Author Topic: Poem Written on various issues of Uttarakhand- उत्तराखंड पर ये कविताये  (Read 15520 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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विकास की भैंसी 

  डा० नागेन्द्र जगूड़ी ‘नीलाम्बरम्’ 

दिल्ली बिटेन चलदी ब्यांई भैंसी
अर देहरादून ऐकतैं बाखड़ि ५ैजांदी
जब पौंछदी उत्तरकाशी अर चमोली
अल्मोड़ा या पिथौरागढ़
डी० यम० का बंगला पर
तब तेखड़ा ५ै जांदी
तिसरा दिन एक लुटिया देंदी
जब पौंछदि ब्लॉक मा
बी० डी० ओं० का आफिस
तबरि दस्त रदां लग्यां
तब भैंसि सिर्फ पतलू मोˇ करदि
अर जब भैंसि पौंछदि- रंगतु-मंगतु का चौक मा
सौणु-बैसाकु का भैंसवाड़ा
तब भैंसा कू मोल़
भैंसा का ही ढामणा पर लग जांदू
अर यनु विकास देखिक तैं
गांधि जी कु यू चेला दंग रै जांदू।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शिवनारायण सिंह बिष्ट

सरू कुमैण

अब ब°सुरी की धुन गय गंगोलीहाठ मन्दर
अब गंगोलीहाट रौंद बाबा! सरू कुमैण
अब ज्वा सरू कुमैण हात नी लियेदी भुया° नी धरेंदी
रमकदी बाहीं छमकदी चूड़ी
जिरैली पिंडो नौन्याˇो गाथो
जैंको च खंखरियाˇो माथो
बड़ी रूपवान छ वा सरू कुमैण
बारा बर्सु की सौरू होली भरकर ज्वान
बंसरी की धुन ल सरू मोइत ५े गय
धन मेरा भाग बाबा! कै देश मा ५ैल्यो
‘को छ बजैया’?- बोद मुर्छा ५े गय
बंसरी सुणीक सरू न अन्न छोड़े पाणी
पˇखा°द सरू अब अधूप झूरद।
मैना दिन होई गे गंगोलीहाट मा
बंसरी की दासी बाबा! सरू होई गय

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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केशवानन्द कैंथोला

साटी ग्वडाई

जा°दी छन अब पु°गड़ियों मा साटियों कु गोडणा
कौणी झ°गोरा कू लगीं छन ढीस तीर छोडणा।
घर आई गैने सा°झ मा फिर जाणी बैठी पाणि कू
नौन्याˇ छन रोणा लग्या° दे बोई रोटी खाण कू।
रात अब होण लगीगे कब गोरू-भैंसा बा°दणी
होली सभी अब फिकर ते भैर-भितरा नाचणी।
रोटी छन अब ये पकाणी साग तख मा प्याज को
होली लगीं यू° भूख भारी बोलदी नी लाज को
हे शान्ति! मन मा शान्ति कर क्येै छै उदासी तू हुयीं
जौंका पती घर मा छना तैंकी दशा छा या हुयीं।
जब तू किलैक सोच करदी देख लेदी हौरू को
अब काम धंधा कर सभी तू घार लादी गोरू को।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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तोताकृष्ण गैरोला

श्रीधर (प्रेमी-पथिक बटी)

रौंत्याˇा सिरधूर गा°उ° भर मा गोधूˇि का साजमा
दौ धौˇी, भरपाˇि काˇि घरऔ पाखे गु°जीं गाजमा
लैंजे लैगिन खोˇि≈° तइ सजी बाछे अड़ाई अमां
बालैणी थण थामि दौड़ि पहुंची हु°कारदी चौकुमा
औंणीं रम्कदी बणु बिटे ब्वारे घणी घामिणा
नान्हा दन्किनि दाणी छाणि मई दे, ये द्येलि तू जाणिमा
रोसे भक्कर की पुणीक पड़नी खार्यो न कोठारूमा
तै गौं मा सुख-शान्ति शर्द Ωतु मा ये तौर होणी जमा
मोटा श्रीधर सेठ जी तखत मा बैठ् यां बही हाथ मा
बेटा, माधाव देख भेक भरनी पाथे रिंगै रात मा
गौं गौं का जिमदार खोलण लग्यां भारा किल्या ये धरा
ना जै की च समूण भीत वइ क्वै पैले हि भल भरा
भर्याले सउकारू को गणि गुंथी उन्नीस पाथा खरा
हे! मेरा च≈बीस था घर बिटे मराज ! इन्नाकरा!!
क्या रोˇों! झट सेठ जी उठि उबैं बोल्दा कि पाथा खरा
पक्की छाप खुदीं च पाˇिक तई हे बाबु नौं भी धरा

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हरीश जुयाल

स्याल

डंडवाक पाणी चरणा छन्।
माछा तीसन म्वरणा छन्
बिरˇ्यूं की ∫वेगे खलगडि
मूसा चुलखद्यूं क्वर्ना छन्।
दिन घुघत्यूं का जांदा रैन
ढांग्यूं गरूड़ घुरणा छन्।
स्यू बाघ ∫वेगेन लंुज
स्याˇू का ठाठ चलणा छन्।
जैन हैंका की जलुड़ि उग्टैनि
आज वीइ औंगरणां छन्।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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विपिन पंवार ‘निशान’

अपण°ु पहाड़

अपणु° पहाड़
अपणु° घार
वखी मा° कु प्यार
बेटी-ब्वारी कु रैबार
दीदी-भुलि कु दुलार
जवानी कु उˇार
मायादार गितार
रौंत्याˇी डा°डी-का°ठियों
कि उचि-निशि धार
वखी मिलदु हरु-भरु
बा°ज-बुरा°स अर देवदार
यनु छ
अपणु° पहाड़
अपणु° घार
जख मा° कु प्यार
मेरो पहाड

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निरंजन संुयाल

 देहरादून


 राज हेगी देहरादून

 काज हेगी देहरादून
 ब्याˇीतैं यो डेरा छौ
 आज देहरादून
 देख हेगी देहरादून
 लेख हेगी देहरादून
 बारा कि बरोबरी
 एक ५ेगी देहरादून
 हर हेगी देहरादून
 टूर ५ेगे देहरादून
 दिल्ली से भी जादासी
 दूर ५ेगे देहरादून
 हाम ५ेगे देहरादून
 लाम ५ेगे देहरादून
 डाम पड़े टीरी पर
 जाम हेगी देहरादून
 औˇ ५ेगे देहरादून
 बौˇ ५ेगे देहरादून
 देखि लंबो चौड़ो छौ
 गौˇ ५ेगे देहरादूण
 सौत हेगी देहरादूण
 मौत हेगी देहरादूण
 हौर क्वी नि मिली
 भौत हेगी देहरादूण

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उत्तराखंड के पहाडो से हो रहे पलायन को मैंने कुछ कविता दो पंक्तियों में लिखने की कोशिश की है! जिस प्रकार वहां केवल बूढ़े लोग रह गये है गावो और वो इस आशा में रहते है कि उनके बच्चे उनकी सुध लेने जरुर आयेंगे! बहुत सारे एसे परिवार है जो नौकरी की तलाश में पहाड़ छोड़ने के बाद वापस नहीं आये, परन्तु उनके माँ बाप बुडापे के दंश झलते रहे! अपना हालात किसे बया करे - वैसे में कवि हूँ  नहीं पर कोशिश की है दर्द को कविता के रूप में व्यक्त करते की!

जैसे ही पंख क्या लगे इनको !
उड़ गये वो अपने मंजिल पाने को !!

छोड़ गये बदहाल में उनको!
जिन्होंने इनको उड़ना सिखाया था!

भूल गए ये पंक्षियाँ  वो डाली,
जहाँ कभी किया था इन्होने बसेरा!

बेसहारा छोड़ गये ये उनको!
जिन्होंने त्याग किया जीवन इनका बसाने में  !!

हालात किसे बया करे ये बुडापे  में !
कोई नहीं है  सुनने वाला !!

अब आयंगे तब आयंगे, बुडापे के ये सहारे
लगता है केवल यह झूठी आस है दिल में!!

अटल सत्य है इस प्रकृति का!
पंक्षी घोसला छोड़कर दुबारा वापस नहीं आता है!
 
एम् एस मेहता
मेरापहाड़ नेटवर्क





 

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Saroj Upreti पर्वतीय गाँव
 हिमाला के नीचे बसा मेरा गाँव कितना सुंदर ये  मेरा ये गाँव
 सुंदर  हैं  इसके पर्वत निराले उपर  हैं  बादल दल काले
 बादामी खुमानी से  पेड़ लदे हैं  हिसाऊ, किड्माले काले काले
 सूरज यहाँ पहले ही  आता  पहड़ों से अपनी शोभा दिखाता
 जंगल में पक्षी करते विश्राम कितना सुन्दर मेरा ये  गाँव
 पहाड़ों से झर झर झरने निकलते, कल कल ध्वनि घीमे से करते 
 खुमानी बादामी के स्वाद क्या कहने  बेडू भी पकते हें बारह महीने
 ऊँचे नीचे खेत खड़े हें पहाड़ी पर ही घर भी बने हें
 देवदारु के वृक्ष घने हें ये सब पर्वत के गहने हें
 उखल से उठी चावल  की खुशबू काफल, हिसालू, का वो स्वाद
 भांग की चटनी भट की दाल खाने को जी, ललचाता आज
 कैसे से भूलूं अपना गाँव  कितना सुन्दर ये  मेरा गाँव

 

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