षुरु कर दिया, प्रांगण का सौंदर्यीकरण हो या भवन की मरम्मत, खुद अपने हाथों में हथौड़ा-सब्बल थाम लिया, देर रात तक जग कर सफेदी व रंग रौगन कर लिया, बच्चों को संगीत सिखाने के लिए खुद हारमोनियम-तबला सीख लिया, खेल-खिलौनों के लिए स्वयं व मित्रों की सहायता से आवष्यक संसाधन जुटा लिए, फुलवारी के लिए इतने कुषल माली बन गए कि 100 से अधिक प्रजातियों के पुष्प खिलखिलाने लगे, वाल राइटिंग  के लिए पेंटर बन गए। यही नहीं अपने विद्यालय व बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उन्होंने गैर सरकारी संघटनों व उत्कृष्ट निजी विद्यालयों के अनुभवों व अच्छी परिपाटियों को भी विद्यालय हित में प्रयोग किया। एक अच्छे प्लानर की तरह उन्होंने विषिष्ट गतिविधियों पर अतिरिक्त बल देने के लिए वर्ष भी निर्धारित किए यथा-सांस्कृतिक वर्ष, क्र्रीड़ा वर्ष आदि। इस प्लानिंग का प्रतिफल भी विद्यालय को खूब मिला। विद्यालय ने विकास खण्ड, जिला व राज्य स्तर पर विभिन्न प्रतियोगिताओं में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।
जहाँ आज सरकारी कार्याें का ठेका प्राप्त करने के लिए ग्रामीणों में मारपीट तथा मुकदमाबाजी तक आम बात हो गयी है वहीें स्यूंणी मल्ली के ग्रामीणों ने इस षिक्षक पर पूर्ण विष्वास प्रकट करते हुए सर्व सम्मति से भवन पुनर्निर्माण के समस्त निर्णयों का सर्वाधिकार श्री ढ़ौंडियाल को सौंपकर उनके निर्देषन में समस्त सहयोग प्रदान किया गया। फलतः अस्तित्व में आया एक ऐसा सुरुचिपूर्ण भवन जिसका समान राषि में निर्मित जोड़ीदार पूरे प्रदेष में ढॅँॅूढे नहीं मिलता। अपने निजी आर्थिक संसाधनों से उन्होंने विद्यालय में विद्युत व्यवस्था की व गैर सरकारी संघठन एस0बी0एम0ए0 के सहयोग से पाँच हजार रुपए जमानत जमा कर कम्प्यूटर लगाकर विद्यालय को राज्य का अपने संसाधनों से कम्प्यूटर षिक्षा प्रदान करने वाला प्रथम  राजकीय प्राथमिक विद्यालय बनाया।
विभिन्न सरकारी आदेषों के बावजूद जहाँ विद्यालयों में प्रार्थना सभा की गतिविधियां संतुलित व व्यवस्थित नहीं हो पा रही हैं वहीं स्यूणी मल्ली के विद्यालय में ढ़ौंडियाल के प्रयासों से बच्चे प्रत्येक दिन के लिए निर्धारित प्रार्थना, समूहगान, राष्ट्रीय प्रतिज्ञा, योगाभ्यास, हिन्दी एवं अंग्रेजी में सामान्य ज्ञान प्रष्नोत्तरी, टॉपिक ऑव द डे, दैनिक समाचार का नियमित व अत्यंत व्यवस्थित ढंग से सम्पन्न करते हैं। प्रार्थना सभा के कुषल संचालन का ही असर है कि कक्षा-1 के बच्चे भी सामान्य ज्ञान के उन प्रष्नों का उत्तर दे देते हैं जिनका उत्तर आपको अन्य सरकारी विद्यालयों के दसवीं के छात्र भी कदाचित् ही दे पाएं। अपने ही प्रयासों से उन्होंने विद्यालय में न सिर्फ पुस्तकालय व वाचनालय की स्थापना कर ली हैै बच्चों को उनका नियमित व प्रभावी प्रयोग करने में भी प्रषिक्षित कर दिया है। षहरी चकाचौंध के संक्रमण से खुद को बचाते हुए उन्होंने गाँव में ही अपना निवास रखा है और विद्यालय के निर्धारित घंटों के अतिरिक्त भी बच्चों को उपचारात्मक षिक्षण सहयोग प्रदान करते हैं। यही नहीं पाँचवी दर्जे के बच्चों को वे नवोदय विद्यालय की प्रतियोगी परीक्षा के लिए भी तैयार करते हैं। उनके तैयार
बच्चे प्रति वर्ष नवोदय विद्यालय की प्रवेष परीक्षा में सफल भी हो रहे हैं।
वर्ष 1995 में नियुक्त एम0एस-सी0, बी0एड्0 षिक्षाप्राप्त श्री ढ़ौंडियाल वर्ष 1999 से वर्तमान विद्यालय प्राथमिक विद्यालय स्यूंणी मल्ली में कार्यरत हैं। अपने विद्यालय व छात्रों से जुनून की हद तक लगाव रखने वाले श्री ढ़ौंडियाल ने जूनियर हाईस्कूल में हुई पदोन्नति को भी ठुकरा दिया। प्राथमिक विद्यालय स्यूणी मल्ली को आज ढ़ौंडियाल ने इस स्तर पर पहुॅंचा दिया है कि न सिर्फ जिला व राज्य के षिक्षक-अधिकारी वहॉं अभिदर्षन भ्रमण पर आ रहे हैं बल्कि कई गैर सरकारी संघठन भी उनसे प्रेरणा ले रहे हैैं। हाल ही में कनाडा यूनिवर्सिटी के छात्र व सर्व षिक्षा अभियान के राष्ट्रीय सलाहकार अषदउल्ला यहाँ केस स्टडी टूर पर आ चुके हैं।
उत्तराखण्ड विद्यालयी षिक्षा विभाग में अपने प्रखर विचारों, सत्यनिष्ठ छवि और षैक्षिक सुधारों के लिए बहुचर्चित पूर्व निदेषक नन्दनन्दन पाण्डेय जी ने विभाग के धरातल को समझने-परखने के उद्देष्य से वर्ष 2007 में प्रदेष के केन्द्रीय विकास खण्ड गैरसैंण को स्वयं गोद लिया था और इन पंक्तियों के लेखक को अपना प्रतिनिधि बनाकर गैरसैंण में ष्षैक्षिक सुधारों का उत्तरदायित्व सौंपा था। मेरे द्वारा गैरसैंण में किए गए विभिन्न प्रयासों में से एक ढ़ाैंडियाल के विद्यालय में किए गए प्रयासों और उपलब्धियों पर रिपोर्ट निदेषक महोदय  को देना भी रहा। निदेषक महोदय द्वारा उनके कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें राष्ट्रीय/राज्य स्तर के पुरस्कार के लिए आवेदन करने का संदेष जनपदीय अधिकारियों के माध्यम से दिया गया। नाम-दाम के लिए नहीं बल्कि वास्तविक अर्थों में मिषन मोड में कार्य करने वाले घनष्याम ने कभी पुरस्कार के लिए आवेदन करने या प्रयास करने में कोई रुचि नहीं दिखायी। वह आत्मविष्वास से कहते हैं कि उन्हें बच्चों की ऑंखों की चमक में नोबेल से बड़ा पुरस्कार दिखायी देता है।
बिना आवेदन किए अगर विभाग या कोई संस्था घनष्याम ढ़ौंडियाल और उनके विद्यालय स्यूंणी मल्ली को सम्मानित करता है या किसी भी रूप में सहयोग प्रदान करता है तो यह प्रदेष के सपनों की राजधानी में साधनारत इस सरस्वती सेवक जैसे अन्यों को प्रेरित करने की दिषा में महत्वपूर्ण कदम तो होगा ही प्रकारान्तर से मातृ-भूमि से पलायन को रोकने के सरोकार के लिए कुछ सकारात्मक प्रयास भी होगा।
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यूँली बनाम ब्रह्मकमल
                                                            - देवेश जोशी

जिस ऊँचाई पर मानव के सिर दिखाई देने बन्द हो जाते है, वहाँ ब्रह्मकमल उगने शुरू होते हैं। जिन कक्षों (मंदिरों के गर्भ गृह) के द्वार मनुष्य के लिए बन्द रहते हैं, वहां ब्रह्मकमल शोभायमान होते हैं तथा जिन बुग्यालों मे मानव के दिग्भ्रमित और मूर्छित होने का खतरा रहता है, वहाँं ब्रह्मकमल सीना ताने मुस्कराते रहते हैं।
  दूसरी ओर यूँली पहाड़ की रग-रग में उगती हैय पहाड़ के प्रत्येक भीठों-पाखों, खेतों की मेड़ों और दीवार को सजाती हैय घर-घर की देहली में बिखराया जाना अपना सौभाग्य समझती है और विवाहित महिलाओं की पीड़ा से द्रवित होकर स्वयं मायके से अतिशय लगाव वाली, लोककथा की नायिका बन जाती है।
यूँली प्रतीक है उस गरीब आम आदमी की जो कहीं भी खुले में चादर तान के सो जाता है, बिना दाल सब्जी के सूखी मंडुवे की रोटी नमक के साथ खा लेता है, सरकारी नल या किसी धारे -नौले से पानी पी लेता है, जो कुत्तों के लिए कोठी और अपने जैसे इंसान के लिए नीले आसमान की छत को नियति का फैसला और कर्मो का फल मान, संतोष कर लेता है।
  ब्रह्मकमल प्रतीक है उन अमीरजादों का जिनको वातानुकूलित कक्षों में ही जीने की आदत है। प्रत्यक्ष देव भास्कर का प्रताप जो झेल नहीं पाते हैं और ऊँचे पहाड़ों की तरफ ऐश करने निकल पड़ते हैय जिनके कदम गलीचों के आदी होते हैं और मन अप्सराओं केय जिनके शरीर इत्र से महकते हैं किंतु अंतस काले कर्मांे के काले बीजों से भरे रहते हैंय जिनका असली चेहरा कई परतों को उघाड़ने के बाद ही सामने आता है।
  यूँली अगर मासूम बच्चों की अठखेलियां है तो ब्रह्मकमल किसी ज्ञानी पण्डित द्वारा की गयी ब्रह्म की विशद् व्याख्या। यूँली का सम्पूर्ण अस्तित्व चार पीली नाजुक पंखुडियों के बीच समाहित होता है तो ब्रह्मकमल का सात दीवारों वाले, शेष दुनिया से कटे, अभेद्य दुर्ग सरीखा।
  यूँली बसंत में खिलती है तो ब्रह्मकमल बरसात में। पहाड़ों में बसंत को नव सृजन एवं वर्षा ऋतु को खौफ के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। इस तरह यूँली को सृजन दूतिका भी कहा जा सकता है, और ब्रह्मकमल को खौफ का रहनुमा।
  यूँली के कितने ही फूलों को कदमों तले आप रौंद जाएं, दराती से घास के साथ काट जाएं, किसी के माथे पर शिकन तक नही उभरेगी और एक अदद ब्रह्मकमल को तोड़ने  के लिए आपको पूूरा कर्मकाण्ड सीखना पडेगा अन्यथा आप हर लिए जाएंगे-बल।
  यूँली झाडियों को भी रंगीन बना देती है। कांटांे के बीच मुस्कारते हुए साैंदर्य जगाती है और खण्डहरों, चटृानांे को भी आबाद करने का प्रयास करती है, तो ब्रह्मकमल बुग्याली गलीचों मंे दागनुमा लगते हैं। रंग-बिरंगे पुष्पों  के बीच एक रंग उड़ा पुष्प जैसे शास़्त्रीय गायकों के मध्य कोई बेसुरा स्वर।
  ब्रह्मकमल में देवत्व का दुराभिमान है तो यूँली में अपनत्व की अंतरंगता। ब्रह्मकमल से त्रिया हठ की पैाराणिक कहानी जुड़ी है तो यूँली से नारी के भोलेपन की लोक कथा।
  यूँली पददमित है तो ब्रह्मकमल शीर्षमण्डित। यूँली दलित है तो ब्रह्मकमल पण्डित। ब्रह्मकमल दुर्लभ है तो यूँली सर्वसुलभ। यूॅली लोकगीत है तो ब्रह्मकमल गवेषणा। यूँली जनता की जरूरत है तो ब्रह्मकमल सरकारी घोषणा।
  वीराने का राजपुष्प ब्रह्मकमल हो तो हो, लोक हृदय सामाज्ञी, लोक पुष्प तो सदैव रहेगी - यूँली।

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