Author Topic: Poem Written by Famous Poet Damadar Joshi 'Dewanshu'- दामोदर जोशी 'देवांशु' जी की कविताये  (Read 3612 times)

नवीन जोशी

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 479
  • Karma: +22/-0

दोस्तो
,

यहाँ पर हम
हिंदी और कुमाउनी के सुप्रसिद्ध कवि, लेखक, नाटककार साहित्यकार और संपादक दामोदर जोशी "देवांशु" और उनके कविताओ के बारे में जानकारी देंगे
------------------------------------------
दामोदर जोशी 'देवांशु'

जन्म:
08 दिसंबर 1949उपनाम: देवांशु

जन्म स्थान: ग्राम तोली (कपकोट) जिला बागेश्वर, उत्तराखंड.कुछ प्रमुख कृतियाँ : कुदरत, पखांण, शिखर, गद्यांजलि, अन्वार, आपणि पन्यार आदि. विविध : आपकी लेखनी कभी चंद वंशीय राजाओं की राष्ट्रभाषा रही कुमाउनी के साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी में भी सामान रूप से चलती है। कुमाउनी में पहले गद्य-संग्रह (गद्यांजलि), पहले कहानी-संग्रह (अन्वार) और पहले नाटक-संग्रह (आपणि पन्यार) के सम्पादन का श्रेय श्री जोशी को जाता है। लुप्त हो रही लोकभाषा कुमाउनी में खुद लिखने के साथ-साथ दूसरों को भी प्रेरित कर उनसे लिखवाते हैं।

नवीन जोशी

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 479
  • Karma: +22/-0
रचनाकार: दामोदर जोशी 'देवांशु'
जो देश की खातिर बलि चढ़ जाते हैं
वज्र को चबा, समुद्र को सुखा जाते हैं
पत्थरों के साथ भी निभा जाते हैं
बाघ को नोंच, भालू को फाड़ जाते हैं
आकाश के माथे पर झण्डे गाढ़ आते हैं
लोग उन्हें अक्षत रोली लगाते हैं
तालियाँ बजाते हैं, जै-जैकार करते हैं
मैं उन्हें आग चढ़ाता हूँ।

वे जो बिजली को भी पी जाते हैं
वे जो विष की घूँट भी पी जाते हैं
आग की भभक, पानी की छपाक, धूप-तुषार के साथ
जो ज्येष्ठ मास की गर्मी और पौष की सर्दी से भी भिड़ जाते हैं
लोग उनके पाँवों से सिर झुकाते हैं
लोग उनके गले में फूलों की मालाएँ चढ़ाते हैं
मैं उनके हाथों में मशाल देता हूँ,
मैं उनके हाथों में उजाला देता हूँ।

ऊपर चढ़ते हैं, नींचे दौड़ते हैं
पहाड़ियों से गिरते हैं, नदियों में बहते हैं-तप्त लोहा चाट जाते हैं
चिड़ियों जैसे आकाश उड़ते हैं
वे जो दूसरों के लिए ज़िन्दा रहते हैं
मैं उनको अपनी ज़िन्दगी देता हूँ।

दूसरों के दुखों को आग लगा देने को
भेद-भावों को गड्ढे में दफ़ना देने को
उल्टी हवा को जला देने को
राह से भटकों को रास्ता दिखा देने को
मेरी माँ के मन्दिर में स्वयं जा कर
जो बकरी की तरह स्वयं के प्राणोत्सर्ग को प्रस्तुत कर देते हैं,
उनको मैं सूरज का गोला, धरती का फल
चन्द्रमा का चन्दन, फूल का हँसना
और आकाश की चोली चढ़ाऊँगा

मेरी माँ की सेवा करने के लिए जिन्हें
कल तिरंगा थामना है
मैं उनको ज़िन्दगी की दीप-बाती प्रज्वलित कर
अपने गीत-रीतों का छल-बल दे कर
पल-पल, दिन रात उनकी पूजा करूँगा।

मूल कुमाउनीं पाठ : उनरि पुज

जो देशाक् खातिर बलि चढ़नी
बज्जर कैं बुकै समुन्दर कैं सुकै जानी
ढुंग-पाथर दगाड़ लै मिटै जानी
बाघ कैं दाड़ि भालु कैं फाड़ि जानी
अगासाक कपाई में किल गेंठनी
मनखि उनुकैं अच्छयत्-पिठ्यां लगूंनी
ताइ बजूनी जैकार करनी
मैं उनुकैं आग चढूंनूं।

ऊं जो बिजुलि कैं लै पी जानी
ऊं जो बिखक घुटुक घुटुकै जानी
आगक भभक् पाणिक् छपक, घाम-तुस्यारा दगाड़
जो जेठकि रूढ़ पूसैकि सूड़ दगाड़ भिड़ि जानी
मनखि उनार गाव में फूलमाव खितनी
मैं उनार हात में मुच्छयाव द्यूं
मैं उनार हात में उज्याव द्यूं।

उकाव दौड़ूं, हुलार हिटौं
भ्योव घुरयों, गाड़ बगौं-फौड़ि चटौं
चड़-पोथ जस अगास उड़ौं
ऊं जो दुसार हुं ज्यूंन रौनी
मैं उनूंकैं आपणि ज्यान द्यूं
अग्यै द्यूंल कै दु:खन कैं
खड़्यै द्यूंल कै भेद भावन कैं
भड्यै द्यूंल कै उल्टी हाव-बयावन कैं
बाट बतै जूंल कै हिर लालन कैं
मेरि मैया दरबार में आफी जै बेर
जो बकार जास बरकी गईं
उनुकैं मैं सूरजक ग्वव, धर्तिक फव।

चनरमाक चनण, फूलक हंसण
अगासकि चोई चंढ़ूंल
मेरि इजकि स्याव करंण हुं जनुल
भोल हुं तिरंगा थामंण छु
मैं उनुकैं जिन्दीगीक् दि बाई बेर
आपण गीत-रीतोंक् छल-बल दी बेर
घड़ि-घड़ि, दिन-रात उनरि पुल करूंल।


नवीन जोशी

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 479
  • Karma: +22/-0
माया पहाड़ की

रचनाकार:
दामोदर जोशी 'देवांशु'

[/color]ठण्डी है हवा, ठण्डा है पानी
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी
किसी ने न जानी, किसी ने न जानी
किसी ने न जानी, ठण्डा है पानी।।

वेदों की वाणी, यहाँ ज्ञान की खानें
ऋषि -मुनियों की यह राजधानी
गो-मुख गंगा, सरयू का पानी
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी।।

चोटियाँ, छोटी नदियाँ, गहरे पाताल से
धर्म का धाम, यह देवताओं का धाम
क्या ही अच्छे लोग, क्या ही सुन्दर वाणी
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी।।

हरि का हरिद्वार यहाँ बद्री-केदार
बद्री केदार यहाँ गंगा की धार
काफल, बांज के घने जंगल
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी।।

सुन्दर हिमालय का मुकुट दिखता यहाँ से
क्या ही सुन्दर देश कमाल दिखता यहाँ से
भट, गहत, गेहूँ, कोन्दों की दानी
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी।।

टेढ़े-मेढ़े रास्ते, पनघट घूमते हैं
वन-वन कोहरा, झरने नाचते हैं
हमारे यहाँ है बहुत काम
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी।।

बुराँश खिला है उस पार पहाड़ी में
मुझे लग रहा है मेरी रानी
बांज के जंगल में बसे मेरे प्राण
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी।।

धन की खान यह पहाड़ों की रानी
ले जाओ न मेरे पहाड़ को चुन चुन कर
बड़ा कठिन है पहाड़ को देखना
माया पहाड़ की, किसी ने न जानी।।
मूल कुमाउनी पाठ

ठण्डि छ हावा, ठण्डो छ पाणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी
कैलै न जॉंणी, कैलै न जॉंणी
कैलै न जॉंणी, ठण्डो छ पॉंणी ।।

वेदोंकि वाणी या ज्ञानकि खांणि
ऋषि-मुनियोंकि यो राजधाणी
गो-मुख गंगा सरमूल पाणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी ।।

धार-गधेरा गैल-पाताला
धर्मक् धाम यो धाम देवाला
के भाल मैंस के भलि वाणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी ।।

हरि-हरद्वार यां बदरी-केदार
बदरी केदार यां गंगाकि धार
धुरा काफल धुरा बाजाणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी ।।

के भलो मुकुट हिमाल देखिं
के भलो मुलुक कमाल देखिं
भट-गहत ग्युं मडुवै दाणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी ।।

ट्योड़-म्योड़ बाट घट रिंगनी
बण-बण हौल छीड़ नाचनी
हमरि यां छ बड़ि बुति-धाणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी ।।

बुरुशि फुलि उ पारा डाणी
मैझै कुनूं हो उ मेरि राणी
बांजा का धुरा मेरि पराणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी ।।

धनकि खांणि यो पहाडोंकि राणी
ल्ही जाओ न म्यार पहाड़ छांणी
बड़ि अथाणि को पहाड़ चांणी
माया पहाड़कि कैलै न जॉंणी ।।
[/size]

नवीन जोशी

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 479
  • Karma: +22/-0
विलायती बच्चे

रचनाकार: दामोदर जोशी 'देवांशु'                 

राम हो गऐ हैं रामा, कृष्ण कृष्णा
बुद्ध भगवान हो गऐ हैं बुद्धा
क्या पढ़े-लिखे लोग हो गऐ निर्बुद्धा !

माँ मम्मी-मामा, पिता डैडी
औरतें हो गईं हैं सब लेडी
वही मोटी कोन्दो की रोटियाँ
वही लोहार से अभी लाया गया ज्यों धान का कनस्तर
वही बर्तन वहीं निवाण की चारपाइयाँ
वही भट का जौला ज्यों पानी का नौला
शरीर की तरह ही फटा लटकता पाजामा

किन्तु कहीं रास्ता लगते समय टाटा-टाटा!
अभी आ गए, आगे कभी न आना इस रास्ते
पागलपन आ गया है, चला गया है मिलना, भेंट देना
गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग, सभी जगह गुड-गुड
प्रणाम-जीते रहो, मैं रहूँ, तुम रहो-लौटा दी है पीठ
दीदी, बहन, एक चूल्हा, मैं छोटी-तू बड़ी
(टू कप टी) तू कपटी, मैं कपटी-बाइ, जैसा बक रहे हैं सब
हम यहाँ कहाँ से आए हैं !
कहाँ गए वे देवरानी, जेठानी-सासू माँ, चाची, ताई के दिन
कहाँ गए वे जवाँई-साले, मामा-मामी के दिन
कहाँ गए वह चाचा, ताऊ, दादाजी, ननद-भौजाई के दिन
भाई खोया, बहन खोई-सिस्टर मिस्टर! बहर ही बाहर !
नाई, मांणे (पहाड़ी वस्तुऐं मांपने के परंपरागत बर्तन) खोए
गाँव-घरों तक पहुँच गया यह कोहरा

कल साँप बन जाएगा यह केंचुआ
डंक मारेगा कलेजे में
अपनी चीजें मानी जा रहीं निकृष्ट
कभी नहीं देखी ऐसी समय से पूर्व शाम
अंकल-आन्टी ! सॉरी-सॉरी हो गई है बहुत ही
क्या देखते हो, बज गई है खतरे की घन्टी
कोई है, जो तोड़ देगा इस फन्दे को
मनुष्य मनुष्य को यू-यू (कुत्ते की तरह ) कर्कश पुकार रहा है
अनहोनी!
क्या सब बिलायती बच्चे हो गऐ !

मूल कुमाउनी पाठ

राम है गईं रामा, कृष्ण कृष्णा
बुद्ध भगवान है गईं बुद्धा-
के पढ़ी-लेखीं मैंस है गईं निबुद्धा !
इज मम्मी-मामा, बौज्यू डैडी
स्यैणीं सब है गईं लेडी

उईं मोट हाफसूल जस मडुवक कन्तर
आफर बटि ऐलैं ल्यायीं जस धानक कन्टर
उईं भाड़ उईं पटबाड़
उईं भटक जौव जाणि पाणिक नौव
जंगी-सुर्याव-आंगाक् बात-बात
आंगाक् चिर पड़ीं ल्वात
बाट बटीण बखत टाटा-टाटा !
आज ऐगोछा अघिल फ्यार कभै झन आया यै बाटा
ऐगो बौयाट ल्हैगे भेट-घाट
गुड् मौरनिंग, गुड इविनिंग, सबै जाग गुड-गुड
पैलाग-जी रौ, मैं रौं तु रौ-फरके हालौ पुठ !
दिदि-भुलि एक चुलि, मैं नानि तु ठुलि
तु कपटी मैं कपटी-बाइ में बस बकणईं सब
ऐ गयां हम यां कां बटि !

कां गाय उं दिराणि जिठाणि-दिज्यू काखि-जेड़जाक् दिन
कां गाय काक-जिठबाज्यु नन्द-भौजि-पौणिक दिन
भै हराय, बैणि हरायि-सिस्टर मिस्टर ! भ्यैर भ्यैरै !
नाई हराण मांण हरांण फरुवांकि चौल !

गौं-घरों तक लै छोपणौ हौल
भोलहुं स्याप बणि जाल यो गिदौल
ठपैक मारल कल्ज में
टापणि चीज हैरै ह्याव
कभै नि देखि इतणि असन-अब्याव
अंकल-आन्टी ! सौरी-सौरी हैगे औरी
के चै रौछा बांजि गे खतरकि घन्टी
क्वे छा रे ! जो फेड़ि द्यला मेरि फिन्द
मैंस-मैंस कैं यू-यू कै बेर धत्यूणईं
अणहोति !
के सब बिलैन्ती प्वाथ है गईं


नवीन जोशी

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 479
  • Karma: +22/-0
नींव का पत्थर / दामोदर जोशी 'देवांशु
गज़ब हो गया! बड़ा अंधेर
नींव के पत्थरों को खजबजाने की
अनोखी अनहोनी होने लगी है
जहाँ नींव के पत्थर थे
कोई जैसे नहीं दिख रहा वहाँ।
जिन नींव के पत्थरों को अपनी बलि दे कर
अपनी संपत्ति की तरफ़ ध्यान न दे नष्ट कर
राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, ईशु-मुहम्मद ने
शँख-घँटियां बजा कर, फूल-पत्तियाँ चढ़ा कर
सात हाथ नींचे डाला धरती के भीतर
भवन जीवित रहेगा, स्थित रहेगा सोचकर
जिस नींव के पत्थर पर पहरा दिया
गांधी, सुभाष, पटेल व तिलक ने
अशफाक, शेखर, भगत सिंह ने
जाने किस-किस ने किया अपना सर्वस्व न्यौछावर
जिसका ग्वाला बनाया गया हम को।
अरे! अनहोनी हुई, खेत ही अपनी फसल खाने लग गया
धर्म-जाति, देश-इलाके के, अपने-पराये के नाम पर
नींव के पत्थरों को चुराने लग गया
उठा कर एकत्र करने लग गया
अपना अलग चूल्हा बनाने लग गया
अलग ही चलन चलाने लग गया

वे पूछ रहे हैं, नींव के पत्थर कहाँ गए ! अनाथ से !
पटक दिए हैं नींव के पत्थर, झटक दिए हैं नींव के पत्थर
खजबजा-अपनी जगह से हिला दिए हैं नींव के पत्थर
वे पूछ रहे हैं, अरे! ग्वाला कहाँ सो गया !
मैं सोचता हूं शायद ऐसा नहीं है
ये पत्थर, इतने मुलायम नहीं हैं
जो बेकार थे वे पहले ही मिट्टी हो चुके
जो अपने न थे, पहले ही खत्म हो चुके
जो अब हैं, वे इतने आसान, नाज़ुक नहीं हैं
किसी कमज़ोर वंश की निकृष्ट सन्तान से

इन पत्थरों को कोई थोड़ा भी डरा नहीं सकता
कैसी भी अंधड़-बारिश, हवा-बादल, अनहोनी
इन शिव लिंगों को हिला नहीं सकती
अरे! अब इस तीन युगों की धूनी को जो हिलाएगा
अरे! अब इस सतयुग की शक्ति को जो खजबजाऐगा
ख़बरदार! देख लेना फिर
उसकी नींव का पत्थर, सहारा
पहले ही हिल, उखड़ जाऐगा।

मूल कुमाउनीं पाठ

शै-शिल


गजब हैगो! बड़ अन्धेर
शै-शिल कैं खजबजूणकि
अणकसी नि हुणि काव हुण भैगे
जति कैं शै-शिल छी
क्वे जस नि देखीणय उति कैं!
आपणि लटि-पटि में भाँग फुलै बेर
राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, ईशु-मुहम्मदैल
सांक-घांट बजै बेर, फूल-पाति चढै बेर
सात हात ताव खितौ धर्ति भितेर
कुड़ि ज्यूनि रौलि, थिरि रौलि कै बेर
जै शै-शिलक् पहर करौ
गांधी, सुभाश, पटेल, तिलकल
अशफाक, शेखर, भगतसिंहैल
जांणी कैल-कैल करी दैल-फैल
जैक ग्वाव बणाई गो हमुकैं।
अरे! अजुगुति भै, गाड़ उज्यड़ खांण भैगो
धर्म-जाती, देश-इलाकाक्,आपंण-पर्या नौं पर
शै-शिलाक् ढुगन कैं चोरण भैगो
टिपि बेर एकबटूण भैगो
अलग चुल चिणण भैगो
अलग चाल-चलक् चलूंण भैगो

उं पुछणईं शै-शिल कांहु गो ! निकावगुसैंक्!
पत्यणि हाली शै-शिल, फत्यणि हाली शै-शिल
खजबजै-घजबजै हाली शै-शिल
उं पुछणईं अरे! ग्वाव काहुं कल्टोईणौ !
मैं सोचूं सैद यस न्हां
यो ढुग-पाथर इतुक सितिल-पितिल न्हान्तन
बुसिल छी जो बुसी गईं पैलियै
आपंण नि छी जो पुरी गईं पैलियै
यां न्हातन जास-कास पैग सिदु-बिदु !
क्वे कल्मुखी वंशाक्-बान

यो ढुगन कैं मणीं लै डरै नि सकन
क्वे ढान-भुई, द्यो बादव, अजुगुति-अणहोति
यो शिव लिंगन कैं सरै नि सकन
अरे! आब यै तिरजुगी धुणि कैं जो हलकाल
अरे! आब ये सत्जुगी शक्ति कैं जो खजबजाल
खबरदार! देखि ल्हिया रे
वीक शै-शिल गोठक्-किल
पैलियै खजबजै जाल।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0

जोशी जी बहुत ही अच्छी जानकारी आपने यहाँ पर दी है!

दामोदर जोशी जी के बारे में मैंने बहुत सुना था आज मेरापहाड़ पोर्टल में उनके कविताओ को पाकर मुझे बहुत ख़ुशी को रही है !

नवीन जोशी

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 479
  • Karma: +22/-0
घर के बगीचों से
सरयू-गोमती के घाटों से
शिखरों के भण्डारों से
समतल, ऊँचे-नींचे रास्तों से
दुनिया के दूर देशों से

यहाँ से, वहाँ से, नींचे से, ऊपर से
जाने कहाँ, कहाँ-कहाँ गड्ढों से
थोड़ा-थोड़ा कर अंजुली से उठा कर लाए गए
किसी दिन, किसी समय, किसी पल
बिना सींग कान के इन पत्थरों को

साधारण रेलों जैसे
स्वस्ति श्री सर्वोपमा योग्य श्री-श्री......
श्रीमान्! एक नज़र देख दीजिएगा
ऊपर उठा दीजिएगा, इधर उधर सम्भाल दीजिएगा
अपने देश के पत्थर भी चुपड़े!

थोड़ा भी किसी काम के होंगे
अपने घर-बगीचे की दीवारों
बुनियाद में सात हाथ नींचे ही डाल दीजिएगा
या छत में पत्थरों के साथ
पानी को काटने का विशेश प्रबंध करने वाला उपकरण बना
घर के शिखर में चिन लीजिऐगा।

अपने मन के आंगन में बिछा लीजिएगा
या इन्हें खण्ड-खण्ड कर रेत बना लेप-प्लास्टर कर लीजिएगा
अधिक जैसे लगें तो एक ही जगह इकट्ठे कर
कहीं नींचे-ऊपर खिसका दीजिऐगा, गड्ढे में डाल दीजिऐगा
पत्तियों की तरह आकाश में उड़ा दीजिएगा
कोई माँगेगा तो अच्छा ही हुआ, दे दीजिऐगा
कोई चुराए तो अच्छा ही हुआ, देखते रहिऐगा।

या छोटे बच्चों के हाथ में थमा दीजिऐगा
कि बेटा! जा, बना अपना खेल-घर
किन्तु बेकार समझ, या गुस्से से
पटक न देना, पथराव न करना
श्रीमान! फेंक न देना इन कंकणों को।

वरना! पत्थर की चट्टान का मन टूट जाऐगा, पिघल जाऐगा
पुराने घाव हरे हो जाऐंगे
वक़्त पीछे छूट जाएगा
फिर! कोई हमें लूट ले जाऐगा।

मूल कुमाउनीं पाठ[/b]


घराक बुज बाड़न बटि
सरजू-गोमतिक रिवाड़न बटि
शिखराक् भण्डारन बटि
सैण-शोर गेवाड़न बटि
दुनियांक दार-दाड़न बटि

यथ बटि, उथ बटि, तलि बटि, मलि बटि
जांणि कथ कां-कां खाड़न बटि
मणीं-मणि कै आंचुइल टिपि बेर ल्याईं
कै दिनै, कै घड़ि, क्वे पल
बिना सींग काना यै ढुंगन कैं

ख्योर-म्योर जस! र् योल -म्योल जस!
स्वस्ति श्री सर्वोपमा योग्य श्री-श्री......
श्रीमान्! एक नज़र चै दिया
मांथी उचै दिया, वलि-पलि टांचि दिया
आपंण मुलुकाक् ढुंग लै चुपाड़!

मणीं लै क्वे काम-नामाक हला
आपंणि कुड़ि-बाड़िक भिड़ दीवाराक्
बुनियैद में सात हात ताव खिति दिया
या पाख-पाथरों दगाड़ पणकाट बनै बेर लै
धुरि-दन्यारि में चिणिं ल्हिया।

आपंण मनाक् पटांगण कैं पटै ल्हिया
या इनौर चुर-चुर करि बेर लेप-पलस्तर करि ल्हिया
बकाई जस चिताला! चौंर्यै दिया एक ठौर
कांई इचाल-कनाल रड़ै दिया, खाड़ खड़ै दिया
पात-पतेल जस अगास उड़ै दिया
क्वे मांगल तो भल भै, दी दिया
क्वे चोरल तो भल भै, चै रया।

या नान नानतिनां हात थमै दिया
इजा! पोथी! जा, बणा आपणि खेल-कुड़ि
ह्याल समझि, या के रीसा मारी
पत्येड़ि झन दिया, घन्तर झन खितिया
श्रीमान! खेड़ि झन दिया कणिकन कैं।

नतरि! पखांणक् मन टुटि जाल, बिलै जाल
घौ पुराण दुखि जाल
बखत पछिल छुटि जाल
फिर! क्वे हमुं कैं लुटि जाल।
[/font]

Devbhoomi,Uttarakhand

  • MeraPahad Team
  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 13,048
  • Karma: +59/-1
जोशी  इन कविताओं को पड़कर मजा आ गया है बहुत ही अच्छी कवितायेँ हैं दामोदर जोशी जी के द्वारा लिखीजोशी आपका बहुत बहुत धन्यवाद इन सुन्दर कविताओं के लिए


नवीन जोशी

  • Sr. Member
  • ****
  • Posts: 479
  • Karma: +22/-0
बसन्त

सृष्टि में न्यारी हलचल हैगे
फल-फूलों लै डालि झुकी गे
खुशबू को यो संसार ल्ही बेर
आऔ बसन्त युग-युग आऔ।
फूल-फूल में भौंर नाचनी
डलि-डालि में चाड़ बासनी
कोयलकि मीठी कूक ल्ही बेर
आऔ बसन्त युग-युग आऔ।
वाल-पाल डाना बुरूँशि फूलिया
प्योलि सरसों लै खेत भरिया
मौनूँकि प्यारी गुन-गुन ल्ही बेर
आऔ बसन्त युग-युग आऔ।
खेति-पाति यो देखो हरिया
घास-पात लै खूब भरिया
पुतई जास घस्यार ल्ही बेर
आऔ बसन्त युग-युग आऔ।
होलिक रंङिल त्यार मनाओ
आज घर-घर रितु गाईनौ
प्रेम-भावकि सीख ल्ही बेर
आऔ बसन्त युग-युग आऔ।
गुदि-गुदि लगूँनि घामक दिना
दिन मस्ती और रात में चैना
घाम-जाड़ाक् बीच है बेर
आओ बसन्त युग-युग आऔ।।
जङव छाज नई जैसि नई ब्वारी
दुःख सुणूनैं न्योलि दुःख्यारी
सब ऋतुओं में राज है बेर
आओ बसन्त युग-युग आऔ।।
तुछै ज्वानी उमंग नई
बसंत तेरि ल्यूनौ बलाई
सौभाग को सूरज दगड़ ल्हीबेर
आओ बसन्त युग-युग आऔ।।

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22