Author Topic: Poem of Vijay Kumar Pant - विजय कुमार पन्त जी के कविताएं  (Read 2000 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

We are posting here some poems written by Mr Vijay Kumar Pant. Brief Introduction about Mr Pant is as under:-


विजय कुमार पंत

जन्म 31 अगस्त 1972
 उपनाम जन्म स्थान नैनीताल, उत्तराखंड, भारत कुछ प्रमुख
कृतियाँ पुरस्कार संपादन अनुवाद सम्पर्क निवेदन Here is the first poem of Mr Pant

तुम आओ तो
तुम आओ तो
 इतनी निष्ठुर रातें है
 इन्हें जगाओ तो
 तुम आओ तो
 अंधेरों के भी अर्थ समझने थे मुझको
 मेरी जिज्ञासाओं को पंख लगाओ तो
 तुम आओ तो...
 निस्तब्ध निशा में शब्दहीन अभिमन्त्रण से
 मन के मंदिर मैं अगणित दीप जलाओ तो
 तुम आओ तो...
 पूर्वाग्रह से है ग्रसित सुबह कबसे मेरी
 एक अंतहीन अभिलाषा उसे बनाओ तो
 तुम आओ तो....
 एकांत कभी तो सुखकर होता ही होगा
 इसमें भी आकर गुपचुप सेंध लगाओ तो
 तुम आओ तो ...
 बोझिल उनीदीं आंखे क्यों है खुली हुई
 बन स्वपन समय का ही आभास
 कराओ तो
 तुम आओ तो...
 छोडो भी वहम अगर दुनिया को होता है...
 तुम हो, इतना सा ही संकेत दिखाओ तो
 तुम आओ तो...

http://www.kavitakosh.org/k

M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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राक्षस पैदा नहीं होने चाहिए / विजय कुमार पंत
कौन है गुनाहगार...
 ब्रह्मा सृष्टि के जनक????....
 या माता पिता???....दोषी तो गुणसूत्र भी नहीं है..
 शायद....
 फिर भी मेरा आभास ही...षड्यंत्र ..में लीन
 हो जाता है...मेरे विनाश के..
 जन्म हो भी तो...मैं साथ में लेकर आती..हूँ
 कई सारी मजबूरियां....
 ये न जाने किसने मुझे..इज्ज़त बना दिया..
 रोज तार तार करने के लिए सरे आम सड़कों पर...
 इंसान निर्वस्त्र ही तो पैदा होता है....
 फिर भी चीर हरण में इतनी दिलचस्पी क्यों...
 सब कुछ घूरता रहता है मुझे
 गली, नुक्कड़...चौराहे रास्ते
 यहाँ तक कि मेरा घर....सब कुछ
 फिर भी मैं कभी उसे कोख में ही मारने की
 हिम्मत नहीं कर पाती...
 जिसने मुझे इज्ज़त बनाया...बस तार तार करने के लिए
 काश चाणक्य से ही सीख लेती ....
 कि कारण का समूल नाश ही समाधान है ...
 समूल नाश....गर्भपात चलता रहे......राक्षस पैदा नहीं होने चाहिए

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मैं भारत हूँ / विजय कुमार पंत

 मैं भारत हूँ...
 एक राजा एक वंश..एक राज्य....
 निर्माण, उत्थान पुनरुत्थान
 और विध्वंस झेलता ..
 मैं भारत हूँ...
 हिंसा-अहिंसा के पराक्रम-परिवर्तनों
 से गुज़रता ..
 चीर हरण की त्रासदियाँ समेटे
 अपने अंतर-विरोध से खेलता
 मैं भारत हूँ...
 बदलते समय की उन्मुक्तता
 से निर्वस्त्र, किंकर्तव्यविमूढ़..ठगा
 चरमराती..दीर्घ आचरण अट्टालिकाओं
 के मलबे में फंसा-दबा
 मैं भारत हूँ.....
 मैं भ्रमित हूँ
 सत्य और असत्य के बीच
 सुनकर मर्माहत शब्द..
 देखकर सभ्यताओं की ऊँच-नीच
 अर्थों-अनर्थो के मेल मिलाप...
 फलते-फूलते अभिशाप....
 चमकते अंधकार से...मौन प्रकाश की सहमति
 मैं भारत हूँ ..
 कराहते रहना ..
 शायद यही है मेरी नियति...

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मेरा गाँव / विजय कुमार पंत
तितलियों के
 लाखों रंग
 बूढ़े बरगद की
 ठंडी छांव ,
 लहलहाते खेत
 जिंदा है..
 मेरा गाँव ,

 गुनगुनाते भँवरे
 खिलखिलाती किरण
 मन्त्र-मुग्ध बयार
 कर जाती तन -मन

 चिलचिलाती धूप
 जलते पांव
 घने बरगद के नीचे
 आराम करता गाँव .

 सुरमई शाम ,
 बजती घंटियाँ गायों की ,
 उड़ती पग धूल
 छिपती राहों की

 जलते चूल्हे
 ऊंघते बच्चे
 तनी चद्दरों मैं
 सिमटे पाँव
 कितने चैन से सोता..
 कितने प्रेम से जीता है
 आज भी मेरा
 सुंदर गाँव .....


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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धरतीपुत्र / विजय कुमार पंत



रक्ताभ भाल
 मंथर मंथन ,
 स्पंदन विहीन
 गति , कंटक मन ,
 ढोते, हल का भारी बोझा
 धरती के बेटे का जीवन
 धवल श्वेत कपास का रंग
 फैलेगा कब अंग - प्रत्यंग
 कब घोर कालिमा पहनेगी
 वो चिर प्रकाशमय नव उमंग
 कब सुन पाएंगे इन्द्र देव
 ये हाहाकार करुण क्रंदन
 धरती के बेटे का जीवन
 फिर निकली जिहवा तन निवस्त्र
 देह छिन्न -भिन्न और त्रस्त
 दो आंखें बंद लिए सपने
 एक सूर्य हो गया यूँही अस्त
 कैसा कपास ? वो क्या पहने ?
 हम ओढ़ा रहे थे जिसे कफ़न
 धरती के बेटे का जीवन
 मन बार बार ये सोच रहा
 कर्त्तव्य बोध क्या हम में था ?
 यदि हाँ तो मुझको समझाओ
 फिर क्यूँ नंगा भूखा वो मारा
 क्या बचा हुआ है संवेदन
 धरती के बेटे का जीवन
 बस इतना करदो सब मिलकर
 फिर जीवन यूँ न आहत हो
 मरने की वो भी न सोचे
 जी भर जीने की चाहत हो
 यूँ लुटे न अपनी आन -बान
 फिर मरे न अपना एक किसान
 अपना सहयोग बने, बंधन
 धरती के बेटे का जीवन

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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तेरा आँचल / विजय कुमार पंत
याद आता है
 वो तेरे तार -तार आँचल मे
 मुंह छुपा कर लेट जाना
 वो तेरा
 मेरे बालों को सहलाना
 वो खेत और खलिहान
 तेरा टूट - टूट कर
 काम करना
 सूप मे उड़ते धान
 मक्की की रोटी मैं जो तेरा स्नेह
 घुल जाता था
 मेरे लिए नमक भी
 मधु सा हो जाता था
 याद है वो जूट के थैले को
 सर पर ओढ़ कर
 बारिश से बचाना
 एक पांव मे जूता ,
 एक मे चप्पल
 पहना कर मुझे स्कूल छोड़ जाना
 हमारी इच्छाओ के प्रश्न
 और गाँव के मेले का आना
 वो तेरा बक्से को उलट -पुलट कर
 खंगालना, तीन पैसे पाना
 जिनको बंद हुए
 बीत चुका था जमाना
 फिर भी उनसे तू हमारे लिए
 गुब्बारे लाना चाहती थी
 आज महसूस कर पता हूँ
 तब तू कितना
 लाचार हो जाती थी
 माँ..
 मैंने आज बहुत कुछ पाया है
 ये तेरी मेहनत तेरा प्रताप और
 तेरे आंचल की ही माया है
 माँ मैं बहुत कुछ पा चुका
 अब कुछ खोना चाहता हूँ
 तेरे उसी तार -तार , नीले
 जगह जगह बेतरतीब सिले
 आँचल मे
 फिर मुंह छुपाकर चैन से
 सोना चाहता हूँ

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दरवाज़ा / विजय कुमार पंतदरवाज़ा
 खुला रखो
 न जाने कब..
 चली आयेगी..खुशबू...
 लहराती पुरवाई के साथ..

 दरवाज़ा ..
 खुला रखो
 न जाने कब..
 पार कर लें..कदम
 अहिस्ता से दहलीज..

 दरवाज़ा ..
 खुला रखो ..
 गम न हो कि..
 वक़्त निकल गया..
 चुपचाप..बेआवाज़...
 दबे पाँव..

 दरवाज़ा ..
 खुला रखो ..
 ताकि बदलता रहे..
 पर्दा भी..
 मौसम के मिजाज...

 दरवाज़ा ..
 खुला रखो ..
 कहीं.. ज़िल्लत न हो..
 देख कर.. अपना ही अक्स...
 औरों के आईने मैं...

 दरवाज़ा ..
 खुला रखो
 नजरें धुंधली और
 नज़रिए तंग न हो..
 घुटा घुटा सा दम .. सांसे नज़रबंद न हों.


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पत्थर / विजय कुमार पंत

तुम्हारे
 सुंदर  पैर
 अक्सर  पढ़ते  हैं
 मेरी  छाती  पर
 पर  फिर  भी  साँस  ले  लेता  हूँ
 घुटन  नहीं  होती
 मुझे  इतना  सुंदर
 भी  तुमने  ही
 बनाया  घिस -घिस  कर
 अक्सर लोग
 कुछ  भी  गिरा  देते  है
 कितनी  भी  ज़ोर  से
 अजीब  से  लोग
 अहसास  ही  नहीं  होता
 उनको  हमारे  दर्द  का
 जो  मन  में  आया
 वो  करते  रहते  हैं
 बस  एक  तुमसे  ही  मिलता  है
 स्नेह  और  प्यार
 जब  तुम  अपने
 कोमल  हाथों  से   रगड़-रगड़  कर
 साफ़  करती  हो  मेरा  चेहरा
 और  सचमुच  तुम्हारी  सूरत
 देख  कर  मैं  भी  चमक  उठता  हूँ
 और  कभी  ऐसा  लगता  है
 मुझे  चमकता  देख  कर
 तुम  खिल  उठती  हो
 जो  भी  हो  मुझे
 अच्छा   लगता  है
 वैसे  "शाहजहाँ " के  अलावा ये  कोई
 नहीं  जनता  की
 हमारे  भी  दिल  होता  है
 और  हाँ  आंखें  भी  होती  है
 आपको  मालूम  है ?
 इसीलिए  उसने  हमको  निगेहबान
 बना  दिया ” मुमताज़महल ” का
 वरना  हम  बस
 पत्थर  ही  रह  जाते
 जिन  पर  अक्सर  कुछ  भी  गिरा  दिया  जाता
 लेकिन  आज  कल
 हमको  देख  कर  लोग
 “ताज  महल ” याद  कर  लेते  हैं
 बाकि  सब  बेजान  समझ  कर
 ठोकर  मारते   रहते  हैं
 केवल  कुछ  मुम्ताज़ों  को  ही
 हम  पर  तरस  आता  है
 कई  भाव -हीन
 आड़ी-तिरछी , सूरत  देख  कर
 समझ  नहीं  पाता
 कि किसलिए  केवल  हमको  ही
 पत्थर  है कहा  जाता....

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गंगा / विजय कुमार पंत

जो चली आई तेरे संग प्राण, जीवन से भरी
 हे भगीरथ देख कैसे रो रही गंगा तेरी
 
 जी रही है श्वांस अटकाई हुई गंगा तेरी
 दे रही है प्राण, बिसराई हुई गंगा तेरी
 
 पास शिव के छोड़ आते पितृ तर्पण हो चुका था
 रेत पत्त्थर और मैला ढो रही गंगा तेरी
 
 पापियों को तारने आई हिमालय नंदिनी
 पाप इतने बढ़ चुके है, खो गयी गंगा तेरी
 
 देख वंशंज तो तेरे ही है यहाँ हर घाट पर
 लोभ लालच जागते और सो रही गंगा तेरी
 
 एक तेरे प्रेम से ही थी लिपटकर आ गयी
 खो गयी तो फिर न आएगी कभी गंगा तेरी-----

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मुठ्ठी भर रेत / विजय कुमार पंत

समर्पण ओढ़े
किनारे पर
मैं
करती रही
इंतजार!
तुम भी आते रहे
जब जी किया,
मुझे भीगाते रहे,
और फिर
बेपरवाह, बेफिक्र
जाते रहे …..बार- बार
मुझे
सुखाता रहा
मेरा ही दर्प,
और मैं फिसलती गयी
सुनहरे समय की मुठ्ठियों से
देखो !
कैसे बिखर गया है
तुम्हारे अथाह किनारों पर
मेरा कण कण
रेत बनकर...

 

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